Wednesday, February 20, 2019

दंगों में महिलाओं की स्थिति


वैसे तो हमारा पूरा समाज ही महिलाओं के लिए असुरक्षित है। लेकिन दंगे के दौरान स्थिति बदतर हो जाती है। साल दर साल साम्प्रदायिक दंगों में बढ़ोत्तरी होना हमारे सामाजिक तानेबाने को छिन्नभिन्न करता जा रहा है। दंगों का सबसे बुरा प्रभाव समाज के निचले तबके पर पड़ता है और उनमें भी महिलाओं को दंगों की दोहरी मार झेलनी पड़ती है। लगभग सभी धर्मों और समाजों में महिलाएँ निचले पायदान पर होती हैं। साम्प्रदायिक दंगों में बढ़चढ़ कर भाग लेने वाले मर्द अपनी कामकुण्ठा मिटाने के लिए महिलाओं को हिंसा और हवस का शिकार बनाते हंै। दंगों में दरिंदगी और हैवानियत चरम पर होती है। हिंसा का नंगा नाच चलता है जिसकी शिकार महिलाएँ होती हैं।
दंगों में कितनी ही महिलाओं को यौन हिंसा और गैंगरेप का शिकार बनाया जाता है। इन महिलाओं में से ज्यादातर महिलाएँ लोकलाज और डर से आपबीती किसी को नहीं बतातीं। कुछ ही महिलाएँ अपने साथ हुई हिंसा को बताती हैं और चाहती हैं कि दरिंदों को सजा हो। लेकिन जिस इंसाफ के लिए महिलाएँ अपनी जान जोखिम में डाल कर आगे आती हैं, क्या खुदगर्ज समाज, जालिम सरकार और नखदंत विहीन कानून उन्हें दे पाता है?
भारतपाकिस्तान के बँटवारे की रेखा लाखों लोगों की लहूलुहान देह से गुजरी थी। इस बँटवारे की सबसे बड़ी कीमत महिलाओं ने चुकायी। इस दौरान 75 हजार से एक लाख महिलाओं का अपहरण, हत्या और बलात्कार किया गया। धार्मिक और राजनीतिक बदले की भावना के चलते हिन्दूमुस्लिम एकदूसरे की महिलाओं का शिकार कर रहे थे।
2002 में गुजरात में हुए मुस्लित विरोधी साम्प्रदायिक हिंसा में पुरुषों ने प्रायोजित रूप से मुस्लिम महिलाओं के विरुद्ध यौन हिंसा की। यह सब तत्कालीन राज्य सरकार  की मौन सहमति में हुआ और इतनी जघन्य हिंसा को अंजाम दिया गया कि इनसानियत भी शर्मशार हो जाये। गर्भवती महिलाओं के पेट चीर कर गर्भस्थ शिशुओं को मार डाला गया। सामूहिक बलात्कार के बाद उन्हें जिन्दा जला दिया गया। एकदो मामलों को छोड़कर किसी में भी दोषियों को सजा नहीं हुई।
2013 में हुए मुजफ्फरनगर दंगों में बलात्कार, हिंसा और सामूहिक बलात्कार की कई घटनाएँ हुर्इं। लेकिन पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सामन्ती परिवेश के चलते इस पूरे दंगे में सिर्फ 7 महिलाओं ने ही बलात्कार की शिकायत दर्ज करायी। अधिकतर महिलाओं ने  कहीं शिकायत नहीं लिखायी। अखबार की खबरों के अनुसार जिन महिलाओं ने अपने साथ हुए दुराचार की शिकायत लिखायी थी, उनका कहना था कि दुराचार करने वाले उन्हीं के गाँव के पुरुष थे जो पाँच से आठ के समूह में हथियार ले कर आये थे। घटना के कई महीने बाद भी पुलिस ने शिकायत दर्ज नहीं की। बलात्कारियों द्वारा लगातार लड़की और लड़की के घरवालों को धमकियाँ मिलती रहीं और केस को वापस लेने का दबाव बनाया गया।
महिलाओं के खिलाफ हिंसा को साम्प्रदायिक घृणा के हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। देश में कुछ सालों से लगातार दंगे का माहौल बना हुआ है। 2014 से 2017 के बीच साम्प्रदायिक दंगों में 28 प्रतिशत की वृद्धि हुई थी। जबजब चुनाव नजदीक आता है, दंगों की संख्या बढ़ जाती है। चुनाव जीतने के हथकण्डे के रूप में पार्टियाँ हिन्दूमुस्लिम के बीच घृणा का प्रचार करती हैं। इससे देश में हर जगह दंगे का माहौल बनता जा रहा है और महिलाएँ हर जगह असुरक्षित होती जा रही हैं।
पुरुष सत्तावादी समाजों में महिलाओं को हमेशा सम्पत्ति माना जाता है और उन्हें परिवार की इज्जत समझा जाता है। इसके चलते ही एक समुदाय दूसरे समुदाय की महिलाओं के साथ यौन हिंसा और बर्बरता पर उतर आता है। इस दरिंदगी के जरिये दूसरे समुदाय पर विजय का दावा किया जाता है और गर्व का अनुभव किया जाता है।
देखा जाये तो संविधान में कुछ और बात लिखी है लेकिन व्यवहार में उसके ठीक खिलाफ काम होता है और वह भी संविधान के रक्षकों द्वारा ही। फिर दंगा पीड़ित महिलाओं को न्याय कहाँ से मिले? ऐसी स्थिति में क्या हमें परिस्थितियों के आगे घुटने टेक देने चाहिए? अगर हमंें दंगों को रोकना है तो इसके खिलाफ जनमत तैयार करना होगा और महिलाओं के रहने लायक न्यायपूर्ण समाज का निर्माण करना होगा।
––कोमल
(मुक्ति के स्वर अंक 21, मार्च 2019)

2 comments:

  1. ब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 01/03/2019 की बुलेटिन, " अपने अभिनंदन के अभिनंदन की प्रतीक्षा में देश “ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  2. बहुत अच्छा लिखा है।

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