Saturday, March 2, 2019

घरेलू काम करने वाली महिलाओं का राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में योगदान

आप क्या काम करती है? कुछ भी नहीं। मैं एक घरेलू औरत (हाउस वाइफ) हूँ। अकसर महिलाएँ अपने बारे में ऐसा परिचय देती हैं और ये बताते हुए खुद ही शर्म से अपनी गर्दन झुका लेती हैं। उनके बारे में उनके परिवार के सदस्यों की भी कुछ इसी तरह की प्रतिक्रिया होती है। जैसे ये कुछ नहीं करती, घर पर ही रहती है, टी वी देखती है! गप्पे लड़ाती है। बस।
क्या वास्तव में गृहणियों का काम कुछ नहीं होता? महिलाएँ जब घर से बाहर जाकर कोई काम कर रही होती हैं या घर में ही काम करती हों, दोनों मामलोें में महिलाओं को घर का सारा काम खुद करना पड़ता हैं। घर की देखभाल, साफसफाई, बच्चों की परवरिश तक। महिलाएँ नये जीवन को धरती पर लाती हैं। उसका पालनपोषण करती हैं। इस रूप में समाज के निर्माण में महिलाओं की मुख्य भूमिका होती है। इसके साथ ही परिवार के अन्य सदस्यों की देखभाल उनके स्वास्थ्य, पोषण और घर की देखभाल का काम भी महिलाओं को करना होता है। घरेलू महिलाएँ घर पर सिलाई, कढ़ाई, बुनाई या अलगअलग तरह की नमकीन, अचार, पापड़ बनाती हैं। इससे घर की आर्थिक स्थिति को बेहतर बनाने में ही योगदान देती हैं।
अगर महिलाएँ घर के किसी काम से एक दिन की भी छुट्टी ले लें तो अव्यवस्था फैल जाये। सोचने की बात है कि अगर इन सभी कामों के लिए महिलाओं को तनख्वाह दी जाये तो उनकी आमदनी कितनी होगी। घर के तमाम कामों के लिए जैसे–– घर की साफसफाई, कपड़ों की धुलाई, सिलाई, खाना बनाने, बच्चोंबुजुर्गों की देखभाल, घर को व्यवस्थित ढंग से चलाना, खरीददारी करना, त्योहारों और दावतों का प्रबन्ध करना, मेहमान नवाजी आदि के लिए अलगअलग भुगतान करना पड़े तो उनकी आमदनी कितनी होगी? यानी महिलाएँ घर में एक साथ धोबन, दर्जी, सफाई वाली, रसोइया, वेटर, आया और मैंनेजर जैसे न जाने कितने काम करती हैं। इन सभी का अलगअलग भुगतान करना क्या सम्भव है?
अगर इन्हीं कामों को घर से बाहर पेशेवर ढंग से कराया जाता तो यह किसी व्यक्ति, संस्था या देश की अर्थव्यवस्था में बहुत बड़ा योगदान करते। लेकिन इन्हीं कामों को महिलाएँ जब खुद अपने घरों में करती हैं तो इनके कामों का कोई मोल नहीं होता और उसे महत्त्व भी नहीं दिया जाता। बल्कि उलटे महिलाओं को ही घर पर बोझ की तरह माना जाता है। इन कामों के बदले महिलाओं को सम्मान और पैसा नहीं दिया जाता, उलटे उनके साथ अपमानजनक व्यवहार किया जाता है।
हाल ही में घरेलू महिलाओं के कामों के आर्थिक महत्त्व का मूल्यांकन किया गया। इससें पता चला कि दुनियाभर में ये महिलाएँ साल भर में कुल 10 हजार अरब डॉलर के बराबर का काम करती हैं जिसका उन्हें कोई भुगतान नहीं किया जाता। यह रकम दुनिया की सबसे बड़ी कम्पनी एप्पल की सालाना कमाई के 43 गुना के बराबर बैठती है।
महिलाएँ साल के बारह महीने और दिन में लगभग 14 से 16 घण्टों तक घरेलू काम करती रहती हैं। इन कामों को करते हुए उन्हें साल में एक भी छुट्टी नहीं मिलती, उलटे खुद बीमार होने पर भी वे रोजमर्रा के सभी घरेलू काम करने को मजबूर होती हंै। घरों का लगातार कभी न खत्म होने वाला काम, एक ही तरह का होता है। रोजरोज वही दिनचर्या इन कामों को और ज्यादा ऊबाऊ बना देती है। यह जरूरी नहीं है कि सभी महिलाओं को घर का काम करना अच्छा लगता हो। लेकिन दुनियाभर में यह विश्वास बहुत गहराई तक बैठा दिया गया है कि ये काम केवल महिलाओं का ही है। यही कारण है कि पुरुष इन कामों में अपनी भागीदारी नहीं निभाते और अगर उन्हें कभी थोड़ेबहुत काम करने भी पड़ते हैं तो वे इसे बहुत ही बेमन से करते हैं और इसे एक बोझ की तरह देखते हैं।
इतिहास में एक ऐसा समय भी था, जब महिलापुरुष के कामों में असमान बँटवारा नहीं था। लेकिन जैसेजैसे समाज विकास करता गया, महिलापुरुष के काम अलगअलग होते गये। घर के कामों को छोटा माना गया जिन्हें महिलाएँ करती हंै। पुरुषों के वैतनिक कामों को ही केवल परिवार चलाने के साधन के रूप में प्रचारित किया गया।
महिला और पुरुषों के कामों के बँटवारे से सबसे ज्यादा फायदा उद्योगपतियों को होता है। जब इनको अधिक श्रमशक्ति की आवश्यकता होती है तो वे इसे महिलाओं के श्रम से पूरा करते हैं। लेकिन पुरुषों के बराबर काम करने के बावजूद महिलाओं को कम दिया जाता है। भारत में पुरुषों की तुलना में महिलाओं का वेतन 34 प्रतिशत कम है। इस तरह महिलाओं के शोषण से उद्योगों की पूँजी बढ़ती जाती है।
यह प्रचारित किया जाता है कि बाजार महिलाओं को काम के अधिक अवसर देता है। महिलाओें की उद्योगों में माँग तब बढ़ गयी, जब इग्लैंड में औद्योगिक क्रान्ति के बाद अचानक बहुत ज्यादा मजदूरों की जरूरत पड़ गयी या द्वितीय विश्व युद्ध के बाद जब युद्ध में पुरुष सैनिक ज्यादा संख्या में मारे गये। इससे फैक्ट्रियों, खदानों, में काम करने वाले मजदूरों की कमी हो गयी थी। उस समय बहुत बड़ी संख्या में महिलाएँ घरों से बाहर काम करने निकल गयी थीं। लेकिन जैसे ही नयी तकनीक विकसित हुई फिर से महिलाओं को वापस घरों में भेज दिया गया और उनके काम को फिर से दोयम दर्जे का घोषित कर दिया गया।
भारत में घरेलू काम करने वाली महिलाओं को और भी नीची नजरों से देखा जाता है जबकि सभ्यता और संस्कार के नाम पर घरों के कामों को केवल महिलाओं की ही जिम्मेदारी बना दिया गया है। पुरुषों द्वारा इन्हें करना वर्जित ही है।
समाज को सुचारू रूप से चलाने के लिए उत्पादन एक बुनियादी शर्त है। उसमें भी दो प्रकार का उत्पादन जरूरी है। एक है माल और सेवाओं का उत्पादन जिनका उपभोग पूरा समाज करता है। दूसरा समाज का पुनरूत्पादन जिसके दो पहलू है–– पहला उस नयी पीढ़ी को जन्म देना और लालनपालन करना जो माल और सेवाओं के उत्पादन और वितरण को जारी रखने के लिए बेहद जरूरी है। दूसरा जो लोग माल और सेवाओं के उत्पादन और वितरण में लगे हुए हैं उनके इस काम के लायक बनाने के लिए उनकी घरेलू जिम्मेदारियों को पूरा करना जिसे घरेलू काम कहकर किनारे लगा दिया जाता है। पहले तरह के उत्पादन (माल और सेवा) में पुरुषों के साथसाथ महिलाएँ भी लगी हुई हैं। लेकिन दूसरे तरह के उत्पादन (समाज के पुनरूत्पादन) में तो सिर्फ महिलाएँ ही लगी हुई हैं।
फिर भी महिलाओं के काम को अगर महत्त्व नहीं दिया जाता तो यह उसके श्रम की लूट नहीं तो और क्या है। संस्कृति, सामाजिक मान्यताएँ, मातृत्व और नारी के कर्त्तव्य जैसे मोहक शब्दजाल से इस लूट को छिपाने की कोशिश की जाती है। पितृसत्ता और पुरुष वर्चस्व को कायम रखने के लिए सदियों से जारी इस फरेब के चलते आज महिलाओं की हाड़तोड़ मेहनत का कोई मोल तो छोड़िये, उसकी कोई कद्र, कोई पूछ, कोई शुक्राना भी नहीं। इस मायाजाल को इतना लुभावना और मोहक बना दिया गया है कि खुद महिलाएँ भी इसे तोड़ नहीं पातीं।

किसी ने ठीक ही कहा है कि जिस दिन महिलाओं के श्रम का हिसाब किया जायेगा, उस दिन दुनिया की सबसे बड़ी लूट का पर्दाफाश होगा।
–– दीप्ति
(मुक्ति के स्वर अंक 21, मार्च 2019)

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