पत्रकारिता
को लोकतंत्र का चैथा स्तम्भ माना जाता है। लेकिन आज हम देख रहे हैं कि पत्रकारिता
दो धड़ों में बँट चुकी है। एक तरफ वे पत्रकार हैं जो दिन–रात सरकार और पूँजीपतियों के हक में अन्धाधुन्ध प्रचार–प्रसार कर रहे हैं। उन्हें इस बात से कोई सरोकार नहीं है कि सरकार की
बनायी एक भी गलत नीति का समर्थन करने से आम जनता पर इसका क्या प्रभाव पड़ता है।
उन्हें सिर्फ अपना निजी स्वार्थ ही दिखता है। उन्हें सत्ताधारी पार्टी द्वारा तरह–तरह के पुरस्कारों से सम्मानित किया जाता है और विभिन्न पदों पर स्थापित
किया जाता है। साथ ही कुछ को तो अगले चुनाव में पार्टी विशेष द्वारा टिकट तक दिया
जाता है। वहीं दूसरी ओर वे पत्रकार हैं जो अपनी जान को जाखिम में डालकर जनता के हक
में लगातार सच को उजागर कर रहे हैं तथा सरकार की गलत नीतियों के खिलाफ लगातार लिख
रहे हैं और उन पर सवाल उठा रहे हैं।
आज
की डिजीटल दुनिया में टेलीविजन और समाचार पत्रों के अलावा बहुत तेजी से इन्टरनेट
और सोशल मीडिया को करोड़ों लोगों द्वारा इस्तेमाल किया जा रहा है। इसमें फेसबुक,
ट्वीटर और इंस्टाग्राम ज्यादा लोकप्रिय प्लेटफार्म हैं। सोशल मीडिया
आज अपने विचारों और खबरों को फैलाने का एक मजबूत साधन बन चुका है। ऐसे में इन
पत्रकारों को लगातार फेसबुक, ट्वीटर और इंस्टाग्राम जैसी
जगहों पर जान से मारने की धमकी, उनके परिवार के अन्य सदस्यों
को नुकसान पहुँचाने और महिला पत्रकारों को उनका बलात्कार करने की धमकी और उन्हें
वेश्या, बिकाऊ, पाकिस्तानी एजेंट,
आतंकवादी और न जाने किन–किन भद्दी बातों से
डराया और अपमानित किया जा रहा है। वैसे तो ईमानदारी से पत्रकारिता करने वाले समाज
के प्रगतिशील पुरुषों और महिलाओं दोनों को ही डर के साये में काम करना पड़ रहा है।
लेकिन खास तौर से महिला पत्रकारों को सिर्फ लैंगिक भेदभाव के चलते उनका मानसिक और
भावात्मक उत्पीड़न किया जा रहा है। उनकी निजी जिन्दगी के बारे में भद्दी टिप्पणियाँ
की जा रही हैं ताकि उनका आत्मविश्वास तोड़कर उन्हें भावात्मक रूप से कमजोर किया जा
सके। वैसे तो हमारे समाज में महिलाओं की आवाज को दबाना और उन्हें चुप करवाना
सदियों से चला आ रहा है। महिलाओं को शर्म और इज्जत के नाम पर हमेशा ही मुँह बन्द
रखने की सलाह दी जाती है और इन्हीं सब परम्पराओं को ढोते–ढोते
महिलाओं ने इस चुप्पी को ही अपनी नियति मान लिया है। लेकिन इन सब कुकृत्यों का
सामना करने के बावजूद कुछ दबंग, हिम्मती महिलाओं ने हमेशा ही
सच्चाई के पक्ष में मजबूती से खड़े होकर, इस पितृसत्तात्मक
समाज के चेहरे पर आगे बढ़कर तमाचा जड़ने का और इस जड़मति समाज को आगे बढ़ाने का काम
किया है। इन्हीं सब जद्दोजहद के बीच महिला पत्रकारों ने अपनी पत्रकारिता के दम पर
इस देश और दुनियाभर में अपने नाम को ऊँचा उठाया है।
लेकिन
आज इन्हें सच्चाई के पक्ष में खड़े होने और सबसे बड़ी बात महिला होने के चलते
ट्रोलर्स के द्वारा जो धमकियाँ दी जा रही हैं वे न तो इनका हौंसला तोड़ पाये हैं और
न ही शायद कभी तोड़ पायेंगे।
सोशल
मीडिया में जब लगातार किसी खास व्यक्ति को लक्ष्य (टारगेट) बनाकर उसका मनोबल तोड़ने
और उसे बदनाम करने के लिए उसके व्यक्तिगत जीवन पर टिप्पणियाँ की जाती हैं तो उसी
प्रक्रिया को ‘ट्रोलिंग’ कहा
जाता है।
ट्रोलिंग
करने वाले लोग कोई गली के गुण्डे बदमाश नहीं हैं बल्कि इस समाज के सम्मानित पदों
पर आसन्न लोग हैं, जिनमें डॉक्टर,
वकील, प्रोफेसर तक शामिल हैं। वे इस घटिया
हरकत को संगठित रूप से अंजाम देते हैं। इसके लिए बजाप्ता आईटी सेल बने हुए हैं।
महिलाओं
की बढ़ती ट्रोलिंग के खिलाफ बहुत से अखबारों और ऑनलाइन वेबसाइट ने इनसे पीड़ित महिला
पत्रकारों की आपबीती प्रकाशित की है जिसमें मुख्य हैं––
द क्वीन्ट, अलजजीरा, बीबीसी,
द वायर इत्यादि, जिनमें मुख्य धारा की कई जानी–मानी बड़ी पत्रकारों ने इन्टरव्यू दिये हैं, जैसे––
बरखा दत्त, अंग्रेजी के अखबार द हिन्दू की
पोलिटिकल एडिटर निशतुला हैबर, नमिता भंडारे ‘गुजरात फाइल्स’ किताब की लेखिका और पत्रकार राना
अय्यूब, नेहा दिक्षित, शिलौंग टाइम्स
की एडिटर पैट्रीसिया मुखिम, द टाइम्स ऑफ इंडिया की कंसटिंग एडिटर
सागरिका घोष, साइबर क्राइम की वकील देबारति हलदार और इन जैसी
बहुत सी अन्य महिलाएँ। इन सभी को लगातार भद्दी गालियाँ और बलात्कार करने की
धमकियाँ दी जाती रही हैं। इतना ही नहीं इनके फोन नम्बर, घर
के पते और किसी के तो बच्चों के स्कूल के पते तक इन्टरनेट में फैलाये जा रहे हैं।
इनके साथ इनके करीबियों तक को नुकसान पहुँचाने की बात खुले आम लिख दी जा रही है।
घर के सदस्यों की फोटो इन्टरनेट में फैला दी जाती है। बात सिर्फ धमकी तक ही सीमित
नहीं है। दक्षिण भारत की जानी–मानी पत्रकार गौरी लंकेश को भी
लगातार धमकियाँ दी जा रही थी और एक दिन उन्हीं के घर के बाहर कट्टरपंथियों ने
सितम्बर 2017 में गोली मारकर उनकी हत्या कर दी गयी।
राना
अय्यूब का चेहरा अश्लील वीडियो में एडिट कर के लगाया गया और वीडियो घर वालों को
भेजा गया। सोशल मीडिया में जो भी अभद्र टिप्पणियाँ महिलाओं पर की जा रही हैं,
उसका मुख्य कारण समाज में व्याप्त लैंगिक भेदभाव और महिलाओं के साथ
गैर बराबरी का व्यवहार है, जिसमें बलात्कार जैसी घटनाआंे को
महिलाओं के खिलाफ मुख्य हथियार के रूप में प्रयोग करने की कोशिश की जाती है।
बेशर्मी की बात यह कि इस काम में लिप्त लोग अपने को भारतीय संस्कृति के रक्षक
बताते हैं।
सोशल
मीडिया समाज का ही एक अंग है। जैसे हमारे समाज में महिलाओं को उनकी बात नहीं रखने
दी जाती है उसी तरीके से उनके विचारों को सोशल मीडिया में भी बर्दाश्त नहीं किया
जाता है। जब पुरुष प्रधान समाज और संस्कृति के ठेकेदार सोशल मीडिया में आते हैं तो
वे अपनी सदियों पुरानी गन्दी सोच वहाँ भी प्रदर्शित कर देते हैं।
इन
घटनाओं से ये पता चलता है कि महिलाओं के प्रति हमारे समाज का नजरिया आज भी कितना
घटिया है। उन्हें हर तरीके से नीचा दिखाने की कोशिश की जाती है। जब भी वे आजादी से
सोचने की कोशिश करती हैं। उन्हें ये बार–बार
बताया जाता है कि चारदीवारी से बाहर निकल कर समान अधिकार पाने की कोशश करोगी या
अपने विचारों को निर्भय होकर रखोगी तो तुम्हारा बलात्कार कर दिया जायेगा या जान से
मार दिया जायेगा।
हमारे
देश के बड़े–बडे़ नेता भी खुले आम महिला
पत्रकारों को बेइज्जत करने में कोई कसर नहीं छोड़ते हैं। एक भाजपा नेता ने तो महिला
पत्रकारों को यह तक कहा कि ये महिलाएँं दूसरों के बिस्तरों में सोकर ऊँची उड़ान भर
रही हंै न कि अपनी मेहनत से।
इन
सबके बावजूद एक सर्वे की रिपोर्ट से ये पता चला है कि एशियन देशों की 10 में से 3
पत्रकार महिलाएँं हैं और लगातार न्यूजरूम में इनकी संख्या बढ़ती ही जा रही है। वे
अपनी कड़ी मेहनत के चलते देश–समाज, भ्रष्टाचार, सरकार, पर्यावरण,
खेल जैसे तमाम मुद्दों पर डटकर लिख रही हैं और अपने प्रखर विचारों
को पाठकों तक लगातार पत्र–पत्रिकाओं व सोशल मीडिया के द्वारा
पहुँचाने का काम कर रही हंै।
ट्रोलिंग
या साइबर क्राइम से प्रभावित ज्यादातर महिलाएँं पुलिस के पास नहीं जाती हंै और जो
जाती भी हैं तो उन्हें सही तरीके से पुलिस मदद नहीं करती है बल्कि उलटा पत्रकारों
को अपने विचार ट्वीटर, फेसबुक पर न लिखने की सलाह दी जाती
है। आप महिला हो, आपके विचार लिखे जाने जरूरी नहीं हैं। जबकि
आईटी कानून की धारा 66–ए के तहत ऐसे गाली देने वालों पर
कानूनी कार्रवाई की जा सकती है। लेकिन पितृसत्ता और पुरुष वर्चस्ववादी मानसिकता
वाले लोग ही उन पदों पर आसीन हैं जिनकी जिम्मेदारी कानून का राज कायम करना है।
पत्रकारों को आज जरूरत है कि उनका एक मजबूत संगठन हो जिससे जब भी उनके साथ कुछ गलत
घटना हो तो सारे लोग मिलकर उसका विरोध कर सकें, ताकि वे अपने
विचार और समाज की सच्चाई खुलकर दिखा सकें और वे किसी खास विचारधारा का विरोधी होने
के चलते उस विचारधारा का झंडा उठाने वालों द्वारा पीड़ित न हों। इसके लिए ऐसे
जुझारू पत्रकारों का हमें हमेशा साथ देना चाहिए और उनकी चलायी किसी भी मुहिम में
हिस्सेदारी करनी चाहिए। साथ ही ऐसे दौर में हमें खुद भी घर–घर
में पत्रकार पैदा करने चाहिए, जनता के हक की बात करने वाली व
जनता तक सच्चाई पहुँचाने वाली पत्र–पत्रिकाओं में भागीदारी
करनी चाहिए और उसका प्रचार–प्रसार करना चाहिए। हमें विचारों
को प्रकट करने की अपनी आजादी को किसी भय या दबाव के आगे नहीं गँवाना चाहिए। हमारी
बहादुर पत्रकार बहने इस दिशा मंें हमारा हौसला बढ़ा रही हैं जो तमाम ओछी हरकत करने
वालों के गिरोहबन्द हमलों के आगे तन कर खड़ी हैं और सच्चाई को समाज के आगे ला रही
हैं।
–– स्वाति
(मुक्ति के स्वर अंक 21, मार्च 2019)
(मुक्ति के स्वर अंक 21, मार्च 2019)
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