Thursday, February 28, 2019

स्त्री लड़ाई नहीं चाहती

स्त्री लड़ाई नहीं चाहती,

इसलिए नहीं कि वो कायर है,

बल्कि इसलिए कि वो,

खत्म होती प्रजाति की तरह संरक्षित है,

स्त्री लड़ाई नहीं चाहती,

क्योंकि सारी गालियाँ,

दुनिया भर की भाषाएँ घूमने के बाद,

चुनती है उसी के जननांग।

क्योंकि वो जानती हैं,

बिसात की दाँव पर,

लगेगा उसका अस्तित्व,

उसका शरीर बनेगा,

अंततः योद्धाओं की विश्राम स्थली,

और खंडहर कर उसके जिस्म को,

मनाये जायेंगे दुश्मन के मान मर्दन के उत्सव।

बिकेगा वेश्यालय में अंततः

रोटी को उसका यौवन,

अपनी सृष्टि अपनी बनाई दुनिया से,

वही होगी वंचित ,

और उसकी कोख के हरामी बच्चे,

उम्र भर रहेंगे डर डर कर।

--शेली किरण

युद्ध में पाने का नाम खोना है

तुमने कभी युद्ध को देखा है? 

उस युद्ध को जो

एक युद्ध निरत योद्धा के 

दिल में चलता है!


सरहद में 

बंदूकों से चली 

हर एक गोली 

फाड़ कर निकलती है,

योद्धाओं के पत्नियों का सीना।


एक योद्धा हर बार

वापस घर लौटता है

ऐसे खुश हो जाता है

जैसे पहली बार अपनों को देख रहा हो

और

हर एक बार घर से सरहद को निकलता है,

तब अपनों को वैसे देखता है

जैसे आखरी बार उन्हें देख रहा हो।


जंग के माहौल में 

नन्हें मुन्ने बच्चे भी

हत्यारों से खेलते हैं!


जब जब एक बच्चा 

अपनी माँ से पूछता है,

'मेरा बाप कहाँ है?'

योद्धाओं की पत्नियाँ 

कैलेंडर दिखाती हैं 

या फिर आसमान का तारा।


युद्ध में 

पाने का नाम खोना है

और खोने का नाम पाना!

सोच लेना 

अशोक के भीतर 

असल में क्या था।


सरहद पर 

खड़ा योद्धा को

सामने और

पीठ पीछे 

दोनों तरफ़ दुशमन ही दुश्मन हैं।

और यह बात जिसने लिखी 

वह 'देशद्रोही' कहलाएगी। 

- मीरा मेघमाला

गोया की युद्ध विरोधी पेंटिंग, साभार

Wednesday, February 20, 2019

महिलाओं के अधिकार

जब देश आजाद हुआ और संविधान लागू हुआ तो प्रत्येक नागरिक को कुछ अधिकार प्राप्त हुए। आजादी की लम्बी लड़ाई लड़ी ही इसलिए गयी थी कि हर इनसान को अधिकार मिलंे ताकि उसकी मूलभूत आवश्यकताएँ पूरी हों। आजादी के बाद नागरिकों को कुछ संवैधानिक और कानूनी अधिकार हासिल हुए। इसमें कुछ प्रावधान विशेषकर महिलाओं के लिए ही बनाये गये। कानून में भी कई अधिनियम और संशोधन महिला संरक्षण को ध्यान में रखते हुए किये गये। परन्तु जागरूकता के अभाव के कारण ज्यादातर महिलाएँ अपने इन अधिकारों से आज भी वंचित हंै।
इन अधिकारों को हम दो श्रेणियों में वर्गीकृत कर सकते हैं–– संवैधानिक और कानूनी अधिकार। भारत के संविधान निर्माताओं का उद्देश्य भारत में एक लोककल्याणकारी राज्य की स्थापना करना था। इस दृष्टि से अधिकांश नीति निर्देशक तत्वों द्वारा आर्थिक सुरक्षा और आर्थिक न्याय के सम्बन्ध में व्यवस्था की गयी है तो वहीं मौलिक अधिकार राज्य के किसी भी नागरिक के विरुद्ध धर्म, जाति, लिंग आदि के आधार पर कोई विभेद नहीं करता, प्रत्येक नागरिक को अवसर की समानता देता है, मानव व्यापार पर प्रतिबंध लगाता है, प्रत्येक नागरिक को समान रूप से जीविका के साधन कमाने की आजादी देता है, प्रत्येक नागरिक को समान कार्य के लिए समान वेतन प्रदान करने का आदेश देता है। इनके अलावा संविधान में विशेषकर महिलाआंे के लिए पंचायत एवं नगर पालिका के अध्यक्ष और सदस्य के चुनावों में एक तिहाई आरक्षण का प्रावधान किया गया है।
केवल लिख देने मात्र से यह सुनिश्चित नहीं हो जाता कि हर नागरिक अपनी मूलभूत जरूरतें पूरी कर पा रहा है, जबकि वास्तविक तस्वीर से तो सब रूबरू हैं। समान कार्य के लिए समान वेतन किसे मिल रहा है, माना सरकारी नौकरियों में मिल भी रहा है, पर यह तो किसी से छिपा नहीं की सरकारी नौकरियों से कितनी आबादी का गुजारा चलता है। देश की अस्सी प्रतिशत आबादी निजी क्षेत्र या असंगठित क्षेत्र में काम करके अपना गुजरबसर कर रही है जहाँ कोई सेवा शर्त या श्रम कानून लागू नहीं होता। मानव व्यापार प्रतिबंधित है परन्तु धड़ल्ले से आज भी हो रहा है। संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत सहित दर्जनों एशियाई देशों से बच्चों की तस्करी कर यूरोप के कई हिस्सों में जिस्मफरोशी के काले कारोबार में धकेला जा रहा है। संयुक्त राष्ट्र की संस्था यूएन ऑफिस ऑन ड्रग्स एंड क्राइम (यूएनओडीसी) की ग्लोबल रिपोर्ट ऑन ट्रैफिकिंग इन पर्सन 2018 के मुताबिक मानव तस्करी अब भयानक रूप ले चुकी है। तस्करी के शिकार लोगों में तीस फीसदी बच्चे शामिल हैं और इनमंे लड़कियों की संख्या सबसे अधिक है। रही बात पंचायत और नगर पालिका में महिला आरक्षण की, तो प्रधानपतिप्रधानपुत्रसे सब परिचित हैं। महिला केवल नाम के लिए प्रधान है बाकी सारे निर्णय उसका पति या पुत्र लेता है। कानपुर देहात के रसूलाबाद ब्लाक की लाला भगत ग्राम पंचायत की महिला प्रधान राम देवी का कहना है कि, “हम ज्यादा पढ़ेलिखे नहीं हैं, प्रधानी के चुनाव में महिला सीट आरक्षित थी, बेटे की जिद के कारण चुनाव लड़ी और जीत भी गयी, मंै घर का काम देखूँ या प्रधानी करूँ।ऐसे ही कई और उदाहरण हैं।
सरकार का दायित्व है कि सुनिश्चित करे कि प्रत्येक नागरिक अपने अधिकारों को जाने और लाभ उठाये। पर हमारी सरकारें शायद ही इन मुद्दों को तवज्जों दें और ऐसी योजनाएँ तैयार करें जिससे हर नागरिक अपने अधिकार के बारे में जागरूक हो सके। अधिकार तो हैं पर वे प्राप्त हों और कोई भेदभाव न हो, इसके लिए जरूरी है कि हर संस्था, कार्यस्थल और हर जगह समिति गठित हो जिसका कार्य निरन्तर निगरानी रखना हो।
संवैधानिक अधिकार के अलावा नागरिकों को कानूनी अधिकार भी उपलब्ध हैं जिसमें कुछ विशेष प्रावधान केवल महिलाओं के संरक्षण के लिए बने हैं। जैसे–– कन्या भ्रूण हत्या के खिलाफ अधिकार–– पीसीएनडीटी अधिनियम1994, समान वेतन का अधिकार–– समान वेतन अधिनियम 1976, सम्पति का अधिकार–– हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम 1956, घरेलू हिंसा के खिलाक रोकथाम कानून–– घरेलू हिंसा अधिनियम 2005, कार्यस्थल में उत्पीड़न के खिलाफ अधिकार–– अधिनियम 2013, यौन उत्पीड़न के मामले में नाम सार्वजनिक न करने का अधिकार, मातृत्व सम्बन्धी अधिकार जिसे 2017 के संशोधन के बाद 12 सप्ताह से 26 सप्ताह कर दिया गया है। इन कानूनों के अलावा भी कुछ और अधिकार महिलाओं को प्राप्त हैं जिसे उन्हें जानना चाहिए जैसे सूरज डूबने के बाद और उगने से पहले गिरफ्तार न होने का, केवल किसी महिला सिपाही द्वारा ही गिरफ्तारी होने का, जीरो एफआईआर करवाने का–– इसमें महिला किसी भी पुलिस थाने में अपनी एफआईआर दर्ज करवा सकती है चाहे घटना का स्थान उस थाने के अन्तर्गत आता हो या न आता हो, पीछा करने के खिलाफ–– धारा 354डी आईपीसी, वर्चुअल (ऑनलाइन) शिकायत करने का–– ईमेल या पोस्ट द्वारा।
यह सब देख के लगता है जैसे महिलाओं को सभी अधिकार प्राप्त हो गये हैं और वे पूरी तरह सुरक्षित हैं, लेकिन सवाल अब भी वही है–– इतने अधिकारों के बावजूद महिलाओं की स्थिति इतनी निराशाजनक क्यों है। अगर इतने अधिकार हैं तो समाज में बराबरी क्यों नहीं है? जवाब फिर वही है कि इन्हें लागू करने में हमारी सरकारें विफल रही हंै। भ्रूण हत्या आज भी हो रही है और कानून इसे रोकने में विफल है। एक रिपोर्ट के मुताबिक इस मामले में देश की राजधानी में पिछले दो दशकों में एक भी अपराधी जेल नहीं गया। बहुत केसों में निचली अदालत ने अपराधियों को नाममात्र का शुल्क जमा करवाकर बरी कर दिया, जबकि ऐसे मामलों की अधिकतम सजा तीन साल कारावास और पचास हजार आर्थिक दंड है। अगर सम्पति की बात करें तो समाज में कौन लड़की अपने पिता की सम्पति में अधिकार माँगती और हासिल कर पाती है। रही बात पति द्वारा गुजारा भत्ते की तो आये दिन न्यायालय में ऐसे केस आते रहते हैं जहाँ पति भगोड़ा साबित होता है। महिलाएँ आज भी घरेलू हिंसा की शिकार हो रही हैं। ऐसे मामलों में कोई कमी नहीं आयी है। दहेज आज भी प्रचलन में है। कार्यस्थल में उत्पीड़न के खिलाफ जो महिला शिकायत करती है, उसके हिस्से केवल मानसिक यातना आती है, न्याय नहीं। ऐसे मामलों में अधिकांश रसूखदार लोग शामिल होते हैं और ज्यादातर मामलों में कामकाजी महिलाएँ शिकायत करने पर अपने काम से हाँथ धो बैठती हैं।
ऐसा नहीं है कि केवल लागू करने के धरातल पर ही गड़बड़ी है। कदमकदम पर पितृसत्तात्मक मूल्यमान्यताओं की जकड़बन्दी और मुनाफा केन्द्रित व्यवस्था भी समस्या के समाधान में बहुत बड़ी बाधा है। कानून को लागू करने की बात करें तो इसके लिए जितनी भी संस्थाएँ हैं, उसमंे पदों पर विराजमान लोग महिला विरोधी विचारों से बुरी तरह पीड़ित होते हैं। अगर उनके खिलाफ अगर संघर्ष नहीं किया जाये तो वे अधिकार भी कागज पर रह जायेंगे। संघर्ष से ही आज कई संस्थाओं में वीमेनसेलका गठन हुआ है जो ये निगरानी रखती है कि महिला के साथ कोई भेदभाव न हो। इस भेदभाव वाले समाज में जहाँ धनदौलत और पूँजी का वर्चस्व है, सरकारें पूँजीपतियों के हित के लिए काम करती हैं और न्याय भी पैसे का मुहताज है।
मीडिया सच नहीं दिखाता। ऐसे में स्त्रियों को खुद ही जागरूक होना पड़ेगा। केवल जागरूक होने से भी काम नहीं चलेेगा, यदि महिलाएँ संगठित न हों। संगठन का बहुत महत्त्व है। यही विकल्प है। अगर समाज की आधी आबादी इस उद्देश्य में साथ एक नहीं होगी तो तस्वीर नहीं बदलेगी। इसलिए न्याय पसन्द पुरुषस्त्री दोनों को साथ मिलकर बेहतर समाज के निर्माण के लिए संघर्ष करना होगा। मतलब बहनों हमंे संघर्ष करना पड़ेगा। डॉअम्बेडकर का यह नारा, “शिक्षित बनो, संगठित हो और संघर्ष करोहमारा प्रेरणा स्रोत बनेगा।
–– जूही
(मुक्ति के स्वर अंक 21, मार्च 2019)

क्यों करती हैं महिलाएँ आत्महत्या?

नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो के अनुसार भारत में हर साल 20,000 से ज्यादा घरेलू महिलाएँ आत्महत्या कर लेती हैं। यह आँकड़ा कितना बड़ा है, इसका अनुमान इस बात से लगा सकते हैं कि हर आधे घण्टे में एक महिला आत्महत्या कर लेती है। दहेज के कारण हत्या के मामले इसमें शामिल नहीं हैं। आत्महत्या करने वाली लगभग आधी महिलाएँ जहर खा लेती हैं जो बाजार में आसानी मिल जाता है। बाकी महिलाओं में ज्यादातर फाँसी लगाकर जान देती हंै। सवाल यह है कि महिलाएँ आत्महत्या क्यों करती हैं।

(पेंटिंग के लिए आभार-- जनसम्पर्क लाइफ डॉट कॉम )

सभी घरेलू महिलाओं की व्यथाकथा और दिनचर्या लगभग एकसी है। उन्हें हेय दृष्टि से देखा जाता है क्योंकि वे पैसे कमा कर नहीं लातीं, भले ही पूरा दिन घर के कामकाज और बच्चों के लालनपालन में लगा दें। साथही कोई काम नहीं करतीकहकर उन्हें अपमानित किया जाता है। काम से थकी और जमाने से पीड़ित जब वह अपने पति से प्यार और सम्मान की उम्मीद करती है तो वहाँ भी उसे चोट खानी पड़ती है। बच्चे भी अपना सारा गुस्सा अपनी माँ पर ही उतारते हैं। ऐसी स्थिति में वह अपने मायके से मदद की उम्मीद करती है। लेकिन वहाँ से भी उसे निराशा ही मिलती है। उसे सीख दी जाती है कि यही तुम्हारा भाग्य है।
अपमान, पीड़ा और थकान से पस्त वह कहती है–– “जहर खा लूँगी, मर जाऊँगी।लेकिन इन बातों का उसके पति पर कोई फर्क नहीं पड़ता। वह अपनी व्यथाकथा भी किसी से कह नहीं पाती कि दिल हल्का हो सके। और एक दिन वह दुखी मन से खुद को खत्म कर लेती है। यह ऐसी स्थिति होती है जब किसी व्यक्ति की जिन्दगी में उम्मीद खत्म हो जाती है और उसे अपना कोई भविष्य नजर नहीं आता। इसे ही अवसाद या डिप्रेशन कहते हंै जिससे समय रहते बाहर न निकाला जाये तो वह व्यक्ति आत्महत्या कर लेता है। आत्महत्या क्षणिक रोष, वादप्रतिवाद के कारण भी हो सकता है लेकिन उसकी जड़ में लम्बे समय से चला आ रहा अवसाद ही होता है।
पिछले साल अक्टूबर में द लैनसेट पब्लिक हेल्थमें छपी एक रिपोर्ट के अनुसार दुनियाभर में आत्महत्या करने वाली हर 5 महिलाओं में 2 महिलाएँ भारतीय होती हैं। यह बात सामान्य नहीं है क्योंकि विश्व की लगभग 18 प्रतिशत आबादी भारत में रहती है। दुनियाभर में आत्महत्या करने वाली महिलाओं में भारत की हिस्सेदारी उसकी जनसंख्या की तुलना में दोगुने से भी अधिक है। यह लगभग 37 प्रतिशत है। 1990 की तुलना में 2016 में आत्महत्या की दर 40 प्रतिशत बढ़ गयी है। भारत में सबसे ज्यादा तनावअवसाद और आत्महत्या के मामले दक्षिणी राज्यों और पश्चिम बंगाल में दर्ज किये गये हंै जो विकसित राज्य हैं।
ये आँकड़े दर्शाते हैं कि भारत में मरना या आत्महत्या सामान्य बात हो गयी है। इसकी पुष्टि हम रोजरोज आसपास की घटनाओं, समाचार पत्रों में आ रही दुर्घटनाओं, हत्याओं, आत्महत्याओं की खबरों से कर सकते हैं। इसका असर यह होता है कि किसी व्यक्ति के दिल में मरने का खौफ नहीं रह जाता है। छोटीछोटी बातों पर मरनेमारने की धमकियाँ आम बोलचाल की भाषा में आ गयी हैं। खास कर महिलाएँ अकसर ही मरने की धमकियाँ देती हुई सुनी जा सकती हैं। यह उनके साथ लगातार हो रहे दोहरे व्यवहार के चलते उपजी कुण्ठा और निराशा की देन है।
आत्महत्या करने वाली ज्यादातर महिलाओं की उम्र 2030 के बीच पायी गयी है जो शादी का पहला या दूसरा दशक होता है। कम उम्र में ब्याही लड़कियों के ऊपर घर का बोझ और बच्चों की जिम्मेदारी आ जाती है जिसके लिए वे शारीरिक और मानसिक रूप से तैयार नहीं होतीं। पर समाज के बनाये गये नियमकायदे के आगे उन्हें सब कुछ चुपचाप सहना पड़ता है जिससे वे धीरेधीरे अवसादग्रस्त हो जाती हैं।
विकास क्रम के साथसाथ लोगों के बीच अलगाव बढ़ा है, तकनीक के विस्तार के साथसाथ हाथों की जगह मशीनों के प्रयोग और बढ़ती आर्थिक असमानता के कारण रोजगार और काम के अवसर घटे हैं। ऐसे में महिलाओं के लिए नौकरी के अवसर और भी कम हो जाते हैं। इस तरह पढ़ीलिखी महिलाएँ भी अपने सपनोंआकांक्षाओं को मन में दबाये रहती हंै और अपनी छोटीबड़ी इच्छाओं के लिए अपने पति पर निर्भर हो जाती हैं। खुद को असहाय समझना और दबी इच्छाएँ कुण्ठा पैदा करती हंै। कई मामलों में यह कुण्ठा प्रेम विवाह न कर पाने और समाज के पुरानी सड़ीगली रीतिरिवाजों को ढोते रहने के कारण भी होती है।
जो देश इन सभी चीजों से ऊपर उठ चुके हैं और भारत के ही समान विकास स्तर पर हैं, वहाँ के मुकाबले भारत में आत्महत्या के मामले कहीं ज्यादा (लगभग 18 प्रतिशत) दर्ज किये गये। जबकि अमरीका और आस्ट्रेलिया जैसे विकसित देशों की तुलना में यह आँकड़ा इससे भी अधिक है, जहाँ आर्थिक असमानता और स्त्रीपुरुष असमानता सीमित दायरे में है, सामाजिक ढाँचा लोगों को अपने निजी फैसले लेने, प्रेम विवाह करने की स्वतंत्रता देता है। दक्षिणी राज्यों में केरल में अपेक्षाकृत कम आत्महत्या के मामले सामने आये हैं। केरल सबसे अधिक साक्षरता दर और महिला साक्षरता दर वाला राज्य है। यहाँ महिलाएँ अधिक आत्मनिर्भर और स्वतंत्र हैं और हर तरह के रोजगार में अपना पैर जमाये हुए हैं।
व्यक्ति की सामाजिक और आर्थिक स्थिति बहुत हद तक उसकी मानसिक स्थिति को प्रभावित करती है। महिलाएँ आज भी सामाजिक पिछड़ेपन और आर्थिक परनिर्भरता की शिकार हैं। फिर भी वे अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करती हैं, सवाल खड़े करती हैं। लेकिन एकता की कमी के कारण उनका यह व्यक्तिगत संघर्ष अलगथलग पड़ जाता है। अकेले में वे इस समस्या को समुचित रूप में नहीं समझ पातीं, इसकी तह में नहीं पहुँच पातीं। इस अन्तहीन लगने वाले संघर्ष में वे उम्मीद खो देती हैं। यह नाउम्मीदी उन्हंे अवसाद के गहरे दलदल में धकेल देती है। जबकि महिलाओं को आज यह समझाना बहुत जरूरी है कि जिन समस्याओं से वे आज गुजर रही हैं, ये उनके अकेले की नहीं हंै बल्कि इस व्यवस्था के भीतर तमाम महिलाओं की साझी समस्याएँ हंै और इसी तरह यह संघर्ष भी उनके अकेले का नहीं है और न ही आत्महत्या इसका समाधान है।
इतनी बड़ी संख्या में होने के बावजूद, एकदूसरे की पीड़ा और उद्देश्य समान होने के बावजूद आज महिलाएँ अलगथलग हैं, खुद को अकेला महसूस करती हैं। यह अकेलापन भी इसी व्यवस्था की देन है जो उन्हें जीवन जीने की बेहतर सुविधाएँ और परिस्थितियाँ मुहैया नहीं कराता, उन्हें उनके सामाजिकआर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होने से रोकता है, जिसमें सामाजिकसांस्कृतिक तौर पर उन्हंे अवहेलना का शिकार होना पड़ता है। इसलिए यह जरूरी है कि महिलाएँ एक दूसरे को जानेसमझंे और संगठित हों। क्योंकि संगठित होकर ही महिलाएँ इस सड़ीगली व्यवस्था से लोहा ले सकती हंै और इसकी जगह पर एक ऐसी व्यवस्था का निर्माण कर सकती हैं जिसमें उन्हें सामाजिकआर्थिकसांस्कृतिक समानता हासिल हो सके और जीवन की बुनियादी जरूरतों को सबके लिए मुहैया कराया जा सके।
––सिमरन
(मुक्ति के स्वर अंक 21, मार्च 2019)

घटता लिंग अनुपात


एक दिन मेरी एक पड़ोसन आयी और खुशी से बोली कि आज मेरी भैंस ब्याई है। मेरी सास ने पूछा कि क्या दिया है। उसने बताया कि कटिया। यह बात सुनकर लगा कि अगर जानवरों में लड़की आये तो बहुत अच्छा। वह वंश को आगे बढ़ायेगी और आर्थिक फायदा देगी। लेकिन अगर हम इनसान की बात करंे तो लड़की के जन्म पर मातम मनाया जाता है। माँओं को बेइज्जत किया जाता है। लड़की होने का मतलब है कि उसके पैदा होते ही उसके सारे खर्च की जिम्मेदारी पिता को ही उठानी पड़ेगी और पिता के मरने के बाद भाई को। उसे एक बोझ माना जाता है। क्या यह मुनाफे से संचालित सोच नहीं है? यहाँ हर रिश्ता नफानुकसान देखकर तय होता है। शायद इसी नफेनुकसान की इनसानियत विरोधी सोच के चलते बेटियों की संख्या लगातार घटती जा रही है।

लिंग का अनुपात का अर्थ होता है–– किसी क्षेत्र विशेष में स्त्री और पुरुष की संख्या का अनुपात। किसी भौगोलिक क्षेत्र में प्रति हजार पुरुषों के मुकाबले स्त्रियों की संख्या को इसका मानक माना जाता हैंं। एक अध्ययन में भारत में कम लिंग अनुपात वाले 244 जिलों का पता चला है। इन जिलों में लिंग अनुपात गिरकर राष्ट्रीय स्तर से भी नीचे चला गया है जो 918 हैं।

स्वास्थ्य, राज्य और प्रगातिशील भारतनाम की एक रिपोर्ट से पता चला है कि देश के इक्कीस बड़े राज्यों में से सत्रह में लिंग अनुपात में भारी गिरावट हुई है। रिपोर्ट के मुताबिक जन्म के समय लिंग अनुपात मामले में गुजरात की हालत सबसे खराब है, जहाँ यह अनुपात 907 से घटकर 854 रह गया है। कन्याभू्रण हत्या के लिए पहले से ही बदनाम हरियाणा पैतीस अंकांे की गिरावट के साथ दूसरे स्थान पर हैै और यह अनुपात लगातार घटता जा रहा है।
कन्याभू्रण हत्या को रोकने के लिए कई सरकारी योजनाएँ चलायी जा रही हंै। इनमें बेटी बचाओबेटी पढ़ाओ, लाडली योजना और सेल्फी विद डॉटर जैसे अभियान शामिल हंै। इन योजनाओं के कोई आशाजनक परिणाम नहीं आये हैं। लिंग अनुपात लगातार बिगड़ता जा रहा है।
आखिर लिंग अनुपात क्यों नहीं सुधर रहा है? क्या हमारे समाज की पितृसत्तात्मक मानसिकता में बदलाव नहीं आ रहा है? लिंग परीक्षण के खिलाफ देश में कड़े कानून हैं। इसके बावजूद लिंग परीक्षण के जरिये भ्रूण में ही बेटेबेटी की पहचान कर ली जाती है और बेटियों को मार दिया जाता है। पिछले कुछ वर्षों से प्रतिवर्ष देश में तीन लाख कन्याभ्रूण नष्ट कर दिये गये हैं। इससे महिलाओं की संख्या पुरुषों की तुलना में करीब पाँच करोड़ कम है। इसमें बदलाव लाने और लड़कियों की दशा सुधारने के लिए अभियान चलाये गये हैं। लेकिन इन सब के बावजूद लिंग अनुपात की स्थिति चिंताजनक है।
पूँजीवाद ने दुनियाभर में तकनीक के विकास को तेज किया। मुनाफे के लिए पूँजीपति फैक्ट्री लगाते हैं और नयीनयी तकनीक का विकास करते हैं। इससे समाज आगे बढ़ता है। चिकित्सा के क्षेत्र में नयी तकनीक और नयी दवाइयाँ आने से असाध्य रोगों का इलाज सम्भव हो पाया है। इससे लोगों की जिन्दगी बेहतर हुई है। लोगों की आयु लम्बी होती जा रही है। तकनीक के चलते श्रम आसान हो गया है। इससे जिन कामों को कठिन माना जाता था और जिन्हें महिलाओं के लिए दुष्कर माना जाता था, उन कामोें को महिलाएँ अब आसानी से कर लेती हैं। तकनीक ने महिलाओं की स्थिति को बेहतर बनाया है।
लेकिन तकनीक का एक नकारात्मक पहलू भी है। उन्नत तकनीक ने ही ऐसे आधुनिक साधन पैदा किये हैं जिनसे कन्या को भू्रण में ही मार दिया जाता है। आज यह समस्या नासूर बन गयी है। यह आज की सभ्यता के मुँह पर कालिख की तरह है। दरअसल भारतीय समाज सामन्ती सोच, यानी पितृसत्तात्मक मूल्यमान्यताओं से ग्रस्त है। हमारे देश में आज भी बेटेबेटी में फर्क करने की मानसिकता मौजूद है। यह माना जाता है कि वंश बेटे से ही चलता है और मातापिता की लाठी का एक मात्र सहारा बेटा ही होता है। जब तक ऐसी सोच को समाज से खत्म नहीं किया जाता, लिंग अनुपात में सुधार असम्भव है।
–– अनीता
(मुक्ति के स्वर अंक 21, मार्च 2019)


सोशल मीडिया में महिला पत्रकारों की बढ़ती ‘ट्रोलिंग’

पत्रकारिता को लोकतंत्र का चैथा स्तम्भ माना जाता है। लेकिन आज हम देख रहे हैं कि पत्रकारिता दो धड़ों में बँट चुकी है। एक तरफ वे पत्रकार हैं जो दिनरात सरकार और पूँजीपतियों के हक में अन्धाधुन्ध प्रचारप्रसार कर रहे हैं। उन्हें इस बात से कोई सरोकार नहीं है कि सरकार की बनायी एक भी गलत नीति का समर्थन करने से आम जनता पर इसका क्या प्रभाव पड़ता है। उन्हें सिर्फ अपना निजी स्वार्थ ही दिखता है। उन्हें सत्ताधारी पार्टी द्वारा तरहतरह के पुरस्कारों से सम्मानित किया जाता है और विभिन्न पदों पर स्थापित किया जाता है। साथ ही कुछ को तो अगले चुनाव में पार्टी विशेष द्वारा टिकट तक दिया जाता है। वहीं दूसरी ओर वे पत्रकार हैं जो अपनी जान को जाखिम में डालकर जनता के हक में लगातार सच को उजागर कर रहे हैं तथा सरकार की गलत नीतियों के खिलाफ लगातार लिख रहे हैं और उन पर सवाल उठा रहे हैं।
आज की डिजीटल दुनिया में टेलीविजन और समाचार पत्रों के अलावा बहुत तेजी से इन्टरनेट और सोशल मीडिया को करोड़ों लोगों द्वारा इस्तेमाल किया जा रहा है। इसमें फेसबुक, ट्वीटर और इंस्टाग्राम ज्यादा लोकप्रिय प्लेटफार्म हैं। सोशल मीडिया आज अपने विचारों और खबरों को फैलाने का एक मजबूत साधन बन चुका है। ऐसे में इन पत्रकारों को लगातार फेसबुक, ट्वीटर और इंस्टाग्राम जैसी जगहों पर जान से मारने की धमकी, उनके परिवार के अन्य सदस्यों को नुकसान पहुँचाने और महिला पत्रकारों को उनका बलात्कार करने की धमकी और उन्हें वेश्या, बिकाऊ, पाकिस्तानी एजेंट, आतंकवादी और न जाने किनकिन भद्दी बातों से डराया और अपमानित किया जा रहा है। वैसे तो ईमानदारी से पत्रकारिता करने वाले समाज के प्रगतिशील पुरुषों और महिलाओं दोनों को ही डर के साये में काम करना पड़ रहा है। लेकिन खास तौर से महिला पत्रकारों को सिर्फ लैंगिक भेदभाव के चलते उनका मानसिक और भावात्मक उत्पीड़न किया जा रहा है। उनकी निजी जिन्दगी के बारे में भद्दी टिप्पणियाँ की जा रही हैं ताकि उनका आत्मविश्वास तोड़कर उन्हें भावात्मक रूप से कमजोर किया जा सके। वैसे तो हमारे समाज में महिलाओं की आवाज को दबाना और उन्हें चुप करवाना सदियों से चला आ रहा है। महिलाओं को शर्म और इज्जत के नाम पर हमेशा ही मुँह बन्द रखने की सलाह दी जाती है और इन्हीं सब परम्पराओं को ढोतेढोते महिलाओं ने इस चुप्पी को ही अपनी नियति मान लिया है। लेकिन इन सब कुकृत्यों का सामना करने के बावजूद कुछ दबंग, हिम्मती महिलाओं ने हमेशा ही सच्चाई के पक्ष में मजबूती से खड़े होकर, इस पितृसत्तात्मक समाज के चेहरे पर आगे बढ़कर तमाचा जड़ने का और इस जड़मति समाज को आगे बढ़ाने का काम किया है। इन्हीं सब जद्दोजहद के बीच महिला पत्रकारों ने अपनी पत्रकारिता के दम पर इस देश और दुनियाभर में अपने नाम को ऊँचा उठाया है।
लेकिन आज इन्हें सच्चाई के पक्ष में खड़े होने और सबसे बड़ी बात महिला होने के चलते ट्रोलर्स के द्वारा जो धमकियाँ दी जा रही हैं वे न तो इनका हौंसला तोड़ पाये हैं और न ही शायद कभी तोड़ पायेंगे।
सोशल मीडिया में जब लगातार किसी खास व्यक्ति को लक्ष्य (टारगेट) बनाकर उसका मनोबल तोड़ने और उसे बदनाम करने के लिए उसके व्यक्तिगत जीवन पर टिप्पणियाँ की जाती हैं तो उसी प्रक्रिया को ट्रोलिंगकहा जाता है।
ट्रोलिंग करने वाले लोग कोई गली के गुण्डे बदमाश नहीं हैं बल्कि इस समाज के सम्मानित पदों पर आसन्न लोग हैं, जिनमें डॉक्टर, वकील, प्रोफेसर तक शामिल हैं। वे इस घटिया हरकत को संगठित रूप से अंजाम देते हैं। इसके लिए बजाप्ता आईटी सेल बने हुए हैं।
महिलाओं की बढ़ती ट्रोलिंग के खिलाफ बहुत से अखबारों और ऑनलाइन वेबसाइट ने इनसे पीड़ित महिला पत्रकारों की आपबीती प्रकाशित की है जिसमें मुख्य हैं–– द क्वीन्ट, अलजजीरा, बीबीसी, द वायर इत्यादि, जिनमें मुख्य धारा की कई जानीमानी बड़ी पत्रकारों ने इन्टरव्यू दिये हैं, जैसे–– बरखा दत्त, अंग्रेजी के अखबार द हिन्दू की पोलिटिकल एडिटर निशतुला हैबर, नमिता भंडारे गुजरात फाइल्सकिताब की लेखिका और पत्रकार राना अय्यूब, नेहा दिक्षित, शिलौंग टाइम्स की एडिटर पैट्रीसिया मुखिम, द टाइम्स ऑफ इंडिया की कंसटिंग एडिटर सागरिका घोष, साइबर क्राइम की वकील देबारति हलदार और इन जैसी बहुत सी अन्य महिलाएँ। इन सभी को लगातार भद्दी गालियाँ और बलात्कार करने की धमकियाँ दी जाती रही हैं। इतना ही नहीं इनके फोन नम्बर, घर के पते और किसी के तो बच्चों के स्कूल के पते तक इन्टरनेट में फैलाये जा रहे हैं। इनके साथ इनके करीबियों तक को नुकसान पहुँचाने की बात खुले आम लिख दी जा रही है। घर के सदस्यों की फोटो इन्टरनेट में फैला दी जाती है। बात सिर्फ धमकी तक ही सीमित नहीं है। दक्षिण भारत की जानीमानी पत्रकार गौरी लंकेश को भी लगातार धमकियाँ दी जा रही थी और एक दिन उन्हीं के घर के बाहर कट्टरपंथियों ने सितम्बर 2017 में गोली मारकर उनकी हत्या कर दी गयी।
राना अय्यूब का चेहरा अश्लील वीडियो में एडिट कर के लगाया गया और वीडियो घर वालों को भेजा गया। सोशल मीडिया में जो भी अभद्र टिप्पणियाँ महिलाओं पर की जा रही हैं, उसका मुख्य कारण समाज में व्याप्त लैंगिक भेदभाव और महिलाओं के साथ गैर बराबरी का व्यवहार है, जिसमें बलात्कार जैसी घटनाआंे को महिलाओं के खिलाफ मुख्य हथियार के रूप में प्रयोग करने की कोशिश की जाती है। बेशर्मी की बात यह कि इस काम में लिप्त लोग अपने को भारतीय संस्कृति के रक्षक बताते हैं।
सोशल मीडिया समाज का ही एक अंग है। जैसे हमारे समाज में महिलाओं को उनकी बात नहीं रखने दी जाती है उसी तरीके से उनके विचारों को सोशल मीडिया में भी बर्दाश्त नहीं किया जाता है। जब पुरुष प्रधान समाज और संस्कृति के ठेकेदार सोशल मीडिया में आते हैं तो वे अपनी सदियों पुरानी गन्दी सोच वहाँ भी प्रदर्शित कर देते हैं।
इन घटनाओं से ये पता चलता है कि महिलाओं के प्रति हमारे समाज का नजरिया आज भी कितना घटिया है। उन्हें हर तरीके से नीचा दिखाने की कोशिश की जाती है। जब भी वे आजादी से सोचने की कोशिश करती हैं। उन्हें ये बारबार बताया जाता है कि चारदीवारी से बाहर निकल कर समान अधिकार पाने की कोशश करोगी या अपने विचारों को निर्भय होकर रखोगी तो तुम्हारा बलात्कार कर दिया जायेगा या जान से मार दिया जायेगा।
हमारे देश के बड़ेबडे़ नेता भी खुले आम महिला पत्रकारों को बेइज्जत करने में कोई कसर नहीं छोड़ते हैं। एक भाजपा नेता ने तो महिला पत्रकारों को यह तक कहा कि ये महिलाएँं दूसरों के बिस्तरों में सोकर ऊँची उड़ान भर रही हंै न कि अपनी मेहनत से।
इन सबके बावजूद एक सर्वे की रिपोर्ट से ये पता चला है कि एशियन देशों की 10 में से 3 पत्रकार महिलाएँं हैं और लगातार न्यूजरूम में इनकी संख्या बढ़ती ही जा रही है। वे अपनी कड़ी मेहनत के चलते देशसमाज, भ्रष्टाचार, सरकार, पर्यावरण, खेल जैसे तमाम मुद्दों पर डटकर लिख रही हैं और अपने प्रखर विचारों को पाठकों तक लगातार पत्रपत्रिकाओं व सोशल मीडिया के द्वारा पहुँचाने का काम कर रही हंै।
ट्रोलिंग या साइबर क्राइम से प्रभावित ज्यादातर महिलाएँं पुलिस के पास नहीं जाती हंै और जो जाती भी हैं तो उन्हें सही तरीके से पुलिस मदद नहीं करती है बल्कि उलटा पत्रकारों को अपने विचार ट्वीटर, फेसबुक पर न लिखने की सलाह दी जाती है। आप महिला हो, आपके विचार लिखे जाने जरूरी नहीं हैं। जबकि आईटी कानून की धारा 66ए के तहत ऐसे गाली देने वालों पर कानूनी कार्रवाई की जा सकती है। लेकिन पितृसत्ता और पुरुष वर्चस्ववादी मानसिकता वाले लोग ही उन पदों पर आसीन हैं जिनकी जिम्मेदारी कानून का राज कायम करना है। पत्रकारों को आज जरूरत है कि उनका एक मजबूत संगठन हो जिससे जब भी उनके साथ कुछ गलत घटना हो तो सारे लोग मिलकर उसका विरोध कर सकें, ताकि वे अपने विचार और समाज की सच्चाई खुलकर दिखा सकें और वे किसी खास विचारधारा का विरोधी होने के चलते उस विचारधारा का झंडा उठाने वालों द्वारा पीड़ित न हों। इसके लिए ऐसे जुझारू पत्रकारों का हमें हमेशा साथ देना चाहिए और उनकी चलायी किसी भी मुहिम में हिस्सेदारी करनी चाहिए। साथ ही ऐसे दौर में हमें खुद भी घरघर में पत्रकार पैदा करने चाहिए, जनता के हक की बात करने वाली व जनता तक सच्चाई पहुँचाने वाली पत्रपत्रिकाओं में भागीदारी करनी चाहिए और उसका प्रचारप्रसार करना चाहिए। हमें विचारों को प्रकट करने की अपनी आजादी को किसी भय या दबाव के आगे नहीं गँवाना चाहिए। हमारी बहादुर पत्रकार बहने इस दिशा मंें हमारा हौसला बढ़ा रही हैं जो तमाम ओछी हरकत करने वालों के गिरोहबन्द हमलों के आगे तन कर खड़ी हैं और सच्चाई को समाज के आगे ला रही हैं। 
–– स्वाति
(मुक्ति के स्वर अंक 21, मार्च 2019)

सगे–सम्बन्धियों के बीच असुरिक्षत महिलाएँ


भारत में सगेसम्बन्धियों के बीच महिलाएँ कितनी सुरिक्षत हैं? यह सवाल अकसर उठाया जाता रहा है। इसे हम महाभारत की एक घटना से समझ सकते हैं। युधिष्ठिर ने अपनी पत्नी द्रोपदी को जुए के दाँव पर लगा दिया और उसे हार गये। यानी पहले भी महिलाओं को ऐसी वस्तु माना जाता था जिसे जुए के दाँव पर लगाया जा सकता था। लेकिन आज हालत ज्यादा भयावह हो गयी है। सगेसम्बन्धियों के बीच महिलाओं की हालत और खराब होती जा रही है। इस लेख के पहले हिस्से में हम अखबारों में आने वाली ऐसी घटनाओं को देखेंगे जो रिश्तों में बलात्कार की घिनौनी दास्तान बयान करती हैं। इसके बाद हम इस सवाल का जवाब ढूँढेंगे कि ऐसी घटनाएँ क्यों घट रही हैं? हमारी समाज व्यवस्था में वह कौन सी खामी है जिसके चलते महिलाएँ अपनों द्वारा छली जा रही हैं।

राजीव नगर में एक पिता ने दूसरी क्लास में पढ़ने वाली अपनी मासूम बेटी को हवस का शिकार बनाया। वह अपनी बेटी के साथ तीन साल तक बलात्कार करता रहा। बदनामी के डर से माँ बर्दास्त करती रही। जब वह अपनी हरकतों से बाज नहीं आया तो उसके खिलाफ रिपोर्ट दर्ज करायी गयी।
दूसरे मामले में एक लड़की के साथ नौ साल तक पिता और भाई बलात्कार करते रहे। लखनऊ के आलम बाग की रहने वाली पीड़िता बचपन में नानी के घर पलीबढ़ी। जब अपने घर आकर रहने लगी, उसी समय उसके बाप की तबीयत खराब हो गयी। डॉक्टर के बजाय तांत्रिक को बुलाया गया। तांत्रिक की घिनौनी हरकत देखिए! उसने कहा कि पिता के ऊपर बेटी का साया है। इससे बचने के लिए बाप को बेटी से शारीरिक सम्बन्ध बनाने होंगे। बाप ने बेटी के साथ बलात्कार किया। तांत्रिक की बातों के चलते माँ ने भी बाप का साथ दिया। इसके बाद तो यह रोजाना का काम हो गया। जिस दिन पीड़िता बाप के साथ सोने से मना करती, उसे माँबाप दोनों पीटते। पीड़िता का भाई जब घर आया तो पीड़िता ने उसे अपनी आपबीती सुनायी। साथ देने के बजाय भाई ने भी उससे बलात्कार किया बापबेटे ने उसके साथ 9 साल तक बलात्कार किया। इन नौ सालों में वह आठ बार गर्भवती हुई और हर बार उसका गर्भपात कराया गया।
तीसरे मामले में, मेरठ के दो सगे भाईयों ने 15 साल की बहन के साथ चार साल तक बलात्कार किया। विरोध करने पर माँ को जान से मारने की धमकी देते थे और बहन के साथ मारपीट करते थे। बाप दिल का मरीज था जिसकी पहले ही मृत्यु हो गयी थी। चैथे मामले में, दहेज की माँग पूरी नहीं होने पर एक गर्भवती महिला के साथ ससुर और नन्दोई ने बलात्कार किया। ससुराल वाले दहेज में 2 लाख रुपये की माँग कर रहे थे। जब पीड़िता ने यह घटना अपने पति को बतायी तो पति ने उसका साथ नहीं दिया और उससे तलाक ले लिया।
इस तरह हम देखते हैं कि ऐसी खबरों से रोज ही अखबार के पन्ने भरे रहते हैं। चाचा, ताऊ, भाई, बाप, ससुर, नन्दोई में से कोई भी रिश्ता पाकसाफ नहीं बचा। अब हम पतिपत्नी के सम्बन्धों की पड़ताल करेंगे। अमूमन हमारे समाज में पति द्वारा किये गये बलात्कार को बुरा नहीं माना जाता। फिर भी रोजरोज मन को परेशान करने वाली ढेरों घटनाएँ घट रही हैं। जैसे बेतूल, मध्य प्रदेश में एक युवक ने अपनी पत्नी के साथ सामूहिक बलात्कार किया। पति अकसर शराब के नशे में पत्नी के साथ मारपीट करता और ठीक से खाने को नहीं देता था। इससे तंग आकर पत्नी मायके चली गयी थी। जब पति चार दोस्तों के साथ मायके से पत्नी को ला रहा था, रास्ते में एक नदी के किनारे चार दोस्तों के साथ मिलकर उसने पत्नी से बलात्कार किया और उसे धमकाया कि अगर घटना का जिक्र किसी से किया तो उसे जान से मार देगा। जब महिला का भाई उससे मिलने आया, तब उसने बड़ी मुश्किल से अपनी आपबीती सुनायी।
अकसर पत्नियाँ अपनेअपने पतियों द्वारा किये गये बलात्कार के घाव को मन में ही दबाकर सह जाती हैं। वे किसी से शिकायत नहीं करती हैं। वे सोचती हैं कि जमाने में कौन उनकी सुनेगा जब पति ने ही साथ नहीं दिया? लेकिन कुछ पत्नियाँ साहस के साथ अपनी बात साझा करती हैं। उनमें से कुछ बताती हैं कि उनके पति उनके साथ बलात्कार करते हैं। पति के लिए वे एक खिलौने की तरह होती हैं, जिसे वे अलगअलग तरीके से इस्तेमाल करना चाहते हैं। कई मामलों में जब पतिपत्नी की लड़ाई होती है तो पति सेक्स के समय पत्नी को प्रताड़ित करता है। तबियत खराब होने पर अगर कभी पत्नी ने मना किया तो पति मारपीट शुरू कर देता है। कई बार चाहे कितना भी काम हो उसे थकावट के बावजूद हर रात पति के सामने पेश होना पड़ता है। थकान के बावजूद बेमन से किये गये सेक्स के चलते धीरेधीरे वे पति से नफरत करने लगती हैं।
परिवार के लोग अकसर कहते हैं कि बाहर की दुनिया लड़कियों के लिए सुरक्षित नहीं है और लड़कियों को घर से बाहर निकलने पर हजार बार सोचना चाहिए। वे यह भी कहते हैं कि लडकियाँ छोटे कपड़े पहनती हैं, इसीलिए उनका बलात्कार होता है। अगर ऐसा होता तो कोई पिता, भाई, पति या अन्य रिश्तेदार बलात्कारी न होता। लेकिन जब घर के मर्द ही ऐसे हों तो बाहर के मर्दों को हम क्या कहें? ज्यादातर महिलाएँ यह सब बर्दास्त करती रहती हैं और खुद मंे घुटती रहती हैं। बहुत कम महिलाएँ ऐसी होती हैं जो खुद से और अपनी बुरी दशा से संघर्ष कर पाती हैं, इसलिए वे अपने अकेले प्रयास से अपनी जिन्दगी का अलग रास्ता बना भी नहीं पाती।
यह सब होते हुए भी वैवाहिक बलात्कारभारत में कानून की नजर में अपराध नहीं है। इसे बलात्कार (रेप) भी नहीं माना जाता। भारत में अगर पत्नी अपने पति पर बलात्कार का आरोप लगाती है तो उसे घरेलू हिंसा के मामले में ही गिना जाता है। भारत में आज भी घरेलू हिंसा के खिलाफ सख्त कानूनों की कमी है। इसलिए बलात्कारी पति को बहुत कम सजा मिलती है। पत्नी के बलात्कार के खिलाफ भारत में कोई कानून ही नहीं है। देश में इतने बु़िद्वजीवी हैं, पढ़ेलिखे लोग हैं, कोर्ट कानून संविधान है, फिर भी न तो वैवाहिक बलात्कार के खिलाफ कोई कानून है और न ही इस मुद्दे को मीडिया में उठाया जाता है। यह सब अन्याय और शोषण शान्तिपूर्वक पर्दे के पीछे बदस्तूर जारी रहता है। जैसे सबकुछ बहुत अच्छा चल रहा हो और हमारा समाज यह पाखण्ड करने में सफल हो जाता है कि हमारी संस्कृति दुनिया मंे सबसे महान है।
दरअसल शासनप्रशासन, मीडिया, कोर्टकचहरी सब पुरुषांे के अधिकार में हैं। इनके अपने बुद्विजीवी हैं जो खुद भी पुरुष हैं और ये सभी उस पुरुषवादी मानसिकता से ग्रसित हैं जो घोर महिला विरोधी है। कुछ अपवादों को छोड़कर इनमें से सभी औरत को दोयम दर्जे का नागरिक मानते हैं या कई बार तो महिलाओं को न तो नागरिक मानते हैं और न ही इनसान मानते हैं। वे महिलाओं को वस्तु या माल समझते हैं जो उनकी जिन्दगी को खुशियों से भर दे। वे उनके बच्चों की परवरिश करने वाली दाई हैं, घर का कामकाज करने वाली नौकरानी हैं और उनकी यौन इच्छाओं को पूरा करने वाली सेक्स ऑबजेक्ट हैं। ऐसी घिनौनी मानसिकता के लोग क्या कभी ऐसे उपाय करेंगे जो महिलाओं को वैवाहिक बलात्कार से मुक्ति दिला सकेें।
अब सवाल यह है कि ऐसे बुरे हालात को कैसे बदला जाये? महिलाओं और बच्चियों को सम्मानजनक जिन्दगी किस तरह से हासिल हो सकती है? इसके लिए सबसे पहला कदम तो यह होगा कि महिलामहिला के बीच दोस्ती, प्यार और लगाव की जबरदस्त भावना पैदा करनी होगी। महिलाओं को समझाना होगा कि वह एकदूसरे की दुश्मन नहीं हैं, बल्कि उनका हित एक समान है। वे एक दूसरे के साथ अपना सुखदुख साझा करें और एक दूसरे से सहानुभूति रखें। उन्हें यह समझना होगा कि जो दुर्व्यवहार और उत्पीड़न आज किसी दूसरी महिला के साथ हो रहा है, कल उनके साथ भी हो सकता है। इस पुरुषवादी समाज में महिला होना ही सबसे बड़ा अपराध बना दिया गया है जिसकी सजा छोटेमोटे दुर्व्यवहार, बलात्कार से लेकर मौत तक हो सकती है। यह समाज महिलाओं के लिए नरक के समान है। यहाँ कोई भी महिला कुछ क्षणों के लिए खुश रह भी सकती है तो अपने आसपास के खतरनाक और घिनौने हालात को भुलाकर ही। लेकिन इन समस्याओं की तरफ से मुँह मोड़ कर या इन्हें भुलाकर इनका समाधान नहीं किया जा सकता।
महिलाओं को परिवार और समाज में सम्मान मिले, इसके लिए पुरुषों की महिला विरोधी सोच बदलनी होगी। ऐसी सभी मूल्यमान्यताओं को हमें खारिज करना होगा जो महिलाओं को पुरुषों की तुलना में छोटा समझती हांे। वैवाहिक बलात्कार और अन्य रिश्तों में बलात्कार को रोकने के लिए कानून बनाया जा सकता है। हालाँकि ऐसे कानूनों से बहुत थोड़ा ही फायदा होगा, क्योंकि अधिकांश मामलों में महिलाएँ चुप रह जाती हैं या परिवार समाज द्वारा चुप करा दी जाती हैं, ताकि बदनामी से बचा जा सके। लेकिन जब तक महिलाएँ मिलजुलकर इस समस्या को उठाती नहीं हैं, तब तक इस समस्या का समाधान होना नामुमकिन है। इसलिए उत्पीड़न की दूसरी घटनाओं की तरह ही रिश्तों में बलात्कार के मामले में भी महिलाओं को खुलकर आवाज उठानी चाहिए। हमें इस समस्या के बारे में आपस में बात करनी चाहिए और एक दूसरे की मदद करनी चाहिए। अगर महिलाएँ संगठित हों तो इसे एक ऐसे आन्दोलन का रूप भी दिया जा सकता है, जिसके जरिये इस समाज की घिनौनी सच्चाई को बेपर्दा किया जा सके। ऐसे आन्दोलनोें से सभी महिलाओं को जागरूक किया जा सकेगा।
––सुनीता शर्मा
(मुक्ति के स्वर अंक 21, मार्च 2019)

दंगों में महिलाओं की स्थिति


वैसे तो हमारा पूरा समाज ही महिलाओं के लिए असुरक्षित है। लेकिन दंगे के दौरान स्थिति बदतर हो जाती है। साल दर साल साम्प्रदायिक दंगों में बढ़ोत्तरी होना हमारे सामाजिक तानेबाने को छिन्नभिन्न करता जा रहा है। दंगों का सबसे बुरा प्रभाव समाज के निचले तबके पर पड़ता है और उनमें भी महिलाओं को दंगों की दोहरी मार झेलनी पड़ती है। लगभग सभी धर्मों और समाजों में महिलाएँ निचले पायदान पर होती हैं। साम्प्रदायिक दंगों में बढ़चढ़ कर भाग लेने वाले मर्द अपनी कामकुण्ठा मिटाने के लिए महिलाओं को हिंसा और हवस का शिकार बनाते हंै। दंगों में दरिंदगी और हैवानियत चरम पर होती है। हिंसा का नंगा नाच चलता है जिसकी शिकार महिलाएँ होती हैं।
दंगों में कितनी ही महिलाओं को यौन हिंसा और गैंगरेप का शिकार बनाया जाता है। इन महिलाओं में से ज्यादातर महिलाएँ लोकलाज और डर से आपबीती किसी को नहीं बतातीं। कुछ ही महिलाएँ अपने साथ हुई हिंसा को बताती हैं और चाहती हैं कि दरिंदों को सजा हो। लेकिन जिस इंसाफ के लिए महिलाएँ अपनी जान जोखिम में डाल कर आगे आती हैं, क्या खुदगर्ज समाज, जालिम सरकार और नखदंत विहीन कानून उन्हें दे पाता है?
भारतपाकिस्तान के बँटवारे की रेखा लाखों लोगों की लहूलुहान देह से गुजरी थी। इस बँटवारे की सबसे बड़ी कीमत महिलाओं ने चुकायी। इस दौरान 75 हजार से एक लाख महिलाओं का अपहरण, हत्या और बलात्कार किया गया। धार्मिक और राजनीतिक बदले की भावना के चलते हिन्दूमुस्लिम एकदूसरे की महिलाओं का शिकार कर रहे थे।
2002 में गुजरात में हुए मुस्लित विरोधी साम्प्रदायिक हिंसा में पुरुषों ने प्रायोजित रूप से मुस्लिम महिलाओं के विरुद्ध यौन हिंसा की। यह सब तत्कालीन राज्य सरकार  की मौन सहमति में हुआ और इतनी जघन्य हिंसा को अंजाम दिया गया कि इनसानियत भी शर्मशार हो जाये। गर्भवती महिलाओं के पेट चीर कर गर्भस्थ शिशुओं को मार डाला गया। सामूहिक बलात्कार के बाद उन्हें जिन्दा जला दिया गया। एकदो मामलों को छोड़कर किसी में भी दोषियों को सजा नहीं हुई।
2013 में हुए मुजफ्फरनगर दंगों में बलात्कार, हिंसा और सामूहिक बलात्कार की कई घटनाएँ हुर्इं। लेकिन पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सामन्ती परिवेश के चलते इस पूरे दंगे में सिर्फ 7 महिलाओं ने ही बलात्कार की शिकायत दर्ज करायी। अधिकतर महिलाओं ने  कहीं शिकायत नहीं लिखायी। अखबार की खबरों के अनुसार जिन महिलाओं ने अपने साथ हुए दुराचार की शिकायत लिखायी थी, उनका कहना था कि दुराचार करने वाले उन्हीं के गाँव के पुरुष थे जो पाँच से आठ के समूह में हथियार ले कर आये थे। घटना के कई महीने बाद भी पुलिस ने शिकायत दर्ज नहीं की। बलात्कारियों द्वारा लगातार लड़की और लड़की के घरवालों को धमकियाँ मिलती रहीं और केस को वापस लेने का दबाव बनाया गया।
महिलाओं के खिलाफ हिंसा को साम्प्रदायिक घृणा के हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। देश में कुछ सालों से लगातार दंगे का माहौल बना हुआ है। 2014 से 2017 के बीच साम्प्रदायिक दंगों में 28 प्रतिशत की वृद्धि हुई थी। जबजब चुनाव नजदीक आता है, दंगों की संख्या बढ़ जाती है। चुनाव जीतने के हथकण्डे के रूप में पार्टियाँ हिन्दूमुस्लिम के बीच घृणा का प्रचार करती हैं। इससे देश में हर जगह दंगे का माहौल बनता जा रहा है और महिलाएँ हर जगह असुरक्षित होती जा रही हैं।
पुरुष सत्तावादी समाजों में महिलाओं को हमेशा सम्पत्ति माना जाता है और उन्हें परिवार की इज्जत समझा जाता है। इसके चलते ही एक समुदाय दूसरे समुदाय की महिलाओं के साथ यौन हिंसा और बर्बरता पर उतर आता है। इस दरिंदगी के जरिये दूसरे समुदाय पर विजय का दावा किया जाता है और गर्व का अनुभव किया जाता है।
देखा जाये तो संविधान में कुछ और बात लिखी है लेकिन व्यवहार में उसके ठीक खिलाफ काम होता है और वह भी संविधान के रक्षकों द्वारा ही। फिर दंगा पीड़ित महिलाओं को न्याय कहाँ से मिले? ऐसी स्थिति में क्या हमें परिस्थितियों के आगे घुटने टेक देने चाहिए? अगर हमंें दंगों को रोकना है तो इसके खिलाफ जनमत तैयार करना होगा और महिलाओं के रहने लायक न्यायपूर्ण समाज का निर्माण करना होगा।
––कोमल
(मुक्ति के स्वर अंक 21, मार्च 2019)

क्यों मनाते हैं महिला दिवस?

1917 में सेंट पीटर्सबर्ग, रूस में अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस का प्रदर्शन
सारे विश्व में हर साल 8 मार्च को अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस मनाया जाता है। यह दिवस महिलाओं के सम्मान में जातिधर्म, भाषा और सभी तरह के भेदभाव से ऊपर उठकर सारा विश्व मनाता है।
इतिहास के अनुसार महिलाओं को समान अधिकार प्राप्त हो, इसके लिए सर्वप्रथम महिलाओं द्वारा ही इस मुहिम की शुरुआत हुई थी। फ्रांसीसी महिलाओं के एक समूह ने ब्रुसेल्स में इस दिन एक जूलुस निकाला। इस जूलुस का उद्देश्य युद्ध की वजह से महिलाओं पर बढ़ते हुए अत्याचार को रोकना था।
अमरीका में सोशलिस्ट पार्टी के द्वारा पहली बार महिला दिवस 1909 में मनाया गया। 1910 में सोशलिस्ट इंटरनेशनल के कोपेनहेगन सम्मेलन में अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस मनाने का प्रस्ताव पारित हुआ। उस समय महिला दिवस की स्थापना का प्रमुख उद्देश्य महिलाओं को वोट देने का अधिकार दिलाना था।
19 मार्च 1917 में रूस की महिलाओं ने महिला दिवस के दिन एक ऐतिहासिक हड़ताल की। अन्तरिम सरकार को घुटने टेकने पड़े और महिलाओं को वोट देने का अधिकार प्राप्त हुआ। उस समय रूस में जुलियन कैलेंडर चलता था। और बाकि दुनिया में गे्रगेरियन कैलेंडर चलता था जो पूरी दुनिया में स्वीकृत है। ग्रेगेरियन कैलेंडर के अनुसार उस दिन 8 मार्च था। आज पूरी दुनिया में 8 मार्च महिला दिवस के रूप में मनाया जाता है।
रूस की उस समय की राजधानी सेण्ट पीटर्सबर्ग में मजदूर संगठनों ने महिला दिवस के उपलक्ष्य में कई कार्यक्रमों की जोरदार तैयारियाँ की थी। जगहजगह सभाओं, मीटिगों, भाषणों का आयोजन किया गया था। पर्चे छपकर तैयार थे। इसके जरिये मजदूरों में राजनीतिक चेतना पैदा करने की कोशिश की जा रही थी।
1914 में शुरू हुए पहले महायुद्ध में रूस को भी धकेल दिया गया। राजा जार इस बहाने अपना साम्राज्य और अधिक बढ़ाने की कोशिश कर रहा था। रूस के जार की लालच की कीमत वहाँ की जनता को चुकानी पड़ रही थी और वह भीषण परिस्थितियों से गुजर रही थी। भारी संख्या में जनता की जान जा रही थी। उनकी सम्पत्ति नष्ट हो रही थी। गाँवगाँव और घरघर से पुरुषों को जबरदस्ती सेना में भर्ती किया जा रहा था। खेती के लिए इस्तेमाल किये जाने वाले घोड़ों को भी पकड़पकड़ कर युद्ध के मोर्चे पर भेजा जा रहा था। इन सैनिकों के पास न तो युद्ध का प्रशिक्षण था, न ही ढंग के हथियार। बिना तैयारी के उनको युद्ध में धकेला जा रहा था। खेती में काम करने वाले लोगों और पशुओं की संख्या एक दम घट गयी थी। इसी वजह से रूस में अनाज की भारी कमी होने लगी। यह कमी इतने बड़े पैमाने की थी जिसे कभी नहीं देखा गया था।
उजड़े हुए गाँवों से महिलाएँ और पुरुष शहरों की ओर भाग रहे थे। काम करने वाले पुरुषों को सेना में जबरन भर्ती किये जाने से परिवार की सारी जिम्मेदारी महिलाओं के कन्धों पर आ गयी थी। इस कारण महिलाएँ बड़े पैमाने पर कारखानों में मजदूरी करने लगी थीं।
अनाज की कमी के चलते, पेटभर खाना भी नसीब न था। उत्पादन भी उन्हीं चीजों का हो रहा था जिसकी युद्ध में जरूरत थी। इससे महिलाएँ सबसे ज्यादा पिस रही थीं। लोगों में गुस्सा अधिक बढ़ रहा था।
1905 में मजदूरोंकिसानों द्वारा बिना कोई तैयारी किये क्रान्ति की कोशिश को जार ने बुरी तरह से कुचल दिया था। 1917 में मजदूर संगठन वही गलती दोबारा दोहराना नहीं चाहते थे। इसलिए नेताओं ने तय किया कि उस दिन कोई जुलूस या बड़ी हड़ताल नहीं की जायेगी। लेकिन इतिहास की योजना कुछ और ही थी। युद्ध की विभीषिका को सबसे ज्यादा महिलाएँ झेल रही थीं। अनगिनत महिलाओं ने अपने प्रियतमों को युद्ध में खो दिया था। अब नन्हेंबच्चों की जिम्मेदारी भी उनके कन्धों पर ही आ गयी थी। उन्हें इन्तजार करना अब मंजूर नहीं था। 8 मार्च को महिला दिवस मनाने के लिए महिलाएँ इकट्ठा हुर्इं।
कपड़ा उद्योग में काम करने वाली महिलाओं ने तय कर लिया कि वे अब दमघोटू माहौल बदलकर ही दम लेंगी। सेंट पीटर्सबर्ग शहर के सारे उद्योग धड़ाधड बन्द होने लगे। उस दिन की हड़ताल में 90,000 स्त्रीपुरुष शामिल हुए। उन्होंने सिर्फ हड़ताल ही नहीं की बल्कि शहर की ओर जाने वाले रास्तों पर भी जुलूस निकाले। महिलाओं का बहुत बड़ा जुलूस नगरपालिका के सामने आ गया। महत्त्वपूर्ण स्थानों पर लोग इकट्ठा हो गये और नारे लगा रहे थे।
महिला दिवस के दिन महिलाओं द्वारा जलायी गयी यह चिंगारी आग बनकर फैल रही थी। अपना लक्ष्य पाये बिना जनउभार अब रुकने वाला नहीं था। जार और उसके अधिकारियों को भरोसा था कि वे 1905 की क्रान्ति की तरह इस बार भी क्रान्ति को कुचल देंगे। इसलिए जार ने आरक्षित सेना की टुकड़ियों को इस काम के लिए तैनात कर दिया था।
पुराना किस्सा दोहराने के लिए जनता तैयार न थी। आन्दोलन में बड़ी संख्या में शामिल महिलाएँ ये सब सहने के लिए हरगिज तैयार न थी। आन्दोलन को रोकने के लिए तैनात सैनिकों में महिलाओं के पति, भाई और बेटे थे। अपनी जान की परवाह किये बिना वे उन सैनिकों के सामने जाती और उन्हें समझातीं और कहतीं, “देखो। ये सब तुम्हारे अपने हैं। तुम किन पर गोलियाँ बरसाओगे? तुम भी इस लड़ाई में शामिल हो जाओ।ऐसे में अपनी माँबहनों की गुहार का उन पर असर क्यों न होता। देखते ही देखते सेंट पीटर्सबर्ग की सेना जनता की ओर से लड़ने लगी। मजदूर किसानजवान सभी ने मिलकर जार को पराजित कर दिया। क्रान्ति सफल हो गयी।
5 दिनों तक जारी इस संघर्ष के बाद जारशाही बर्खाश्त कर दी गयी। जिसके बाद वहाँ मेहनतकशों का राज कायम हुआ। 8 मार्च, महिला दिवस पर क्रान्ति की नींव रखने वाली रूसी महिलाओं को सलाम।
आज विश्व के लगभग सभी देशों में महिला दिवस मनाया जाता है।
भारत में महिला दिवस मनाने का मुख्य उद्देश्य अपने अधिकारों से अवगत होना, समानता का अधिकार हासिल करना और अपनी मुक्ति की दिशा में आगे बढ़ना है।
वह दिन अब दूर नहीं जब हमारे देश की महिलाएँ स्वावलम्बी और स्वाधीन महिलाएँ होंगी। समाज के महत्त्वपूर्ण फैसले में उनके नजरियों को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया जायेगा। सही मायनों में तभी महिला दिवस सार्थक होगा जब महिला अपने महिला होने पर गर्व महसूस करेंगी।
(मुक्ति के स्वर अंक 21, मार्च 2019)

मुक्ति के स्वर अंक 21, मार्च 2019

इस अंक में... 
  • सम्पादकीय : क्यों मनाते हैं महिला दिवस ?

  • पाठकों के पत्र
  • श्रद्धांजलि

              फहमीदा रियाज तुझे सलाम
             कृष्णा सोबती : निर्भीक आवाज का गुजरना
  • कामकाजी मध्यमवर्गीय महिलाएँ और बच्चों की परवरिश
  • घरेलू काम करने वाली महिलाओं का राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में योगदान
  • केरल डायरी के पन्ने से
  • पुस्तक परिचय: ‘एक बहुत लम्बा खत’
  • धर्म, लिंगभेद और समानता : (सबरीमाला के सन्दर्भ में)
  • महिला संघर्ष की मुखर आवाज ‘मी टू’ अभियान
  • कविता

      इनके बारे में सोचिए
      मेरे घर में एक आरामदेह बिस्तर है

  • महिला संरक्षण गृहों की हकीकत
  • दंगों में महिलाओं की स्थिति
  • धर्म के नाम पर महिलाओं का उत्पीड़न
  • भारतीय समाज में नारी
  • सगे–सम्बन्धियों के बीच असुरिक्षत महिलाएँ
  • महिला पत्रकारों की बढ़ती ‘ट्रोलिंग’
  • घटता लिंग अनुपात
  • क्यों करती हैं महिलाएँ आत्महत्या ?
  • महिलाओं के अधिकार

  • पाठक की कलम से

     आजादी की पहली उड़ान
     नयी जिन्दगी

  • नेमप्लेट
  • लैंगिक न्याय पर एनडीए की सोच