Saturday, January 16, 2021

देश की सबसे बड़ी अदालत के महामहिम के नाम एक महिला का पत्र

 
 
देश की सबसे बड़ी अदालत के महामहिम, ये आपने क्या कह दिया? आपने ये क्यों कहा?? किसने आपको यह अधिकार दिया महामहिम ? आप तो संविधान की रक्षा के, आप तो कानूनों की सहीक़ रोशनी में व्याख्या के लिए हैं। आपसे तो उम्मीद की जाती है कि आप दबे कुचले, सताए हुए, हाशिये के लोगों, की बात सुनेंगे, उनके बिना सुनाये ही उनकी पीड़ा समझ जायेंगे, उसे संज्ञान में लेंगे और उन के लिये बेहतर कानूनों की जमीन तैयार करेंगे।

महामहिम, आप से बेहतर कौन यह जानता है कि आलोचना, आन्दोलन और विरोध लोकतंत्र का एक महत्वपूर्ण अवयव है। वह तो लोकतंत्र की आत्मा है. उसी से लोकतंत्र लोकतंत्र बना रहता है. और जब किसी वर्गीय आन्दोलन में उस वर्ग की आधी आबादी यानि उस वर्ग की महिलाओं की भागेदारी भारी संख्या में हो रही हो तो मामला जरूर संगीन होगा, यह तो आप भी समझते होंगे. अब तक तो आप समझ ही गए होंगे कि मैं किस विषय पर बात कर रही हूँ।

आपने किसान आन्दोलन में शामिल महिला किसानों के बारे में कह दिया कि इन्हें आन्दोलन में नहीं शामिल होना चाहिए। इन्हें वहां से हटाया जाना चाहिए। आपने ऐसा कैसे कह दिया? महोदय, आपके इस सुझाव से मैं बेहद आहत और क्रुद्ध हूँ। आखिर  न्यायापालिका के संरक्षक ने भी यही मान लिया कि ये ‘सामान्य महिलाएं’ हैं जो अपने-अपने पतियों के साथ की अर्धांगिनी होने का फर्ज निभाने आई हैं। अधिकाँश लोग तो यह मानते ही हैं कि ‘महिलाएं किसान नहीं होतीं’। लेकिन अफ़सोस कि आपने भी ऐसा ही माना।

आपने तो पूरा जीवन संविधान की सेवा में बिताया है। इस लम्बे न्यायिक सफ़र में तमाम समुदायों की तकलीफों भरी, न्याय मांगती याचिकाएं आपकी नजरों के सामने से गुजरी होंगी। आप से तो उम्मीद की जाती है कि ‘थोड़ा कहा ज्यादा समझना’। आप तो यह जानते ही होंगे की खेती का 75 % काम महिलाएं करती हैं। अधिकांश के मन में उनके श्रम को पहचान नहीं दिए जाने का क्षोभ और गुस्सा होता है। भले ही सभी उसे व्यक्त न कर पाती हों। मैं यह सोचती थी कि संसद में बैठे लोग तो इस आकांक्षा को न तो समझ पाते हैं और न ही महसूस कर पाते हैं पर आप, एक लोकतांत्रिक संविधान, जिसकी आत्मा में समानता का मूल्य बसा है, उस संविधान के रक्षक हैं, आप कैसे इसे नहीं समझ पाए कि यहाँ आई महिलाएं सिर्फ पति का साथ निभाने नहीं आई हैं (और अगर आई भी हैं तो क्या? ये उनकी इच्छा और हक है) महोदय वे महिलाएं अपनी किसान होने की पहचान के नाते आई हैं, इस अहसास के साथ आई हैं कि वे किसान हैं। वे समझ रही हैं कि किसानी कितना तकलीफ देह पेशा हो गया है। देश के धान्य-कोठारों को भरने में उनका भी पसीना बहता है। उनमें से तमाम के घरों में किसानी पर छाये संकट के कारण मौतें हुई हैं। उनके भी प्रियजनों ने इन्हीं मुसीबतों के कारण आत्महत्याएं की हैं। उनकी आत्महत्याओं के बाद कर्जे की वसूली के लिये आये बैंकों के अमला का यही सामना करती हैं या कर रही हैं। अधिकाँश को तो पति की मौत के बाद मुआवजा भी नहीं मिलता क्योंकि  जमीन के कागजातों पर उनका नाम नहीं होता क्योंकि उन्हें किसान नहीं माना जाता। महामहिम, ये सारी बातें आपको तो पता ही होंगी। मेरा आपको बताना शोभा नहीं देता। आप बताइये कि क्या वे किसान नहीं हैं? 
महोदय, ये महिलाएं खेती के तौर तरीकों पर किसी कृषि विश्वविद्यालय में पढ़ा सकती हैं, कृषि  पर छाये संकट, उस संकट के आर्थिक-राजनीतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक-पर्यावरण और धार्मिक पहलुओं के रेशे-रेशे पर किसी मीडिया हाउस में घंटों चर्चा कर सकती हैं क्योंकि खेती ही उनका जीवन है, उसी से उनका वजूद है।

महोदय मैं तो सोचती थी कि लोकतंत्र के शीर्ष पर होने के कारण जीवन के हर क्षेत्र में महिलाओं की बढ़ती मौजूदगी और हिस्सेदारी आपको तसल्ली देती होगी, आश्वस्त करती होगी। इसीलिये किसान आन्दोलन में उनकी मौजूदगी और उनकी स्वायत्ता आपको भा रही होगी। उनकी गंभीरता और आत्मविश्वास से आप खुश हो रहे होगे। राजनीतिक रैलियों में ट्रक में भर कर आई महिलाओं और डेढ़ महीने से प्रदर्शन पर बठी इन किसान महिलाओं में आप अंतर कर पा रहे होगे। खबरें तो आप तक भी पहुँच ही होंगी। आप समझ ही गए होगे कि ये कुछ कहना चाहती हैं। ये खेती पर छाये संकट और अपनी पहचान के लिए भी आई हैं। आपको उन्हें सुनना चाहिए था महामहिम, यह उनका हक है। अपनी पहचान की उनकी लड़ाई का संज्ञान लेना चाहिए था, लेकिन अफ़सोस आपने तो उन्हें जाने के लिए कह दिया।

आप जानते ही हैं कि जिस संविधान के आप संरक्षक हैं उसे बनाने में दुर्गाबाई देशमुख, अम्मू स्वामीनाथन, बेगम एजाज़ रसूल, दाक्षायनी वेलायुधन जैसी 15 महिलाओं का भी सक्रिय योगदान रहा है। एक-एक आन्दोलन और संघर्ष से ही महिलाओं ने अधिकार हासिल किये हैं। अनेक कानूनी लडाईयां भी लड़ी हैं। किसान के रूप में उनकी पहचान को मान्यता सिर्फ उनकी ही जीत नहीं होगी बल्कि समस्त नारी समुदाय की जीत होगी और वह आगे बढेंगी।

क्षमा चाहती हूँ, पर मैं खुद को रोक नहीं पाई. महामहिम, आपने हम महिलाओं को बहुत निराश किया।   
 -आशु वर्मा 

Saturday, January 2, 2021

क्रान्ति ज्योती सावित्रीबाई फुले के जन्म दिवस पर



बहनो,
सावित्रीबाई फुले का जन्म 3 जनवरी 1831 में महाराष्ट्र के पुणे में हुआ था, उन्हें याद करते हुए हमारे दिमाग में यह सवाल उठना लाजमी है कि जो सपना उन्होंने महिलाओं के लिए लगभग डेढ़ सौ साल पहले देखा था वह आज भी पूरा हुआ या नहीं?
सावित्रीबाई फुले हमारे देश की पहली महिला शिक्षिका थीं। उन्होंने महिलाओं के पढ़ने-लिखने और आत्मनिर्भर बनने पर जोर दिया था। इसके लिए उन्होंने जगह-जगह महिला स्कूल खोलें। अपने जीवन काल में उन्होंने लगभग 18 स्कूल खोलें थे। इस काम के लिए उन्हें समाज के ऐसे लोगों से संघर्ष करना पड़ा जो बेहद पिछड़ी सोच रखते थे। ये लोग लड़कियों को पढ़ाना-लिखाना तो दूर, उनका घर से बाहर निकलना भी बंद कर देते थे। महिलाओं को शिक्षित करने के काम पर वे ताने कसते थे, ऐसे लोगों के तानों और हमलों से लड़ते हुए उन्होंने अपने सपने को आगे बढ़ाया। स्कूल जाते समय रास्ते में ये लोग उन पर कीचड़, गोबर और पत्थर फेंकते थे। वह थैली में दूसरी साड़ी लेकर चलती और स्कूल जाकर साफ साड़ी पहनकर पढ़ाया करती थी। वह कहती कि उन पर फेंके गए कीचड़, पत्थर उनके लिए फूल हैं जो उनकी हिम्मत और बढ़ा देते हैं। ऐसे हौसले वाली थी सावित्रीबाई।
सावित्रीबाई का सपना केवल लड़कियों को पढ़ाना-लिखाना भर नहीं था बल्कि ऐसा समाज बनाना था, जिसमें महिलाएँ अपनी गुलामी को पहचाने, अपने बन्धनों को तोड़कर समाज में अपनी पहचान बनायें। उनका मानना था कि पिछड़ेपन का कारण अज्ञानता है, इसलिए ज्ञान पाकर ही अपने को गुलामी के बंधन से मुक्त कर सकते हैं।
सावित्रीबाई अपने समय की एक महान समाज सुधारक थीं। उन्होंने विधवा आश्रम और शिशुपालन केन्द्र खोला, विधवा पुनर्विवाह आन्दोलन चलाया, जातीय बंधन तोड़ने के लिए अंतरजातीय विवाह पर जोर दिया, अस्पताल खुलवायें। सावित्रीबाई जीवन भर संघर्ष करती रहीं। अपना पूरा जीवन उन्होंने समाज की सेवा में लगा दिया। वह हमारे लिए पथ-प्रदर्शिका और हमारी आदर्श महिला हैं, जिन्होंने समाज में क्रान्ति की ज्योत जलायी।
लेकिन आज भी सावित्रीबाई फुले के सपने साकार नहीं हुए हैं। बाबासाहेब अम्बेडकर ने कहा था कि "मैं किसी भी समाज की प्रगति का अनुमान इस बात से लगाता हूँ कि उस समाज की महिलाओं की कितनी प्रगति हुई है।" इस हिसाब से आज भी हमारा समाज बहुत पिछड़ा है क्योंकि महिलाओं की हालत बहुत खराब है। महिलाओं की स्थिति दोयम दर्जे की बनी हुई है। लड़कियों को लड़कों के समान शिक्षा और उन्नति का अवसर प्राप्त नहीं मिलता। हमारे समाज में लड़के और लड़कियों के बीच गैर बराबरी मौजूद है। लड़कियों के साथ छेड़छाड़ और बलात्कार की घटनाएँ तेजी से बढ़ती जा रही हैं। सावित्रीबाई फुले का सपना था कि समाज में लड़कियाँ पढ़-लिख कर आत्मनिर्भर बने लेकिन आज भी लड़कियाँ शिक्षा पाने से कोसों दूर हैं। उनके द्वारा शुरू की गई मुहिम को आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी आज हमारे कंधों पर है।
साथियो, सावित्रीबाई फुले के जन्म दिवस पर विचार गोष्ठी आयोजित की जाए। जिससे लोग उनके विचारों को जानने-समझने, जन-जन तक पहुंचने और अपने जीवन में उतारने के लिए आगे आयें!