(मुक्ति के स्वर अंक 22)
Thursday, December 12, 2019
भारत में बढ़ती बलात्कार संस्कृति
(मुक्ति के स्वर अंक 22)
Thursday, December 5, 2019
मन्दी की मार झेलती महिलाएँ
Sunday, September 22, 2019
रॉक डाल्टन की कविता — बेहतर प्यार के लिए
Saturday, September 21, 2019
पढ़ती हुई लड़कियां
Thursday, September 12, 2019
मैं हैरान हूँ
Wednesday, September 11, 2019
दर्द और पूर्वाग्रह पुस्तक पर दो बातें
Sunday, September 1, 2019
स्त्री “तीन कविताये”
स्त्री “तीन कविताये”
Saturday, August 31, 2019
रोटी और गुलाब – जेम्स ओपनहाइम
जब हम मार्च करती हुई आती हैं,
मार्च करती हुई, दिन के सौन्दर्य में
दस लाख अँधेरी रसोइयाँ, हजार धूसर मिलें
उजाले से जगमगा जाती हैं,
मानो अचानक सूरज निकल आया हो
लोग हमें अपने लिए गाते सुनते हैं--
“रोटी और गुलाब! रोटी और गुलाब!”
जब हम मार्च करती हुई आती हैं,
मार्च करती हुई, हम पुरुषों के लिए भी लड़ती हैं
क्योंकि वे उन महिलाओं के बच्चे हैं
जिनका ऋण उतारना है
जन्म से मृत्यु तक
हमारा जीवन पसीने से तर होकर बर्बाद नहीं होगा
जिस्म की तरह दिल भी भूख से मर रहा है
हम रोटी चाहते हैं, और गुलाब भी
जब हम मार्च करती हुई आती हैं,
मार्च करती हुई, अनगिनत औरतें मर गयीं
रोटी के लिए उनकी उस चाह की खातिर
हम गाकर रोती हुई मार्च करती हैं
उनकी परिश्रमी आत्माएँ जानती थीं
छोटी-छोटी कला, प्रेम और सौंदर्य को
हाँ, रोटी ही है जिसके लिए हम लड़ती हैं
लेकिन हम गुलाब के लिए भी लड़ती हैं
जब हम मार्च करती हुई आती हैं,
मार्च करती हुई, हम महान दिनों को लाती हैं
महिलाओं का उठ खडा होना,
पूरी इंसानियत का अंगडाई लेना है
वैसी बेगारी और निकम्मापन अब और नहीं
जहाँ दस लोग खटते हैं और एक मजा लूटता है
जीवन की गरिमा वाले महान दिनों के लिए
रोटी और गुलाब! रोटी और गुलाब!
1911 में जेम्स ओपेनहाइम की यह कविता अमेरिकी पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। यह कविता महिला अधिकारों के लिए चलाए गये आन्दोलन की याद दिलाती है। 1912 में लॉरेंस टेक्सटाइल मिल की हड़ताल के दौरान, वेतन में कमी के विरोध में मिल की महिला कार्यकर्ताओं ने इस कविता को अपने बैनर पर अंकित कर दिया था, "हम रोटी चाहते हैं, और गुलाब भी"।
अनुवाद – विक्रम प्रताप
Monday, April 8, 2019
लड़कियां
मुझे नहीं सुहातीं तुम्हारी अच्छी और सीधी-साधी लडकियाँ.
वो जो केवल उन्हीं रास्तों पर चलती रहीं
जिन्हें तुमने तय किया था.
मुझे तो पसंद हैं वो लडकियाँ जिनके चलने से
बनती चली जाती हैं
सकरी और घुमावदार पगडंडियाँ.
जैसे शास्त्रीय अनुशासनों को तोड़कर कोई कलाकार
अपने कैनवास पर एक नए ढंग का चित्र उकेरता है.
वो जिनका बचपन मटमैले रंग का होता है
जिनकी फ्राक पर चारकोल के दाग लगे रहते हैं
और ठण्ड को ठूस-ठूस कर खुद में भरते भरते
जिनके गाल भी फट जाते हैं.
जिनके नाखून उटपटांग से बढ़ते हैं
वो नहीं कि पाइलर लेकर बैठी हो
नाखुनो को घिसते हुए
या नहा धुला कर गुलाबी फ्राक में
बिठा दी जाती हो अपनी गुलाबी गुडिया को सजाते हुए.
किसी गुड्डे के संग ब्याहने के लिए.
मुझे नहीं हैं पसंद ऐसी छुई मुई सी गुलाबी लडकियाँ.
वो लडकियाँ जिन्हें जामुनों के पकने का इंतज़ार
ज्यादा ज़रूरी लगता है
बजाए इसके कि खुद के पकने का इंतज़ार करें
पति, बॉयफ्रेंड, साधु या देवता के
स्वाद के लायक बनने के लिए.
वो लडकियाँ जो छोटे कपड़ों में नहीं तलाशती आजादी
न ही लम्बे और ढीले कपड़ों में बुनती हैं संस्कार
वो मुक्त होती हैं गुलाम नैतिकता से पैदा हुई बीमारियों
और बाज़ार द्वारा बताये शर्तिया इलाजो से
जो दोनों ही कपडे और शरीर में उलझाये रखते हैं.
वे नहीं मानती खुद को केवल शरीर
पर न ही शरीर को किसी किस्म की तकलीफ भी देती हैं
सुन्दर कहे जाने की गुलाम चेष्ठा में.
वो केवल इसलिए रुमाल पर फूल बनाना नहीं छोड़ देती
कि कढाई करना पुरानी सी फीलिंग लाता है.
वो लडकियाँ जिनका प्रेम बहती हुई नदी सा निर्मल होता है
और जो प्यास बुझाते और हरियाली लिखते चलती हैं.
जिनका प्रेम ठहरी और मलिन होती झील सा हो
नहीं तृप्त कर पाता मुझे.
वो लडकियाँ जिनका माँ हो पाना बच्चादानी तय नहीं करती
जो मातृत्व में डूबी रहती हैं.
वो जो खुद को बचा बचा कर नहीं बाटती
वो जो खुद को लुटा पाती हैं.
जो कुंआरी किरण सी पवित्र होती हैं
जो वासनाओं के अँधेरे को छूती हैं
और रौशन कर देती हैं.
ऐसी अनगढ़ी और खुद को खुद से
तराशने वाली लडकियाँ पसंद हैं मुझे.
- अक्षय अनुग्रह
Friday, March 29, 2019
स्त्रियाँ
गुजर जाती हैं अजनबी से जंगलों से
जानवरों के भरोसे
जिनका सत्य वे जानती हैं.
सड़क के किनारे तख्ती पे लिखा होता है
सावधान, आगे हाथियों से खतरा है
और वे पार कर चुकी होती हैं जंगल सारा.
फिर भी गुजर नहीं पातीं
स्याह रात में सड़कों और बस्तियों से
काँपती है रूह उनकी
कि
तख्तियाँ
उनके विश्वास की सड़क पर
लाल रंग से जड़ी जा चुकी हैं
कि
सावधान! यहाँ आदमियों से खतरा है.
--डॉ नूतन
Tuesday, March 26, 2019
एक मजदूर का साक्षात्कार
(अक्सर किसी कारखाने या दफ्तर में काम करने वाले वेतनभोगी मजदूर से बात करो तो वे यह कहते हैं कि उन्हें काम देकर उनका मालिक उन पर कृपा करता है ,क्योंकि अगर उन्हें काम न मिले तो उनका जीना मुश्किल हो जायेगा. समाज में सदियों से फैलायी गयी सोच और आजकल मीडिया के ज़रिये लगातार मालिकों कि भूमिका को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किये जाने का ही नतीजा है कि मेहनतकश लोग अपने शोषकों को ही अपना कृपानिधान मान लेते हैं. सवाल यह है कि मालिक मजदूरों की परवरिश करता है या मजदूर मालिकों को करोड़पति-अरबपति बनाते हैं ? इस सच्चाई को समझने में पौल लफार्ग द्वारा 1903 में लिखा यह वार्तालाप काफी मददगार है. इस वार्तालाप में शारीरिक श्रम और सीधे उत्पादन में लगे मजदूरों का उदाहरण दिया गया है, लेकिन यह बात मानसिक श्रम करने वाले सेवाक्षेत्र के कर्मचारियों के मामले में भी लागू होती है.)
मज़दूर- यदि कोई मालिक नहीं होता, तो मुझे काम कौन देता?
प्रचारक- यह एक सवाल है जो अक्सर लोग हमसे पूछते हैं. इसे हमें अच्छी तरह समझना चाहिए. काम करने के लिये तीन चीजों की ज़रुरत होती है- कारखाना, मशीन और कच्चा माल.
मजदूर- सही है.
प्रचारक – कारखाना कौन बनाता है?
मजदूर- राजमिस्त्री.
प्रचारक- मशीने कौन बनाता है?
मजदूर- इंजीनियर.
प्रचारक- तुम जो कपड़ा बुनते हो, उसके लिये कपास कौन उगाता है? तुम्हारी पत्नी जिस ऊन को कातती है, उसे कौन पैदा करता है? तुम्हारा बेटा जो खनिज गलाता है उसे ज़मीन से खोद कर कौन निकालता है?
मजदूर- किसान, गडरिया, खदान मजदूर. वैसे ही मजदूर जैसा मैं हूँ.
प्रचारक- हाँ, तभी तो तुम, तुम्हारी पत्नी और तुम्हारा बेटा काम कर पाते हैं? क्योंकि अलग-अलग तरह के मजदूर तुम्हे पहले से ही इमारतें, मशीनें और कच्चा माल तैयार कर के दे रहे हैं.
मजदूर- बिलकुल, मैं सूती कपड़ा बिना कपास और करघे के नहीं बुन सकता हूँ.
प्रचारक- हाँ, और इससे पता चलता है कि तुम्हें कोई पूँजीपति या मालिक काम नहीं देता है, बल्कि यह किसी राजमिस्त्री, इंजीनियर और किसान की देन है.क्या तुम जानते हो कि तुम्हारा मालिक कैसे उन चीजों का इन्तजाम करता है जो तुम्हारे काम के लिये ज़रूरी हैं?
मजदूर- वह इन्हें खरीदता है.
प्रचारक- उसे पैसे कौन देता है?
मजदूर- मुझे क्या पता. शायद उसके पिता ने उसके लिये थोड़ा बहुत धन छोड़ा होगा और आज वह करोड़पति बन गया है.
प्रचारक- क्या उसने यह पैसा मशीनों में काम करके और कपड़ा बुन के कमाया है?
मजदूर- ऐसा तो नहीं है, ज़ब हमने काम किया, तभी उसने करोड़ों कमाया.
प्रचारक- तब तो वह ऐसे ही बिना कुछ किये अमीर बन गया है. यही उसकी किस्मत चमकाने का एकमात्र रास्ता है- जो लोग काम करते हैं उन्हें तो केवल जिन्दा रहने भर के लिये मजदूरी मिलती है. लेकिन मुझे बताओ कि यदि तुम और तुम्हारे मजदूर साथी काम नहीं करें, तो क्या तुम्हारे मालिक की मशीनों में जंग नहीं लग ज़ायेगा और उनके कपास को कीड़े नहीं खा जायेंगे?
मजदूर- इसका मतलब यदि हम काम न करें, तो कारखाने का हर सामान बर्बाद और तबाह हो जायेगा.
प्रचारक- इसीलिये तुम काम करके मशीनों और कच्चे माल को बचा रहे हो जो कि तुम्हारे काम करने के लिये ज़रूरी है.
मजदूर- यह बिल्कुल सही है, मैंने पहले कभी इस तरह नहीं सोचा.
प्रचारक- क्या तुम्हारा मालिक यह देखभाल करने आता है कि उसका कारोबार कैसा चल रहा है?
मजदूर- बहुत ज्यादा नहीं, वह हर दिन एक चक्कर लगता है, हमारे काम को देखने के लिये. लेकिन अपने हाथों को गंदा होने के डर से वह उन्हें अपनी जेब में ही डाले रहता है. एक सूत कातने वाली मिल में, ज़हाँ मेरी पत्नी और बेटी काम करती हैं, उन्होंने अपने मालिक को कभी नहीं देखा है, ज़बकि वहाँ चार मालिक हैं. ढलाई कारखाने में भी कोई मालिक नहीं दिखता है ज़हाँ मेरा बेटा काम करता है. वहाँ के मालिक को तो न किसी ने देखा है और न ही कोई जानता है. यहाँ तक कि उसकी परछाई को भी किसी ने नहीं देखा है. वह एक लिमिटेड कम्पनी है जिसका अपना काम है. मान लो कि मेरे और तुम्हारे पास 500 फ्रांक कि बचत होती है, तो हम एक शेयर खरीद सकते हैं और हम भी उनमें से एक मालिक बन सकते हैं बिना उस कारखाने में पैर रखे.
प्रचारक- तो फिर उस ज़गह पर काम कौन देखता है और कामकाज का संचालन कौन करता है, ज़हाँ से ये शेयर धारक मालिकाने का सम्बंध रखते हैं? तुम्हारी खुद कि कंपनी का मालिक भी ज़हाँ तुम काम करते हो वहाँ कभी दिखायी नहीं देता और कभी-कभार आ भी जाए तो वह गिनती में नहीं आता है.
मजदूर- प्रबंधक और फोरमैन.
प्रचारक- लेकिन जिन्होंने कारखाना बनाया, मशीनें बनायीं व कच्चे माल को तैयार किया, वे भी मजदूर ही हैं. जो मशीनों को चलाते हैं वे भी मजदूर हैं. प्रबंधक और फोरमैन इस काम कि देख रेख करते हैं, तब मालिक क्या करते हैं?
मजदूर- कुछ नहीं करते व्यर्थ समय गँवाते हैं.
रचारक- अगर यहाँ से चाँद के लिये कोई रेलगाड़ी होती, तो हम वहाँ सारे मालिकों को बिना वापसी की टिकट दिये भेज देते और फिर भी तुम्हारी बुनाई तुम्हारी पत्नी कि कताई और तुम्हारे बेटे कि ढलाई का काम पहले जैसा ही चलता रहता. क्या तुम जानते हो कि पिछले साल तुम्हारे मालिक ने कितना मुनाफा कमाया था?
मजदूर- हमने हिसाब लगाया था कि उसने कम से कम एक लाख फ्रांक कमाये थे.
प्रचारक- कितने मजदूर उसके यहाँ काम करते हैं- औरत, मर्द और बच्चों को मिलाकर?
मजदूर- एक सौ.
प्रचारक- वे कितनी मजदूरी पाते हैं?
मजदूर– प्रबंधक और फोरमैन के वेतन मिलाकर औसतन लगभग एक लाख फ्रांक सालाना.
प्रचारक- यानी की सौ मजदूर सारे मिलकर एक लाख फ्रांक वेतन पाते हैं, जो सिर्फ उन्हें भूख से न मरने के लिये ही काफी होता है. ज़बकि तुम्हारे मालिक की जेब में एक लाख फ्रांक चले जाते हैं और वह भी बिना कुछ काम किये. वे एक लाख फ्रांक कहाँ से आते हैं?
मजदूर- आसमान से तो नहीं आते हैं. मैंने कभी फ्रांक की बारिश होते तो देखी नहीं है.
प्रचारक- यह मजदूर ही हैं जो उसकी कंपनी में एक लाख फ्रांक का उत्पादन करते हैं जिसे वे अपने वेतन के रूप में लेते हैं और मालिक जो एक लाख फ्रांक का मुनाफा पाते हैं जिसमें से कुछ फ्रांक वे नयी मशीने खरीदने में लगाता है वह भी मजदूरों की ही कमाई है.
मजदूर- इसे नाकारा नहीं ज़ा सकता.
प्रचारक- तब तो यह तय है कि मजदूर ही उस पैसे का उत्पादन करता है, जिसे मालिक नयी मशीनें खरीदने में लगाता है. तुमसे काम करवाने वाले प्रबंधक और फोरमेंन भी तुम्हारी ही तरह वेतनभोगी गुलाम हैं जो इस उत्पादन कि देख-रेख करते हैं. तब मालिक कि क्या ज़रूरत है? वह किस काम का है?
मजदूर- मजदूरों का शोषण करने के लिये.
प्रचारक- ऐसा कहो कि मजदूरों को लूटने के लिये, यह कहीं ज्यादा साफ़ और ज्यादा सटीक है.
इंग्लिश से अनुवाद - Swati Sarita Shashi Rusee
Tuesday, March 5, 2019
भागी हुई लड़कियां
घर की जंजीरें
कितना ज्यादा दिखाई पड़ती हैं
जब घर से कोई लड़की भागती है
क्या उस रात की याद आ रही है
जो पुरानी फिल्मों में बार-बार आती थी
जब भी कोई लड़की घर से भगती थी?
बारिश से घिरे वे पत्थर के लैम्पपोस्ट
महज आंखों की बेचैनी दिखाने भर उनकी रोशनी?
और वे तमाम गाने रजतपरदों पर दीवानगी के
आज अपने ही घर में सच निकले!
क्या तुम यह सोचते थे
कि वे गाने महज अभिनेता-अभिनेत्रियों के लिए
रचे गए?
और वह खतरनाक अभिनय
लैला के ध्वंस का
जो मंच से अटूट उठता हुआ
दर्शकों की निजी जिन्दगियों में फैल जाता था?
दो
तुम तो पढ कर सुनाओगे नहीं
कभी वह खत
जिसे भागने से पहले
वह अपनी मेज पर रख गई
तुम तो छुपाओगे पूरे जमाने से
उसका संवाद
चुराओगे उसका शीशा उसका पारा
उसका आबनूस
उसकी सात पालों वाली नाव
लेकिन कैसे चुराओगे
एक भागी हुई लड़की की उम्र
जो अभी काफी बची हो सकती है
उसके दुपट्टे के झुटपुटे में?
उसकी बची-खुची चीजों को
जला डालोगे?
उसकी अनुपस्थिति को भी जला डालोगे?
जो गूंज रही है उसकी उपस्थिति से
बहुत अधिक
सन्तूर की तरह
केश में
तीन
उसे मिटाओगे
एक भागी हुई लड़की को मिटाओगे
उसके ही घर की हवा से
उसे वहां से भी मिटाओगे
उसका जो बचपन है तुम्हारे भीतर
वहां से भी
मैं जानता हूं
कुलीनता की हिंसा !
लेकिन उसके भागने की बात
याद से नहीं जाएगी
पुरानी पवनचिक्कयों की तरह
वह कोई पहली लड़की नहीं है
जो भागी है
और न वह अन्तिम लड़की होगी
अभी और भी लड़के होंगे
और भी लड़कियां होंगी
जो भागेंगे मार्च के महीने में
लड़की भागती है
जैसे फूलों गुम होती हुई
तारों में गुम होती हुई
तैराकी की पोशाक में दौड़ती हुई
खचाखच भरे जगरमगर स्टेडियम में
चार
अगर एक लड़की भागती है
तो यह हमेशा जरूरी नहीं है
कि कोई लड़का भी भागा होगा
कई दूसरे जीवन प्रसंग हैं
जिनके साथ वह जा सकती है
कुछ भी कर सकती है
महज जन्म देना ही स्त्री होना नहीं है
तुम्हारे उस टैंक जैसे बंद और मजबूत
घर से बाहर
लड़कियां काफी बदल चुकी हैं
मैं तुम्हें यह इजाजत नहीं दूंगा
कि तुम उसकी सम्भावना की भी तस्करी करो
वह कहीं भी हो सकती है
गिर सकती है
बिखर सकती है
लेकिन वह खुद शामिल होगी सब में
गलतियां भी खुद ही करेगी
सब कुछ देखेगी शुरू से अंत तक
अपना अंत भी देखती हुई जाएगी
किसी दूसरे की मृत्यु नहीं मरेगी
पांच
लड़की भागती है
जैसे सफेद घोड़े पर सवार
लालच और जुए के आरपार
जर्जर दूल्हों से
कितनी धूल उठती है
तुम
जो
पत्नियों को अलग रखते हो
वेश्याओं से
और प्रेमिकाओं को अलग रखते हो
पत्नियों से
कितना आतंकित होते हो
जब स्त्री बेखौफ भटकती है
ढूंढती हुई अपना व्यक्तित्व
एक ही साथ वेश्याओं और पत्नियों
और प्रमिकाओं में !
अब तो वह कहीं भी हो सकती है
उन आगामी देशों में
जहां प्रणय एक काम होगा पूरा का पूरा
छह
कितनी-कितनी लड़कियां
भागती हैं मन ही मन
अपने रतजगे अपनी डायरी में
सचमुच की भागी लड़कियों से
उनकी आबादी बहुत बड़ी है
क्या तुम्हारे लिए कोई लड़की भागी?
क्या तुम्हारी रातों में
एक भी लाल मोरम वाली सड़क नहीं?
क्या तुम्हें दाम्पत्य दे दिया गया?
क्या तुम उसे उठा लाए
अपनी हैसियत अपनी ताकत से?
तुम उठा लाए एक ही बार में
एक स्त्री की तमाम रातें
उसके निधन के बाद की भी रातें !
तुम नहीं रोए पृथ्वी पर एक बार भी
किसी स्त्री के सीने से लगकर
सिर्फ आज की रात रुक जाओ
तुमसे नहीं कहा किसी स्त्री ने
सिर्फ आज की रात रुक जाओ
कितनी-कितनी बार कहा कितनी स्त्रियों ने दुनिया भर में
समुद्र के तमाम दरवाजों तक दौड़ती हुई आयीं वे
सिर्फ आज की रात रुक जाओ
और दुनिया जब तक रहेगी
सिर्फ आज की रात भी रहेगी
-आलोक धन्वा