Thursday, December 12, 2019

भारत में बढ़ती बलात्कार संस्कृति



आज भारतीय समाज में बलात्कार की घटनाएँ इतनी सामान्य बात हो गयी है कि लोग बिन बैचेनी के खबर पढ़ कर आगे बढ़ जाते हैं। लेकिन दूसरी बडी घटना जो आजकल देखने को मिल रही है वह है बलात्कारियों के समर्थन में रैलियाँ निकालना, उन्हें राजनीतिक समर्थन मिलना। पीड़िता को रिर्पोट लिखवाने के लिए आत्महत्या करनी पड़ रही है। अगर रिर्पोट लिखी भी जाती है तो केस को कमजोर करने वाली धाराएँ लगायी जा रही हैं। बलात्कार की घटनाओं पर सक्रिय राजनीतिक, सामाजिक संगठन तब ही बोलते हैं जब उन्हें इसका कोई राजनीतिक लाभ मिलता है या दूसरे धर्म के लोगों के लिए साम्प्रदायिक भावना को भड़काने का मौका मिलता हो। आजम खान की महिला विरोधी टिप्पणी पर स्मृति ईरानी का बवाल खड़ा करना और चिन्मयानन्द द्वारा विशेष जाँच दल के सामने बलात्कार के आरोप कबूल करने और वीडियो वायरल होने के बाद भी उनका मुँह न खोलना इस बात के उदाहरण हैं।
आसिफा, ट्विंकल, सेंगर और चिन्मयानन्द से जुड़ी घटनाएँ हम सब के सामने हैं। आसिफा के हत्यारे और बलात्कारियों को बचाने के लिए कठुआ में रैली निकाली गयी। उन्नाव केस में पीड़िता को न्याय माँगना कितना महँगा पड़ा, इस बात का अन्दाजा इसी से लगाया जा सकता है कि पीड़िता के बाप को जेल में पीट–पीटकर मार डाला गया। कोर्ट से वापस आते वक्त बिना नम्बर प्लेट वाले ट्रक ने पीड़िता की कार पर हमला किया, जिसमें पीड़िता की मौसी और चाची की मौत हो गयी। पीड़िता और वकील भी गम्भीर रूप से घायल हो गये। उन्नाव में बलात्कार के आरोपी भाजपा विधायक कुलदीप सेंगर को बचाने के लिए रैली निकाली गयी। लोगों ने हाथों में तख्ती लेकर ‘हमारा विधायक निर्दोष है’ के नारे लगाये। इन दोनों ही केसों में आरोपियों को राजनीतिक समर्थन प्राप्त है। न्याय के लिए पीड़िता को और कितनी बड़ी कीमत चुकानी पड़ेगी इस बात का अन्दाजा लगाना मुश्किल है। क्या भारत में न्याय मिलना असम्भव नहीं होता जा रहा है ? 
संस्कृति और सभ्यता को बचाने के लिए राजनीतिक और धार्मिक दल तो बहुत बन गये हैं पर ये दल वास्तव में क्या कर रहे है ? क्या ये लोग सीधी–साधी जनता को उल्लू बनाकर भोग–विलास, व्यभिचार, कामुकता, ढोंग–पाखण्ड, ऐशो–आराम की जिन्दगी नहीं जी रहे हैं। 
सत सार्इं बाबा, राम रहीम, आशाराम बापू, प्रेम बाबा, फलाहारी बाबा, सूरा बाबा, ज्योतिगिरि महाराज जैसे प्रमुख धार्मिक गुरु बलात्कार में लिप्त रहे हैं। इन सब पर बलात्कार के आरोप हैं और इनमें से ज्यादातर जेल में है या बेल पर हैं। इन बाबाओं के लाखों की संख्या में अनुयायी हैं। ऐसे कितने ही बाबा हैं जो संस्कृति की चादर ओढ़कर बलात्कार जैसे घिनौने काम को अन्जाम देते हैं। इन धार्मिक गुरुओं को राजनीतिक पार्टियों का समर्थन प्राप्त होता है। बाबाओं के ये अनुयायी राजनीतिक पार्टियों के वोट बैंक का काम करते हैं। किसी फिल्म के दृश्य या डायलॉग के खिलाफ ये लोग सड़कों पर निकल कर विरोध करते हैं पर बलात्कार जैसी घटना पर मुँह तक नहीं खोलते। संस्कृति के रक्षक राजनीतिक दलों में भी दुराचार की घटनाएँ कोई बड़ी बात नहीं रह गयी हैं।
थॉमसन रॉयटर फाउण्डेशन के सर्वे के अनुसार भारत इस साल महिलाओं के लिए दुनियाभर में सबसे असुरक्षित देश बन गया है। यहाँ अगर कोई लड़की अपनी पसन्द के लड़के से शादी कर लेती है तो ज्यादातर मामलों में उसे जान से मार दिया जाता है या जबरन किसी दूसरे लड़के से उसकी शादी करा दी जाती है। इस साल कुछ ऐसी भी घटनाएँ सामने आयी हैं जिनमें अपनी पसन्द के लड़के से शादी करने की वजह से लड़की के बाप–भाई और रिश्तेदारों ने लड़की को सबक सिखाने के लिए उसका बलात्कार किया। ये कैसा समाज है जहाँ एक लड़की आत्मनिर्भर, स्वाभिमानी और अपनी मर्जी से जीना चाहे तो उसको चरित्रहीन, बेशर्म, आवारा और तरह–तरह के उपनामांे से उसका जीना दुश्वार कर दो और इसके बाद भी लड़की अपना बराबरी का हक माँगे तो सबक सिखाने के लिए उसके साथ बलात्कार करो और इज्जत बचाने के नाम पर उसको घर में कैद कर दो।
हमारे देश भारत में एक तरफ तो औरतों को देवी माना जाता है तो दूसरी तरफ पाँव की जूती। उसका दर्जा पुरुषों से नीचा समझा जाता है। रोजमर्रा की जिन्दगी में उनके साथ मारपीट, गाली–गलौज, शादी के बाद बिना मर्जी के सेक्स करना सामान्य बात हैं। हम अपने आप–पास रोजाना औरतों के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार करते लोगों को देखते हैं। भारत में औरत को इनसान का दर्जा अभी तक नहीं मिला है, वह देवी है, पाँव की जूती है पर इनसान तो बिल्कुल नहीं है। क्या यही भारतीय संस्कृति है जिसे बचाने के लिए रोज ब रोज बलात्कार, मॉब लिंचिंग, गौरक्षा के नाम पर हत्या, दंगे और तमाम तरह के अपराधों को अंजाम दिया जा रहा है ? अगर यही भारतीय सभ्यता संस्कृति है तो बर्बरता क्या होती है ?
यहाँ ये सवाल उठता है कि जो सरकार नोटबन्दी के लिए रातोंरात लाखों की संख्या में लोगों को बैंको की लाइन में खड़ा करवा सकती है, घर में रखे हजार के नोट को खाक में बदल सकती है, अनुच्छेद 370 हटाने के लिए पूरे कश्मीर को कैद कर सकती है, क्या वही सरकार बलात्कार के मामले में कोई ठोस कदम नहीं उठा सकती। बलात्कार के मामले पर सरकार की चुप्पी से हम क्या समझें ? आज संसद में बैठे ज्यादातर सांसदों पर आपराधिक मामले दर्ज हैं। इस बात से हम क्या समझें ? और क्या सच में हम इन से उम्मीद करते हैं कि ये सरकार बलात्कार के मामलों में कोई ठोस कदम उठायेगी ? इनसे उम्मीद रखने वाले लोगों को शीर्ष पर विराजमान वर्तमान नेताओं के बलात्कार की घटना पर दिये गये बयानांे पर भी हमें एक नजर डाल लेनी चाहिए कि उनकी सोच कैसी है–– 
(1) मुलायम सिंह यादव (समाजवादी पार्टी)––  लड़कों से गलतियाँ हो जाती हैं। 
(2) मेनका गाँधी (भाजपा सांसद)–– भाजपा विश्व की सबसे बड़ी पार्टी है, दो–चार बलात्कार कर भी दिये तो बुराई क्या है ?
(3) पूर्व वित्तमंत्री अरुण जेटली (भाजपा नेता)–– दिल्ली में बलात्कार की छोटी सी घटना को इतना प्रचारित किया गया कि वैश्विक पर्यटन क्षेत्र में नुकसान उठाना पड़ा।
(4) रामसेवक पैकरा (भाजपा नेता)–– बलात्कार जानबूझकर नहीं बल्कि दुर्घटनावश हो जाता है। ये एक सामाजिक अपराध है जो पुरुष और महिला दोनों पर निर्भर करता है।
ममता बनर्जी (तृणमूल काँग्रेस), अबू आजमी (सपा नेता), मोहन भागवत (आरएसएस), साक्षी महाराज (भाजपा नेता), बाबूलाल गौर (मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री, भाजपा नेता), मीनाक्षी लेखी (भाजपा प्रवक्ता), कविन्दर गुप्ता (वरिष्ठ भाजपा नेता), केजी जॉर्ज (कर्नाटक गृहमंत्री, भाजपा नेता) और न जाने कितने नेताओं ने बलात्कार पर अपने विवादित बयान देकर यह साबित कर दिया कि वे सब के सब महिला विरोधी हैं। 
रेणुका चैधरी (कांग्रेस नेता) का कहना है कि सुबह उठते ही कोई न कोई बलात्कार के बारे में बात करता है। बलात्कार तो चलते ही रहते हैं। जो लोग ये मानते हैं कि बलात्कार की घटना को खत्म नहीं किया जा सकता उन्हें दूसरे देशों के समाज से भी कुछ सीख लेना चाहिए। ऊल–जलूल बयान देकर जनता को गुमराह करने के बजाय उन्हें देखना चाहिए कि समाजवादी रूस ने अपने देश से वेश्यावृत्ति और बलात्कार की घटना को कैसे जड़ से खत्म किया था। इसी पर आधारित एक किताब है “पाप और विज्ञान” हम सब को उसे पढ़ना चाहिए।
साथियो, अब समय आ गया है कि बलात्कार और वेश्यावृत्ति से मुक्त और सुरक्षित भारत की मुहिम में शामिल हों और मिलकर एक ऐसे समाज का निर्माण करेें जो आजादी और बराबरी के आदर्शों पर टिका हो, जिस में सब सुरक्षित, आजाद पक्षी की तरह नीले आसमान में लम्बी उड़ान भर सकें। 

–– शशि चौधरी


(मुक्ति के स्वर अंक 22)

Thursday, December 5, 2019

मन्दी की मार झेलती महिलाएँ




लगभग एक साल हो गया जब मन्दी ने डरावनी दस्तक देनी शुरू की और अब तो उसने देश की समूची अर्थव्यवस्था को अपने दैत्याकार पंजों में जकड़ लिया है। अर्थव्यवस्था का कोई भी क्षेत्र उससे बच नहीं पाया है। ज्वालामुखी के फूटने से निकला लावा जैसे तेजी से आगे बढ़ता है और अपने सामने पड़ने वाली हर वस्तु को अपनी गिरफ्त में लेकर उसे तबाह कर देता है, ठीक उसी तरह अनेकानेक कारणों से उपजी मन्दी जीवन के हर क्षेत्र, समाज के हर समुदाय और वर्ग को तेजी से अपनी चपेट में लेती जा रही है। 
मन्दी अब किसी से छिपी नहीं है, वह अदृश्य नहीं रह गयी है। चीख–चीख कर हर जगह वह अपनी मौजूदगी की सूचना दे रही है। सरकार के सलाहकार, अर्थशास्त्री और मंत्रीगण इसे स्वीकार कर रहे हैं। आँकड़े छुपाने का खेल भी अब खत्म हो गया है। अनपढ़ आदमी से लेकर बच्चों तक को अब मन्दी के बारे में पता है। वह उसे टीवी या अखबार में ही नहीं पढ़ सुन रहे, बल्कि अपने निजी जीवन में बहुत करीब से महसूस कर रहे हैं। ऑटोमोबाइल, टेक्सटाइल, खनन, थोक और खुदरा बाजार, कोई भी तो क्षेत्र इससे अछूता नहीं रहा। 
मन्दी किसे कहते हैं ? यह क्यों आती है ? मन्दी वास्तव में पूँजीवादी अर्थव्यवस्था के साथ अनिवार्य रूप से जुड़ी एक ऐसी स्थिति है जब बाजार में सामान उपलब्ध तो होता है लेकिन बिकता नहीं है या बिकना कम हो जाता है। इसका कारण यह होता है कि समाज के अधिकांश लोगों के पास खरीदने की ताकत नहीं रह जाती। पर ऐसा क्यों हो जाता है ? इसकी वजह होती है कि पूँजीपति लोगों को व्यक्ति के श्रम की उपज की तुलना में बहुत ही कम मजदूरी देता है और भारी संख्या में लोगों की रोजी–रोटी छीन कर हाशिये पर पहँुचा देता है। जब सामान नहीं बिकता है तो पूँजीपति हजारों लोगों को नौकरियों से निकाल देता है और इस तरह बाजार में भरे सामान को खरीदने वालों की संख्या और भी कम हो जाती है। ऊपर से मुनाफा घटने पर फैक्टरियों में या तो उत्पादन कम कर दिया जाता है, मजदूरों की छँटनी कर दी जाती है या फैक्ट्री ही बन्द कर दी जाती है। फैक्टरियों से पैदा हुई मन्दी धीरे–धीरे अर्थव्यवस्था के हर क्षेत्र में फैल जाती है और हालात को और भी गम्भीर बना देती है। ऐसी ही स्थिति आजकल हिन्दुस्तान में है। 
इस मन्दी के प्रभावों के अलग–अलग आयामों पर मंत्रिगण से लेकर, राजनेताओं, अर्थशास्त्रियों, समाजशास्त्रियों द्वारा नित नयी चर्चाएँ की जा रही हैं। परन्तु जैसे रोज–रोज के कार्य–व्यापारों में महिलाओं के वजूद और समाज में उनकी भूमिका को कोई विशेष महत्त्व नहीं दिया जाता, उसी तरह मन्दी के महिलाओं पर प्रभावों की कोई विशेष चर्चा नहीं है। जिस तरह साम्प्रदायिक दंगों का महिलाओं समेत कमजोर समुदायों पर सबसे बुरा असर पड़ता है उसी तरह मन्दी की मार भी सबसे अधिक इन्हीं पर पड़ रही है। पितृसत्तात्मक समाज में सहज ही यह मान लिया जाता है कि मन्दी तो अर्थव्यवस्था में आती है। फिर महिलाओं का उससे क्या लेना–देना––– ? लोग भूल जाते हैं कि महिलाओं ने पिछले कुछ दशकों में अर्थव्यवस्था के हर क्षेत्र में अपनी उपस्थिति दर्ज की है। वे इंजीनियर हैं, डॉक्टर हैं, नर्स, अध्यापिका, जैसे परम्परागत सरकारी और निजी क्षेत्र में तो हैं ही, भारी संख्या में असंगठित क्षेत्र और 1990 के बाद उदारीकरण के दौर में कॉल सेन्टर से लेकर फैशन डिजाइनिंग, आईटी सेक्टर जैसे तमाम क्षेत्रों में काम कर रही हैं जहाँ उन्हें पहले से ही उनके रोजगार की कोई सुरक्षा नहीं मिलती। ऐसे में मन्दी शुरू होते ही बड़े पैमाने पर नौकरियों से की जा रही छँटनी की मार से वे भला कैसे बच जायेंगी ? 
मन्दी की सबसे पहली धमक ऑटोमोबाइल इण्डस्ट्री में महसूस की गयी। भारी मात्रा में छँटनी की खबर भी इसी क्षेत्र में सुनने को मिली। पिछले कुछ वर्षों में विभिन्न कार और स्कूटर कम्पनियों ने उत्पादन से इतर के काम, जैसे सेल्समैनशिप, वाहन इंश्योरेंस और फाइनांस जैसी अन्य सेवाओं के द्वार महिलाओं के लिए खोलना शुरू किया। टाटा मोटर्स ने 31 जुलाई, 2018 को दावा किया कि उनके ऑटोमोबाइल सेवा क्षेत्र में 4 प्रतिशत महिला कर्मचारी सेवारत थीं, जबकि महिन्द्रा एण्ड महिन्द्रा ने कहा कि उनके वहाँ 7–5 प्रतिशत महिला श्रमिक थीं। मोटरसाइकिल निर्माता, रॉयल एनफील्ड्स ने कहा कि पिछले तीन साल में उसने महिला कर्मचारियों की संख्या 10 प्रतिशत कर दी और लैंगिक समानता का लक्ष्य रखकर वह जल्दी ही कुल श्रम–शक्ति का 30 प्रतिशत कर देगा। इसी तरह अन्य कम्पनियों ने महिला कर्मचारियों की संख्या बढ़ाने वाले बड़े–बड़े दावे किये और अपना मानवीय चेहरा दिखाने की कोशिश की। लेकिन कुछ ही महीनों में मन्दी ने सारे दावों की पोल खोल दी। मन्दी शुरू होने के बाद भारत के 271 शहरों में 286 से अधिक डीलरशिप जुलाई 2019 तक 18 महीनों में बन्द हो गयी जिसके कारण महिलाओं सहित 200,000 से अधिक लोगों ने अपनी नौकरी खो दी। हालाँकि फेडरेशन ऑफ ऑटोमोबाइल डीलर्स एसोसिएशन के पास सेल्समैनशिप में छँटनी के कारण पीड़ित महिलाओं की संख्या पर कोई ठोस आँकड़ा नहीं है, लेकिन इसमें कोई सन्देह नहीं है कि बिक्री में 10 प्रतिशत महिला कर्मचारियों की संख्या को देखते हुए यह संख्या 20,000 से अधिक होगी। अगस्त 2019 तक अकेले ऑटोमोबाइल निर्माण क्षेत्र में 350,000 नौकरियाँ चली गयीं। यह आँकड़े तमिलनाडु, महाराष्ट्र और हरियाणा के हैं जो ऑटोमोबाइल उद्योग के हब हैं। क्या इसका असर उन हजारों महिला श्रमिकों पर नहीं पड़ा होगा जिन्होंने सेल्समैनशिप का प्रशिक्षण लिया और हाल के वर्षों में ही काम करना शुरू किया ? 
भारत में महिलाओं के लिए तमाम पारिवारिक दबावों के बीच एक सुरक्षित, नियमित या कांट्रेक्ट की नौकरी प्राप्त करना वास्तव में टेढ़ी खीर है। ऐसे में नौकरी खो बैठने वाली महिला के लिए जीवन बहुत ही कठिन हो जाता है। ऐसे समय में जब अर्थव्यवस्था की नाव डूब रही हो, उसके लिए कोई और काम मिलना लगभग असम्भव ही हो जाता है या यूँ कहें कि मन्दी खत्म होने तक इन्तजार करने के अलावा कोई चारा नहीं रहता। 
यही हाल मन्दीग्रस्त हर क्षेत्र की महिलाओं का है। यद्यपि अधिकांश परिवारों में महिला की आय को द्वितीयक आय ही माना जाता है यानी पुरुष की आय में मात्र सहयोगी आय। लेकिन विनिर्माण उद्योग में काम करनी वाली अधिकांश महिलाएँ अपने परिवारों में प्रमुख या समान कमाई करने वाली होती हैं, जहाँ वे अपनी आय के साथ परिवार की कई जरूरतों को पूरा करती हैं। नौकरी छूट जाने से, ये महिलाएँ न केवल आर्थिक रूप से पीड़ित हुई हैं, बल्कि अपने परिवारों के भीतर अपनी स्थिति और प्रमुख घरेलू फैसलों को प्रभावित करने की अपनी हैसियत भी खो बैठी है।
नौकरी जाते ही महिलाओं के लिए खुद पर पैसा खर्च करना कठिन हो जाता है और इस तरह महिला–केन्द्रित उद्योग भी प्रभावित होते हैं, विशेष रूप से उन क्षेत्रों में जो बड़े पैमाने पर बाजार में सौन्दर्य प्रसाधन, ब्यूटी पार्लर जैसे व्यक्तिगत देखभाल के केन्द्र, बुटीक, महिलाओं की स्वच्छता, स्वास्थ्य सेवा, सिले–सिलाए वस्त्र, फैशन डिजाइनिंग आदि। ये क्षेत्र मुख्यत: महिलाओं द्वारा ही चलाये जाते हैं तो इनसे जुड़ी महिलाएँ भी बुरी तरह प्रभावित होती हैं। 
इन सबके अलावा, जब ऐसे परिवारों में जहाँ सिर्फ पुरुष ही मजदूरी करता है और वह जब अपनी नियमित नौकरी खो बैठता है, तो उन परिवारों की महिलाओं पर कोई काम ढूँढने के लिए दबाव पड़ता है। लेकिन बाहर तो मन्दी छाई हुई है, उनके लिए भी काम नहीं होता और इस तरह वे भी बेरोजगार महिलाओं की पंक्ति में खुद को खड़ा पाती हैं। 
ऐसी हालत में किसी कौशल के अभाव में ये महिलाएँ बेहद असुरक्षित असंगठित क्षेत्र में जाने या घरेलू नौकरानी, सेल्सगर्ल आदि ही बनने को अभिशप्त हैं जहाँ वे सरकार द्वारा चलायी जाने वाली स्वास्थ्य इत्यादि से सम्बन्धित सीमित सामाजिक योजनाओं के लाभ से भी वंचित हो जाती हैं। देखा जा रहा है कि बड़ी संख्या में महिलाएँ नियमित अर्थव्यवस्था से रातों–रात गायब हो रही हैं, ऐसे हालात यौन शोषण और यौन हिंसा को न केवल खतरनाक स्तर तक पहुँचा देते हैं बल्कि लैंगिक समानता के लक्ष्य को भी गहरा धक्का पहुँचाते है।
चूँकि नौकरी से निकाले गये करोड़ों लोगों की जेब में पैसा नहीं है, ऐसे में मुहल्लों, कस्बों या शहरों में छोटी–छोटी दुकान चलाने वाली, सब्जी बेचने वाली, यहाँ तक कि चाय का खोखा चलाने वाली महिलाओं की बिक्री भी आधी से कम हो गयी और उनके लिए घर चलाना मुश्किल हो गया है। ऊपर से महँगाई सुरसा की तरह मुँह बाये खड़ी है और व्यक्ति की आय को लीलती जा रही है। घरों और रसोई का प्रबन्ध करने वाली महिलाएँ जरूरी आहार और बच्चों की स्कूली जरूरतों में कटौती करने को मजबूर हैं। कठिन समय में सबसे पहली कटौती महिला अपने और अपनी बेटी के भोजन और बीमारी के खर्चों में ही करती है। 
बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश, झारखण्ड जैसे प्रदेशों से काम की तलाश में पंजाब, गुजरात, महाराष्ट्र, फरीदाबाद, दिल्ली जैसे औद्योगिक इलाकों में आये परिवार छोटी–बड़ी हजारों फैक्टरियाँ बन्द हो जाने के कारण वापस अपने घरों को लौट रहे हैं। वास्तव में विस्थापित होने, स्थायी असुरक्षा के साथ अस्थायी रूप से कहीं बसने और फिर उजड़ने की मार भी सबसे अधिक महिलाओं के हिस्से ही आती है।
जहाँ तक गाँवों की बात है, आँकड़ों के मुताबिक, साल 2004–05 की तुलना में ग्रामीण महिलाओं की भागीदारी दर 49–4 फीसदी से घटकर 2011–12 में 35–8 फीसदी पर आ गयी और 2017–18 में यह घटकर 24–6 फीसदी पर पहुँच गयी है। साल 2004–05 से अब तक पाँच करोड़ से अधिक ग्रामीण महिलाएँ राष्ट्रीय बाजार की नौकरियाँ छोड़ चुकी हैं। ये आँकड़े एनएसएसओ की पीरियॉडिक लेबर फोर्स सर्वे (पीएलएफएस) 2017–18 की रिपोर्ट पर आधारित हैं।  
‘डाउन–टू–अर्थ’ वेब पत्रिका के रिचर्ड महापात्र ने अपनी एक रिपोर्ट में बताया है कि मन्दी के बीच कृषि क्षेत्र की मजदूरी की औसत वृद्धि दर 2016–17 और 2018–19 के बीच लगभग आधी रह गयी और महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) के तहत 2017–18 में औसत 45–8 कार्य दिनों की तुलना में 2018–19 में प्रति घर केवल औसत 38 दिनों का काम मिला। भयानक मन्दी और महँगाई के दौर में एक वर्ष में मात्र 38 दिन काम पाकर कोई परिवार और उसकी स्त्री कैसे खर्च चलाती है और किस स्तर का मानसिक तनाव झेलती है यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। जब गाँवों में आशा की कोई किरण नहीं दिखाई देती है तो इन परिस्थितियों में लड़कियों और महिलाओं को नौकरी के वादे के साथ शहरों और पड़ोसी देशों में तस्करी और वेश्यावृत्ति में धकेले जाने की सम्भावना बढ़ जाती हैय भयानक गरीबी में धकेल दी गयी ऐसी महिलाओं या लड़कियों का, यहाँ तक कि उनके माँ–बाप का इसके दलालों के झाँसे में आ जाना, कोई नयी बात नहीं है। 2009–10 में दक्षिण–पूर्व एशिया में आयी भयंकर मन्दी पर प्रोग्राम ऑन वूमेन्स इकोनोमिक, सोशल एण्ड कल्चरल राइट्स (यूएन वूमेन) की 2010 की एक रिपोर्ट के अनुसार उस दौर में भारत सहित उन देशों में महिलाओं के खिलाफ अपराध, दुर्व्यवहार और हिंसा की दर में बेतहाशा वृद्धि हुई। आज की मन्दी तो 2009–10 की मन्दी से कहीं अधिक भयानक और चैतरफा है। ऐसे में इस तरह की प्रवृत्तियों की पुनरावृत्ति से भला कैसे इनकार किया जा सकता ? 
मन्दी के कारण हुई छँटनी, कर्ज न चुका पाने या धंधा चैपट होने से जिन परिवारों के मर्द आत्महत्या कर, अपने परिवारों की महिलाओं को बच्चों समेत अकेला छोड़ कर चले जाते हैं वे भयानक आर्थिक दबाव तो महसूस करती ही हैं, अकेला हो जाने कारण उनके कभी भी और कहीं भी यौन हिंसा की शिकार होने की सम्भावना दोगुनी हो जाती है।
सच तो यह है कि नारी जीवन की पीड़ा के जितने आयाम हैं, मन्दी के उन पर प्रभाव के आयाम भी उससे कम नहीं हैं। उन सबको यहाँ समेटना सम्भव नहीं है। दु:ख की बात यह है कि पितृसत्तात्मक समाज उस पर विशेष गौर नहीं करता। हमें इन बातों और तकलीफों को साझा करना होगा ताकि लोग इन अदृश्य संकटों को समझ सकें। महिलाओं को भी उन सारे संघर्षों और आन्दोलनों का बराबरी का हिस्सेदार बनना होगा जो उन सारी वजहों को सामाप्त करने के लिए लड़े जा रहे हैं जो मन्दी का कारण हैं। 
–– आशु वर्मा

Sunday, September 22, 2019

रॉक डाल्टन की कविता — बेहतर प्यार के लिए


रॉक डाल्टन (1935-1975) अल साल्वाडोर के क्रांतिकारी कवि रॉक डाल्टन ने अपनी छोटी सी जिंदगी कला और क्रांति के सिद्धांत को आत्मसात करने और उसे ज़मीन पर उतारने मे बिताई. उनका पूरा जीवन जलावतनी, गिरफ्तारी, यातना, छापामार लड़ाई और इन सब के साथ-साथ लेखन में बीता. उनकी त्रासद मौत अल साल्वाडोर के ही एक प्रतिद्वंद्वी छापामार समूह के हाथों हुई. उनकी पंक्ति- “कविता, रोटी की तरह सबके लिए है” लातिन अमरीका मे काफ़ी लोकप्रिय है. यह कविता मन्थली रिव्यू, दिसंबर 1985 में प्रकाशित हुई थी.)



हर कोई मानता है कि लिंग
एक श्रेणी विभाजन है प्रेमियों की दुनिया में-
इसी से फूटती हैं शाखाएँ कोमलता और क्रूरता की.

हर कोई मानता है कि लिंग
एक आर्थिक श्रेणी विभाजन है-
उदाहरण के लिए आप वेश्यावृत्ति को ही लें,
या फैशन को,
या अख़बार के परिशिष्ट को
जो पुरुष के लिए अलग है, औरत के लिए अलग.

मुसीबत तो तब शुरू होती है
जब कोई औरत कहती है
कि लिंग एक राजानीती श्रेणी विभाजन है.

क्योंकि ज्यों ही कोई औरत कहती है
की लिंग एक राजनीतिक श्रेणी विभाजन है
तो वह जैसी है, वैसी औरत होने पर लगा सकती है विराम
और अपने आप की खातिर एक औरत होने की कर सकती है शुरुआत,
औरत को एक ऐसी औरत मे ढालने की
जिसका आधार उसके भीतर की मानवता हो
उसका लिंग नहीं.

वह जान सकती है कि नीबू की महक वाला जादुई इत्र
और उसकी त्वचा को कामनीयता से सहलाने वाला साबुन
वही कंपनी बनाती है, जहाँ बनता है नापाम बम,
कि घर के सभी ज़रूरी काम
परिवार के एक ही सामाजिक समुदाय की ज़िम्मेदारी हैं,
की लिंग की भिन्नता
प्रणय के अंतरंग क्षणों मे तभी परवान चढ़ती है
जब परदा उठ जाता है उन सारे रहस्यों से
जो मजबूर करते हैं मुखौटा पहनने पर और पैदा करते हैं आपसी मनमुटाव.


(अनुवाद- दिगम्बर)

Saturday, September 21, 2019

पढ़ती हुई लड़कियां


सबसे खतरनाक होती हैं
पढ़ती हुई लड़कियां
संगीनों से नहीं डरती हैं
सैनिकों से नहीं डरती हैं
बाग़ी होती हैं
पढ़ती हुई लड़कियां

समाज से नहीं डरती
देह की देहरी
और घर की मुंडेर तक नहीं टिकती
नियम, कायदे और वर्जनाएं लांघ जाती हैं
पढ़ती हुई लड़कियां

अकेले कहां कहां न दनदनाती हैं
उनसे ज़्यादा दनदनाते हैं उनके विचार
दनादन सवाल करती हैं
सरापा सवाल होती हैं
पढ़ती हुई लड़कियां
पढ़ती हुई लड़कियां खतरनाक होती हैं!

- शाहिद अख़्तर


Thursday, September 12, 2019

मैं हैरान हूँ


 — महादेवी वर्मा,
(इतिहास में छिपाई गई एक कविता) 

'' मैं हैरान हूं यह सोचकर , 
किसी औरत ने क्यों नहीं उठाई उंगली ?  
तुलसी दास पर ,जिसने कहा , 
"ढोल ,गंवार ,शूद्र, पशु, नारी,
ये सब ताड़न के अधिकारी।"

मैं हैरान हूं , 
किसी औरत ने
क्यों नहीं जलाई "मनुस्मृति"
जिसने पहनाई उन्हें
गुलामी की बेड़ियां ? 

मैं हैरान हूं , 
किसी औरत ने क्यों नहीं   धिक्कारा ?  
उस "राम" को
जिसने गर्भवती पत्नी सीता को , 
परीक्षा के बाद भी
निकाल दिया घर से बाहर
धक्के मार कर।

किसी औरत ने लानत नहीं भेजी
उन सब को, जिन्होंने
" औरत को समझ कर वस्तु"
लगा दिया था दाव पर
होता रहा "नपुंसक" योद्धाओं के बीच
समूची औरत जाति का चीरहरण ? 
महाभारत में ? 

मै हैरान हूं यह सोचकर , 
किसी औरत ने क्यों नहीं किया ? 
संयोगिता अंबा -अंबालिका के
दिन दहाड़े, अपहरण का विरोध
आज तक !

और मैं हैरान हूं , 
इतना कुछ होने के बाद भी
क्यों अपना "श्रद्धेय" मानकर
पूजती हैं मेरी मां - बहने
उन्हें देवता - भगवान मानकर? 

मैं हैरान हूं, 
उनकी चुप्पी देखकर
इसे उनकी सहनशीलता कहूं या
अंध श्रद्धा , या फिर
मानसिक गुलामी की पराकाष्ठा ?'' 

{महादेवी वर्मा जी की यह कविता, किसी भी पाठ्य पुस्तक में नहीं रखी गई है,क्यों कि यह भारतीय  संस्कृति पर गहरी चोट करती है ?}

Wednesday, September 11, 2019

दर्द और पूर्वाग्रह पुस्तक पर दो बातें


--विक्रम प्रताप

(सितम्बर 2019 में एलेन एंड अनविन प्रकाशन से गैब्रिएल जैक्सन की किताब ‘दर्द और पूर्वाग्रह’ (पैन एंड प्रीजुडिस) छपी. गार्डियन ऑनलाइन अखबार में इसके बारे में पढकर मैं स्तब्ध रह गया. इस किताब में महिलाओं की उन बीमारियों और उनके सामाजिक-चिकित्सा सम्बन्धी कारणों का जिक्र है, जिनके बारे में हमारे समाज में बात करने की अनुमति नहीं है. लिहाजा मैं इस किताब के बारे में कुछ लाइनें लिखने से खुद को रोक न सका.)


‘दर्द और पूर्वाग्रह’ किताब की लेखिका गैब्रिएल जैक्सन जब 23 साल की थी, तभी उन्हें पता चला कि वह एण्डोमेट्रिओसिस नामक गर्भाशय की गम्भीर बीमारी से पीड़ित हैं. इतनी छोटी उम्र में वह नहीं जानती थी कि वह अपने प्रसूति रोग विशेषज्ञ (गाइनकोलोजिस्ट) से क्या बात करें और सही जानकारी कैसे हासिल करें. वह समझती रही कि उनकी डॉक्टर उनके रोग और इलाज के बारे में सबकुछ जानती है, यही उनकी सबसे बड़ी भूल थी.
उन्होंने दस साल से अधिक समय तक कमजोरी, दर्द और दोयम दर्जे का अपमान झेला. उसके बाद, जब चीजें सहनशीलता की हद से गुजर गयीं, तब उन्होंने सवाल करने का फैसला किया. काश, यह काम उन्होंने पहले कर लिया होता, तो शायद उन जैसी महिलाओं को ऐसी परिस्थतियों से गुजरना न पड़ता. खैर, देर आये दुरुस्त आये. उन्होंने ‘दर्द और पूर्वाग्रह’ किताब के माध्यम से दुनिया के सामने कई सवाल उठाये हैं. मसलन, ऐसा कैसे हो सकता है कि जिस बीमारी की पहचान एक शताब्दी पहले कर ली गयी थी, उसके बारे में पूरी जानकारी आज तक नदारद है. वह बताती हैं कि अपनी बीमारी को लेकर वह किसी वहम में नहीं हैं, बल्कि इसके चलते उन्होंने बहुत कष्ट झेले हैं. आश्चर्य तो इस बात का है कि एक शताब्दी पहले इस रोग के निदान के बावजूद, आज भी चिकित्सा विज्ञान एण्डोमेट्रिओसिस के असली कारणों का पता नहीं लगा पाया है. यह बीमारी शरीर के अंदर कैसे फैलती है और इसे जड़ से कैसे खत्म किया जा सकता है? इसे लेकर आज भी हम अनजान हैं. ऐसा क्यों है? डॉक्टर पीड़ित महिलाओं को सालोंसाल दवा खिलाते रहते हैं. महिलाएँ दर्द सहती रहती हैं. खुद में घुटती रहती हैं.
हर महीने अंडाशय एक अंडा छोड़ता है। निषेचन के समय एंडोमेट्रियम नामक कोशिकायें गर्भाशय के साथ पंक्तिबद्ध हो जाती हैं। एंडोमेट्रियम कोशिकायें गलकर मासिक धर्म के रूप में बाहर आ जाती हैं। हालाँकि, इन कोशिकाओं का असामान्य रूप से बढ़ना संभव है। इन्हीं अनियमितताओं से जुडी बीमारी एण्डोमेट्रिओसिस है। मुंबई के हिंदुजा हेल्थकेयर मल्टीस्पेशलिटी अस्पताल में स्त्री और प्रसूति रोग विशेषज्ञ डॉ राजीव पंजाबी ने बताया कि कोई भी नहीं जानता कि ये एंडोमेट्रियल कोशिकाएं क्यों बढ़ती हैं? ये कोशिकाएं हार्मोन में बदलाओं से प्रभावित होती हैं। यही कारण है कि मासिक धर्म चक्र के साथ ही बीमारी के लक्षण बढ़ जाते हैं। इसके चलते अधिक दर्द, बांझपन, बहुत भारी मासिक धर्म और ऊतकों के झुलस जाने जैसी समस्या हो सकती है। जबकि कोई भी वास्तव में यह नहीं कह सकता कि ऐसा क्यों होता है? इसके बारे में कई सिद्धांत हैं। लेकिन इनमें से कोई भी सिद्धांत सही और सटीक जानकारी नहीं देता।
एण्डोमेट्रिओसिस बीमारी के मामले में आस्ट्रेलिया की यह लेखिका अकेली नहीं है. यह बीमारी न केवल आस्ट्रेलिया जैसे विकसित देशों की महिलाओं को अपना शिकार बनाता आ रहा है, बल्कि भारत जैसे विकासशील देशों में यह और भयावह हो गयी है. भारत की एण्डोमेट्रिओसिस सोसाइटी नाम की संस्था के अनुमान के अनुसार, देश भर में कुल 2.5 करोड़ महिलाएँ इस बीमारी से पीड़ित हैं. इस बीमारी से पीड़ित एक महिला ने अपने दर्द को बयान करते हुए लिखा कि मैं अपने जिस्म के पिंजरे में कैद हूँ. माहवारी से जुडी वर्जनाओं के चलते महिलाएँ इस बीमारी के बारे में खुलकर बोल नहीं पाती. देखा जाए तो महिला चाहे किसी देश की हो, सभी को ऐसी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है. सच है कि सभी दुनिया की महिलाओं की दिक्कते एक जैसी हैं.
लेखिका गैब्रिएल जैक्सन लिखती हैं कि जैसे ही मैंने इस समस्या के बारे में जानकारी हासिल करने की कोशिश की, मुझे पता चला कि जितना मैं सोचती थी, समस्या उससे कहीं अधिक गम्भीर है. पुरुषों की तुलना में महिलाओं को इलाज के लिए अधिक इन्तजार करना पड़ता है. उन्हें कैंसर या हार्ट अटैक है या नहीं, इसके निदान के लिए भी लम्बा इन्तजार करना पड़ता है. तब तक ये बीमारियाँ कई महिलाओं को अपना शिकार बना चुकी होती हैं. सबसे दुखद है कि इन सबके दौरान महिलाएँ लगातार असहनीय दर्द में तडपती रहती हैं और वे यह स्वीकार नहीं कर पाती कि उन्हें इस तरह जीना नहीं चाहिए. बल्कि वे इसी को अपनी नियति मान लेती हैं.
गैब्रिएल जैक्सन सवाल पूछती हैं कि डॉक्टर हम पर क्यों विशवास करें? जवाब सीधा सा है. वे हमारे बारे में बहुत कम जानते हैं. जिस तरह के लक्षण एण्डोमेट्रिओसिस के दौरान दिखाई देते हैं, ऐसे लक्षण 10 अन्य बीमारियों में भी प्रकट होते हैं. इन बीमारियों से केवल अमरीका में 5 करोड़ औरतें पीड़ित हैं. इन बीमारियों से पीड़ित महिलाओं को बताया जाता है कि उन्हें कुछ नहीं हुआ है, वे मानसिक भ्रम की शिकार हैं. वे अपने स्वास्थ्य के बारे में जरूरत से ज्यादा चिंतित हो रही हैं. अगर इन बीमारियों का निदान शुरूआती अवस्था में हो जाए, तो इनका इलाज सम्भव है. लेकिन समाज में प्रचलित इस गलत मान्यता का क्या इलाज है कि महिलाएँ अपनी बीमारी को लेकर शंकालु और वहमी होती हैं?
वह सवाल करती हैं कि डॉक्टर अश्वेत लोगों या महिलाओं का इलाज अच्छी तरह क्यों नहीं करते, जबकि वे गोरे पुरुषों के इलाज में अधिक रूचि दिखाते हैं? डॉ जेने ऑस्टिन क्लेटन महिलाओं के स्वास्थ्य पर शोध करने वाली एक अमरीकी संस्था की निदेशक हैं. वह बताती हैं कि "हम वास्तव में पुरुष जीव विज्ञान की तुलना में महिला जीव विज्ञान के हर पहलू के बारे में कम जानते हैं।" आखिर ऐसा क्यों है? 
वास्तव में बात सैकड़ों साल पहले की है, जब आधुनिक चिकित्सा विज्ञान की शुरुआत हो रही थी. उस समय महिलाओं को पुरुषों से कमतर माना जाता था. शोध करने वाले वैज्ञानिक और डॉक्टर भी भेदभाव बरतने वाली ऐसी मानसिकता से ग्रस्त थे. पुरुषों को भ्रष्ट करने वाली अनैतिक ताकत के रूप में महिला कोख को दर्शाया जाता था. सभी बुराइयों की जड़ महिला की कोख है. आँखों पर जैसे एक पट्टी बाँध दी गयी हो. सच्चाई सामने हो लेकिन दिख कुछ और रहा था. महिला बच्चे को जन्म देकर इंसानियत को आगे बढ़ाती है. लेकिन इसी को अनैतिकता का पर्याय बना दिया गया और मान लिया गया कि भगवान बच्चे पैदा करता है और इसके लिए उसने महिला शरीर को चुना है ताकि दर्द के रूप में उसे दंडित करके उसके गुनाहों की सजा दी जा सके. प्लेटो जैसा विद्वान भी ऐसी महिला विरोधी बातों से खुद को न बचा सका. उसने गर्भ को एक भयावह जानवर के रूप में चित्रित किया जो महिला के शरीर में भटक रहा था और उसकी जीवन शक्ति को चूस रहा था। 
आधुनिक चिकित्सा विज्ञान ने अपना ध्यान तंत्रिका तंत्र पर केन्द्रित किया और आरोप लगाया कि इन सब के लिए “कमजोर तंत्रिका” जिम्मेदार है. लेकिन बीसवीं सदी की शुरुआत में जब अंतःस्त्रावी प्रणाली की खोज हुई, तो हारमोन के ऊपर दोष मढ़ दिया गया. महिलाओं में उत्सर्जित होने वाले विशेष तरह के हरमोन भेदभाव को सही ठहराने का आधार बन गये. आधुनिक चिकित्सा विज्ञान पर भी महिला विरोधी सोच की छाप पड़ गयी क्योंकि इसका जन्म महिला विरोधी पितृसत्तात्मक समाज से ही हुआ है. जीव विज्ञान के सभी तौर तरीकों का इस्तेमाल करके यह सिद्ध करने की कोशिश की गयी कि पुरुषों की तुलना में महिलायें कमतर होती हैं. कहा गया कि बच्चा पैदा करने की पूरी प्रक्रिया यानी मासिक धर्म, गर्भधारण, दुग्धपान और रजोनिवृत्ति तक की प्रक्रिया महिलाओं की बहुत बड़ी ऊर्जा को सोख लेती है, इसके चलते वे समाज-राजनीति जैसे दूसरे क्षेत्रों में पुरुषों से मुकाबला नहीं कर सकतीं. इसलिए इन सभी चिंताओं को छोडकर उन्हें पत्नी और माँ का कर्तव्य पूरी निष्ठा के साथ निभाना चाहिए. आज दुनिया भर में ऐसे इनसानों की संख्या सबसे अधिक है, जो भेदभाव बरतने वाली इन अन्यायपूर्ण बातों पर विशवास करते हैं. यह दुखद है और इससे भी अधिक दुखद यह है कि इन बातों पर विश्वास करने वालों में महिलाएँ भी बड़ी संख्या में हैं.
समाज में जिन चीजों को महिला समस्या का इलाज माना जाता है, वह महिलाओं के लिए कठोर दण्ड के समान होता है. इसके लिए बड़े हिंसक कदम उठाये जाते हैं जैसे-- खतना कर देना, गर्भाशय और अंडाशय को निकाल देना, दुग्धपान के लिए मजबूर करना और जबरन काम से छुट्टी पर भेज देना. बांझपन के इलाज के लिए घिनौनी जोंक चिकित्सा का सहारा लिया जाता है. स्वास्थ्य ठीक करने के नाम पर उन्हें मानसिक रूप से प्रताड़ित किया जाता है. इन इलाजों में से कोई भी वैज्ञानिक रूप से सत्यापित नहीं है. चिकित्सा विज्ञान में महिलाओं के शरीर का बहुत कम अध्ययन किया जाता है. पाठ्य-पुस्तकों में जिसका जिक्र इनसान के शरीर के तौर पर किया जाता है, वह अक्सर किसी गोरे पुरुष का शरीर होता है. इससे अलग वैज्ञानिक खोज के लिए किसी भी इनसान के शरीर में रूचि नहीं ली गयी और उसे वैज्ञानिक खोज के लायक नहीं माना गया.
नब्बे के दशक तक महिलाओं पर कोई भी क्लिनिकल परिक्षण नहीं किया जा सकता था. आज दर्द के पुराने मरीजों में 70 प्रतिशत महिलाएँ हैं लेकिन दर्द निवारक दवाओं का 80 प्रतिशत परिक्षण केवल पुरुषों पर किया जाता है. शोधकर्मी लोग महिलाओं के प्रति अपने पूर्वाग्रह को यह कहकर छुपाते हैं कि वे परिक्षण के दौरान किसी महिला को नुक्सान नहीं पहुँचाना चाहते हैं. लेखिका सवाल करती हैं कि अगर ऐसा है तो क्या यह जरूरी नहीं कि दवा बेचने से पहले इस बात का पता लगाया जाए कि फलाँ दवा महिला को नुक्सान तो नहीं पहुंचा रही है. 2018 का एक अध्ययन दिखाता है कि बुनियादी, प्रीक्लीनिकल और क्लीनिकल शोध में गम्भीर पुरुषवादी पूर्वाग्रह काम करता है. हालात और भी बुरे हैं क्योंकि मेडिकल के छात्रों को इस पूर्वाग्रह के बारे में नहीं पढ़ाया जाता. शोधकार्यों तक महिलाओं की पहुँच न के बराबर है. यह इस कारण नहीं है कि वे इस काम में सक्षम नहीं है, बल्कि समाज ने उन्हें इसका मौक़ा ही नहीं दिया.
आज जरूरत इस बात की है कि महिलाओं को बच्चा पैदा करने की मशीन की जगह एक इनसान माना जाए. उन्हें न केवल समाज में बल्कि चिकित्सा विज्ञान में भी बराबरी का हक दिया जाए. अगर महिलाएँ चिकित्सा विज्ञान और उससे जुड़े क्षेत्र में नहीं जा पाएँगी और महिला विरोधी मानसिकता से हर स्तर पर संघर्ष नहीं किया जाता, तो महिलाओं की बीमारियों का उचित इलाज असम्भव है. ऐसी हालत में वे आगे भी दर्द से तडपती रहेंगी और घुटघुट कर मरती रहेंगी.

Sunday, September 1, 2019

स्त्री “तीन कविताये”


स्त्री “तीन कविताये”
.
१. 
नदिया रोती है 
पत्थरो की ओट में 
मैपलो के बीच कही 
कोई पतझड़ रोता है ......
एक स्त्री रोती है 
परदेश गये 
बेटे और पति के लिये,
भूखे बच्चो के लिये,
स्त्री के आंसू भी 
उसके अपने नही होते .



स्त्री 
आकाशगंगा की तरह
समेट लेती है 
ग्रह नक्षत्रो को
अपने आँचल में
और  पृथ्वी की तरह 
हमारी परिक्रमा करती हैं ....
वह प्रेम करती है 
पूरी निश्छलता से
पूरे समर्पण से 
जैसे लहरे करती है
चंद्रमा से प्रेम ....


३.
.
स्त्री रोती है
तो बनते है लोकगीत
हँसती है 
तो बनते है शगुन आखर
विद्रोह करती है स्त्री 
तो इतिहास बनते हैं 
सीपियों के मोती है 
स्त्रियों के रहस्य 
और जीवन 
स्त्री का चेहरा है


Poet of mountains

Saturday, August 31, 2019

रोटी और गुलाब – जेम्स ओपनहाइम


जब हम मार्च करती हुई आती हैं,

मार्च करती हुई, दिन के सौन्दर्य में

दस लाख अँधेरी रसोइयाँ, हजार धूसर मिलें

उजाले से जगमगा जाती हैं,

मानो अचानक सूरज निकल आया हो

लोग हमें अपने लिए गाते सुनते हैं--

“रोटी और गुलाब! रोटी और गुलाब!”

 

जब हम मार्च करती हुई आती हैं,

मार्च करती हुई, हम पुरुषों के लिए भी लड़ती हैं

क्योंकि वे उन महिलाओं के बच्चे हैं

जिनका ऋण उतारना है

जन्म से मृत्यु तक

हमारा जीवन पसीने से तर होकर बर्बाद नहीं होगा

जिस्म की तरह दिल भी भूख से मर रहा है

हम रोटी चाहते हैंऔर गुलाब भी

 

जब हम मार्च करती हुई आती हैं,

मार्च करती हुई, अनगिनत औरतें मर गयीं

रोटी के लिए उनकी उस चाह की खातिर

हम गाकर रोती हुई मार्च करती हैं

उनकी परिश्रमी आत्माएँ जानती थीं

छोटी-छोटी कला, प्रेम और सौंदर्य को

हाँ, रोटी ही है जिसके लिए हम लड़ती हैं

लेकिन हम गुलाब के लिए भी लड़ती हैं

 

जब हम मार्च करती हुई आती हैं,

मार्च करती हुई, हम महान दिनों को लाती हैं

महिलाओं का उठ खडा होना,

पूरी इंसानियत का अंगडाई लेना है

वैसी बेगारी और निकम्मापन अब और नहीं

जहाँ दस लोग खटते हैं और एक मजा लूटता है

जीवन की गरिमा वाले महान दिनों के लिए

रोटी और गुलाब! रोटी और गुलाब!

 

1911 में जेम्स ओपेनहाइम की यह कविता अमेरिकी पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। यह कविता महिला अधिकारों के लिए चलाए गये आन्दोलन की याद दिलाती है। 1912 में लॉरेंस टेक्सटाइल मिल की हड़ताल के दौरानवेतन में कमी के विरोध में मिल की महिला कार्यकर्ताओं ने इस कविता को अपने बैनर पर अंकित कर दिया था, "हम रोटी चाहते हैंऔर गुलाब भी"।

 

अनुवाद – विक्रम प्रताप 

Monday, April 8, 2019

लड़कियां

मुझे नहीं सुहातीं तुम्हारी अच्छी और सीधी-साधी लडकियाँ.

वो जो केवल उन्हीं रास्तों पर चलती रहीं 

जिन्हें तुमने तय किया था.

मुझे तो पसंद हैं वो लडकियाँ जिनके चलने से 

बनती चली जाती हैं  

सकरी और घुमावदार पगडंडियाँ.

जैसे शास्त्रीय अनुशासनों को तोड़कर कोई कलाकार 

अपने कैनवास पर एक नए ढंग का चित्र उकेरता है.


वो जिनका बचपन मटमैले रंग का होता है 

जिनकी फ्राक पर चारकोल के दाग लगे रहते हैं  

और ठण्ड को ठूस-ठूस कर खुद में भरते भरते 

जिनके गाल भी फट जाते हैं. 

जिनके नाखून उटपटांग से बढ़ते हैं 

वो नहीं कि पाइलर लेकर बैठी हो 

नाखुनो को घिसते हुए 

या नहा धुला कर गुलाबी फ्राक में 

बिठा दी जाती हो अपनी गुलाबी गुडिया को सजाते हुए. 

किसी गुड्डे के संग ब्याहने के लिए. 

मुझे नहीं हैं पसंद ऐसी छुई मुई सी गुलाबी लडकियाँ. 


वो लडकियाँ जिन्हें जामुनों के पकने का इंतज़ार 

ज्यादा ज़रूरी लगता है 

बजाए इसके कि खुद के पकने का इंतज़ार करें 

पति, बॉयफ्रेंड, साधु या देवता के 

स्वाद के लायक बनने के लिए. 


वो लडकियाँ जो छोटे कपड़ों में नहीं तलाशती आजादी 

न ही लम्बे और ढीले कपड़ों में बुनती हैं संस्कार 

वो मुक्त होती हैं गुलाम नैतिकता से पैदा हुई बीमारियों

और बाज़ार द्वारा बताये शर्तिया इलाजो से 

जो दोनों ही कपडे और शरीर में उलझाये रखते हैं. 

वे नहीं मानती खुद को केवल शरीर 

पर न ही शरीर को किसी किस्म की तकलीफ भी देती हैं 

सुन्दर कहे जाने की गुलाम चेष्ठा में. 

वो केवल इसलिए रुमाल पर फूल बनाना नहीं छोड़ देती 

कि कढाई करना पुरानी सी फीलिंग लाता है.


वो लडकियाँ जिनका प्रेम बहती हुई नदी सा निर्मल होता है 

और जो प्यास बुझाते और हरियाली लिखते चलती हैं. 

जिनका प्रेम ठहरी और मलिन होती झील सा हो 

नहीं तृप्त कर पाता मुझे. 

वो लडकियाँ जिनका माँ हो पाना बच्चादानी तय नहीं करती 

जो मातृत्व में डूबी रहती हैं.

वो जो खुद को बचा बचा कर नहीं बाटती 

वो जो खुद को लुटा पाती हैं.  

जो कुंआरी किरण सी पवित्र होती हैं 

जो वासनाओं के अँधेरे को छूती हैं 

और रौशन कर देती हैं. 

ऐसी अनगढ़ी और खुद को खुद से 

तराशने वाली लडकियाँ पसंद हैं मुझे. 

- अक्षय अनुग्रह

Friday, March 29, 2019

स्त्रियाँ

गुजर जाती हैं अजनबी से जंगलों से

जानवरों के भरोसे

जिनका सत्य वे जानती हैं.

सड़क के किनारे तख्ती पे लिखा होता है

सावधान, आगे हाथियों से खतरा है

और वे पार कर चुकी होती हैं जंगल सारा.


फिर भी गुजर नहीं पातीं


स्याह रात में सड़कों और बस्तियों से


काँपती है रूह उनकी

कि

तख्तियाँ

उनके विश्वास की सड़क पर

लाल रंग से जड़ी जा चुकी हैं

कि

सावधान! यहाँ आदमियों से खतरा है.

--डॉ नूतन

Tuesday, March 26, 2019

एक मजदूर का साक्षात्कार

(अक्सर किसी कारखाने या दफ्तर में काम करने वाले वेतनभोगी मजदूर से बात करो तो वे यह कहते हैं कि उन्हें काम देकर उनका मालिक उन पर कृपा करता है ,क्योंकि अगर उन्हें काम न मिले तो उनका जीना मुश्किल हो जायेगा. समाज में सदियों से फैलायी गयी सोच और आजकल मीडिया के ज़रिये लगातार मालिकों कि भूमिका को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किये जाने का ही नतीजा है कि मेहनतकश लोग अपने शोषकों को ही अपना कृपानिधान मान लेते हैं. सवाल यह है कि मालिक मजदूरों की परवरिश करता है या मजदूर मालिकों को करोड़पति-अरबपति बनाते हैं ? इस सच्चाई को समझने में पौल लफार्ग द्वारा 1903 में लिखा यह वार्तालाप काफी मददगार है. इस वार्तालाप में शारीरिक श्रम और सीधे उत्पादन में लगे मजदूरों का उदाहरण दिया गया है, लेकिन यह बात मानसिक श्रम करने वाले सेवाक्षेत्र के कर्मचारियों के मामले में भी लागू होती है.)

मज़दूर- यदि कोई मालिक नहीं होता, तो मुझे काम कौन देता?

प्रचारक- यह एक सवाल है जो अक्सर लोग हमसे पूछते हैं. इसे हमें अच्छी तरह समझना चाहिए. काम करने के लिये तीन चीजों की ज़रुरत होती है- कारखाना, मशीन और कच्चा माल.

मजदूर- सही है.

प्रचारक – कारखाना कौन बनाता है?

मजदूर- राजमिस्त्री.

प्रचारक- मशीने कौन बनाता है?

मजदूर- इंजीनियर.

प्रचारक- तुम जो कपड़ा बुनते हो, उसके लिये कपास कौन उगाता है? तुम्हारी पत्नी जिस ऊन को कातती है, उसे कौन पैदा करता है? तुम्हारा बेटा जो खनिज गलाता है उसे ज़मीन से खोद कर कौन निकालता है?

मजदूर- किसान, गडरिया, खदान मजदूर. वैसे ही मजदूर जैसा मैं हूँ.

प्रचारक- हाँ, तभी तो तुम, तुम्हारी पत्नी और तुम्हारा बेटा काम कर पाते हैं? क्योंकि अलग-अलग तरह के मजदूर तुम्हे पहले से ही इमारतें, मशीनें और कच्चा माल तैयार कर के दे रहे हैं.

मजदूर- बिलकुल, मैं सूती कपड़ा बिना कपास और करघे के नहीं बुन सकता हूँ.

प्रचारक- हाँ, और इससे पता चलता है कि तुम्हें कोई पूँजीपति या मालिक काम नहीं देता है, बल्कि यह किसी राजमिस्त्री, इंजीनियर और किसान की देन है.क्या तुम जानते हो कि तुम्हारा मालिक कैसे उन चीजों का इन्तजाम करता है जो तुम्हारे काम के लिये ज़रूरी हैं?

मजदूर- वह इन्हें खरीदता है.

प्रचारक- उसे पैसे कौन देता है?

मजदूर- मुझे क्या पता. शायद उसके पिता ने उसके लिये थोड़ा बहुत धन छोड़ा होगा और आज वह करोड़पति बन गया है.

प्रचारक- क्या उसने यह पैसा मशीनों में काम करके और कपड़ा बुन के कमाया है?

मजदूर- ऐसा तो नहीं है, ज़ब हमने काम किया, तभी उसने करोड़ों कमाया.

प्रचारक- तब तो वह ऐसे ही बिना कुछ किये अमीर बन गया है. यही उसकी किस्मत चमकाने का एकमात्र रास्ता है- जो लोग काम करते हैं उन्हें तो केवल जिन्दा रहने भर के लिये मजदूरी मिलती है. लेकिन मुझे बताओ कि यदि तुम और तुम्हारे मजदूर साथी काम नहीं करें, तो क्या तुम्हारे मालिक की मशीनों में जंग नहीं लग ज़ायेगा और उनके कपास को कीड़े नहीं खा जायेंगे?

मजदूर- इसका मतलब यदि हम काम न करें, तो कारखाने का हर सामान बर्बाद और तबाह हो जायेगा.

प्रचारक- इसीलिये तुम काम करके मशीनों और कच्चे माल को बचा रहे हो जो कि तुम्हारे काम करने के लिये ज़रूरी है.

मजदूर- यह बिल्कुल सही है, मैंने पहले कभी इस तरह नहीं सोचा.

प्रचारक- क्या तुम्हारा मालिक यह देखभाल करने आता है कि उसका कारोबार कैसा चल रहा है?

मजदूर- बहुत ज्यादा नहीं, वह हर दिन एक चक्कर लगता है, हमारे काम को देखने के लिये. लेकिन अपने हाथों को गंदा होने के डर से वह उन्हें अपनी जेब में ही डाले रहता है. एक सूत कातने वाली मिल में, ज़हाँ मेरी पत्नी और बेटी काम करती हैं, उन्होंने अपने मालिक को कभी नहीं देखा है, ज़बकि वहाँ चार मालिक हैं. ढलाई कारखाने में भी कोई मालिक नहीं दिखता है ज़हाँ मेरा बेटा काम करता है. वहाँ के मालिक को तो न किसी ने देखा है और न ही कोई जानता है. यहाँ तक कि उसकी परछाई को भी किसी ने नहीं देखा है. वह एक लिमिटेड कम्पनी है जिसका अपना काम है. मान लो कि मेरे और तुम्हारे पास 500 फ्रांक कि बचत होती है, तो हम एक शेयर खरीद सकते हैं और हम भी उनमें से एक मालिक बन सकते हैं बिना उस कारखाने में पैर रखे.

प्रचारक- तो फिर उस ज़गह पर काम कौन देखता है और कामकाज का संचालन कौन करता है, ज़हाँ से ये शेयर धारक मालिकाने का सम्बंध रखते हैं? तुम्हारी खुद कि कंपनी का मालिक भी ज़हाँ तुम काम करते हो वहाँ कभी दिखायी नहीं देता और कभी-कभार आ भी जाए तो वह गिनती में नहीं आता है.

मजदूर- प्रबंधक और फोरमैन.

प्रचारक- लेकिन जिन्होंने कारखाना बनाया, मशीनें बनायीं व कच्चे माल को तैयार किया, वे भी मजदूर ही हैं. जो मशीनों को चलाते हैं वे भी मजदूर हैं. प्रबंधक और फोरमैन इस काम कि देख रेख करते हैं, तब मालिक क्या करते हैं?

मजदूर- कुछ नहीं करते व्यर्थ समय गँवाते हैं.

रचारक- अगर यहाँ से चाँद के लिये कोई रेलगाड़ी होती, तो हम वहाँ सारे मालिकों को बिना वापसी की टिकट दिये भेज देते और फिर भी तुम्हारी बुनाई तुम्हारी पत्नी कि कताई और तुम्हारे बेटे कि ढलाई का काम पहले जैसा ही चलता रहता. क्या तुम जानते हो कि पिछले साल तुम्हारे मालिक ने कितना मुनाफा कमाया था?

मजदूर- हमने हिसाब लगाया था कि उसने कम से कम एक लाख फ्रांक कमाये थे.

प्रचारक- कितने मजदूर उसके यहाँ काम करते हैं- औरत, मर्द और बच्चों को मिलाकर?

मजदूर- एक सौ.

प्रचारक- वे कितनी मजदूरी पाते हैं?

मजदूर– प्रबंधक और फोरमैन के वेतन मिलाकर औसतन लगभग एक लाख फ्रांक सालाना.

प्रचारक- यानी की सौ मजदूर सारे मिलकर एक लाख फ्रांक वेतन पाते हैं, जो सिर्फ उन्हें भूख से न मरने के लिये ही काफी होता है. ज़बकि तुम्हारे मालिक की जेब में एक लाख फ्रांक चले जाते हैं और वह भी बिना कुछ काम किये. वे एक लाख फ्रांक कहाँ से आते हैं?

मजदूर- आसमान से तो नहीं आते हैं. मैंने कभी फ्रांक की बारिश होते तो देखी नहीं है.

प्रचारक- यह मजदूर ही हैं जो उसकी कंपनी में एक लाख फ्रांक का उत्पादन करते हैं जिसे वे अपने वेतन के रूप में लेते हैं और मालिक जो एक लाख फ्रांक का मुनाफा पाते हैं जिसमें से कुछ फ्रांक वे नयी मशीने खरीदने में लगाता है वह भी मजदूरों की ही कमाई है.

मजदूर- इसे नाकारा नहीं ज़ा सकता.

प्रचारक- तब तो यह तय है कि मजदूर ही उस पैसे का उत्पादन करता है, जिसे मालिक नयी मशीनें खरीदने में लगाता है. तुमसे काम करवाने वाले प्रबंधक और फोरमेंन भी तुम्हारी ही तरह वेतनभोगी गुलाम हैं जो इस उत्पादन कि देख-रेख करते हैं. तब मालिक कि क्या ज़रूरत है? वह किस काम का है?

मजदूर- मजदूरों का शोषण करने के लिये.

प्रचारक- ऐसा कहो कि मजदूरों को लूटने के लिये, यह कहीं ज्यादा साफ़ और ज्यादा सटीक है.

इंग्लिश से अनुवाद  -  Swati Sarita Shashi Rusee

Tuesday, March 5, 2019

भागी हुई लड़कियां

एक  

घर की जंजीरें 
कितना ज्यादा दिखाई पड़ती हैं 
जब घर से कोई लड़की भागती है 

क्या उस रात की याद आ रही है 
जो पुरानी फिल्मों में बार-बार आती थी 
जब भी कोई लड़की घर से भगती थी? 
बारिश से घिरे वे पत्थर के लैम्पपोस्ट 
महज आंखों की बेचैनी दिखाने भर उनकी रोशनी? 

और वे तमाम गाने रजतपरदों पर दीवानगी के 
आज अपने ही घर में सच निकले! 

क्या तुम यह सोचते थे 
कि वे गाने महज अभिनेता-अभिनेत्रियों के लिए 
रचे गए? 
और वह खतरनाक अभिनय 
लैला के ध्वंस का 
जो मंच से अटूट उठता हुआ 
दर्शकों की निजी जिन्दगियों में फैल जाता था? 

दो 

तुम तो पढ कर सुनाओगे नहीं 
कभी वह खत 
जिसे भागने से पहले 
वह अपनी मेज पर रख गई 
तुम तो छुपाओगे पूरे जमाने से 
उसका संवाद 
चुराओगे उसका शीशा उसका पारा 
उसका आबनूस 
उसकी सात पालों वाली नाव 
लेकिन कैसे चुराओगे 
एक भागी हुई लड़की की उम्र 
जो अभी काफी बची हो सकती है 
उसके दुपट्टे के झुटपुटे में? 

उसकी बची-खुची चीजों को 
जला डालोगे? 
उसकी अनुपस्थिति को भी जला डालोगे? 

जो गूंज रही है उसकी उपस्थिति से 
बहुत अधिक 
सन्तूर की तरह 
केश में 

तीन 


उसे मिटाओगे 
एक भागी हुई लड़की को मिटाओगे 
उसके ही घर की हवा से 
उसे वहां से भी मिटाओगे 
उसका जो बचपन है तुम्हारे भीतर 
वहां से भी 
मैं जानता हूं 
कुलीनता की हिंसा ! 

लेकिन उसके भागने की बात 
याद से नहीं जाएगी 
पुरानी पवनचिक्कयों की तरह 

वह कोई पहली लड़की नहीं है 
जो भागी है 
और न वह अन्तिम लड़की होगी 
अभी और भी लड़के होंगे 
और भी लड़कियां होंगी 
जो भागेंगे मार्च के महीने में 


लड़की भागती है 
जैसे फूलों गुम होती हुई 
तारों में गुम होती हुई 
तैराकी की पोशाक में दौड़ती हुई 
खचाखच भरे जगरमगर स्टेडियम में 

चार 

अगर एक लड़की भागती है 
तो यह हमेशा जरूरी नहीं है 
कि कोई लड़का भी भागा होगा 

कई दूसरे जीवन प्रसंग हैं 
जिनके साथ वह जा सकती है 
कुछ भी कर सकती है 
महज जन्म देना ही स्त्री होना नहीं है 


तुम्हारे उस टैंक जैसे बंद और मजबूत 
घर से बाहर 
लड़कियां काफी बदल चुकी हैं 
मैं तुम्हें यह इजाजत नहीं दूंगा 
कि तुम उसकी सम्भावना की भी तस्करी करो 

वह कहीं भी हो सकती है 
गिर सकती है 
बिखर सकती है 
लेकिन वह खुद शामिल होगी सब में 
गलतियां भी खुद ही करेगी 
सब कुछ देखेगी शुरू से अंत तक 
अपना अंत भी देखती हुई जाएगी 
किसी दूसरे की मृत्यु नहीं मरेगी 

पांच 


लड़की भागती है 
जैसे सफेद घोड़े पर सवार 
लालच और जुए के आरपार 
जर्जर दूल्हों से 
कितनी धूल उठती है 

तुम 
जो 
पत्नियों को अलग रखते हो 
वेश्याओं से 
और प्रेमिकाओं को अलग रखते हो 
पत्नियों से 
कितना आतंकित होते हो 
जब स्त्री बेखौफ भटकती है 
ढूंढती हुई अपना व्यक्तित्व 
एक ही साथ वेश्याओं और पत्नियों 
और प्रमिकाओं में ! 


अब तो वह कहीं भी हो सकती है 
उन आगामी देशों में 
जहां प्रणय एक काम होगा पूरा का पूरा 

छह 

कितनी-कितनी लड़कियां 
भागती हैं मन ही मन 
अपने रतजगे अपनी डायरी में 
सचमुच की भागी लड़कियों से 
उनकी आबादी बहुत बड़ी है 

क्या तुम्हारे लिए कोई लड़की भागी? 

क्या तुम्हारी रातों में 
एक भी लाल मोरम वाली सड़क नहीं? 

क्या तुम्हें दाम्पत्य दे दिया गया? 
क्या तुम उसे उठा लाए 
अपनी हैसियत अपनी ताकत से? 
तुम उठा लाए एक ही बार में 
एक स्त्री की तमाम रातें 
उसके निधन के बाद की भी रातें ! 

तुम नहीं रोए पृथ्वी पर एक बार भी 
किसी स्त्री के सीने से लगकर 


सिर्फ आज की रात रुक जाओ 
तुमसे नहीं कहा किसी स्त्री ने 
सिर्फ आज की रात रुक जाओ 
कितनी-कितनी बार कहा कितनी स्त्रियों ने दुनिया भर में 
समुद्र के तमाम दरवाजों तक दौड़ती हुई आयीं वे 

सिर्फ आज की रात रुक जाओ 
और दुनिया जब तक रहेगी 
सिर्फ आज की रात भी रहेगी


-आलोक धन्वा