Tuesday, December 28, 2021

श्रद्धांजली : महिला मुक्ति की पथ–प्रदर्शक बहनों को आखिरी सलाम



कमला भसीन: ‘संगठित महिलाएँ न कभी हारी हैं न कभी हारेंगी’


दक्षिण एशिया में अपने नारों, गीतों और अकाट्य तर्कों से नारीवादी आन्दोलन को बुलन्दियों पर ले जाने वाली मशहूर लेखिका और नारीवादी आन्दोलनकारी कमला भसीन पिछले दिनों हमारे बीच नहीं रही। उन्होंने दक्षिण एशिया के नारीवादी आन्दोलन को नयी ऊँचाइयों तक ले जाने में एक अहम भूमिका निभायी। उन्होंने अपने गीतों, सरल भषा और सहज स्वभाव से अपने विचारों को आम जनमानस तक पहुँचायी।
उन्होंने ग्रामीण महिलाओं से लेकर महानगरीय संस्कृति में पली–बढ़ी महिलाओं को एक सूत्र में बाँधा और भारतीय नारीवादी आन्दोलन को एक संगठित स्वरूप देने में अहम भूमिका निभायी। उनके बात करने के अन्दाज से लेकर लोगों से मिलने–जुलने के उनके ढंग में एक ऐसा जादू और जीवन के प्रति उत्साह था जिससे वह मिलने वालों को भी मुश्किल लक्ष्यों के प्रति सकारात्मक बना देती थीं। 
एक लम्बे समय से उनको जानने–समझने वालीं कविता श्रीवास्तव भारतीय नारीवादी आन्दोलन में उनके योगदान को बयाँ करते हुए कहती हैं, “कमला भसीन ने इस देश में अन्य बहनों के साथ मिलकर महिला आन्दोलन खड़ा करने में एक पायनियर की भूमिका अदा की है। दक्षिण एशियाई नारीवादी आन्दोलन का प्रसिद्ध नारा ‘पितृसत्ता से आजादी, मेरी बहनें माँगे आजादी, मेरी बेटी माँगे आजादी, मेरी अम्मी माँगे आजादी, भूख से माँगे आजादी–––’उन्होंने पाकिस्तान की साथी निखत के साथ मिलकर बनाया था। नारी


नीति की कहानी बनाम महिलाओं का सम्पत्ति पर अधिकार


     

नोएडा की एक मल्टीनेशनल कम्पनी में पिछले 10–12 साल से काम करने वाली नीति 6 महीने पहले माँ बनी। अब कोरोना काल में उसके सामने संकट है कि छोटे से बच्चे को घर में छोड़कर कैसे दोबारा अपना ऑफिस ज्वाइन करे।
नीति जब बीएससी कर रही थी तब उसके पिता को जानलेवा बीमारी के चलते अस्पताल में लम्बे समय तक भर्ती रहना पड़ा। इसके चलते नीति को जैसे–तैसे अपना बीएससी खत्म करके तुरन्त ही घर के हालात को सुधारने के लिए यूपी के एक छोटे से गाँव से नौकरी करने नोएडा आना पड़ा।
पहले तो उसकी इच्छा थी कि वह एमएससी करे, फिर एमएससी नहीं कर पायी तो उसे लगा कि एमबीए कर ले। लेकिन अपनी नौकरी और घर की जिम्मेदारियों के चलते वह अपनी आगे की कोई भी पढ़ाई नहीं कर पायी।
इन 10 सालों में उसने जितना भी पैसा कमाया उसका एक छोटा सा हिस्सा अपने महीने के खर्चे के लिए रखकर वह सारा पैसा घर दे दिया करती थी। उसे लगता था कि पापा नहीं हैं तो उसके दोनों छोटे भाइयों की पढ़ाई और घर की जिम्मेदारी उसी की है।
नीति एमबीए नहीं कर पायी, लेकिन छोटे भाई को करवा दिया और अब वह भी एक मल्टीनेशनल कम्पनी में नौकरी करता है।
एक बार नीति को अपनी कम्पनी से सिंगापुर या कनाडा में जाकर काम करने का ऑफर मिला था लेकिन अपने घर की जिम्मेदारियों के चलते उसने उसे भी मन मार कर ठुकरा दिया था।
इस बीच तीनों भाई बहनों की शादी भी हो गयी।
पहले नीति से बड़े भाई की शादी हुई फिर नीति की और उसके बाद छोटे भाई की।
नीति ने अपने भाइयों की शादी में भी पैसा दिया, लेकिन अपनी शादी पर उसने अपने स्वाभिमानी स्वभाव के चलते बैंक से एक, डेढ़ लाख रुपए लोन लेकर, बिना घर से एक रूपये की मदद लिए खुद साधारण तरीके से अपनी शादी की दावत की। उसने अपनी माँ से भी कह दिया कि मुझे किसी भी तरीके का कोई दहेज या गहने नहीं चाहिए।
कुछ महीनों पहले नीति के घर की सम्पत्ति का बँटवारा हुआ। उनकी 46 बीघा जमीन थी। जिसमें से 10 बीघा माँ के नाम और बाकी 36 बीघा दो भाइयों के नाम हो गये।
बहन के बारे में ना घर वालों ने सोचा ना बहन ही इस बारे में हिम्मत कर पायी, कि वह अपना हिस्सा माँग पाये। जबकि उसे पता है कि यह उसका भी अधिकार है। लेकिन भाइयों से रिश्ते ना खराब हो जायें या फिर नाते रिश्तेदार कहीं उसे ताने ना देने लगें, यह सोचकर वह चुप रह गयी।
जमीन में हिस्सेदारी मिलते ही एक भाई ने अपनी दूध की डेरी खोली और एक भाई ने अपने हिस्से के खेत में एक्स्ट्रा इनकम के लिए मुर्गियों का फॉर्म खोल दिया। नीति अगर अपने घर का एक नालायक बेटा होती, तो भी उसके हिस्से में बिना माँगे ही सम्पत्ति आ जाती। 10 –12 साल नौकरी करने के बावजूद नीति का बैंक अकाउंट खाली है। और छोटे भाई 18–18 बीघा जमीन के मालिक हैं।

सम्पत्ति के मामले में महिलाओं की सामाजिक स्थिति

भारतीय समाज में सदियों से घर में लड़की पैदा होते ही उनको पराये घर की मान लिया जाता है। लड़की के मातृ–पितृ पक्ष वाले सोचते हैं कि लड़की का चल–अचल सम्पत्ति पर अधिकार तो उसकी शादी के बाद ससुराल के घर पर होगा और ससुराल वाले सोचते हैं कि लड़की पराये घर से आई है। शादी के बाद भी लड़की का अपने पति की आकस्मिक मृत्यु के बाद ही सम्पत्ति पर हक मिल पाता है या फिर किसी वजह से तलाक होने से मात्र गुजारा भत्ता दे दिया जाता है। अन्यथा महिलाओं का ना तो ससुराल में और ना ही अपने पैतृक घर में सम्पत्ति पर किसी भी तरीके का अधिकार होता है। अगर कोई लड़की पैतृक सम्पत्ति पर अपना अधिकार माँगती है तो उसे हमारे पुरुषवादी समाज में यह मान लिया जाता है कि लड़की अपना अधिकार न माँग कर भाइयों का हिस्सा माँग रही है। माँ–बाप भी पितृसत्तात्मक सोच से ग्रसित होने के चलते बेटियों को उनका हक नहीं देते हैं और यह सोच लेते हैं कि बुढ़ापे में बेटा ही उनके काम आएगा। इसलिए वे चुपचाप बेटे के पक्ष में चले जाते हैं और लड़कियों को वापस मायके न आने की हिदायत तक दे दी जाती है। यहाँ तक कि खुद महिलाएँ भी अपने भाइयों से या माँ–बाप से सम्बन्ध खराब न हो जाए या समाज उन्हें लालची ना समझने लगे और उनको समाज में लोगों के सामने बेइज्जत ना होना पड़े, यह सोचकर अपना अधिकार नहीं माँगती हैं। बल्कि बहुत सी महिलाएँ सम्पत्ति में अधिकार होने को लेकर जागरूक न होने के चलते व बचपन से उनकी जिस तरीके से पराये घर जाने के लिए पालन–पोषण किया जाता है, उसके चलते खुद ही यह मान लेती हैं कि इसमें हमारा कोई अधिकार नहीं है। हमारी शादी हो गयी है, अब ससुराल का घर ही हमारा घर है।
जब पैतृक सम्पत्ति में बँटवारे के समय बहुत से पिताओं के द्वारा लड़कों के नाम वसीयत लिखी जाती है तो उसमें भी यह कह दिया जाता है कि हमने लड़की की शादी में और उसके दहेज में जो देना था दे दिया है, अब हम उसे कुछ भी नहीं देना चाहते। जबकि हम सभी जानते हैं कि दहेज लेना या देना एक बुरी प्रथा है उसको खत्म करके हमें पुरजोर तरीके से महिलाओं को उनका सही अधिकार देना चाहिए। जिस दिन लड़कियों को उनका जायज हक दिया जाने लगेगा उस दिन स्वत: ही दहेज प्रथा खत्म हो जाएगी।
ससुराल में भी पति–पत्नी के आपसी झगड़े में पति द्वारा पत्नी को घर से निकाल दिया जाता है, तब भी महिलाओं को अपनी कमजोर आर्थिक स्थिति के चलते मायके वालों के सामने ही भीख और दया पर गुजारा करना पड़ता है। मायके वाले किसी तरह महिला को इज्जत से गुजारा भत्ता दें यही बहुत बड़ी बात है। बल्कि ज्यादातर परिवार में शादी के बाद लड़की का मायके में रहना घर वालों को बोझ ही लगता है।

महिलाओं के पैतृक सम्पत्ति पर अधिकार सम्बन्धी कानून

हमारे देश में महिलाओं को लैंगिक बराबरी देने के लिए विभिन्न कानून बनाये गये हैं जिनमें से एक है पैतृक सम्पत्ति पर कानूनी अधिकार। डॉ भीमराव अंबेडकर ने संविधान में तो हमारे देश के सभी नागरिकों को बराबरी का अधिकार दिया है, लेकिन उसके बावजूद महिलाओं को सम्पत्ति पर बराबरी का अधिकार देने के लिए 1951 में हिन्दू कोड बिल पारित करने का संसद में प्रयास किया गया था, तब विपक्ष के द्वारा घोर विरोध किए जाने के चलते लागू नहीं हो पाया था। इसके चलते तत्कालीन कानून मंत्री डॉक्टर अंबेडकर ने दुखी होकर अपना इस्तीफा दे दिया था। उसके बावजूद सन 2005 में महिलाओं को उसी बिल में संशोधन करके सम्पत्ति में बराबरी का अधिकार दिया गया था। इसके बाद बहुत सी महिलाओं ने अपने अधिकारों के लिए कोर्ट केस कर दिये थे, लेकिन पिछले 15 साल से कानून में पारदर्शिता न होने के चलते बहुत सी महिलाओं को परेशानी उठानी पड़ रही थी। बाद में सुर्पीम कोर्ट के तीन जजों की पीठ ने 2020 में स्पष्ट रूप से फैसला सुना दिया था कि महिलाएँ विवाहित हों या अविवाहित उन्हें उसकी पैतृक सम्पत्ति में पुरुषों के बराबर का अधिकार दिया जाएगा और यह लड़की का जन्मसिद्ध अधिकार है। 2020 का यह फैसला 1951 में पेश किये गये डॉक्टर अंबेडकर के हिन्दू कोड बिल की ही जीत है।
आज 21वीं सदी की इस अत्याधुनिक समय में महिलाओं के पास भारत में मात्र 12–9 प्रतिशत खेती की जमीन पर मालिकाना है, जबकि खेती के काम में महिलाओं का लगभग 75 प्रतिशत का योगदान रहता है। हाड़–तोड़ मेहनत करने के बावजूद महिलाएँ सिर्फ खेतिहर मजदूर बनकर रह गयी हैं।
सम्पत्ति के मामले में ग्रामीण इलाके में महिलाओं के पास खुद से खरीदी गयी या फिर किसी भी तरीके से मिली सम्पत्ति का मालिकाना 31–4 प्रतिशत है जबकि यही आँकड़ा शहरों में मात्र 22–9 प्रतिशत है। ग्रामीण इलाकों में शहरों की तुलना में सम्पत्ति के मामले में लैंगिक समानता ज्यादा होने का एक मुख्य कारण पुरुषों का शहर में आकर मजदूरी करना भी है।

सम्पत्ति पर अधिकार होने के महिलाओं को फायदे 

आज की घोर पूँजीवादी (पैसे से चलने वाली) दुनिया में हम सभी जानते हैं कि हमारी दिनचर्या के सभी काम हमारे आर्थिक स्थिति के अनुसार ही सुचारु ढंग से चलते हैं। समाज में किस की क्या हैसियत है यह उसकी जमीन जायदाद और सम्पत्ति पर ही निर्भर करती है। आर्थिक स्थिति मजबूत होने से हम अपनी जिन्दगी के ज्यादातर जरूरी फैसले खुद ले पाते हैं अन्यथा दूसरों के फैसलों में सिर झुका कर हामी भरनी पड़ती है।
समाज में अगर हम जातिगत रूप से भी देखते हैं तो हमारे सामने समाज में उसी का दबदबा होता है जो आर्थिक रूप से संपन्न जातियाँ हैं। घर परिवार में बड़े फैसले भी ज्यादातर पुरुष ही लेते हैं क्योंकि उनके पास एक मजबूत आर्थिक आधार होता है।
हमारे पुरुष प्रधानसमाज की मानसिकता यह है कि महिलाओं को पुरुषों के नीचे दबकर रहना चाहिए। महिलाओं से दोयम दर्जे का व्यवहार करने वाले इस समाज को डर है कि महिलाओं को अगर सम्पत्ति पर अधिकार मिल गया तो वे बराबरी के अधिकार के लिए लड़ने लगेंगीं और पुरुषसत्ता को नकार देंगीं जिससे सदियों से चली आ रही पितृसत्तात्मक गुलामी की बेड़ियाँ टूट जाएँगी और सामन्तवादी पारिवारिक ढ़ाँचा टूट सकता है।
अगर अपना जायज अधिकार माँगने के चलते परिवार वालों से किसी महिला का सम्बन्ध्ा खराब हो भी जाता है तो हमें ऐसे सम्बन्ध क्यों बनाये रखने चाहिए जो हमारा हक मारना चाहते हैं?
सम्पत्ति और जमीन जायदाद को लेकर हमारे समाज में सगे भाइयों में भी लड़ाई होती हैं, लेकिन लड़ाई के डर से पुरुष तो अपना हक नहीं छोड़ते। फिर हम महिलाओं को अपना हक क्यों छोड़ना चाहिए?
इस दुनिया की आधी आबादी होने के चलते हमें कमला भसीन (नारीवादी सामाजिक कार्यकर्ता) की यह लाइनें याद रखनी चाहिए–
ना कम ना ज्यादा,
हमें चाहिए आधा–आधा।

-स्वाति सरिता

संपादकीय



कोरोना काल में शुरू हुई आर्थिक–सामाजिक और स्वास्थ्य सम्बन्धी परेशानियाँ खत्म होने का नाम नहीं ले रहीं, यूँ इन परेशानियों ने तो अधिकांश लोगों को किसी न किसी रूप में प्रभावित किया है परन्तु मजदूर–किसान, शहरी गरीबों और गरीब महिला समुदाय को बहुत गहरे तक तोड़ दिया है। जहाँ अधिकांश गरीबों का रोजगार छिन गया है वहीं गरीब महिलाओं की रोजी–रोटी के साथ सुख–चैन और स्वास्थ्य दोनों ही खत्म हो गये हैं। लम्बे–लम्बे समय तक चले लॉकडाउन के दौरान लाखों औरतों–मर्दों ने भारतीय इतिहास की सबसे लम्बी पलायन यात्राएँ की।
लॉकडाउन खत्म होते ही वे एक बार फिर अपना माल–असबाब उठाये पहले से बुरी शर्तों पर अपने जीवन को ‘सँवारने’ में लग गये। औरतें कम होती आमदनी में अपने परिवार का पेट भरने और तन ढकने के लिए जद्दोजहद करती रहती हैं। अपने परिवार का पेट पालने के लिए और कुछ ‘अतिरिक्त’ कमा लेने के लिए वे हद से ज्यादा कम पैसे पर काम करने को तैयार हैं। पिछले दिनों ऐसी घटनाएँ सामने आयी हैं जहाँ औरतें 40–50 रूपये में दिहाड़ी या घरेलू काम करने के लिए तैयार हो गयीं या दो जून रोटी के लिए अपनी बेटियों को किसी अनजान शहर में भेज दिया। कोरोना बाद के काल में नौकरियों में औरतों की घटती हिस्सेदारी ने उनके भविष्य को और अन्धकारमय बना दिया है।
महँगाई ने सबकी कमर तोड़ रखी है। ‘विकास’ जितना भी हुआ हो मगर बिना गैस, तेल और दालों के चूल्हा–चैका तो औरतों को ही संभालना होता है। वास्तव में अपनी मेहनत के अलावा वे हर चीज में ‘किफायत’ को मजबूर हैं चाहे वह स्वास्थ्य हो या भोजन।
‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ का नारा मजाक साबित हो चुका है। न तो बेटियाँ बच रही हैं न ही पढ़ पा रही हैं। कोरोना काल में माँ–बाप की नौकरियाँ छिनने के बाद सरकारी स्कूल की शोभा बढ़ाती लडकियाँ घरेलू कामों में फँस गयीं, परिजनों के साथ अपने गाँव वापस चली गयीं या उनके कामों में सहायक बन गयीं। कितनी लडकियाँ स्कूल में लौटीं इसका कोई आँकड़ा नहीं है।
पिछले कुछ महीनों में कितने ‘निर्भया काण्ड’ हो गये। उनमें कार्रवाई तो दूर, अपराधियों को राजनीतिक संरक्षण मिलता गया। नतीजा, अपराधी बेखौफ घूम रहे हैं। बल्कि यूँ कहें कि अपराधी और राजनीतिज्ञ के बीच की धुंधली लकीर भी अब मिट चुकी है।
लेकिन जिस तरह स्याह अँधेरी सुरंग के दूसरे छोर पर हमेशा उजाला होता है, उसी तरह बीते महीनों में तमाम मुसीबतों और परेशानियों के बावजूद लड़कियों ने कुछ क्षेत्रों में अपना झण्डा गाड़ ही दिया, जैसे, हमारी खिलाड़ी लड़कियाँ। वो भी सामान्य घरों कीं, मणिपुर, झारखण्ड छतीसगढ़, मध्य प्रदेश, हरियाणा के पिछड़े इलाकों की। आधी–अधूरी खुराक और सामाजिक भेदभाव झेलती इन खिलाड़ी लडकियों ने गाँवों के मैदानों पर अपना कौशल निखारते, लम्बा रास्ता पार करते हुए टोक्यो ओलम्पिक (जापान) तक का गौरवपूर्ण सफर पार किया।
किसान आन्दोलन में महिला किसानों की भरपूर हिस्सेदारी ने महिला आन्दोलन को भी मजबूत बनाया और उसके शहरी मध्यवर्गीय चरित्र को बदल दिया। कितनी सुखद बात है कि खेती करने वाली औरतों ने स्वयं को महज औरत न समझ कर किसान समझा, नये कृषि कानूनों से खेती–किसानी को होने वाले नुकसान को समझा और पूरी तरह आन्दोलन की हमसफर बनीं। उनके आगे बढ़ने में जितना हाथ खेती की खराब होती परिस्थितियों का था उतना ही हाथ उन किसान नेत्रियों का भी था जो दशकों में उनके बीच काम कर रही थीं। नतीजा यह है कि किसान औरतें अपने पूरे वजूद, हैसियत और समझदारी के साथ आन्दोलन का हिस्सा बनीं हैं। पिछले एक साल में उनकी हिस्सेदारी ने घर, परिवार, समुदाय और गाँव में संबन्धों और कामों की परिभाषा बदल दी है। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि 8 मार्च 2021 को टीकरी बॉर्डर पर महिला दिवस के अवसर पर जितनी बड़ी संख्या में महिलाएँ इकट्ठा हुईं उतनी महिला दिवस के इतिहास में किसी देश में कभी भी शामिल नहीं हुईं। यह अपने आप में अभूतपूर्व है और इस बात का सबूत है कि औरतों ने किसान आन्दोलन को अपना बना लिया है और किसान आन्दोलन ने औरतों को।
ऐसा नहीं है कि आन्दोलन में भागीदारी के बाद उन्हें पूर्ण बराबरी मिल गयी हो, लेकिन पूर्व के सम्बन्धों का रूप और उनकी हैसियत निश्चित ही बदली है। वे स्वविवेक से आन्दोलन में जाती हैं और जब किसी शहीद किसान के मातम में जाती हैं तो उस आवेग, दु:ख और गुस्से के साथ शामिल होती हैं जैसे उनका कोई साथी संघर्ष की राह में बिछुड़ गया हो।
तमाम निराश कर देने वाली, असभ्यता और क्रूरता की सारी हदें पार कर देने वाली घटनाओं के बावजूद आज लड़कियाँ और महिलाएँ दो कदम आगे बढीं हैं, अपने अधिकारों के प्रति जागरूक हुई हैं, जो आजादी पायी है उसे खोने के लिए तैयार नहीं और जिन्होंने आजादी नहीं पायी है वे किसी भी कीमत पर उसे पाने के लिए बेकरार हैं, आजादी के सपने को छोड़ने के लिए तैयार नहीं, और यही सबसे सुन्दर और उम्मीद भरी बात है।

खुद को जानना खुशहाली की अंतिम गारण्टी नहीं है, लेकिन यह खुशी का हिमायती है और यह लड़ने का जज्बा पैदा करता है। –सीमोन दि बोउवार

-आशु वर्मा