Thursday, December 24, 2020

लव-जिहाद कानून:एक विश्लेषण



लव जिहाद- पिछले चार-पांच सालों से यह शब्द खूब चर्चाओं में रहा है। लव यानी कि प्यार और जिहाद जिसका मतलब इतिहास में ‘धर्म युद्ध’ बताया गया है। दोनों ही शब्द आपस में मेल नहीं खाते। प्यार बहुत ही सरल, साधारण और प्राकृतिक मानवीय भाव है। जहां लव हो वहां जिहाद नहीं हो सकता और जहां जिहाद हो वहां प्यार नहीं हो सकता।
हाल ही में उत्तर प्रदेश में लव जिहाद का अध्यादेश प्रभावी हो गया है। राज्यपाल ने गैरकानूनी तरीके से धर्मांतरण पर रोक से जुड़े अध्यादेश को मंजूरी दे दी। इससे पहले मध्य प्रदेश सरकार लव जिहाद पर कानून लाने की तैयारी कर चुकी है। हरियाणा, कर्नाटक और कई अन्य बीजेपी शासित राज्यों में भी लव जिहाद पर कानून लाने की कवायद चल रही है। कानून के मुताबिक, जबरदस्ती प्रलोभन से किया गया धर्म परिवर्तन संज्ञेय और गैर जमानती अपराध होगा। इस कानून को तोड़ने पर कम से कम ₹रु 15,000 जुर्माना और 1 से 5 साल तक की सजा होगी। यही काम नाबालिक या अनुसूचित जाति, जनजाति की लड़की के साथ करने में ₹रु 50,000 जुर्माना और 3 से 10 साल तक की सजा होगी। धर्म परिवर्तन के लिए तयशुदा फॉर्म भर कर दो महीने पहले जिला अधिकारी को देना होगा।

नए कानून के मुताबिक आपको साबित करना होगा कि आपका रिश्ता जबरन धर्म परिवर्तन या किसी प्रलोभन के तहत नहीं है। जब तक यह साबित होगा तब तक क्या लड़का-लड़की सुरक्षित होंगे? उनकी जान को कोई खतरा नहीं होगा, इसकी जिम्मेदारी कौन लेगा? लोग उन्हें चरित्र का सर्टिफिकेट नहीं देंगे इसकी क्या गारंटी होगी? इस जांच के दौरान कभी न भरने वाली जो मानसिक, शारीरिक और भावनात्मक चोट पहुंचेगी उसका जिम्मेदार कौन होगा? क्या किसी को पसंद करना और अपने हिसाब से जिंदगी बिताना कोई पाप है? क्या धर्म इतना कमजोर होता है कि शादी करने से खतरे में पड़ जाता है? 

यदि हम अपने आसपास मौजूद जोड़ों जो दो अलग-अलग धर्म से वास्ता रखते हों, के वैवाहिक जीवन को देखने की कोशिश करें तो हम पायेंगे कि उनका जीवन आमतौर पर अच्छा ही चल रहा होता है। दोनों के परिवारों द्वारा देर सबेर वे स्वीकार ही कर लिए जाते है और मिलकर खुशनुमा जीवन जी रहे होते हैं। उनके जीवन में संकट और मुसीबत तब आने लगती है जब बाहर से कोई पार्टी, समुदाय या कोई संगठन निजी, धार्मिक या चुनावी स्वार्थ के लिए उनके जीवन में  गैर-जरूरी हस्तक्षेप करने लगे और अचानक किसी एक धर्म पर आये संकट के रूप में उसे प्रस्तुत करने लगे।    

भारत सांस्कृतिक, धार्मिक और भाषाई विविधताओं से भरा देश है। हमारे संविधान निर्माताओं ने संविधान लिखने से पहले सारे पहलुओं के बारे में सोच समझकर ही संविधान रचा। हमारा संविधान हमें अपनी पसंद से रहने, कहीं भी बसने, नौकरी करने, जीवनसाथी चुनने और यहां तक कि धर्म चुनने या छोड़ने का अधिकार भी देता है। इसमें दो अलग-अलग धर्मों की शादी के लिए ‘स्पेशल मैरिज एक्ट’ का प्रावधान भी दिया गया है। ऐसे में इस नए कानून की जरूरत है भी या ये सिर्फ नफरत के शतरंज को जीतने का एक मोहरा भर है।

भारत में तो सदियों से विभिन्न नस्लें और विभिन्न धर्मों के लोग आकर बसते रहे हैं। भारत की धरती और हमारे पुरखों ने बाहें फैलाकर उन्हें अपनाया है। हमारा संविधान एक धर्मनिरपेक्ष राज्य की स्थापना करता है, जिसमें राज्य का अपना कोई धर्म नहीं होता, राज्य धार्मिक मामलों से अलग रहता है और धर्म नागरिकों का निजी मसला माना जाता है। हर नागरिक को धार्मिक स्वतंत्रता का मौलिक अधिकार प्राप्त है। ऐसे में यह कानून न सिर्फ व्यक्ति के धार्मिक और मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है बल्कि राज्य के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप पर भी चोट करता है।

लव जिहाद कानून का सबसे पहला केस जो सामने आया है वह है पिंकी और राशिद का। पिंकी और राशिद देहरादून में नौकरी करते थे, दोनों एक दूसरे को पसंद करने लगे। पिंकी ने शादी का प्रस्ताव रखा और दोनों ने शादी कर ली। शादी के बाद पिंकी ने इस्लाम को अपना लिया और अपनी इच्छा से नाम बदलकर मुस्कान रख लिया। कुछ दिनों बाद उन दोनों को धमकी भरे फोन आने लगे जिसमे उन्हें अलग करने से मौत तक कि धमकी शामिल थी। मुस्कान ने देहरादून के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक को मदद के लिए पत्र लिखा और मदद की मांग की। 
कोरोना के चलते दोनों के ऑफिस बंद हो गए तो फिर वे लौटकर राशिद के गांव मुरादाबाद आ गए। थोड़े दिन बाद मुस्कान को पता चला कि वो मां बनने वाली है। दोनों अपनी नई जिंदगी की शुरुआत करने के लिए अपनी शादी रजिस्टर करवाने कोर्ट में गए और वापसी में बजरंग दल के सदस्यों ने उन्हें रोक लिया। उन्होंने पूछताछ करने के बाद नए कानून के तहत दोनों को थाने ले जाकर पुलिस के हवाले कर दिया।
मुस्कान गिडगिडाती रही कि वह मां बनने वाली है मगर उसकी एक न सुनी गई। राशिद और उसके भाई को जेल में डाल दिया गया, वही मुस्कान को जबरदस्ती नारी निकेतन में भेज दिया गया। नारी निकेतन के बारे में वह कहती है कि वह किसी जेल से कम नहीं था। वहां ऊंची-ऊंची दीवारें हैं ताकि बाहर का कुछ भी दिखाई ना दे और दीवारों में चारों ओर से तार की बाड़ थी। उस नारी निकेतन में मुस्कान के अलावा 35-40 और लड़कियां थी। दो दिन वहां रहने के बाद उसे पेट में दर्द महसूस हुआ तो उसे हॉस्पिटल ले जाया गया। वहां उसे बिना किसी जानकारी के दवाई और इंजेक्शन दिए जाने लगे। मुस्कान का गर्भ 3 महीने का था अब तक उसे कोई परेशानी नहीं हुई थी, अचानक उसको खून बहने लगा। मुस्कान ने अपना बच्चा खो दिया था। उसे न कुछ बताया गया और न ही कोई रिपोर्ट दी गयी। एक इंटरव्यू में मुस्कान ने बताया कि उसका जबरन गर्भपात करवाया गया है।

धारा 312, 313 और 315 के मुताबिक यदि कोई भी व्यक्ति मां की अनुमति के बिना उसका गर्भपात करवाता है या बच्चे को कोख में ही मारने की कोशिश करता है तो संबंधित व्यक्ति को दंडित किया जाएगा। मुस्कान गिडगिडाती रही कि उसके बच्चे को मारा गया है लेकिन इस बात पर उत्तर प्रदेश सरकार ने कोई संज्ञान नहीं लिया। जिस समाज में हजारों बलात्कारों को आसानी से हज़म कर दिया जाता है वहां इनसे एक प्रेम विवाह हज़म नहीं होता है।

भारत जैसे आजाद देश में जहां आजादी के लिए इतने बलिदान दिए गए हो, लड़कर अपना हक, आजादी, बराबरी, सम्मान और फैसले लेने का मौलिक अधिकार हासिल किया गया हो वहां अपने इतिहास को ठुकरा कर दोबारा से गुलामी और सामंतवादी वक्त में हमें लौटाया जा रहा है। इन सभी लोगों को इतिहास उठा कर पढ़ लेना चाहिए जो दूसरों के मसीहा बनते हैं और खुद को पूरे भारत के केयरटेकर समझते हैं। हमारे इतिहास में औरतों ने आजादी की लड़ाई में बराबर साथ दिया है। भारतवर्ष के निर्माण में उनकी भी पूरी भागीदारी है। देश में जितना हक एक पुरुष का है उतना ही एक महिला का भी है। ऐसे में किसी पुरुष को किसी महिला के फैसले लेने का कोई अधिकार नहीं है।

नए कानून के समर्थन में लोग कहते हैं कि ये हिंदू लड़कियों की सुरक्षा के लिए बनाया गया है। ऐसे में कोई उन्हें बेवकूफ नहीं बना पाएगा। सवाल ये है कि क्या हिंदू लड़कियां इतनी बेवकूफ है कि 2020 में भी अपने फैसले खुद नहीं ले सकती हैं? क्या उनके मां-बाप ने उन्हें समझदार नहीं बनने दिया? क्या उनके पालन-पोषण में कोई कमी रह गई? क्या उनके दिमाग का विकास नहीं हो पाया है? क्या वे अब भी गुलाम है? क्या वो आपके हाथों की कठपुतलियां हैं? इन प्रश्नों का जवाब सिर्फ यही हो सकता है – नहीं
-शालिनी

Wednesday, December 9, 2020

9 दिसंबर: रुकैया हुसैन दिवस


हमारी पुरखिन रुकैया हुसैन



दिल्ली का घेराव किये किसानों के आन्दोलन की गहमागहमी के बीच हमारी एक पुरखिन, 19वीं सदी में दक्षिण एशिया में महिला शिक्षा, समानता और स्वतंत्रता की पुरोधा रोकैया हुसैन को नमन. कैसा इत्तेफाक है कि आज यानि 9 दिसम्बर को उनका जन्मदिन भी है और मृत्युदिवस भी. इसीलिये हम 9 दिसंबर को रूकैया हुसैन दिवस के रूप में मनाते हैं।
सवाल ये है कि आज के समय में हम उन्हें क्यों याद करें? क्योंकि सवा सौ साल पहले उन्होंने भारतीय उपमहाद्वीप के पिछड़े समाज में ये प्रश्न उठाये - 
हम समाज का आधा हिस्सा हैं, हमारे गिरे-पड़े रहने से समाज तरक़्क़ी कैसे करेगा? हमारी अवनति के लिए दोषी कौन है?
हम सुनते हैं कि धरती से ग़ुलामी का राज ख़त्म हो गया है लेकिन क्या हमारी ग़ुलामी ख़त्म हो गई है? नहीं न....
आखिर हम दासी क्यों हैं?
पूर्वी बंगाल(बंगलादेश) में 1880 में पैदा हुईं रोकैया हुसैन ने कभी स्कूल का मुंह नहीं देखा पर उनके भाइयों ने उन्हें घर पर पढ़ाया. इस पढ़ाई का यह असर पड़ा कि वो बड़ी शिद्दत से अपने आसपास कि औरतों की स्थितियों और उन्हें न पढाये जाने के पीछे के कारण भली-भाँती समझने लगीं. तभी तो उन्होंने लिखा,
‘जब स्त्रियां पढ़ती हैं, सोचती हैं और लिखने लगती हैं तो वे उन बातों पर भी सवाल उठाने से घबराती नहीं जिन पर यह पितृसत्तात्मक समाज टिका है.’
ऐसे समय में जबकि औरतों का पढ़ना गुनाह माना जाता था,  तब उन्होंने लगातार लड़कियों की पढाई के बारे में सोचा. जब उनका विवाह भागलपुर के एक उदार अफसर सैयद सखावत हुसैन के साथ हुआ और उन्हें कुछ करने का अवसर मिला तो उन्होंने वहां लड़कियों का एक स्कूल खोला और पति की मृत्यु के बाद कलकत्ता को केंद्र बनाकर एक और स्कूल खोला जो आज भी चल रहा है.
अपने इन कामों के कारण रोकैया को बंगाल में ईश्वरचंद विद्यासागर जैसे सुधारक जैसा सम्मान मिला. लेकिन बंगाल के बाहर वे अपनी साहसपूर्ण नारीवादी कहानियों और उपन्यास के लिए जानी गईं।
अपने लेखन में वे कहती हैं, 'पुरुषों के बराबर आने के लिए हमें जो करना होगा, वह सभी काम करेंगे. अगर अपने पैरों पर खड़े होने के लिए, आज़ाद होने के लिए हमें अलग से जीविका अर्जन करना पड़े, तो यह भी करेंगे. अगर ज़रूरी हुआ तो हम लेडी किरानी से लेकर लेडी मजिस्ट्रेट, लेडी बैरिस्टर, लेडी जज- सब बनेंगे.
हम अपनी ज़िंदगी बसर करने के लिए काम क्यों न करें?
क्या हमारे पास हाथ नहीं है, पाँव नहीं है, बुद्धि नहीं है? हममें किस चीज़ की कमी है?
एक बात तो तय है कि हमारी सृष्टि बेकार पड़ी गुड़िया की तरह जीने के लिए नहीं हुई है.'
अपनी एक किताब 'स्त्रीि जातिर अबोनीति' यानि 'स्त्रीे जाति की अवनति' के ज़रिए वे अपनी जाति यानी स्त्रियों से मुख़ातिब हैं. वे स्त्रियों की ख़राब और गिरी हुई सामाजिक हालत की वजह तलाशने की कोशिश करती हैं. उन्हें अपनी हालत पर सोचने के लिए उकसाती हैं.
वह लिखती हैं, 'सुविधा-सहूलियत, न मिलने की वजह से, स्त्री जाति दुनिया में सभी तरह के काम से दूर होने लगीं. और इन लोगों को, इस तरह ना़क़ाबिल और बेकार देखकर, पुरुष जाति ने धीरे-धीरे इनकी मदद करनी शुरू कर दी....जैसे-जैसे, मर्दों की तऱफ से, जितनी ज़्यादा मदद मिलने लगी, वैसे-वैसे, स्त्री जाति, ज़्यादातर बेकार होने लगी. हमारी ख़ुद्दारी भी ख़त्म हो गई. हमें भी दान ग्रहण करने में किसी तरह की लाज-शर्म का अहसास नहीं होता. इस तरह हम अपने आलसीपन के ग़ुलाम हो गए. मगर असलियत में हम मर्दों के ग़ुलाम हो गए. और हम लम्बे समय से मर्दों की ग़ुलामी और उनके आदेशों का पालन करते-करते अब ग़ुलामी के आदी हो चुके हैं...'
रोकैया सबसे ज्यादा जानी जाती हैं अपने एक साइंस फिक्शन के लिए. ‘सुल्तानाज़ ड्रीम’ नामक उनकी कहानी एक साइंस फिक्शन है जो 1905 में मद्रास (चेन्नई) से निकलने वाली ‘इंडियन लेडीज़ मैग्जि़न’ में छपी थी.
इस कहानी में एक काल्पनिक दुनिया रची गई जिसमे स्त्री और पुरुष के कामों और उनकी हैसियत को उलट दिया गया है. सारे पुरुष दबे-दबे और परदे के अंदर रहते हैं जबकि देश की बागडोर महिलाओं के हाथ में है. यहाँ हथियारों के लिए कोई जगह नहीं है. इस लोक में लड़कियों के अलग विश्वविद्यालय हैं. यहाँ की स्त्रियों ने सूरज की ता़कत का इस्तेमाल करना सीख लिया है और वे बादलों से अपने हिसाब से पानी लेती हैं. पर्यावरण का ख़्याल रखती हैं. आने जाने के लिए हवाई साधन का इस्तेमाल करती हैं. तकनीक की सहायता से बिना श्रम के खेती करती हैं. और तो और यहाँ जघन्य अपराध के लिए भी मौत की सज़ा भी नहीं है.

रुक़ैया ने एक उपन्यास भी लिखा था-'पद्मराग'. इसमें अलग-अलग धर्मों और क्षेत्रों की उत्पीड़ित बेसहारा महिलाएं, एक साथ रह कर एक नई दुनिया बसाने की कोशिश करती हैं. वे अपने पांव पर खड़ी हैं और आजादख्याल हैं.
रोकैया ने ‘सुल्तानाज़ ड्रीम’ में जहां सामाजिक जकड़न में रह रही स्त्री जाति की ‘आह’ और गुस्से को एक फंतासी का रूप दिया तो ‘पद्मराग’ उपन्यास में एक रास्ता भी दिखाया. उनके बारे में बात करते समय हमें हमेशा यह याद रखना होगा कि 19वीं सदी के भारत में एक मुसलमान स्त्री इसे लिख रही थी. इस तरह की प्रगतिशील, बराबरी की उम्मीद और मांग करती, ‘मर्दों की तौहीन’ करती उनकी बातों के कारण उन्हें मुल्ला मौलवियों और पुरातनपंथियों की सख्त आलोचनाओं का लगातार शिकार होना पड़ा. लेकिन वो घबराई नहीं. कठमुल्लावादियों के प्रहार पर वे बड़े इत्मीनान और मजाकिया स्वर में कहती हैं कि, ‘जब वे खुर्सियांग घूमने गईं तो अपने साथ वहां के पत्थर लाई, उड़ीसा और मद्रास के सागर तट से सीपियाँ और शंख बटोर कर लाई लेकिन अब समाज बदलाव का काम करते हुए कठमुल्लाओं की गालियाँ और लानत-मलामत इकट्ठा कर रही हूँ’।
वास्तव में रोकैया हुसैन देश की शुरुआती नारीवादियों में से एक कही जा सकती हैं जिन्होंने बिना घबराये और कमजोर पड़े लड़कियों और महिलाओं को नया रास्ता दिखाने, उनके लिए नये रास्ते खोलने और पुराने मूल्यों को तोड़ देने की हिम्मत पैदा की. आज भले ही नारी विमर्श बहुत आगे बढ़ गया हो लेकिन रूकैया हुसैन ने नारी विमर्श से जुड़े जिन गंभीर मुद्दों को आज से सवा सौ साल पहले उठाया वे आज भी जिंदा हैं।

Saturday, March 7, 2020

भूमिहीन महिलाएँ




आदिम काल में जब आदिमानव अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे थे तो ठीक उसी वक्त लड़ाई की एक कमान महिलाओं के हाथ में थी। कृषि की अविष्कारक महिलाएँ ही मानी जाती हैं। जब मानव सभ्यता शुरू हुई तो पुरुष शिकार पर जाते थे और महिलाएँ जंगल से बीज लाती थीं और उनको घर के पास उगा कर खाने के लिए तैयार करती थीं। लेकिन बीज संरक्षक महिला और खेती की जननी अब भूमिहीन किसान है, क्योंकि कमजोर भूमि सुधार नीति के चलते महिला किसानों का हक मारा जा रहा है। 
2013 में भूमि सुधार नीति में महिलाओं को पैतृक सम्पति पर हक की बात कही गयी थी। मगर सदियों से चलती आ रही कुरीति का तोड़ इस भूमि सुधार नीति में भी नहीं था। एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी पुत्रों को सम्पति सौंपी जा रही है, कुछ ने इसको परम्परा के नाम पर किया और कुछ ने धर्म के नाम पर। मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने भी महिलाओं को कृषि भूमि के अधिकार से वंचित रखा है। ऑक्सफैम के अनुसार ग्रामीण भारत की 85 प्रतिशत किसान महिलाएँ हैं। मगर केवल 13 प्रतिशत कृषि भूमि उनके नाम पर पंजीकृत है। सिर्फ समाज से ही नहीं बल्कि सरकारी तन्त्र और सरकार से भी लड़ना है, किसान क्रेडिट कार्ड सिर्फ किसानों के बन सकते हैं। महिलाएँ तो खेतों में मजदूर हैं। तत्कालीन वित्तमंत्री अरुण जेटली ने बजट पेश करते हुए कई बार “प्रिय किसान भाइयो” कहा। ऐसा कहने वाले सदन के वे पहले नेता नहीं थे। वास्तव में महिला किसानों के अस्तित्व को नकार देना एक पूरी अर्थव्यवस्था को ही नकार देने जैसा है। 
महिलाओं की असमान आय की बात पहले से ही बहुत कम उठायी जाती है और अगर कहीं सुनायी भी देती है तो ज्यादातर द्वितीयक क्षेत्र और सेवा क्षेत्र से। प्राथमिक क्षेत्र की कृषि मजदूरांे की आवाज शायद ही इन मंचों से उठायी गयी।
1957 की बात है विश्वनाथ जो मुरादनगर के पास थाना अध्यक्ष थे उनके गाँव यह खबर पहुँच गयी कि उनकी ड्यूटी पर मौत हो गयी है। उनके घर में उनकी पत्नी जो केवल 32 साल की थीं वह विधवा हो गयीं। घर में 5 बच्चे, जिनमें 2 बेटियाँ और 3 बेटे थे। सबसे छोटा बेटा 2 साल का था। विश्वनाथ की पत्नी कल्याणी की जिन्दगी उसी तरह चलती रही। हर रोज कल्याणी का काम था सुबह 4 बजे उठ के अपनी गायों की सफाई करके चारा काटना, दूध निकलना, घर की सफाई करना, घरवालों के लिए दिन का खाना बनाना, बच्चों को स्कूल भेजना, फिर नाश्ता करके खेतो में चले जाना जहाँ कमरतोड़ मेहनत करना। दिन में गायों को जंगल लेकर जाना और जंगल से कई किलो लकड़ियाँ और घास लेकर आना और शाम को घर लौट कर फिर से गायों का दूध निकालना और फिर रात के खाने की तैयारी करना। इस बीच छोटे बेटे का भी ख्याल रखना। करीब 10 बजे अपनी कमर सीधी करना। पेंशन करीब 1 साल बाद मिलनी शुरू हुई। इस बीच कल्याणी की एक बेटी की कुपोषण की वजह से मौत हो गयी। अ/िाकांश महिलाओं की दिनचर्या किसी भी देश के श्रम कानून को शर्मसार करने के लिए काफी है। सातांे दिन और 12 महीने बिना किसी छुट्टी के कड़ी मेहनत करती हैं वह भी बिना किसी नियमित वेतन के। 
भारत की कृषि और पशुपालन महिलाओं के बिना असम्भव है। भारत के प्राथमिक क्षेत्र की रीढ़ महिलाएँ हैं। 2019 से पहले और आज 2019 में महिलाओं की स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया है। कल्याणी खेतों में सुबह से शाम तक मजदूरी करती थी। मगर वो किसान नहीं थी। आज भी महिलाओं के नाम पर बहुत कम भूमि पंजीकृत है। आज भी पुरुष बीड़ी पीते हुए पत्ते खेलते हुए गाँव की किसी चाय की दुकान के पास महफिल सजाये दिख जायेंगे क्योंकि वे जमीन के मालिक हैं। पुरुषों को जहाँ मालिकाना हक विरासत में मिला है वहीं महिलाओं को एक बहुत लम्बी लड़ाई के लिए तैयार होने की जरूरत है।

–– इना बहुगुणा

अभी संघर्ष बाकी है





दुनिया भर में महिलाओं की जिन्दगी में कितना विरोधाभास है––– एक तरफ दो अन्तरिक्ष वैज्ञानिक महिलाओं ने धरती से लाखों किलोमीटर दूर अन्तरिक्ष में चल कर इतिहास रचा तो दूसरी ओर भारत में पति की लम्बी आयु के लिए करवा चैथ का व्रत रखने के बाद एक महिला अपने ही पति के हाथों कुल्हाड़ी से काट दी गयी। स्वीडन की एक बच्ची ग्रेटा थर्नबर्ग पिछले कुछ महीनों से अपनी मर्जी से स्कूल की पढ़ाई छोड़ कर दुनिया के तमाम मुल्कों में घूम–घूम कर गहराते पर्यावरण संकट पर सरकारों को फटकार रही है तो ठीक उसी समय यहाँ अपनी पढ़ाई जारी रखने के लिए लडकियाँ हर रोज कदम–कदम पर संघर्ष कर रही हैं। यहाँ तो हाल यह है कि बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय जैसे विश्व प्रसिद्ध संस्थान की लड़कियों को छेड़छाड़ करने वाले अध्यापक के खिलाफ केस दर्ज करने के लिए हफ्तों प्रदर्शन करना पड़ता है और एक प्रतिष्ठित कॉलेज की छात्राओं को संस्कारी दिखने के लिए घुटने के नीचे तक की कुर्ती पहने का फरमान जारी किया जाता है। इस तरह संस्कार निभाने की सारी जिम्मेदारी लड़कियों और महिलाओं के कन्धों पर डाल कर यह पितृसत्तावादी समाज “भारमुक्त” होकर हाथ में धर्म और संस्कारों का कोड़ा लिए स्त्री जाति को सुधारने के महाअभियान पर फिर से निकल पड़ता है।
सच तो यह है कि दुनिया की जो सभ्यताएँ और धर्म जितने पुराने हैं वहाँ के समाज उतने ही पिछड़े और जकड़न भरे हैं। हजारों सालों में वहाँ धर्म, राजनीति, संस्कार, रीति–रिवाज, आचार–संहिताएँ, सब ने मिलकर एक ऐसा सजावटी आवरण तैयार किया है जिसमें लिपटा समाज बाहर से बड़ा ‘संस्कारी’ लगता है पर उसके भीतर घोर सडांध और बजबजाहट होती है। ये सब मिलकर पितृसत्ता को बनाये रखने में कोई कसर नहीं छोड़ते। जो भी घटना या बात पितृसत्ता को बनाये रखने में उपयोगी हो सकती है उसे ‘संस्कार’ कह कर बचाये रखा जाता है चाहे वह व्रत हो, आचार–व्यवहार हो, पिता की सम्पत्ति में बँटवारा हो, घरेलू काम हों या बाहर के काम, प्रेम या विवाह का मसला हो, सौन्दर्यबोध या कपड़े पहनने का मामला हो, सब ऐसे संस्कारी चश्मे से देखे जाते हैं जिसमें लड़कियों और महिलाओं के लिए सिर्फ बन्धन ही बन्धन हैं।
आजादी के बाद के कुछ दशकों में स्वतन्त्रता संघर्ष के ताप, औरतों के पक्ष में बने कानूनों, आर्थिक क्षेत्रों में मिलने वाले थोड़े अवसरों के कारण और आज की तुलना में थोड़े ही सही पर कुछ राजनीतिक आदर्शवाद, और सबसे बड़ी बात महिला आन्दोलन के जुझारू संघर्षों के कारण कहीं न कहीं स्थिति थोड़ी बेहतर हुई थी। परन्तु पिछले कुछ सालों में तो फिर से महसूस होने लगा है कि हमने जितना कुछ पाया उसे एक–एक कर छीना जा रहा है। लड़कियों और महिलाओं के लिए इतना असुरक्षित समाज आजादी के बाद से कभी नहीं रहा। यह असुरक्षा तब और खतरनाक हो जाती है जब सत्तासीन राजनीतिक दल के बलात्कारी नेताओं को बचाने में कोई कसर नहीं छोडी जाती। ‘संस्कार’ तब क्या शर्म से नहीं गड़ जाता जब बलात्कारी के पक्ष में जुलूस और रैलियाँ निकाली जाती हैं ? तब संस्कार कहाँ जाता है जब सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोग कुछ नहीं कहते और बलात्कार पीड़िता और उसके परिवार के मनोबल को तोड़ने के लिए सभी आपराधिक तरीके अपनाये जाते हैं ?
हम उन तमाम बलात्कार पीड़िताओं और उनके परिवारों के जज्बे और उनकी जिजीविषा को सलाम करते हैं जो घोर राजनीतिक–सामाजिक–प्रशासनिक दबावों के बावजूद अपने ऊपर हुए शारीरिक–मानसिक अत्याचार से टूटी नहीं और अपराधी का नंगा चेहरा समाज के सामने लाने में सफल रहीं या आज भी संघर्षरत हैं।
आज संसद का उद्देश्य और लक्ष्य बदल चुके हैं और उसके साथ ही राजनीतिक संस्कृति भी बदल चुकी है। अब जनता के हित केन्द्र में नहीं हैं। आगे बढ़ने के लिए सही–गलत, नैतिक–अनैतिक कुछ भी करना अब गलत नहीं माना जाता, इस स्वार्थी व्यवस्था ने सत्ता का हिस्सा बन चुकी महिला सांसदों को भी कितना कमजोर और छोटा बना दिया है जो बलात्कार की जघन्य घटनाओं पर चुप्पी साध लेती हैं ताकि उनकी पार्टी पर कोई आँच न आये। संसद में वे महिलाओं की प्रतिनिधि नहीं बल्कि पार्टी की सेविका की तरह काम करती हैं। दु:ख और क्षोभ की बात है कि बलात्कार जैसी घटनाओं पर चुप्पी साध कर वे पीड़िता के पक्ष में नहीं बल्कि बलात्कारी और कुल मिलाकर महिला विरोधी संस्कृति और राजनीति के साथ खड़ी हो जाती हैं। उनका महिला सशक्तिकरण पर लम्बे–लम्बे भाषण देना घिनौना लगता है।
दूसरी ओर देखें तो पिछले दशकों में धन और पूँजी की नीतियों के कारण एक ऐसी अर्थव्यवस्था तैयार हुई है जिसमें चरम स्वार्थ और लोभ–लाभ के लिए कुछ भी किया जा सकता है। इसका उदाहरण बीड, महाराष्ट्र में देखने को मिला जहाँ गन्ना खेतों में काम करने वाली महिलाओं की माहवारी को रोकने के लिए, उनके गर्भाशय निकाल लिए गये ताकि वे बिना किसी रूकावट के काम कर सकें–––! यह खबर अघोषित सेंसर से बच कर बाहर आ गयी। पर्दे के पीछे क्या हो रहा है इसका अन्दाजा ही लगाया जा सकता है। सेरोगेसी (किराये की कोख) के फलते–फूलते बाजार के बारे तो सभी को पता ही है।
यहाँ एक और महत्त्वपूर्ण बात, कश्मीर की महिलाओं की बात। पिछली कई सरकारों ने उन पर कम अत्याचार नहीं किये। उन पर सामूहिक बलात्कार की न जाने कितनी ही घटनाएँ हैं। वहाँ गायब कर दिये गये लोगों की बेसहारा पत्नियों की भारी तादाद है। पिछले कुछ महीनों में वहाँ जो भी चल रहा है उसके महिलाओं पर किस–किस तरह के शारीरिक–मानसिक–भावनात्मक प्रभाव पड़ रहे होंगे यह समझना कठिन नहीं है। कुछ रिपोर्ट आने भी लगी हैं।
उधर सुदूर ईरान की कहानी अलग है। वहाँ 40 साल के कड़े संघर्ष के बाद महिलाओं को स्टेडियम में जाकर फुटबॉल मैच देखने की अनुमति मिली। अभी उन्हें किस–किस मोर्चे पर लड़ना है इसका अन्दाज सहज ही लगाया जा सकता है। वहीं जमैका की एथलीट शैली एन फ्रेसर ने सबको अचरज में डाल दिया, जब बेटे को जन्म देने के कुछ ही महीने बाद विश्व 100 मीटर दौड़ प्रतियोगिता में उसने पुरुषों का रिकॉर्ड तोड़ फिर से यह साबित कर दिया कि महिलाएँ नैसर्गिक रूप से किसी से कम नहीं हैं। जैसे महिला आन्दोलन की सबसे महत्त्वपूर्ण नेताओं में से एक, सीमोन द बोउवार ने कहा था, “औरत पैदा नहीं होती बना दी जाती है,” हम कह सकते हैं कि “औरत हारती नहीं, हरा दी जाती है।”
औरतें जन्म देती हैं इसलिए धरती और पर्यावरण को भी बेहतर समझती हैं और उसे बचाने की लड़ाई में पुरुषों से कहीं आगे हैं, भारत में ही नहीं पूरी दुनिया में। चाहे वे अमेजन के जंगलों में लगी आग हो, या कनाडा में साफ पानी के लिए संघर्ष या ऑस्ट्रेलिया में कोयला खदानों द्वारा पर्यावरण विनाश, या फिर यहाँ भारत में तटीय इलाकों से लेकर पहाड़ों तक और झारखण्ड एवं छतीसगढ़ समेत तमाम आदिवासी इलाकों में पर्यावरण को बचाने की लड़ाई, आज महिलाएँ जुझारू तरीके से लड़ रही हैं।
वास्तव में पितृसत्ता के मजबूत बन्धनों के बावजूद महिलाओं ने बार–बार साबित किया है कि वे बेहद जिम्मेदार, संवेदनशील और समझदार नागरिक हैं। अपने संघर्षों से उन्होंने न केवल स्वयं को अपेक्षतया स्वतन्त्र किया है और स्वावलम्बी बनाया है बल्कि पूरे मानव समाज को भी आगे बढ़ाया है। मगर यह लड़ाई अभी अधूरी है। अभी उसे और लड़ा जाना बाकी है।
- आशु वर्मा

Saturday, February 29, 2020

मैरी क्यूरी : एक जाँबाज वैज्ञानिक




आज तक विज्ञान में सिर्फ 16 महिलाओं को ही नोबेल पुरस्कार मिला है। अन्य क्षेत्रों के कुल नोबेल पुरस्कारों में से सिर्फ 5 फीसदी ही महिलाओं की झोली में आये। बाकी 95 फीसदी पुरुषों के हाथ लगे। मैरी क्यूरी को विज्ञान की दो अलग–अलग शाखाओं में यह सम्मान मिला–– उनको 1903 में भौतिक विज्ञान के लिए और 1911 में रसायन विज्ञान में। नोबेल जीतने वाली वह पहली महिला के नाम से भी जानी जाती हैं। बचपन में मान्या नाम की चुलबुली लड़की से लेकर मैरी क्यूरी तक का सफर बहुत रोचक और संघर्षों से भरा हुआ है। इन दो–दो नोबेल के पीछे जो संघर्ष और लगन छुपी है उससे हमें प्रेरणा लेनी चाहिए। 
मैरी का जन्म पोलैण्ड के वारसा शहर में 7 नवम्बर 1867 को हुआ था। उस समय पोलैण्ड रूस का गुलाम था। रूस में निरंकुश जार का शासन था। जब पोलैण्ड गुलाम था तो पोलैण्ड की औरतें तो गुलामों की भी गुलाम थीं। औरतों को सिर्फ घर के काम करने होते थे। औरतों के लिए पढ़ना–लिखना, लड़कों के कंधों से कंधा मिलाकर काम करना, लम्बी–लम्बी यात्रा करना और देर से शादी करना समाज के रीति–रिवाजों के खिलाफ था। पूरे वारसा शहर में मैरी की माँ जैसी चार–छ: महिला ही पढ़ी लिखी थीं। इन महिलाओं ने मिलजुल कर लड़कियों के लिए एक स्कूल खोला था। मैरी की माँ इसकी प्रिंसिपल थीं और पापा दूसरे स्कूल में पदार्थ विज्ञान के अध्यापक। मैरी के जन्म के बाद ही उनकी माँ को तपेदिक की बीमारी ने घेर लिया। हालत बिगड़ती गयी और उन्हें स्कूल छोड़ना पड़ा। पर मेहनती थीं इसलिए घर पर ही बच्चों के लिए जूते सिलती रहती थीं। बचपन से ही जो शब्द मैरी ने सुने वे थे–– रूस का जार–––। साइबेरिया–––। षड़यंत्र। 
1863 में पोलैण्ड की निहत्थी विद्रोही जनता ने जार के खिलाफ आन्दोलन कर दिया। जार ने निर्ममता से आन्दोलन को कुचल दिया और आन्दोलनकारियों को फाँसी पर चढ़ा दिया या साइबेरिया भेज दिया। स्कूल में रूसी भाषा के अलावा अन्य भाषाओं के पढ़ने और पोलैण्ड के इतिहास पर रोक लगा दी। सभी स्कूलों में जार ने जासूस तैनात कर दिये। मैरी के पापा और उनके स्कूल के जासूस प्रिंसिपल में अक्सर लड़ाई हो जाती। एक दिन प्रिंसिपल ने उनकी नौकरी छीन ली। घर की आर्थिक स्थिति दयनीय हो गयी। मैरी की माँ ने बीमार हालत में ही एक छोटे स्कूल में नौकरी पकड़ ली, लेकिन कुछ ही दिनों बाद वह चल बसीं। इस घटना ने मैरी को झकझोर दिया। उसने मन ही मन सोचा। कितनी बार उसने ईश्वर से प्रार्थना की थी कि उसकी माँ को ठीक कर दे लेकिन ईश्वर ने इतनी सी न सुनी। अगर वह मनुष्य का इतना भला नहीं कर सकता तो वह क्यों उसकी प्रार्थना करे और क्यों गिरजाघर जाये। आज से मैरी गिरजाघर नहीं जाएगी। वह विद्रोही है। 
मैरी के पिताजी ने चारों बच्चों को सही ढंग से पाला–पोसा और पढ़ाया। बाकी सब भी पढ़ने में तेज–तर्रार थे। पर मैरी का कोई जवाब नहीं था। वह खूब पढ़ती, खूब मेहनत करती। इसी तरह 16 साल की मैरी ने स्कूल की परीक्षा पास कर ली। अब समस्या थी आगे की पढ़ाई कैसे और कहाँ हो। गुलाम देश की गरीब बेटी के लिए सभी दरवाजे बन्द थे। पर मैरी कहाँ हार मानने वाली थी। मैरी और उसकी बहन ब्रोन्या ने एक रास्ता खोज निकाला। दोनों ने योजना बनायी कि ट्यूशन पढ़ाकर रुपये इकट्ठे किये जायें और उन रुपयों से आजाद पेरिस में जाकर पिता वाली पदार्थ विज्ञान की पढ़ाई शुरू की जाये। 
उनके घर में रुपये की कमी थी पर नैतिक मूल्यों और बुराई के खिलाफ लड़ने की कमी न थी। शाम को चारों बच्चे अपने पिताजी को घेर कर बैठ जाते। पिताजी उन्हें खूब कहानी सुनाते। डिकेंस का लिखा उपन्यास है ‘डेविड कॉपरफील्ड’। यह बच्चों के जीवन पर आधारित एक उपन्यास है। मैरी के पिताजी ने इसका पोलैण्ड भाषा में अनुवाद कर दिया। 
पोलैण्ड में जिस तरह देश प्रेम पर रोक थी वैसे ही विज्ञान पर भी रोक लगी हुई थी। लेकिन कुछ मशहूर देश प्रेमी वैज्ञानिकों की लगन से चोरी–चोरी एक विश्वविद्यालय चलने लगा– “प्रदीप्ति विश्वविद्यालय”। इसमें रोज शाम को नौजवान लड़के–लड़कियों को विज्ञान और देश–प्रेम की शिक्षा दी जाती। उन्हें सिखाया जाता कि तुम जब भी जनता के बीच जाओ, उनके बीच उठो–बैठो, उनकी पुरानी रूढ़ियों को तोड़ो, उनमें नये वैज्ञानिक विश्वास भरो। दोनों बहनों ने बड़े उत्साह के साथ इस विश्वविद्यालय में दाखिला ले लिया। उनके लिए मनुष्य कल्याण और विज्ञान दोनों एक ही चीज बन गयी। 
लेकिन पैसे की कमी हल न हुई। पेरिस जाने का सपना अधूरा रहा। फिर मैरी ने एक दिन सलाह दी कि पहले ब्रोन्या को पेरिस भेज दिया जाये। कुछ दिन बाद रुपये इकट्ठे करके वह भी चली आयेगी। पिताजी और मैरी दोनों हर महीने ब्रोन्या के लिए रुपये भेजते। ब्रोन्या खूब अच्छे नम्बर से पास हुई। ब्रोन्या ने एक क्रान्तिकारी वैज्ञानिक से शादी की। उनको देश भक्ति के जुर्म में सरकार ने काले पानी की सजा दे दी थी। वे किसी तरह भागकर दोबारा पेरिस आ गये थे। यह बात मैरी के पिताजी को पहले से मालूम थी। वह भी शादी से खुश थे। 
खैर एक दिन मैरी के पास ब्रोन्या की एक चिट्ठी आयी–– “फौरन चली आ, मैं शादी कर रही हूँ। हमारे यहाँ तू बेखटके रह सकेगी। किराये के रुपयों का किसी तरह इन्तजाम कर ले और गाड़ी पर बैठकर पेरिस भाग आ।” मैरी पेरिस चली गयी और खूब मन लगाकर पढ़ाई की। वह बहन के घर ज्यादा दिन नहीं रही। विश्वविद्यालय के पास एक गरीब बस्ती में सस्ता कमरा किराये पर ले लिया। वह पढ़ने और प्रयोग के काम में इतनी लीन हो जाती कि खाना–पीना तक भूल जाती। धीरे–धीरे उसका स्वास्थ्य गिरता गया। एक दिन तो बेहोश ही हो गयी। उसके दोस्तों ने ब्रोन्या को खबर की, तब ब्रोन्या और उसके पति काशिमिर उसे घर ले गये। स्वस्थ होने पर मैरी फिर अपने काम में व्यस्त हो गयी। उसकी लगन और मेहनत देखकर एक नौजवान अध्यापक पियरे ने उसके सामने शादी का प्रस्ताव रखा। पियरे क्यूरी भी चर्चित वैज्ञानिक थे और वैज्ञानिक सोच समझ वाले परिवार से थे। दोनों ने शादी कर ली। 
दोनों ने समय बर्बाद न हो इसके इन्तजाम कर लिये थे। लेकिन फिर भी मध्यम वर्ग की पारिवारिक समस्याओं में उलझना ही पड़ता। खाना बनाना, बाजार से सामान लाना, कपड़े धोना इसमें काफी वक्त निकल जाता। मैरी ने खाना और पकवान बनाना भी सीख लिया। 1897 में इनके बेटी हुई–– इरीन क्यूरी। बड़ी होकर वह भी प्रसिद्ध वैज्ञानिक हुर्इं। 
इरीन के जन्म के पहले से ही मैरी पीएचडी पूरी करने के बारे में सोच रही थीं। वह और पियरे अक्सर ऐसी खोज के बारे में बात किया करते जो अब तक किसी ने न की हो और साथ ही वह मानव जीवन के लिए उपयोगी भी हो। इस समय तक वैज्ञानिकों ने प्रकृति में 92 मूल तत्व खोज लिये थे। तभी पेरिस के एक अध्यापक हेनरी बर्कले ने एक्स रे की खोज कर दी। साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि कोई यूरेनियम नाम का तत्व है, उससे भी ऐसी ही अदृश्य किरणें निकलती हैं। बस फिर क्या था, मैरी को अपनी खोज का विषय मिल गया था। उन्होंने सोचा कि वह अब तक मौजूद सभी तत्वों की जाँच करेंगी कि उनसे अदृश्य किरणें निकलती हैं कि नहीं। हो सकता है ऐसे और भी तत्व हों। और जिस तरह एक्स रे चमड़ी, खून, माँस को भेदकर हड्डियों के बारे में पता लगा लेते हैं वैसे ही इनसे निकलने वाली किरणें मानव जाति के लिए उपयोगी हांे। 
उन्हें अपनी रिसर्च के लिए भारी विनती के बाद विश्विद्यालय की निचली मंजिल पर सीलन भरा गोदाम टाइप का कमरा मिल गया। वहीं काम में लगी रहतीं। अपनी बेटी को भी साथ ले आतीं। उनके लिए औजार पियरे ने तैयार कर दिये थे। इसके बाद खोज हुई नये तत्व की। 1898 जुलाई का महीना था। नये रेडिओएक्टिव पदार्थ को अलग कर लिया गया था। अब सवाल आया कि इस नन्हे शिशु का नाम क्या रखा जाय। पियरे ने मैरी से पूछा। मैरी ने सोचा। उसे अपना पोलैण्ड याद आया। गुलाम पौलेण्ड। उसने नन्हे शिशु का नाम रखा पोलेनियम। अब तो सिलसिला आगे बढ़ गया। पियरे भी अब मैरी के साथ हो लिये। 1902 में उन्होंने रेडियम खोज निकाला। इसमें यूरेनियम से हजारों गुना ताकत वाली अदृश्य किरणें निकलती हैं। ब्रिटेन और अमरीका के वैज्ञानिक खुशी में पागल हो उठे। उन्होंने देखा कि कैंसर का समाधान रेडियम ही कर सकता है। मैरी और पियरे क्यूरी ने रेडियम को अलग करने का तरीका निकाल लिया था। अमरीका जैसे देशों ने उनके तरीके का इस्तेमाल करने के लिए अनुमति माँगी। इस दम्पत्ति ने जो जवाब दिया वह आज के वैज्ञानिकों के मुँह पर तमाचा भी है। इन्होंने कहा, “यह हमारी घरेलू सम्पत्ति तो है नहीं। हमने तो जनगण के कल्याण के लिए ही इसे खोजा था। हम इसे निकालने के तरीके को अखवार में छपवा देंगे जिससे हर किसी के काम आ सके।” आज पेटेंट करा के दवाइयों और खेती के लिए जरूरी बीज, खाद और फर्टिलाइजर्स की कीमत बेतहाशा बढ़ाने वाली कम्पनियों को इससे सबक लेना चाहिए कि विज्ञान किसी की घरेलू सम्पत्ति नहीं। वह पूरी मानवजाति की उपलब्धि है। 
1903 में मैरी क्यूरी को पदार्थ विज्ञान में योगदान के लिए नोबेल पुरूस्कार दिया गया। इसके बाद इन्होने रेडियम को ठोस धातु के रूप में तैयार किया। इसके लिए रसायन विज्ञान में उन्हें 1911 में फिर से नोबेल पुरूस्कार मिला। इस तरह वह विज्ञान की दुनिया में ऐसी पहली महिला बनीं। पति पियरे की मृत्यु के बाद उनके खाली पद की जिम्मेदारी भी मैरी क्यूरी को दी गयी। क्योंकि पूरे विश्वविद्यालय में पदार्थ विज्ञान का अध्यक्ष बनने के लिए और कोई इतना योग्य नहीं था। पहली बार किसी महिला ने यह पद सम्भाला था। 
उन्होंने पियरे क्यूरी की याद में एक प्रयोगशाला बनायी। पोलेण्ड में रेडियम प्रतिष्ठान बनवाया। आजीवन शांतिपूर्ण समाज की स्थापना के लिए प्रयास करती रहीं। इसीलिए जब ‘लीग ऑफ नेशन्स’ ने राष्ट्रों के बीच एकता बनाने को समिति बनायी तो मैरी ने उसमें सक्रिय भागीदारी की। उन्होंने कहा कि पूरी दुनिया के लिए एक जैसी वैज्ञानिक शब्दावली का उपयोग किया जाये। अब तक किये गये आविष्कार और विज्ञान की पुस्तकों की सूची बनायी जाये और दुनिया में किसी भी देश के वैज्ञानिक का काम रुपये की कमी के चलते न रुक पाये इसकी व्यवस्था की जाये। 
जिन्दगी भर विज्ञान और जनता के लिए काम करने वाली मैरी का शरीर अब जवाब देने लगा था। आँखों का चार बार ऑपरेशन होने के बाद भी ठीक न हो पायीं। फिर भी जो ज्ञान उन्होंने अर्जित किया उसे वे लिखती रहीं। उनकी किताब रेडिओएक्टिव पूरी हो गयी। पर हालत ज्यादा खराब होने लगी। डॉक्टर ने बताया कि मैरी ने प्रकृति से जिस तत्व को समाज के लिए छीना था आज वही हम से मैरी को छीन रहा है। रेडियम की किरणों ने मैरी के खून के कणों को प्रभावित करना शुरू कर दिया था। 
4 जुलाई 1934 की सुबह आसमान नीला था। सूरज की पहली किरण ने मैरी के माथे को छुआ और माथे के नीचे हमेशा के लिए बन्द हो गयी आँखों को प्यार किया। इस तरह इस महान वैज्ञानिक ने संसार से हमेशा के लिए विदाई ले ली। मैरी क्यूरी भले ही आज हमारे बीच नहीं हैं पर उनके विचार, उनके संघर्ष हमारे लिए हमेशा प्रेरणा के स्रोत रहेंगे।

–– शशि चैधरी

Saturday, February 22, 2020

पर्यावरण की रक्षा करती महिलाएँ



कुछ दिन पहले पृथ्वी का फेफड़ा कहा जाने वाला अमेजन वर्षा वन आग की लपटों में हफ्तों तक जलता रहा और यह बात हम लोगों को सोशल मीडिया के जरिये पता चली। समाचारों में इसका कहीं कोई जिक्र नहीं था, जो टीवी एंकर रात को प्राइम टाइम पर आकर गला फाड़–फाड़ कर बताते हैं कि चाँद पर क्या हो रहा है, मंगल में कैसे झाँके, परमाणु हमले में कैसे बचें आदि, उन्हें इस बात से कोई सरोकार नहीं कि अमेजन धधक रहा है।
आग लगने की रिपोर्ट सबसे पहले ब्राजील के राष्ट्रीय अन्तरिक्ष अनुसंधान संस्थान ने जून और जुलाई 2019 में दी, लेकिन इस मुद्दे को तब गम्भीरता से लिया गया जब नासा के सेटेलाइट से धुएँ की तस्वीर सामने आयी।
धुआँ इतना अधिक था कि शाओ पाब्लो शहर जो अमेजन जंगल से 2790 किमी दूर है, धुएँ की चादर से ढक गया, लगभग 22,40,000 एकड़ जंगल जले जो पूरे जंगल का लगभग 60 प्रतिशत है। 2018 के मुकाबले 2019 में ये आग 84 प्रतिशत बढ़ी है।
इस आग का सबसे ज्यादा असर वहाँ रहने वाली जनजातियों पर पड़ा। ब्राजील की अमापा राज्य का वापी समुदाय इस भीषण आग से सर्वाधिक प्रभावित हुआ। वर्षा वन में आग जनवरी से लगनी शुरू हुई, तब वहाँ के बुजुर्गों ने इस तरह की तबाही की भविष्यवाणी की थी “यदि हम मनुष्य इसी तरह ग्रह का दुरुपयोग करते रहे, तो सृष्टि का निर्माता एक दिन ऐसा दिन लायेगा जब महान आग होगी जो ग्रह को पिघला कर नष्ट कर देगी, यह समुदाय हमेशा से इसी जंगल में खाने, रहने, दवाइयों आदि के लिए आश्रित है।
इसी समुदाय की एक 59 वर्षीय महिला अजरती वापी अपनी हाईस्कूल भूगोल की कक्षा की सबसे उम्रदराज छात्रा हैं। इस उम्र में स्कूल जाना उनके मिशन का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा है ताकि वह अपने लोगांे और अमेजन के वर्षा वन में अपनी जमीन को बचा सके।
अजरती ने पुर्तगाली भाषा सीखनी भी शुरू कर दी है ताकि वह गोरों से बात कर अपनी बात दुनिया तक या एक ऐसी दुनिया में पहुँचा सके जो शायद इससे अनभिज्ञ है। कई वर्षों से वह इस सिलसिले में आने गाँव से ब्राजील, कोलम्बिया और जर्मनी तक जाकर अपने लोगों के स्वास्थ्य, जमीन व शिक्षा के अधिकार की बात रख चुकी है, जिनसे वे अभी तक वंचित हैं।
हालाँकि ये समुदाय पहली बार इन वनों के लिए नहीं लड़ा है, इससे पहले भी वे इन वनों और अपने अधिकारों के लिए लड़ चुके हैं जिसके फलस्वरूप 1996 में ब्राजील सरकार ने वापी की भूमि को चिन्हित कर इस समुदाय के लिए आरक्षित घोषित कर दिया था।
परन्तु हाल ही में इस भूमि पर गैरकानूनी खनन माफियों द्वारा अत्याधुनिक हथियारांे सहित आक्रमण किया गया जिसमें वापी के प्रमुख नेताओं में से एक एमर्या वापी की मृत्यु हो गयी।
हैरानी की बात यह है कि इन आक्रमणकारियों को ब्राजील के राष्ट्रपति बोलस्नारो द्वारा सरंक्षण दिया जा रहा है। ब्राजील के राष्ट्रपति बोलस्नारो के खिलाफ चल रहे विरोध को अनदेखा करना कठिन है। इन विरोधों में सबसे आगे मूलनिवासी महिलाएँ हैं, जो पर्यावरण और अपने अधिकारों के लिए लड़ रही हैं।
महीने की शुरुआत में, राष्ट्रपति की नीतियों के विरोध में सैकड़ों महिलाएँ ब्राजील की सड़कों पर उतर आयीं और राजधानी में स्वास्थ्य मंत्रालय की एक इमारत पर कब्जा कर लिया, जिसमें मूलनिवासी जनजातियों के लिए बेहतर स्वास्थ्य सेवा की माँग थी। बाद में वे ‘मार्गरीदास के मार्च’ में शामिल हुए, जहाँ उन्होंने बोल्सनारो की नरसंहार की नीतियों के खिलाफ विरोध किया और अमेजन वर्षा वन के संरक्षण का आह्वान किया। अपने धनुष, बाण और भाले का दान करते हुए महिलाओं ने बैनर लगाये, ‘अस्तित्व में लाने के लिए’ और मार्च करती हुई संसद की ओर बढ़ गयी।
वहीं दूसरी ओर एक्वाडोर की जनजाति वोरानी ने तेल माफिया के खिलाफ कोर्ट केस जीत लिया है।
अपने जल, जंगल, जमीन को बचाने की लड़ाई में ओडिशा के पुरी में 70 महिलाओं के एक दल ने 185 एकड़ वाले मैंग्रोव के जंगल को बचाने की मुहिम चलायी है। 20 साल से लाठी डण्डों से लैस महिलाएँ शिफ्ट में रोज जंगल की रखवाली करती हैं। महिलाएँ जंगल को अपने परिवार के सदस्य के तौर पर मानती हैं। एक वक्त था जब चिपको आन्दोलन ने पर्यावरण सुरक्षा को राष्ट्रीय मुद्दा बना दिया तो इंदिरा गाँधी ने हिमालय के वनों में पेड़ों की कटाई पर 15 वर्षों तक प्रतिबन्ध लगा दिया था। स्थानीय निवासियों ने जंगलों में ठेकेदारों द्वारा पेड़ों की कटाई के विरोध में यह आन्दोलन शुरू किया था। जंगलों में पेड़ों की कटाई के खिलाफ लोग पेड़ों से चिपक गये थे और उनका कहना था कि पेड़ों के साथ हमें भी काट दिया जाये। इनमें मुख्य नाम गौरा देवी व उनके साथियों का आता है। आज जगह–जगह तमाम तरीकों से पर्यावरण को नुकसान पहुँचाया जा रहा है, पेड़ कट रहे हैं और उन पेड़ों को गले लगाने वाले बहुत कम बचे हैं।
सितम्बर 2019 में दुनिया भर के 16 युवाओं ने बाल अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र समिति के साथ जलवायु परिवर्तन के बारे में गम्भीर कानूनी शिकायत की। इनमें भारत की 11 वर्षीय याचिकाकर्ता रिद्धिमा पाण्डे भी थी। उसने कहा कि जलवायु परिवर्तन एक ऐसी समस्या नहीं है जिसे कोई भी देश अपने दम पर हल कर सकता है। इस संकट को हल करने के लिए सभी देशों को साथ आना चाहिए।
एक तरफ चैदह वर्षीय लड़की ऑटम पेल्टियर को उत्तरी ओंटारियो में 40 राष्ट्रों के लिए एक राजनीतिक वकालत करने वाले समूह एनिश्नबेक नेशन द्वारा मुख्य जल आयुक्त नामित किया गया है, जिसमें नॉर्थ शोर कॉरिडोर और मैनिटौलिन द्वीप के साथ प्रथम राष्ट्र भी शामिल हैं। पानी की रक्षा की तरफ पेल्टियर का ध्यान उस समय गया जब वह सिर्फ आठ साल की थी। ऑटम ने महान झीलों और पानी के दूसरे स्रोतों की रक्षा करने की वकालत की, और प्रधान मंत्री और विधानसभा के साथ स्वच्छ जल के महत्त्व पर बैठकें कीं। वर्ष 2018 में, पेल्टियर ने जल संरक्षण के सम्बन्ध में संयुक्त राष्ट्र में दुनिया के नेताओं के सामने अपनी बात रखी।
वहीं एक सोलह वर्षीय पर्यावरण कार्यकर्ता ग्रेटा थनबर्ग जिसने अपने देश स्वीडन में प्रदूषण के खिलाफ जंग शुरू की जो अब पूरी दुनिया में फैल चुकी है। जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र के कार्यक्रम में ग्रेटा ने विश्व नेताओं से कहा कि ‘आपने हमारे बचपन, हमारे सपनों को छीन लिया। आपकी हिम्मत कैसे हुई ?’ तो सभी निरुत्तर थे। लेकिन सवाल यह है कि कब तक ? ये जल, जंगल, जमीन हमारे लिए क्या मायने रखते हैं ये बात हमें समझ आती है, हम जैसे लाखों लोगों को समझ आती है तो हमारी सरकारों को क्यों नही ? ऐसे में तो मलाला युसुफजई की बात बिल्कुल सही साबित होती है “जब पूरा विश्व खामोश हो, तब एक आवाज भी ताकतवर बन जाती है।”

–– शालिनी  

Friday, February 7, 2020

‘नारी मुक्ति का राजनीतिक अर्थशास्त्र’ के 50 वर्ष


दूसरे विश्वयुद्ध से पहले के करीब डेढ़ सौ साल के मजदूर आन्दोलन ने समग्रता में श्रम की लूट और उससे अमीरों की तिजोरी भरने के खिलाफ लड़ाई लड़ी और अपने पक्ष में सिद्धान्त भी विकसित किया। लेकिन फ्रांसीसी क्रान्ति के समय से ही इस शोषण के चलते महिलाओं की दुर्दशा और उसके खिलाफ क्रान्तिकारी आन्दोलन की कोशिशों को नकारने के लिए पूँजीपति वर्ग ने जिसका सहारा लिया वह था “विज्ञान”। उन्हें पिछले अनुभवों से पता चल चुका था अगर वैज्ञानिक कहें कि महिलाएँ शारीरिक, मानसिक रूप से कमजोर होती हैं तो उसके खिलाफ बोलने वाले चुप हो जायेंगे। इसकी अगुआई फ्रायड जैसे नामचीन मनोवैज्ञानिक ने की। महिलाओं के बारे में प्रचलित कुसंस्कारों को उन्होंने खुद के इजाद किये मनोविज्ञान के जरिये पुनर्स्थापित करने की कोशिश की। उनक कहना था कि महिलाएँ मानसिक रूप से कमजोर इसलिए है क्योंकि वे अपने शरीर को पुरुष के शरीर की तुलना में कमतर पाती हैं। इतिहास में हम युजनिक्स, नस्लवाद जैसे गैर–बराबरी के समर्थक सिद्धान्तों को विज्ञान के रूप में प्रस्तुत होते हुए देखते हैं । युजनिक्स के जरिये जर्मन समाज ने ऐसी माँएँ बनाने की कोशिश की जो आगे चलकर हिटलर या नेपोलियन पैदा करेंगी। दुनिया के बहुत–से वैज्ञानिकों ने इसे विज्ञान के रूप से स्वीकार भी किया था।
लेकिन दूसरे विश्वयुद्ध के बाद नारीवाद के पुनरूत्थान ने ऐसे सिद्धान्तों को वैचारिक और वैज्ञानिक, दोनों मोर्चों पर चुनौती दी। सिमोन द बोउवार, केट मिलेट आदि समाज वैज्ञानिकों ने जीवविज्ञान और समाजविज्ञान का सहारा लेते हुए ऐसे विज्ञान के पितृसत्तात्मक रूप को उजागर किया। रूस और चीन जैसे देशों में समाजवादी क्रान्ति के बाद बराबरी पर आधारित समाज बनाने की कोशिश में कारखानों, खेतों के साथ घरेलू काम का भी सार्वजनीकरण करने की कोशिश की। इसके बारे में ‘पाप और विज्ञान’ और ‘इतिहास ने जब करवट बदली’ किताब से ज्यादा जानकारी मिल सकती है। इसमें न सिर्फ कामगार मर्द, बल्कि घरेलू काम में लगी हुई औरतों को भी आजाद करने की कोशिश दिखाई देती है।
घरेलू काम से महिलाओं की आजादी की बात सुनते ही लोगों को सबसे पहले यही डर सताने लगता है कि रसोई, बाग, आँगन, सफाई, खाना कौन करेगा ? इसके बारे में प्रचलित सोच यह है कि अपनी घर, कपड़े, खाना आदि के बारे में कोई दूसरा इतना ख्याल नहीं रख सकता है। पुरुषों की न सिर्फ यह माँग होती है कि उन्हें खाना–कपड़ा हाथ में थमाया जाये बल्कि उसे प्यार से पेश भी किया जाये। यह काम महिलाओं के अलावा कौन कर सकता है ? बहुत से वैज्ञानिकों के साथ व्यक्तिगत चर्चा में हमने उन्हें यह कहते हुए सुना है कि नारी–पुरुष का श्रम विभाजन हर प्रजाति के प्राणी में है, तो इनसानों में होने से क्या दिक्कत है ? यही कारण है कि स्टूडेंट शब्द का कोई स्त्रीलिंग नहीं है। क्योंकि महिलाओं को बीसवीं सदी के शुरू होने तक तथाकथित विकसित देशों में भी किसी स्कूल, कॉलेज या विश्वविद्यालय में दाखिला लेने की इजाजत नहीं थी। ऐसे में बहुत–सी महिलाएँ और उनके साथ देने वाले पुरुषों की लम्बी कोशिशों के बाद उन्नीसवीं सदी के आखिरी में कुछ गिनी–चुनी महिलाएँ दाखिल हुर्इं और डिग्रियाँ भी हासिल कीं। उनमें से एक प्रमुख नाम है क्रान्तिकारी जर्मन मजदूर नेता रोजा लक्जमबर्ग।
बहुत से आन्दोलनकारी या सैद्धान्तिक बुद्धिजीवी इस बात पर सवाल उठाते हैं कि अगर मौजूदा व्यवस्था में महिलाओं का उत्पीड़न जारी है तो इसे पूँजीवादी नहीं बल्कि सामन्ती समाज कहना चाहिए। उलटे तरफ से अगर सोचा जाये तो सवाल कुछ यूँ है जो पूँजीवाद दुनिया के बहुत से लोगों को सामन्ती गुलामी से मुक्त करवाने में तत्पर था, महिलाओं की मुक्ति के लिए वह तत्पर क्यों नहीं है ? क्या महिलाओं का घरेलू काम के जरिये शोषित होते रहना उसके मुनाफे कि हवस के लिए जरूरी है ?
इस सवाल पर अठारहवीं सदी में फ्रांस की ओलिम्प द गूज और इंग्लैण्ड की मेरी वोल्स्टेनक्राफ्ट के बाद सबसे गम्भीर दस्तावेज उन्नीसवीं सदी में फ्रेडरिक एंगेल्स की किताब ‘परिवार, निजी सम्पत्ति और राज्य की उत्पत्ति’ रही है। उसमें उन्होंने बताया कि कैसे प्राचीन श्रम विभाजन इतिहास में धीरे–धीरे ठोस रूप में तब्दील हुआ और महिलाओं की दोयम दर्जे की स्थिति को पैदा किया। समाधान के रूप में उन्होंने पूँजीवादी व्यवस्था का अन्त कर न सिर्फ अमीरी–गरीबी को खत्म करने की बात की, बल्कि लैंगिक भेद से मुक्त समाज बनाने का भी आह्वान किया।
इस कड़ी में दुनिया भर के प्रगतिशील आन्दोलनों ने बीसवी सदी में भी योगदान किया। उदाहरण बतौर गुलाम भारत की एक लेखिका रुकैया शेखावत हुसैन ने ‘सुल्ताना का सपना’ में एक ऐसी समाज की कल्पना की जिसमें परिवार, समाज और राज्य में प्रमुख भूमिका महिलाओं की है। एक सपने के तौर पर ही सही, महिलाओं ने इसे लेकर मुखर होना शुरू किया था। दूसरे विश्व युद्ध के बाद जब मजदूर आन्दोलन को कमजोर करने के लिए ‘सांस्कृतिक वर्चस्व और अधीनता’ सिद्धान्त को अमरीकी और यूरोपीय विश्वविद्यालयों की सराहना मिली तो महिला–मुक्ति के सवाल के बारे में नये तरीके से सोचना और आन्दोलन को दिशा देना जरूरी हो गया। ऐसे मोड़ पर सिमोन द बोउवार कहती हैं “मेरा जुड़ाव नारीवाद की उस धारा के प्रति है जो नारीमुक्ति को वर्ग संघर्ष और सम्पूर्ण समाज की मुक्ति के साथ जोड़कर देखे और उस दिशा में प्रयास करे।”
कनाडा की मार्गरेट लो बेन्स्टोन साइमन फ्रेजर विश्वविद्यालय में सैद्धान्तिक रसायन की अध्यापिका थीं। मार्गरेट ने कॉलेज से रसायन और दर्शन में डिग्री हासिल की और बाद में सैद्धान्तिक रसायन में पीएचडी की। लेकिन सिर्फ वैज्ञानिक के रूप में अपनी पहचान से नाखुश थीं। उनका कहना था, “हम नारीवादी हैं न सिर्फ महिला उत्पीड़न के अपने खुद के अनुभवों के चलते, बल्कि इसलिए भी हैं कि किसी भी तरह का उत्पीड़न अन्यायपूर्ण है। हमें यह भी यकीन है कि समाज को बदलकर हर तरह के उत्पीड़न से मुक्ति सम्भव है।” इसी बौद्धिक प्रतिबद्धता के चलते उन्होंने 1969 में एक निबन्ध प्रकाशित किया जिसका शीर्षक है “नारीमुक्ति का राजनीतिक अर्थशास्त्र” (उत्साही पाठक गार्गी प्रकाशन की पुस्तक ‘इतिहास जैसा घटित हुआ’ में इसे पढ़ सकते हैं)। तब से लेकर आज तक पिछले 50 साल में इस निबन्ध ने नारी मुक्ति के सवाल को दुनिया के हर तरह के शोषण–उत्पीड़न से आजादी के सवाल से जोड़ने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी है।
अक्सर किसी भी कमाऊ पेशे में जाना महिलाओं के लिए दोहरी जिम्मेदारी पैदा करता है। अगर घर का काम सम्भालकर कोई नौकरी कर सके तो घर वाले और काम देने वाले, दोनों खुश रहते हैं। जबकि पुरुषों के लिए कामगार होने का मतलब हर तरह के घरेलू कामों से आजादी है। अगर कामगार के रूप में रोजगारशुदा न हों तो इक्के–दुक्के काम करके (सब्जी, राशन आदि खरीद लाना) वे अहसान भी जताते हैं। जो महिलाएँ काम करने बाहर जा रही हैं उनका शोषण तो दिखता है, लेकिन जो काम करने बाहर नहीं जातीं उनके कामों को कोई नहीं गिनता। नारीवाद के नये प्रवक्ताओं ने इसे एक ठोस सवाल के रूप में पेश किया। अगर वे बाहर काम करने नहीं जातीं, तो वे क्या कोई काम नहीं करती हैं ? या उनकी मेहनत की लूट नहीं हो रही है ? अगर लूट हो रही है तो कौन लूट रहा है ? इस लूट से पूँजीवाद को कितना लाभ है ?
बेन्स्टोन ने ‘महिला’ तबके को परिभाषित करने के लिए राजनीतिक अर्थशास्त्र के उस सैद्धान्तिक ढाँचे का इस्तेमाल किया जो मजदूर आन्दोलन के चलते उन्नीसवीं सदी में पैदा हुआ था और बीसवीं सदी में और ज्यादा विकसित भी हुआ है। इस निबन्ध में सीधा सवाल उठाया गया “क्या उत्पादन के साधन के साथ सम्बन्ध के जरिये जैसे मजदूर और पूँजीपति को परिभाषित किया जाता है, वैसे ही महिलाओं को परिभाषित करना सम्भव है ?” उनका जवाब था “हाँ, लेकिन उनका काम और शोषण अक्सर मौद्रिक अर्थव्यवस्था के बाहर होने के चलते अदृश्य रह जाता है। इसलिए उत्पादन के साधन के साथ सीधा सम्बन्ध भी परिभाषित करना मुश्किल होता है।” मशहूर अर्थशास्त्री पॉल स्वीजी ने अपनी पहली किताब “थ्योरी ऑफ कैपिटलिस्ट डेवलपमेंट” में श्रम बाजार के बारे में बात करते हुए इस तरफ महज एक इशारा किया था कि मजदूरों का उत्पादन (जन्म और पालन–पोषण) बाकी सामानों की तरह नहीं है इसलिए श्रम बाजार की गतिकी को महज माँग–आपूर्ति के ढाँचे में नहीं नापा जा सकता। इस बात को विस्तारित करते हुए बेन्स्टोन ने पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था में मजदूरों को पैदा करने, उनका पालन–पोषण करने से लेकर उनकी हर तरह की मानसिक और शारीरिक चाहत को पूरा करने में महिलाओं की भूमिका के बारे में विस्तार से चर्चा की। इसके जरिये उन्होंने साबित किया कि कैसे परिवार के अन्दर महिलाओं का काम सिर्फ ‘निजी दायरे’ में होने के चलते सिर्फ उपयोग मूल्य पैदा करता है और उसका बाजार में विनिमय मूल्य होने से बच जाता है। यहाँ से उन्होंने आने वाले समतामूलक समाज के लिए महिलाओं के घरेलू कामों का सार्वजनीकरण की जरूरत को साबित किया। महिलाओं के घरेलू कामों के सार्वजनीकरण की माँग नयी नहीं थी। लेकिन उसे महज समतामूलक समाज की जरूरत के रूप में देखा गया था। बेन्स्टोन का कहना था यह समतामूलक समाज की जरूरत नहीं बल्कि उसे बनाने की एक जरूरी शर्त है।
इस निबन्ध ने नारी मुक्ति आन्दोलन और महिला अध्ययन में एक नयी धारा को जन्म दिया जिसका अकादमिक नाम है ‘सामाजिक पुनरुत्पादन सिद्धान्त’। दुनिया के तमाम आन्दोलनों और विश्वविद्यालयों में नये सिरे से घरेलू महिलाओं के काम को ‘काम’ यानी उत्पादक श्रम में शामिल करने के लिए बहस शुरू हुई। इसका नतीजा यह हुआ की बेन्स्टोन को अपना पसन्दीदा विषय रसायनशास्त्र छोड़ना पड़ा और उन्हीं की पहल पर बने महिला अध्ययन केन्द्र की जिम्मेदारी लेनी पड़ी। अपने सैद्धान्तिक काम को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने स्थानीय स्तर पर महिला आन्दोलनों में सक्रिय भागीदारी करना जरूरी समझा। वे कनाडा के वैंकुवर वीमेन्स कॉकस और ब्रिटिश कोलम्बिया के वीमेन्स स्किल डेवलपमेंट सेन्टर की संस्थापक सदस्य थीं। मजदूर आन्दोलन और युद्धविरोधी गीत सिखाने वाले संगठन ‘द यूफोनिअसली फेमिनिस्ट एण्ड नॉन–परफॉर्मिंग क्विंटेट’ की सक्रिय सदस्य रहीं। अपनी जुड़वा बहन मरियन लो को भी उन्होंने सैद्धान्तिक रसायन के साथ–साथ नारी मुक्ति आन्दोलन और शोध में शामिल होने के लिए प्रोत्साहित किया। दोनों ने मिलकर तकनीकी विकास के खतरे के रूप में मजदूरों के गैर–कौशलीकरण और महिला मजदूरों पर पड़ने वाले उसके सबसे बुरे प्रभाव के बारे में शोधपत्र भी लिखा, जिसकी सच्चाई आज हमारे आँखों के सामने है।
सितम्बर, 2019 की टाइम्स ऑफ इंडिया की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में तकनीकी विकास के साथ–साथ नौकरी करने वाली महिलाओं की संख्या 2004–05 में 43 फीसदी से घट कर 2017–18 में 23 फीसदी हो गयी है। इस निबन्ध में बताया गया है कि विनिर्माण तथा निर्माण क्षेत्र में मन्दी और कृषि में मशीनीकरण महिला मजदूरों की बेरोजगारी का एक मुख्य कारण है। इसके चलते आँगनवाड़ी और आशा जैसी योजनाओं में काम करना ही ग्रामीण महिलाओं के सामने एकमात्र रास्ता है। लेकिन आँगनवाड़ी और आशा कर्मचारियों की दिहाड़ी बहुत से राज्यों में उन्हीं राज्यों की न्यूनतम दिहाड़ी से भी बहुत कम है, यानी ये रोजगार भी एक तरह के कागजी रोजगार हैं जिससे जिन्दगी की बुनियादी जरूरत पूरी नहीं हो पातीं।
बेन्स्टोन ने अपने लेख में महिलाओं के कामों का सार्वजनीकरण और औद्योगीकरण न होने के चलते उसे पूँजीवाद से भी पहले की स्थिति का काम बताया, जो सही नहीं है। उस दौर के बहुत से नारीवादियों ने उनके इस सूत्रीकरण की आलोचना भी की थी। उनका कहना था कि महिलाओं का घरेलू काम इतिहास में कभी भी उद्योग या सार्वजनिक चरित्र का नहीं रहा, लेकिन इससे यह साबित नहीं होता है की इनसान कबीलाई समाज से आगे निकला ही नहीं है। आज जरूरत इस बात पर सोचने की है कि पूँजीवादी समाज किस तरह परिवार और उससे सम्बन्धित कामों में महिलाओं को उलझाये रखता है। इसके समानान्तर दो तर्क एक ही साथ काम करते हैं। पहला, आर्थिक तर्क जिसके चलते किसी भी मजदूर को कम से कम मजदूरी देकर या बेगारी में काम करवाकर अथाह मुनाफे का इन्तेजाम किया जाता है (पूँजीवाद)। दूसरा, सांस्कृतिक तर्क, जो आर्थिक तर्क का ही दूसरा रूप है–– महिलाओं का कम घर में और आजीविका कमाने का काम पुरुषों का है या “लड़की नौकरी क्यों करेगी ? लड़के सब मर गये क्या ?” क्योंकि दूसरा तर्क सांस्कृतिक स्तर पर कारगर है इसलिए इसका छलावा जल्दी पकड़ में नहीं आता। एक मशहूर बॉलीवुड अभिनेत्री ने लगभग एक दशक पहले भाजपा की सदस्यता लेते हुए महिलाओं की आजादी के बारे में कहा था “महिलाओं का काम बच्चा पालना, परिवार का ख्याल रखना है। इस काम को करने में उसे जितनी आजादी चाहिए वह मिलनी चाहिए।” यह वही सांस्कृतिक तर्क है जिसको हर परिवार में संस्कार के रूप में लड़के और लड़की दोनों जब बोलना भी नहीं सीखते, तब से सिखायी जाती है। इस तरह आर्थिक और सांस्कृतिक तर्क दोनों ही एक–दूसरे के परिपूरक होते हैं। इसलिए महिलाएँ जब तक महज पितृसत्ता को गाली देकर अपना गुस्सा जाहिर करती रहेंगी तब तक पितृसत्ता को कोई खतरा नहीं है। और आज पूँजीवादी पितृसत्ता चाहती भी यही है कि महिलाएँ जी भरके पुरुष और पितृसत्ता दोनों को गाली दें, बस सम्पत्ति की व्यवस्था में कोई दखलंदाजी न करें। उनके शरीर और मन को नियंत्रित करने की बागडोर अब भी पुरुषों के कब्जे में है इस बात को छुपाने के लिए ही महिलाओं को देवी का दर्जा दिया जाता है। जो औरत इस सीमा में बँधने को तैयार नहीं है उसे तुरन्त वेश्या या चुड़ैल का दर्जा देने में भी ये समाज देर नहीं लगाता।
एक मजेदार तथ्य है की बेन्स्टोन का यह चर्चित निबन्ध प्रकाशित होने के तुरन्त बाद ही बहुत सारे देशों के क्रान्तिकारी संगठनों और पार्टियों में भी इस मुद्दे पर नये सिरे से बहस शुरू हो गयी। यूरोप के बहुत–से देशों में क्रान्तिकारी संगठनों में बेन्स्टोनवादी एक नयी धारा ही विकसित हो गयी। लेकिन बेन्स्टोन की समझ और दिशा नारीवादी आन्दोलन को अन्य आन्दोलनों से अलग करने की नहीं बल्कि सामाजिक–राजनीतिक–आर्थिक् बदलवों के लिए जारी तमाम आन्दोलनों का हिस्सा बनने की थी। उनकी बातों का सार कुछ ऐसा है––
नौकरी न करने वाली महिलाएँ भी रोज काम करती हैं, बशर्ते ऐसा काम जो बाजार में नहीं बिकता। यानी वह उपभोग मूल्य तो है लेकिन विनिमय मूल्य में उसे तब्दील नहीं किया जाता। लेकिन यह उपभोग मूल्य अगर पैदा न हो यानी घर में झाड़ू–पोछा, कपडे़–बर्तन, खाना–पीना, बच्चों और बुजुर्गों का देखभाल अगर न हो तो कमाऊ पुरुष भी बाजार में अपनी श्रमशक्ति बेचकर दो पैसा कमाने की स्थिति में नहीं रहेगा। समग्रता में देखा जाये तो पूरी दुनिया के मजदूरों को काम करने लायक बनाये रखने में महिलाओं का श्रम लगा है जिसकी कोई कीमत मौजूदा पूँजीवादी व्यवस्था अदा नहीं करती है। यानी सारा काम मुफ्त में हो रहा है और उसका फायदा दुनिया भर के पूँजीपति लूट रहे हैं अपने काम में लगाये हुए मजदूरों से कम दिहाड़ी के बदले ज्यादा से ज्यादा काम लेकर। आज की पूँजीवादी व्यवस्था न सिर्फ कामगार मजदूरों को लूट कर मुनाफा कमा रही है, बल्कि घरेलू काम करने वाली महिलाओं को एक भी पैसा भुगतान किये बगैर अथाह मुनाफा कमा रही है। अगर घरेलू काम के लिए तनख्वाह या दिहाड़ी देनी पड़े तो आर्थिक वितरण का इतना भारी मात्रा में बदलाव होगा कि मुनाफा कमाना लगभग असम्भव हो जायेगा। इसी के चलते पूँजिपति वर्ग नारी मुक्ति के सवाल पर चुप्पी साधे रहता हैै। दूसरी ओर, ठीक इसी कारण सेनारी मुक्ति आन्दोलन को हर तरह के शोषण–उत्पीड़न से आजादी के सवाल से खुद को जोड़ना पड़ेगा।

–– अमित इकबाल

Friday, January 24, 2020

बंटवारा

दुनिया में अलग-अलग बस्तियां बसाई जाएं
हर जात ,धर्म,रंग, नस्ल, भाषा के 
अलग-अलग राज्य बनाए जाएं,
जब पुरुषों द्वारा ठीक से पूरा बंटवारा हो जाए
स्त्रियों का एक अलग ,
चाहे छोटा ही सही
नया द्वीप बसाया जाये...
वह दुनिया होगी महिलाओं के कपड़ों जैसी रंग बिरंगी
गर्भवति महिलाओं के कोख से जन्मे नए बच्चे 
बसाएंगे जहां नई धरती..
जहां न होंगे बलात्कार ,वेश्यावृति 
और विश्व युद्ध की तैयारी
जहां दिलों के बीच नहीं होगा 
किसी भी तरह का बंटवारा..
नहीं होंगे जहां घृणित अपराध
जहां गैर बराबरी के लिए नहीं होगी कोई जगह
जहां बटवारा होगा हर एक चीज/सामान का 
जरुरत के मुताबिक
जैसे आज भी मां करती है घरों के अंदर...
इस तरह दुनिया में कायम हो जाएगी शांति
और पूरा हो जाएगा पुरुषों का अहंकार भी।।
-स्वाति

Thursday, January 9, 2020

बलात्कार का कारण कपड़े नहीं बलात्कारी सोच है


बेल्जियम की राजधानी ब्रूसेल्स में पिछले दिनों एक प्रदर्शनी लगी। प्रदर्शनी कपड़ों की थी। कपड़ों की ? तो इसमें खास क्या था ? आये दिन तो कपड़ों की प्रदर्शनी लगती रहती है। परन्तु इस प्रदर्शनी का विषय था–– “तुमने क्या पहना था ?” इसमें खास यह था कि यह प्रदर्शनी बलात्कार की शिकार बच्चियों और महिलाओं द्वारा बलात्कार के समय पहने गये कपड़ों की थी।
इन कपड़ों में छोटी बच्ची की फ्रॉक, सामान्य पैंट, शर्ट, सूट या रोज सामान्य रूप से पहने जाने वाले कपड़े थे। ये कपड़े प्रदर्शनी की टाइटिल या उन प्रश्नों के जवाब थे जो अक्सर बलात्कार की शिकार लड़की या महिला से पूछे जाते हैं–––” तुमने क्या पहना था ?” यह मान लिया जाता हैं कि लड़की ने भड़काऊ और छोटे कपड़े पहने होंगे जिससे बेचारा पुरुष उत्तेजित हो गया और उसने बलात्कार कर दिया! शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक रूप से क्षत–विक्षत हो चुकी महिला की ओर ही सारी उंगलियाँ उठती हैं, न कि अपराधी पुरुष की ओर, जबकि सच्चाई यह है कि बलात्कार के लिए सिर्फ एक आदमी जिम्मेदार है और वह है बलात्कार करने वाला पुरुष। 
यह प्रदर्शनी साबित करती है कि कपड़ों को लेकर लड़कियों और महिलाओं पर लगाये जाने वाले आरोप निहायत गलत हैं। प्रदर्शनी तैयार करने वाली वाली महिलाएँ पूछती हैं कि क्या ये कपड़े भड़काऊ हैं ? क्या लेगिंग टाइट है ? क्या टी शर्त छोटी है ? क्या किसी हिस्से से शरीर दिख रहा है ? क्या उसमें कोई उत्तेजक स्लोगन लिखा है ? नहीं न ? फिर, फिर कैसे महिला दोषी हुई ? ? 
कुछ दिन पहले अमरीका के कंसास विश्वविद्यालय में भी “तुमने क्या पहना था ?” शीर्षक से एक प्रदर्शनी लगी थी जिसमें बलात्कार की शिकार महिलाओं द्वारा पहने गये 18 कपड़े प्रदर्शित किये गये हैं। यह प्रदर्शनी विश्वविद्यालय की सेक्सुअल एसौल्ट प्रिवेंशन एण्ड एजुकेशन सेन्टर की देखरेख में तैयार की गयी है। यह प्रदर्शनी स्पष्ट तौर पर इस विचार को खंडित करती है कि पहनावों का बलात्कार से कोई सम्बन्ध होता है। वहाँ प्रदर्शित टी शर्ट और जींस, खाकीज, ड्रेस, बाथसूट (जो यूरोप में सामान्य है), बच्चे की ड्रेस, सभी चुपचाप इसी प्रश्न का जवाब दे रहे हैं और कह रहे हैं कि शरीर जितना भी ढका रहे, परिणाम एक ही रहा। 
बलात्कार की शिकार इन महिलाओं में से कुछ बहादुर महिलाएँ जब पुलिस में रिपोर्ट लिखवाने जाती हैं तो उनसे यही पूछा जाता है, “तुम क्या पहने थीं ?” मानो यह प्रश्न महिलाओं के खिलाफ यौन उत्पीड़न के समय के लिए आरक्षित है। तमाम पुरुष भी यौन उत्पीड़न से गुजरते हैं पर उनसे नहीं पूछा जाता कि वह क्या पहने थे ? 
प्रदर्शनी में बताया गया कि जब रेप की शिकार महिला से पूछताछ की शुरुआत होती है तो सबसे पहले उसके कपड़े, फिर शराब सेवन, उसके यौन इतिहास पर तो चर्चा होती है परन्तु बलात्कार का एकमात्र कारण, जिसे सबसे ज्यादा नजरअंदाज किया जाता है, वह है बलात्कारी और उसकी मानसिकता। 
इसी से मिलता–जुलता एक प्रदर्शन पिछले दिनों भारत के बंगलुरु शहर में भी हुआ। वहाँ कुछ नौजवान युवक–युवतियों ने बलात्कार के समय पहने गये कपड़ों को अपने कन्धों पर डण्डों में टांग कर शहर में जुलूस निकाला ताकि लोगों को बताया जा सके कि इन भरे–पूरे कपड़ों, शरीर को पूरी तरह ढकने वाले इन कपड़ों को पहनने के बावजूद बच्चियों, लड़कियों और महिलाओं के साथ बलात्कार हुआ। यानी बलात्कार का कारण कपड़े नहीं, बलात्कारी और पुरुष मानसिकता है जो महिलाओं को भोग की वस्तु के अलावा कुछ समझती ही नहीं। 
ये प्रदर्शन चीख–चीख कर कह रहे थे कि बलात्कार का दोष महिलाओं पर मढ़ देना बन्द करो। वक्त आ गया है कि पुरुषों को ही अपनी मानसिकता बदलनी होगी, औरतों को देखने का अपना सदियों पुराना नजरिया बदलना होगा। और हर ऐसी नीति, विचार, संस्कार, व्यवस्था जो औरत को मात्र शरीर और वस्तु मानती है, उसे बदलना होगा।  
– आरिफा