Monday, February 21, 2022

नागा महिलाएँ और जवानों को राखी बाँधने का विवाद



22 अगस्त को नागालैंड और मणिपुर राज्य की नागा जनजाति की महिलाओं ने सीमा सुरक्षा बलों के सैनिकों की कलाई पर राखी बाँधने के कार्यक्रम में हिस्सा लिया। बल्कि ऐसा ही कार्यक्रम पूरे देशभर में भी हुआ। सभी सैनिकों के लिए देशभर से उनके सम्मान में राखियाँ भेजी गयीं या स्थानीय महिलाओं द्वारा राखी बाँधने का कार्यक्रम कराया गया। अन्य जगहों पर इस हिन्दू त्यौहार और इसके तौर–तरीके को खूब सराहा गया। लेकिन नागालैंड और मणिपुर में यह एक विवादस्पद मुद्दा बन गया।
ऐसा क्यों हुआ? जहाँ एक तरफ सरकार की हिन्दुत्वादी संस्कृति और उसके त्यौहार मनाने के कार्यक्रम को देश के हर हिस्से में सराहा गया। वहाँ ऐसा क्या हुआ कि दोनों राज्यों में रहने वाली नागा महिलाओं के संगठन एनएमएस(नागा महिला एसोसिएशन) और जीएनएफ (ग्लोबल नागा फोरम ) ने इसे एक पाखण्डी कार्यक्रम घोषित कर दिया।
इतिहास के पन्नो में जितने खून के छींटे उत्तर भारत के राज्यों पर हैं उतने कश्मीर को छोड़कर अन्य किसी भी राज्य पर नहीं हैं। बन्दूकों के दम पर उत्तर पूर्व के राज्यों को भारतीय संघ में शामिल तो कर लिया गया। पर बन्दूक के शासन के खिलाफ विद्रोह होना तो लाजिमी है। उत्तर पूर्व ने ऐसी दहशतगर्दी अपने यहाँ कभी नहीं देखी थी। जबरदस्ती बन्दूक के शासन को चलाने के लिए 1958 से ही उत्तर पूर्व के कई राज्यों में अफ्सपा कानून लागू कर दिया गया। भारतीय सेना और सुरक्षा बलों को अपनी मनमानी करने की यहाँ खुली छूट मिली। बिना कोई कानूनी दखल के वे किसी पर भी गोली दाग सकते हैं। स्थानीय लोगों को अपने मानवाधिकार की रक्षा, जीवन की रक्षा के लिए भी भारतीय सेना के सामने भीख माँगनी पड़ती है। ऐसी स्थिति में जीते हुए इनसान शान्ति से ज्यादा दिन नहीं बैठ सकता। इसलिये भारतीय बलों और स्थानीय जनता के बीच संघर्ष और ज्यादा उग्र हो गया। स्थानीय संगठन, सेना के खिलाफ ज्यादा मुखर होकर कारवाई करने लगे।
2004 में मनोरमा नाम की लड़की के साथ भारतीय अर्द्धसैनिक बल के जवानों ने बलात्कर किया और उसकी हत्या कर सड़क पर फेंक दिया और न जाने ऐसी कितनी अनगिनत घटनाएँ आये दिन उत्तर पूर्व के राज्यों में रोज घटित होती रहीं। लेकिन इस घटना ने उत्तर पूर्व की महिलाओं की सब्र का बाँध तोड़ दिया और 12 महिलाओं ने नग्न होकर सीमा बल के मुख्यालय के सामने जोर–जोर चिल्ला कर अपनी आवाज बुलन्द की, कि आओ हमारा भी बलात्कार करो, मैं मनोरमा की माँ हूँ, मैं बहन हूँ। हमारी भी हत्या कर दो, हमे भी जान से मार दो, हमे भी यातनाएँ दो। भारतीय लोकतंत्र को भी इस दिन अपनी अस्मत छुपाने के लिए कोई जगह नहीं मिली। 17 साल बीत गये हैं, मनोरमा को न्याय मिलने की बात तो छोड़ ही दीजिये, उसके बरक्स वैसे ही वहशीपन की घटनाएँ और ज्यादा तेजी से हो रही हैं। अकेले असम पुलिस में 2006 से 2012 तक 7000 बलात्कर के और 11553 मामले अपहरण के दर्ज हुए।
एनएमएस(नागा महिला एसोसिएशन) की अध्यक्ष उम्बई ई मेरु और संयुक्त सचिव मालसवामथांगी लेरी ने नागा महिलाओं के द्वारा भारतीय सैनिकों को यूँ राखी बाँधना अपनी गुलामी को स्वीकार करने जैसा बताया। जो सैनिक किसी भी उम्र, जाति, मजहब की स्त्री को सिर्फ उपभोग करने की वस्तु समझते हों और बलात्कार कर नृशंस हत्याएँ करते हों वे हमारे भाई कैसे हो सकते हैं? अभी तक जहाँ अफ्सपा कानून को ज्यों का त्यों लागू रहने दिया गया हो और सैनिकों को खुलेआम महिलाओं से छेड़खानी की आजादी हो, वहाँ हम सरकार के झूठे ढकोसले में साथ कैसे दे सकते हैं। किसी भी सैनिक की कलाई पर राखी बाँधना उत्तर पूर्व की हर महिला के ऊपर बीती हर ज्यादती को भुलाना है और हमारे इतिहास का एक काला दिन है।
तमाम वादों के बाद भी अफ्सपा अभी तक उत्तर पूर्व के राज्यों में लागू है। कई सरकारें आयी, प्रधानमंत्री आये, उन्होंने अफ्सपा को हटाने के वादे किये। लेकिन वो वादे चुनावी वादों की तरह ही चुनाव से ऊपर नहीं उठ पाये। 16 साल तक इरोम शर्मिला के अफ्सपा के खिलाफ अनशन से भी भारतीय राज्य के सर पर जूँ तक न रेंगी। और अब जनजातीय लोगों को हिन्दू संस्कृति का जामा पहनाकर भाजपा सरकार अपना उल्लू सीधा करने का प्रयास कर रही है। उत्तर पूर्व के लोगों की अपनी संस्कृति है, उनके यहाँ रक्षाबन्धन जैसे त्योहार हैं ही नहीं। लेकिन भारतीय सरकार अपने हिन्दुत्ववादी एजेंडे से उत्तर पूर्व में अपनी साख बचाये रखना चाहती है और ये मामला उसी तरह का एक प्रयास है। उत्तर पूर्व में शान्ति आज तक कायम हो ही नहीं सकी। आखिर ऐसा कैसे हो सकता है एक तरफ आप उन पर बन्दूक के दम पर बेतहाशा जुल्म ढायें और दूसरी तरफ लोकतांत्रिक होने का ढोंग रचें।
भारतीय राज्य के द्वारा जो सितम आज उत्तर पूर्व की महिलाएँ, बच्चे और पुरुष झेल रहे हैं, यकीनन उसका बहुत बुरा खामियाजा भारतीय राज्य को झेलना पड़ेगा। क्योंकि बन्दूक के दम पर दहशतगर्दी का राज्य ज्यादा दिन तक कायम नहीं रखा जा सकता।

–– दिव्या

Saturday, February 19, 2022

भारत में महिलाओं का मनपसन्द कपड़े पहनना: आजादी या मौत!


 
वक्त बेवक्त हमें याद दिलाया जाता है कि हम महिलाएँ दोयम दर्जे की नागरिक हैं, जैसे अगर ज्यादा पढ़–लिख लें तब रात को अकेले घर से निकल गये तब, अपनी पसन्द की शादी कर ली तब, यहाँ तक कि अपनी पसन्द के कपड़े पहन लिए तब भी। आये दिन इस तरह की बातें तो की ही जाती हैं मगर इस बार ये बातें जिस व्यक्ति ने कही वह कोई और नहीं, बल्कि उत्तराखण्ड के तत्कालीन मुख्यमंत्री तीरथ सिंह रावत ने की। उन्होंने भरे पत्रकार सम्मलेन में लड़कियों के जीन्स पहनने पर सवाल उठाये।
पूर्व मुख्यमंत्री रावत ने एक महिला के जूतों से लेकर सिर तक के कपड़ो तक की व्याख्या बड़ी बारीकी से की और लड़की द्वारा फटी जीन्स (रिप्ड जीन्स) पहनने पर उसकी पूरी की पूरी शख्सियत को सवालों के कटघरे में खड़ा कर दिया। रावत ने किसी महिला के बारे में बोलते हुए कहा कि वह महिला बच्चों से जुड़े एक एनजीओ के लिए काम करती थी और ऐसी महिला जो स्वयं फटी जीन्स पहनती है वह बच्चों को क्या सिखाएगी? 
हमारे समाज में औरतों ने हर चीज के लिए लड़ाई लडी हैं। अपना हर हक लड़कर छीना है, वह चाहे पढ़ने की आजादी हो या कपड़े पहनने की। रावत के बयान के विरोध में भारत भर की लड़कियों और महिलाओं ने सोशल मीडिया में जमकर विरोध किया और सड़कों पर भी उतर आयीं। अलग–अलग शहरों में रावत और तमाम नेताओं के खिलाफ रैली निकली गयी, बाद में अपने भद्दे बयान के लिए रावत को माफी भी माँगनी पड़ी।
रावत के बचाव में उत्तराखण्ड के ही एक और मंत्री गणेश जोशी ने कहा “महिलाएँ बहुत ज्यादा बात करती हैं, उनके लिए परिवार और बच्चों की देखभाल से जरूरी कुछ भी नहीं है।” भाजपा हो या कोई और पार्टी, लड़कियों को क्या करना चाहिए क्या नहीं, अक्सर इस बात पर मंत्री बयान देते नजर आते हैं। उनकी इन बातों से उनकी मानसिकता किस तरह महिला विरोधी हैं हम समझ सकते हैं।
जीन्स सबसे पहले अमरीका में खदान और खेतों में काम करने वाले मजदूरों के लिए बनायी गयी थी। इसका कपड़ा जल्दी नहीं फटता था इसलिए यह मजदूरों के बीच काफी लोकप्रिय हो गयी और धीरे–धीरे अवज्ञा का प्रतीक बनती चली गयी। 
जीन्स अपने आप में ही आगे बढ़े हुए समाज की निशानी मानी जाती है। पर भारत का समाज ऐसा समाज बनता जा रहा है जहाँ पिछले दिनों जीन्स पहनने पर लड़की को मौत के घाट उतार दिया गया।
हाल ही में उत्तर प्रदेश के देवरिया में एक 17 साल की बच्ची को उसके घर के मर्दों ने उसके जीन्स पहनने पर पीट–पीट कर मार डाला। लड़की का जीन्स पहनना उसके दादा और चाचा को पसन्द नहीं था इस बात पर बहस ने विवाद का रूप ले लिया और फिर लड़की की लाश पटनवा पुल की रेलिंग से लटकती हुई मिली। नवीं में पढ़ने वाली बच्ची की जिन्दगी हमारे समाज के मर्दों के अहम के आगे कितनी छोटी थी। 
चरम मर्दवादी और स्त्री विरोधी संस्कृति वाले देश में विदेशी कपड़े पहन कर ध्यान आकर्षित करने का आरोप लगा कर भारतीय लड़कियों और महिलाओं को अक्सर शर्मिन्दा किया जाता है। जहाँ एक तरफ लड़कियाँ जान गवाँ रही हैं, वहीं बाकी लड़कियाँ उसी जीन्स को पहनकर आजाद महसूस करती हैं। 23 साल की शिखा ने पहली बार जीन्स अपने कॉलेज हॉस्टल में कुर्ती और दुपट्टे के साथ पहनी और खुद को आजाद महसूस किया क्योंकि वह यूपी के अपने गाँव में कभी जीन्स पहनने के बारे में सोच भी नहीं सकती। अगर वहाँ वह पहने तो शायद वह भी किसी पुल से निकले हुए सरिया में लटकती हुई पायी जाये।
2015 में एक मुस्लिम ग्राम परिषद ने 10 से अधिक गाँव में लड़कियों को मोबाइल फोन का इस्तेमाल करने और जीन्स और टी–शर्ट पहनने पर प्रतिबन्ध लगा दिया ताकि उन्हें लड़कों से बात करने या अभद्र दिखने से हतोत्साहित किया जा सके। इस साल मार्च में  मुजफ्फरनगर जिले के एक ग्रामीण निकाय ने महिलाओं को जीन्स और पुरुषों को निक्कर पहनने से यह कहते हुए रोक दिया है कि यह पश्चिमी संस्कृति का हिस्सा है और लोगों को पारम्परिक भारतीय कपड़े पहनने चाहिए। बिहार की 15 साल की रिया के माँ–बाप ने उसे बताया है कि अगर जीन्स पहनी, तो दूल्हा नहीं मिलेगा। इसलिए उसके गाँव की सभी लड़कियाँ सिर्फ सलवार कमीज ही पहनती हैं।
जीन्स भारत में एक अनौपचारिक कपड़ा है, आज हमारी माँग यह है कि हमारी जीन्स में मर्दों के जीन्स की तरह बड़ी जेब क्यों नहीं होती तो नेताओं की माँग है लड़कियाँ जीन्स पहनती ही क्यों हैं। कई महिलाओं के लिए जीन्स विरोध का प्रतीक है तो कई महिलाओं के लिए आजादी का प्रतीक है।
महिलाओं को क्या पहनना चाहिए, इस पर हमारे समाज के हरेक व्यक्ति के पास कुछ न कुछ सलाह और विचार जरूर हैं। हमारे कपड़े सशक्तिकरण, उत्पीड़न, प्रलोभन, संस्कृति सब कुछ से जुड़े हुए हैं। कुछ लोग बुर्का, नकाब और घूँघट को प्रतिगामी और पितृसत्तात्मक कहते हैं। दूसरी तरफ ऐसे लोग भी हैं जो महिलाओं के खिलाफ यौन अपराधों में वृद्धि के लिए निक्कर, छोटी स्कर्ट और जीन्स को दोष देते हैं। लेकिन महिलाओं की पसन्द क्या है, वे क्या पहनना चाहती हैं, इस पर बातचीत कहाँ है? क्या हम लड़कियों और महिलाओं को अपनी पसन्द के अनुसार पोशाक पहनने का अधिकार नहीं है? हमें क्या पहनना है यह दूसरा क्यों तय करे? 
असमानता और उत्पीड़न के खिलाफ हमारे संघर्ष में हम महिलाओं को एक–दूसरे को नीचा दिखाना बन्द करना चाहिए।
जहाँ भी मनपसन्द कपड़े पहनने की आजादी लड़कियों ने हासिल की उस समाज मे लड़कियाँ कई बेड़ियाँ तोड़कर समाज को आगे बढ़ाती हैं। इतिहास गवाह है कि रजिया सुल्तान ने भी अपने पारम्परिक कपड़े छोड़ कर ही रियासत सम्भाली थी जबकि आज इतने सालों बाद भी हमे फिर से उसी कटघरे में खड़े कर हमारे खिलाफ होने वाली हिंसा का दोष कपड़ों  के ऊपर मढ़ दिया जाता है। आप भारत के किस जिले या शहर में रहते हैं अब तो उसी से इस बात का फैसला होगा कि अपने पसन्द के कपड़े पहनना आजादी है या मौत।

–– शालिनी

Saturday, February 5, 2022

भारतीय समाज में प्रेम विवाह


–– अपूर्वा

जैसा कि हम जानते हैं कि भारत एक गणराज्य है लेकिन वह विभिन्न जाति, उपजाति, धर्म में भी बँटा हुआ है। ऐसे भेदभावपूर्ण बँटवारे में जीवन खूबसूरत नहीं हो सकता। जहाँ तक हमारे समाज में महिलाओं की स्थिति का प्रश्न है वह भी बहुत अच्छी नहीं है। उन्हें देवी बनाकर पूजा जाता है तो हर तीन मिनट में एक महिला के साथ बलात्कार भी  होता है। ऐसे समाज में स्त्री का किसी के प्रेम में पड़ जाना भला साधारण घटना कैसे मानी जा सकती है? 
हमारा समाज और परिवार जितना अलोकतांत्रिक है उसमें प्रेम में पड़े युवा अपने प्रेम सम्बन्ध की सूचना अपने माता–पिता को देने की हिम्मत नहीं जुटा पाते। ऐसे में प्रेम चोरी–छिपे ही आगे बढ़ता है। घर से छिपते–छिपाते जब युवा जोड़े बाहर मिलते हैं तो भी समाज की तीखी नजरें उन्हें घूरने से बाज नहीं आती, जैसे यह कोई अपराध हो। आम जनता के साथ–साथ बजरंग दल, एण्टी रोमियो स्क्वायड जैसे सरकारी–गैरसरकारी गिरोह भी उन्हें परेशान करने में कोई कसर नहीं छोड़ते। पुलिस इन गिरोहों को पूरा सहयोग करती है।
छुप–छुप कर मिलते हुए जब यह प्यार परवान चढ़ता है और प्रेमी शादी करने का फैसला करते हैं, तब हालात और भी मुश्किल हो जाते हैं। घर वालों को बताना और उनकी मंजूरी हासिल करने की जद्दोजहद में ही कई प्रेम कहानियों का अन्त हो जाता है।
वास्तविकता यह है कि इक्कीसवीं सदी के उन्नत भारत में प्रेम और प्रेम विवाह को आज भी स्थान नहीं मिल पाया है। इस लेख को लिखने से पहले तक मेरा मानना था कि आजकल अधिकतर लोग अपनी पसन्द से अपना जीवनसाथी चुन रहे हैं और हमारा समाज बदलाव की ओर अपने कदम बढ़ा चुका है। लेकिन थोड़ी ही जाँच–पड़ताल करने पर मेरा यह भ्रम दूर हो गया, जब मैंने ‘द लोक फाउंडेशन ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी सर्वे’ की एक रिपोर्ट पढ़ी जिसमें बताया गया है कि आज भी औसतन 93 प्रतिशत युवा अपने माता–पिता के द्वारा तय की गयी शादी करते हैं। यह तथ्य चैंकाने वाला है। हमारे पढ़े–लिखे युवा जो देश की तरक्की में अपना योगदान दे रहे हैं, वे अपने लिए जीवनसाथी ढ़ूँढ़ पाने में असमर्थ हैं! क्या वास्तव में ऐसा है? बिल्कुल भी नहीं। प्यार करने में हमारे युवा पीछे नहीं हैं, पर बात जब प्यार को शादी ––एक सामाजिक सम्बन्ध का नाम देने की आती है तो हमारे समाज का ताना–बाना और इसकी पिछड़ी सोच बीच में आ जाती है।
सबसे पहली समस्या तो यही है कि हमारे समाज में लड़के और लड़की के बीच का प्रेम स्वीकार्य नहीं है। लड़कों को तो फिर भी थोड़ी–बहुत आजादी मिल जाती है, पर लड़कियों के प्रेम–सम्बन्ध की खबर मिलते ही घर–परिवार, पड़ोसी सभी मिलकर उसे चरित्रहीन घोषित कर देते हैं, और उसकी तथाकथित पवित्रता के खो जाने के डर से उसे समझा–बुझा कर, डरा–धमका कर रिश्ता खत्म कर लेने की हिदायत दे देते हैं। कई बार तो उसे घर में ही कैद कर दिया जाता है और जल्दी से जल्दी किसी के भी गले बाँधकर पूरे कुनबे की ‘इज्जत’ की रक्षा की जाती है।
वहीं दूसरी तरफ लड़के के परिवार वाले भी ऐसी लड़की को अपने घर नहीं लाना चाहते जिसने प्यार करने की हिम्मत की हो। उनका मानना होता है कि ऐसी लड़कियाँ ‘तेज’ होती हैं और घर–परिवार सम्भालने के लायक नहीं होतीं। ऐसी लड़कियों की शुद्धता की भी तो कोई गारण्टी नहीं होती! मानो घर के लिए सदस्य नहीं सामान चाहिए, जो इनके हिसाब से काम करे। वहीं प्रेम विवाह में दहेज मिलने की सम्भावना भी कम हो जाती है। इसीलिए ऐसे विवाह से लड़के वालों को तो नुकसान ही नुकसान नजर आता है।
किसी तरह ये सब सुलझ भी जाये तो अगली समस्या आती है, जाति–धर्म की। अगर लड़का–लड़की अलग–अलग जाति के हैं तब यह बात और भी गम्भीर हो जाती है। ज्यादातर मामलों में परिवार वाले ऐसे सम्बन्धों को स्वीकार नहीं करते हैं। अन्तरजातीय विवाह आज भी समाज में स्वीकार्य नहीं है। ‘इंडियन ह्यूमन डिवेलपमेंट सर्वे’ के अनुसार अन्तरजातीय विवाह का प्रतिशत निम्न वर्ग में सबसे बेहतर है, वहीं उच्च वर्ग में यह कुछ हद तक स्वीकार किया जाता है। पर मध्यम वर्ग जो ज्यादातर दिखावे की जिन्दगी जीता है, वह इसे अपनी शान के खिलाफ समझता है। जातियों और उपजातियों के बँटवारे की जकड़ इसी वर्ग में सबसे मजबूत होती है। इसके लिए लोग मरने–मारने से भी पीछे नहीं हटते। नेता–अभिनेता आदि भी इस सोच से नहीं बच पाते। वर्ष 2019 में भाजपा के बरेली के एक क्षेत्र के विधायक राजेश मिश्रा की बेटी साक्षी ने जब एक दलित युवक से शादी कर ली तो विधायक ने उसे जान से मारने की धमकी दी, जिसपर बेटी ने पुलिस से मदद की गुहार लगाते हुए अपना वीडियो सोशल मीडिया पर डाला था। उसकी जान तो बच गयी पर ऐसे ही न जाने कितने प्रेमी युगलों को परिवार वालों की झूठी शान की कीमत अपनी जान देकर चुकानी पड़ती है।
यह समाज जहाँ अन्तरजातीय विवाह करने पर लोगों की जान ले ली जाती है, वहाँ दूसरे धर्म में विवाह करने बारे में लोग सोच ही नहीं पाते। ऐसे रिश्तों में ज्यादातर प्रेमी आपसी सहमति से सम्बन्ध–विच्छेद कर लेते हैं। यहाँ शिक्षा, पैसा, रुतबा, कुछ भी काम नहीं आता। यहाँ तक कि अधिकतर युवा भी दूसरे धर्म में शादी को सही नहीं मानते। बँटवारे और नफरत की आग में जलता यह समाज ऐसे विवाह को सिरे से खारिज कर देता है। 
वर्ष 2014 में हापुड़ जिले के रहने वाले दलित जाट सोनू और मुस्लिम धनिष्टा के प्यार की खबर जब घर वालों की लगी, जो कि सालों से अच्छे पड़ोसी थे, तब लड़की के भाई ने उन दोनों की हत्या कर के अपने धर्म और परिवार की ‘इज्जत’ की रक्षा की। इसी तरह 2015 में विजय शंकर यादव ने जब सूफिया मांसुरी से भाग कर शादी कर ली तो लड़की के भाई ने योजना बनाकर ईद के दिन 9 महीने की अपनी गर्भवती बहन और उसके पति की कुर्बानी देकर पूरे समाज की ‘आन’ बचायी।
आखिर जान लेने की इजाजत इन्हें कौन देता है? सिर्फ इसलिए कि उसने अपनी पसन्द से शादी की? कैसे एक भाई, एक पिता का दिल इतना पत्थर हो जाता है कि अपनी ही बहन–बेटी का खून कर देते हैं? वो कौन सी भावना है जो इतनी मजबूत है कि सालों के प्यार भरे रिश्ते को खून से रंग देती है? 
सच तो यह है कि हमारा सामाजिक ताना–बाना जो बँटवारे की नींव पर खड़ा है, जहाँ हर धर्म एक दूसरे से होड़ करने में लगा है, जहाँ दूसरे धर्म के लोगों को हिकारत की नजर से देखा जाता है, वह लोगों को ऐसे कुकृत्य करने के लिए प्रेरित करता है। धर्म रक्षा के लिए खून करने पर पूरे सम्प्रदाय और समाज को ‘बिगड़ने’ से बचाने की जो वाहवाही मिलती है, वह लोगों के मन में इस विचार को पुख्ता करती है कि जो उन्होंने किया वह सही है। किसी की जान लेने को यह समाज गलत नहीं मानता, पर प्यार करना यहाँ गलत है। वहीं देश की राजनैतिक पार्टियाँ ऐसी खबरों को साम्प्रदायिक रंग देकर समाज में नफरत की आग को हवा देती हैं और उस पर अपनी सियासी रोटियाँ सेंकती हैं।
विचार करने वाली बात यह है कि आखिर इस समाज को प्यार से इतनी नफरत क्यों है? प्यार एक खूबसूरत एहसास है और यह लोगों को एक नयी उर्जा और हिम्मत देता है। यह गलत चीजों का विरोध करना और लड़ना सिखाता है। प्यार में पड़े लोग अक्सर जाति–धर्म के बन्धनों को भी तोड़ देते हैं। यह इनसान को हिन्दू, मुस्लिम, दलित, ब्राह्मण से उपर उठकर इनसान बनाता है। बँटवारे की आग बुझाकर एकता कायम करता है और एक बेहतर इनसान और समाज की रचना करता है। उन सभी लोगों को जो एक बेहतर कल का सपना देखते है, प्यार जरूर करते हैं और उन्हें करना चाहिए। प्रेम का महत्व समझने वाले नौजवानों के लिए निदा अंसारी ने ‘प्यार में पड़े लड़के’ कविता लिखी है, जो इस तरह है––
“प्यार में पड़े लड़के
फब्तियाँ नहीं कसते 
रास्ते में जाती लड़कियों पर,
वे घूरकर नहीं देखते
बस या ट्रेन में चढ़ती
लड़कियों के सीने को
या शॉर्ट्स पहने बैडमिण्टन खेलती
लड़कियों की जाँघों को।
प्यार में पड़े लड़के गला नहीं घोंटते
छोटी बहनों के सपनों का।
वे अपनी बेपरवाही छोड़ बन जाते हैं
एक जिम्मेदार इनसान। 
जिम्मेदारी अपनी प्रेमिका के 
ऑफिस जाने से घर आने तक की सुरक्षा की,
जिम्मेदारी अपने पिता की 
जिम्मेदारियों के प्रति जिम्मेदार बनने की।
इन लड़कों के अपनी माँ से बात करने के लहजे में
जरा और मिठास घुल जाती है
थोड़ी ज्यादा हो जाती है उनकी समझ,
बहन के लिए गिफ्ट लाने के मामले में।
प्यार में पड़े लड़के नहीं झगड़ते अब
बिना बात सड़कों पर,
किसी एक लड़की से प्रेम करते हुए
लड़के जान ही नहीं पाते कि
वे अब पूरी दुनिया से प्रेम करने लगे हैं।”
जब एक औरत कहती है “क्या?”
इसलिये नहीं कि उसने सुना नहीं, वो आपको मौका दे रही है कि आपने जो कहा उसे सुधार लें–

Saturday, January 22, 2022

आत्मनिर्भर भारत में, उत्तर प्रदेश की आशक्त महिलाओं की कुछ झलकियाँ



अगर आप उत्तर प्रदेश में हैं और महिला हैं तो हो सकता है की जिन्दगी की व्यस्तताओं के कारण आपको यहाँ की राजनीति और सरकार की सही जानकारी न मिल पाती हो। गाँवों–कस्बों–और शहरों में अटे पड़े सरकारी विज्ञापन तो सरकारी महिला सशक्तिकारण की बड़ी  लुभावनी तस्वीर पेश करते हैं। पर अगर वास्तविक आँकड़ों और सच्चाई पर गौर करें तो हम एक दूसरी ही छवि पायेंगे। बल्कि हम महिलाएँ तो रोज उसे जी ही रही हैं। हम पायेंगे कि अखबार हत्या, आत्महत्या और बलात्कार की खबरों से भरे पड़े हैं, आप कहेंगे सबसे बड़ी जनसंख्या वाले प्रदेश में तो, यह महज चन्द घटनाएँ हैं।
चलिए, बात को और तथ्यपरक तरीके से देखने और समझने के लिए कुछ आँकड़ों पर एक नजर डालते है :–
1) उत्तर प्रदेश में औरतों के साथ होने वाला अपराध (पूरे देश के अनुपात में), 66–7 प्रतिशत है। (2019)
2) पूरे देश में दलितों के ऊपर अपराध में 7–3 प्रतिशत मामले बढ़े हैं।
दलितों के ऊपर होने वाले कुल अपराध का 25 प्रतिशत उत्तर प्रदेश में है 
उत्तर प्रदेश में दलित बच्चियों के साथ हाथरस , खीरी और बलरामपुर की घटनाएँ पूरे हालात के चन्द उदाहरण हैं।
3) आत्मनिर्भरता और सशक्तिकरण की कई कसौटियाँ हो सकती है, पर पूँजी पर आधारित समाज–व्यवस्था में रोजगार पहली कसौटी है।
महामारी से पहले भी, सामाजिक और सांस्कृतिक कारणों से भारत के कार्यबल में महिलाओं की भागीदारी पूरे दक्षिण एशिया में काफी कम है। आर्थिक सर्वेक्षण 2017–18 के अनुसार केवल 24 प्रतिशत महिलाएँ ही रोजगार में हैं। 
उत्तर प्रदेश में महिलाओं की रोजगार में भागीदारी 9–4 प्रतिशत है, हमारे पास हालिया संख्याएँ नहीं है, लेकिन हम उम्मीद करते है की तालाबन्दी के दौरान भीषण गिरावट आयी है।
उत्तर प्रदेश में बेरोजगारों की संख्या 58 प्रतिशत बढ़ी है। जून 30, 2018 में पढ़े–लिखे, रजिस्टर्ड बेरोजगारों की संख्या 21–39 लाख थी जो अगले दो सालो में बढ़कर 34 लाख हो गयी।
देश का 90 प्रतिशत कार्यबल असंगठित क्षेत्र में है, जिसमें बड़ी संख्या में औरतें हैं, जो मुख्यत: खेती और घरेलू काम में लगी हैं। प्रवासी पुरुषों की बड़ी संख्या वापस घर में आने से महिलाओं का घरेलू काम भी बढ़ गया और खेती में काम के अवसर भी घट गये हैं।
महिला स्वास्थ्य पर अगर नजर डालें तो लॉकडाउन के दौरान, ज्यादातर औरतें तमाम कारणों से जरूरी स्वास्थ्य सेवाएँ नहीं ले सकीं, इसके कारण वे अब अन्य स्वास्थ्य समस्याओं या नयी बीमारीयों की चपेट में आ रही हैं। 
महिलाओं के जीवन का अदृश्य क्षेत्र है ––उनका मानसिक स्वास्थ्य। हाल ही में नौजवान लड़कियों पर किये गये एक सर्वेक्षण में पाया गया है कि उनमें अवसाद, चिन्ता और तनाव का स्तर बहुत बढ़ गया है। दुखद बात यह है कि मानसिक स्वास्थ्य को कोई गम्भीरता से लेता ही नहीं।
एक तरफ मानसिक स्वास्थ्य की यह तस्वीर है तो दूसरी तरफ अधिकांश लडकियाँ कुपोषण और खून की कमी का शिकार हैं। कुपोषण और खून की कमी का प्रतिशत जो पहले 49–9 प्रतिशत था अब बढ़ कर 52–4 प्रतिशत हो गया।
6 महीने से 6 साल के लगभग चार लाख कुपोषित बच्चे उत्तर प्रदेश में हैं। हम इस स्थिति को महँगाई और रोजगार के सापेक्ष रख कर देख सकते हैं। दालें जो प्रोटीन का सबसे सुलभ स्रोत हैं, उनकी कीमत 96 रूपये से 110 रूपये प्रति किलो है। क्या इस बढ़ी हुई कीमत का असर महिलाओं और बच्चों के स्वास्थ्य पर नहीं पड़ता होगा? मुट्ठी भर लोगों को गैस, दाल, आटा और तेल की बढ़ी कीमतें फर्क नहीं डालती होंगी पर बड़ी आबादी को ये गहराई से प्रभावित करती है।
अगर ये चन्द आँकड़े तस्वीर स्पष्ट नहीं कर रहे, तो अपने आसपास कम्पटीशन देने वाले नौजवानों की आँखों और दिल में झाँक कर देखिए, बेचैनी भरी अनिश्चितता, हर हफ्ते जान ले रही है। आप किसी घरेलू कामवाली, जोमैटो डिलीवरी ब्वाय, ठेले वाले, मिस्त्री, पार्लर चलाने वाली गली मोहल्ले की औरत से बात करके भी स्थिति को समझ सकते हैं।
अब सवाल है दवा, स्वास्थ्य, रोजगार, सुरक्षा और सम्मान गायब कहाँ है? सरकार रोज वायदे कर रही है–– आत्मनिर्भर भारत और महिला सशक्तिकरण की। थोड़ा ध्यान से देखिए और सोचिए, जुमलेबाजी और लोक–लुभावन बातें या चन्द लोगों को चन्द टुकड़े देने से, हमारी समस्या हल नहीं होगी। हमें मन्दिर–मस्जिद, देशी और विदेशी, अपने और पराये, दोस्त और दुश्मन में उलझाने वाली पार्टी और सरकार नहीं चाहिए। हमें हमारे लिए यानि जनता के लिए नीतियाँ बनाने वाली, हम महिलाओं को सुरक्षा, बराबरी, आर्थिक निर्भरता और सम्मान देने वाली राजनीति और सरकार चाहिए।
–– पद्मा 


पाठा की बिटिया
गहरा साँवला रंग
पसीने से तर सुतवाँ शरीर
लकड़ी के गट्ठर के बोझ से
अकड़ी गर्दन
कहाँ रहती हो तुम
कोल गदहिया, बारामाफी, टिकरिया
कहाँ बेचोगी लकड़ी
सतना, बाँदा, इलाहाबाद
क्या खरीदोगी
सेंदुर, टिकुली, फीता
या आटा, तेल, नमक
घुप्प अँधेरे में
घर लौटती तुम
कितनी निरीह हो
इन गिद्धों भेड़ियों के बीच
तुम्हारे दु%खों को देखकर
खो गया है मेरी भाषा का ताप
गड्ड–मड्ड हो गये हैं बिंब
पीछे हट रहे हैं शब्द
इस अधूरी कविता के लिए
मुझे माफ करना
पाठा की बिटिया।
– केशव तिवारी
(पाठा: बुन्देलखण्ड के बाँदा जिले का पठारी भाग)

Monday, January 17, 2022

राम राज्य में महिलाओं की स्थिति



उत्तरप्रदेश अब रामराज्य बन चुका है। यहाँ भगवान राम के रूप में योगी अवतरित हुए हैं। उनके अनुसार राज्य में अपराध खत्म हो चुके हैं। पहले लड़कियों को घर से निकलने में डर लगता था लेकिन अब बैल भी अपने को सुरक्षित महसूस कर रहे हैं। अब अपराधी खुद थाने में आकर अपने अपराधों को कबूल करते हैं और सजा पाते हैं। महिलाओं से सम्बन्धित अपराधों में कमी आयी है। उनके अनुसार रामराज्य में पहले इनसान तो क्या जानवर भी सुरक्षित नहीं थे लेकिन अब सभी सुरक्षित हैं। वे अपराधों को रोकने के लिए वो हर सम्भव प्रयास कर रहे हैं जो वे कर सकते हैं। अलीगढ़ में, एक सभा को सम्बोधिात करते हुए देश के प्रधान सेवक ने भी कहा कि योगी के रामराज्य में महिलाएँ ज्यादा सुरक्षित हुई हैं।
ऊपर दिए गये बयान सच्चाई से कितना मेल खाते हैं? आइये, देखने की कोशिश करते हैं। एनसीआरबी के अनुसार ऐसा कोई दिन नहीं जाता जिस दिन इस रामराज्य में लड़कियों की इज्जत से न खेला जाता हो। 
हाथरस केस में एक दलित लड़की के साथ सरकार–परस्त दबंगों ने बलात्कार किया। पुलिस और आला अधिकारी बलात्कार की घटना को झुठलाते रहे। कुछ दिनों बाद पीड़िता की मौत हो गयी लेकिन उसे न्याय नहीं मिला। पीड़िता का शव परिवार को न देकर खुद ही आग के हवाले कर दिया गया। परिवार के लोग अपनी बेटी का अन्तिम बार चेहरा भी न देख सके। इसके बावजूद छुटभैया नेता, राज्य के सरकारी, गैर–सरकारी गुण्डे और पुलिस प्रशासन पीड़ित परिवार को धमकाते रहे और परिवार वालों पर केस वापस लेने का दबाव बनाते रहे। बाद में सीबीआई की जाँच में साबित हुआ कि जघन्य बलात्कार हुआ था।
बदायूँ में 55 वर्षीय महिला पूजा करने के लिए मन्दिर गयी। उस महिला के साथ उस मन्दिर के पुजारी ने ही बलात्कार किया। उसके साथ दरिन्दिगी की सभी हदें पार कर दी गयीं। पुलिस प्रशासन भी आरोपियों का ही साथ देता रहा।
इस राज्य की पुलिस की भाषा और आचरण महिलाविरोधी है। पुलिस कर्मियों द्वारा ऐसा माहौल बनाया जाता है जिसमें पीड़िता को लगता है कि मानो वही अपराधी हो। पीड़िता की रिपोर्ट तक दर्ज नहीं की जाती। पुलिस केस वापस लेने की धमकी देना शुरू कर देती है। अपराधियों की ताकत का गुणगान करती है। अगर किसी तरह से रिपोर्ट दर्ज हो भी जाये तो रिश्वत में मोटी रकम की माँग की जाती है। 
कहा जा सकता है कि महिलाओं को सुरक्षित होना है तो उनको जन्म लेने से बचना होगा। वे केवल उन 9 महीनों तक ही सुरक्षित रह सकती हैं जब वे अपनी माँ के पेट में हों।    
सच यह है कि उत्तर प्रदेश में महिलाओं को सुरक्षा देने वाली व्यवस्थाओं और योजनाओं को बन्द किया जा रहा है। इसके लिए हम महिला हेल्पलाइन ‘181’ को ले सकते हैं। इस हेल्पलाइन का उद्देश्य महिलाओं को तंग करने वाले अपराधियों को रोकना था, तत्काल महिलाओं को सुरक्षा मुहैया कराने का था। इस हेल्पलाइन में लगभग 365 महिला कर्मचारी काम करती थीं। इन्हें लगभग 15 महीनों से वेतन नहीं दिया गया। इन्होंने अपनी समस्या को अपने आला अधिकारी, सम्बन्धित मंत्री और मुख्यमंत्री के सामने रखा। लेकिन कोई सुनवाई नहीं हुई। फिर इन्होंने कई दिनों तक लखनऊ में आन्दोलन किया। इनमें से एक आन्दोलनकारी को आर्थिक तंगी के चलते आत्महत्या करने पर मजबूर होना पड़ा। इसके बावजूद सरकार ने बिना नोटिस दिये हेल्पलाइन बन्द कर दिया। उन महिलाओं के वेतन का क्या हुआ कुछ पता नहीं। वे अपना जीवन कैसे गुजार रही होंगी इसका हम अन्दाजा भी नहीं लगा सकते। आप समझ सकते हैं कि राज्य सरकार महिलाओं के प्रति कितना सम्वेदनशील है?
रामराज्य का इतिहास देखेंगे तो हम पाएँगे कि वह महिला विरोधी थी। उस समय सीता को अपने चरित्र की पवित्रता साबित करने के लिए अग्नि परीक्षा देनी पड़ी थी। लेकिन राम ने ऐसी कोई परीक्षा नहीं दी थी। उस समाज में तय था पुरुष जन्म से मरने तक हमेशा पवित्र होते हैं। इसलिए वह राज्य पुरुष हितैषी था। बाकी आप आज के रामराज्य की तस्वीर से तुलना कर सकते हैं। आप पाएँगे कि यह सरकार कहीं ज्यादा महिला विरोधी है।
हालाँकि दुनिया दुखों से भरी है, लेकिन यह उससे उबरने की कहानियों से भी भरी हुई है–––
हेलेन केलर (वे स्वयं अंधी, गूंगी और बहरी थीं परन्तु एक महान लेखिका और सामजिक कार्यकर्ता थीं) 

–– प्रीति 

Friday, January 7, 2022

लॉकडाउन में छिनती नौकरियाँ



अन्तरराष्ट्रीय श्रम संगठन (2021) की रिपोर्ट के अनुसार भारत में महिलाएँ पुरुषों की अपेक्षा 9–6 गुना ज्यादा काम करती है। पर उन्हें इस काम के बदले कम वेतन मिलता है। कोरोना महामारी में नौकरियाँ बहुत तेजी से घटीं जिससे लाखों करोड़ों की संख्या में लोग बेरोजगार हुए हैं। लेकिन सबसे ज्यादा महिलाएँ बेरोजगार हुई हैं।
कोरोना महामारी में महिलाओं की स्थिति इतनी ज्यादा खराब हुई है कि चारों तरफ हताशा और निराशा के अलावा कुछ नजर नहीं आ रहा है। हर जगह पर हर तबके की महिलाओं का शोषण हो रहा है। फिर वे चाहे सफाई कर्मचारी हों या खेती और दिहाड़ी मजदूरी करने वाली या घरेलू काम करने वाली महिलाएँ हों। लॉकडाउन में नौकरी छूट जाने पर वे मानसिक और भावनात्मक रूप से टूट गयीं, पैसे न होने के चलते उन्हें भारी मुश्किलों और चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है।
ऐसी ही एक घटना हमारे पड़ोस में एक 45 साल की महिला के साथ घटी, जिनके 3 बच्चे हैं। पति और बड़ा बेटा मजदूरी करते थे, लॉकडाउन में दोनों की नौकरी छूट गयी और पति की कोरोना से मौत भी हो गयी। पति की मृत्यु के बाद वे बहुत बीमार रहने लगीं, तंगी के चलते इलाज के लिए भी पैसे नहीं थे। उनकी हालत दिन पर दिन बिगड़ती जा रही थी और ऊपर से घर–गृहस्थी और बच्चों की जिम्मेदारी। लॉकडाउन के बाद भी उनके  बेटे को वापस नौकरी पर नहीं बुलाया गया, जिसके कारण घर की आर्थिक स्थिति बहुत ही बिगड़ गयी, यहाँ तक कि खाने के भी लाले पड़ गये। मुश्किल से उस परिवार का गुजारा हुआ। हम समझ सकते हैं कि उस माँ पर क्या गुजर रही होगी जिसकी आँखों के सामने उसके बच्चे भूख से तड़प रहे थे। 
यह केवल एक घर की कहानी नहीं है। अगर पूरे देश के आँकड़ों पर गौर करें तो हालात इससे भी बदतर है। इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट के अनुसार मार्च 2021 में 83 प्रतिशत महिलाओं को नौकरियों से बाहर किया गया, जबकि पुरुषों के लिए यह आँकड़ा 31–6 प्रतिशत है और लॉकडाउन के बाद की स्थिति में अक्टूबर–नबम्बर में महिलाओं की बेरोजगारी दर बढ़कर 54–7 प्रतिशत हो गयी, वहीं पुरुषों की बेरोजगारी दर 23–2 प्रतिशत ही थी। कोरोना से पहले महिलाओं की बेरोजगारी दर 25–6 प्रतिशत थी जबकि पुरुषों की 8–7 प्रतिशत थी।
सेंटर फॉर मॉननिटरिंग इंडियन इकोनामी के आँकड़ों से पता चलता है कि कोरोना की दूसरी लहर में बेरोजगारी दर में बेतहाशा बढ़ोत्तरी हुई है। भारत में कोरोना काल में फरवरी 2021 में 1–89 करोड़ लोगों को नौकरियों से हाथ धोना पड़ा जिससे बेरोजगारी दर 27 प्रतिशत हो गयी, जबकि पहली लहर 2020 में बेरोजगारी दर 20–9 प्रतिशत थी।
लॉकडाउन के चलते 2020 में देश के करीब 53 हजार होटलों व 5 लाख रेस्टोरेंटों में ताला पड़ गया। पूरे देश में इससे करीब 3 करोड़ लोगों का रोजगार प्रभावित हुआ है। उत्तर प्रदेश के करीब 20 हजार तथा लखनऊ के लगभग 850 होटल बन्द हो गये, जिसके कारण मजदूरी करने वाली महिलाएँ, सफाई कर्मचारियों, कारखानों में काम करने वाली महिलाएँ, बच्चों की देखरेख करने वाली आया, छोटे–छोटे ढाबों, होटलों, होस्टलों में खाना बनाने वाली महिलाओं की नौकरियाँ उजड़ गयीं, जिससे उन्हें अनेकों परेशानियों का सामना करना पड़ा। घर का खर्चा, बच्चों की पढ़ाई, मकान का किराया, बिजली का बिल जैसी जरूरतें पूरी करने में वे पूरी तरह से असमर्थ रहीं। 
नौकरियों के लिए गाँव से आने वाली महिलाएँ दिहाड़ी या मासिक वेतन पर उत्पादों की पैकिंग और कपड़ों की सिलाई–बुनाई जैसे काम करती हैं। इससे वे अपने गृहस्थ जीवन की जरूरतों की भरपायी करती हैं, लेकिन इस महामारी से लगे लॉकडाउन के कारण इन्हें अपनी नौकरी के साथ–साथ घर का किराया न दे पाने के कारण कई मकान मालिकों ने घर से बाहर निकाल दिया। 
यूनिवर्सिटी ऑफ मेनचेस्टर ग्लोबल डेवलपमेंट इंस्टिट्यूट की प्रोफेसर बीना अग्रवाल के अनुसार गुजारे भर कमाई वाली गरीब महिलाओं की छोटी–मोटी बचत भी खत्म हो गयी। बहुत से परिवार कर्ज के जाल में फँस गये और उन्हें अपनी सीमित सम्पत्ति जैसे कि छोटे जानवर, आभूषण और यहाँ तक कि अपने औजार या गाड़ियाँ बेचने के लिए मजबूर होना पड़ा है। सम्पत्ति का नुकसान उनके आर्थिक भविष्य को गम्भीर खतरे में डाल रहा है और उन्हें विनाश के कगार पर ला पटका है।
वास्तव में, पुरुषों की नौकरी जाने पर भी महिलाएँ गहरे रूप से प्रभावित होती हैं। उदाहरण के लिए, बेरोजगार पुरुष प्रवासियों के अपने गाँवों में लौटने से स्थानीय नौकरियों में भीड़भाड़ हो गयी है। छोटे कस्बों में पहले जो काम औरतें करती थीं वे अब पुरुषों के हिस्से आ गयी हैं। महिलाओं के घर के काम का बोझ–– खाना बनाना, बच्चों की देखभाल, जलावन की लकड़ी और पानी लाना भी पुरुषों के लौटने से काफी बढ़ गया है। भोजन की कमी का बोझ भी महिलाओं पर ही पड़ा है।
तो हम यह देख सकते हैं कि किस तरह से पिछले दो सालों से लॉकडाउन में लोगों ने कितनी नौकरियाँ गवाई होंगी। जो भी बची–खुची नौकरियाँ थी, वे कोरोना काल की दूसरी लहर के बीच नौकरियों के संकट को उजागर करती है। 
मुनाफाखोर व्यवस्था दिन पर दिन रोजगार खत्म करती जा रही है। हमें इसे रोकने के लिए संगठित होकर सवाल उठाने की जरूरत है।

–– कुमकुम

पितृसत्ता की परतें


 
आज अगर महिलाएँ पढ़–लिख कर अपने बलबूते पर आगे आ रही हैं तो वहाँ भी स्त्री–पुरुष असमानता मौजूद है। आँकड़ों के ढेर पर बैठ कर इस बात की कल्पना करना आसान है कि देश की आर्थिक प्रगति कैसे हो रही है। बहुत सारी बातों की अनदेखी करके अक्सर भारत के आधुनिक चेहरे को दिखाया जाता रहा है। ऐसा चेहरा, जिसमें प्रगति की चमक है और विकास की रेखाओं से आभामण्डल शोभित है। उद्योग–व्यापार और अन्य क्षेत्रों में आँकड़े कह रहे हैं कि हमारा देश भविष्य में दुनिया में सिरमौर बन कर उभरेगा। लेकिन इस तस्वीर में महिलाओं की जगह कहाँ है?
भारतीय समाज में पितृसत्ता के अनेक रूप हैं जिन्हें विभिन्न स्तरों पर देखा जा सकता है। पितृसत्ता एक व्यवस्था के रूप में किस तरह से काम करती है, इसे समझने के लिए इसकी विचारधारा को अहम माना गया है। विचारधारा के तौर पर यह महिलाओं में ऐसी सहमति पैदा करता है, जिसके तहत महिलाएँ पितृसत्ता को बनाये रखने में मदद करती हैं, क्योंकि समाजीकरण के जरिये वे खुद पुरुष वर्चस्व को आत्मसात करके उसके प्रति अपनी सहमति देती हैं। उनकी इस सहमति को कई तरीकों से हासिल किया जाता है। मसलन, उत्पादन संसाधनों तक उनकी पहुँच का न होना और परिवार के मुखिया पर उनकी आर्थिक निर्भरता। इस आधार पर यह समझना जरूरी हो जाता है कि पितृसत्ता सिर्फ एक वैचारिक व्यवस्था नहीं है, बल्कि इसका भौतिक आधार भी है।
पितृसत्ता में महिलाओं को शक्ति और वर्चस्व के साधनों से वंचित करने पर उनकी सहमति आसानी से हासिल कर ली जाती है। फिर जब महिलाएँ पितृसत्ता के इशारों पर जिन्दगी जीने लगती हैं तो उन्हें वर्गीय सुविधाएँ मिलने लगती हैं। उन्हें मान–सम्मान के तमगों से भी नवाजा जाता है। दूसरी तरफ जो महिलाएँ पितृसत्ता के कायदे–कानूनों और तौर–तरीकों को अपना सहयोग या सहमति नहीं देती हैं, उन्हें बुरा करार दे दिया जाता है और आमतौर पर सम्पत्ति और सुविधाओं से बेदखल कर दिया जाता है।
मुझे अक्सर यह लगता है कि सामाजिक रूप से अब भी हम काफी पिछड़े हैं। स्त्री स्वतंत्रता के नाम पर शिक्षा और नौकरी करने की छूट? इस आजाद देश में अपनी इच्छा से पढ़ने, नौकरी करने, न करने, विवाह करने या न करने की स्वतंत्रता जो हमारा संविधान हमें सालों पहले दे चुका है, वहाँ यह अनुमति का प्रश्न आता कहाँ से है? इस देश में स्त्री शिक्षा और स्वतंत्रता का आलम यह है कि लड़कियाँ खुद इस यह बताते हुए गर्व महसूस करती हैं कि मेरे घर वालों या ससुराल वालों ने मुझे आगे पढ़ने, नौकरी करने, साड़ी के बजाय सूट या जीन्स पहनने आदि को स्वीकार कर लिया है। वास्तव में यह पितृसत्ता के प्रति उनका बिना सोचे–समझे समर्पण और समर्थन है।
अपने जीवन के फैसले लेने और उसे किस तरह जीना है, यह तय करने का एक स्त्री को उतना ही अधिकार है, जितना एक पुरुष को है। विवाह, परिवार संस्था में घर–परिवार और बच्चों या घरेलू कार्यों की जिम्मेदारी जितनी स्त्री की है, उतनी ही पुरुष की भी हो। विडम्बना यह है कि स्त्री अगर आर्थिक रूप से स्वतंत्र है, तो भी वह भारतीय समाज के शोषण चक्र से मुक्त नहीं है।
नये जमाने के अनुसार अब महिलाओं की स्थिति में भी बदलाव की सम्भावना नजर आ रही है। देश के सेवा क्षेत्र में महिलाएँ अपनी हिस्सेदारी ज्यादा से ज्यादा निभाने का प्रयत्न कर रही हैं। अक्सर यह देखने में आता है कि घर में अगर लड़का और लड़की दोनों हैं, तो लड़के को नौकरी के लिए दूसरे शहर में भेजने में भी कोई समस्या नहीं रहती और लड़की को बहुत हुआ तो उसी शहर में छोटी–मोटी नौकरी करने के लिए भेज दिया जाता है। वह भी काफी मान–मनौव्वल के बाद।
बहरहाल, सभी ओर छाये धुन्ध के बीच उम्मीद की किरणें भी कभी–कभार दिख जाती हैं। मुम्बई में एक टैक्सी सेवा देने वाली कम्पनी ने अपने यहाँ केवल महिला ड्राइवरों को ही रखा है। इसके अलावा, एक संस्था ने घरेलू सहायिकाओं को अपने यहाँ नौकरी पर रखा है और वह संगठित तौर पर यह काम करने वाली पहली कम्पनी बन गयी है। कई कम्पनियों ने महिलाओं को सुविधाजनक समय के मुताबिक काम करने की अनुमति देना आरम्भ कर दिया है। लेकिन विचार से स्तर पर बराबरी आधारित बदलाव जब तक नहीं होगा, केवल आर्थिक स्वतंत्रता पितृसत्ता के ढाँचे को बदलने के लिहाज से कोई खास नतीजे नहीं देने वाली।
लेकिन पितृसत्ता के ढाँचे में बदलाव अपने आप नहीं होगा। इसके लिए चेतनासम्पन्न संगठन की जरूरत होगी और पितृसत्ता पर निरन्तर प्रहार की जरूरत होगी। 
(जनसत्ता से साभार) 
–– गरिमा सिंह