Saturday, May 1, 2021

विज्ञान विषयों में महिलाओं की भागीदारी




आज के युग में जब औरत अपनी पहुँच, अपनी दस्तक हर क्षेत्र में दे रही है, वह वैज्ञानिक, उद्योगपति, राजनेता, तकनीशियन, सभी जगह अपनी भागीदारी दे रही है, तब भी समाज में महिलाओं के लिए कुछ चुनिन्दा पेशे हैं, जैसे शिक्षिका, नर्स, डॉक्टर या अन्य सेवा भाव वाले काम। आज भी औरतों को मानवीय विषयों जैसे सौंदर्यशास्त्र, कला, संगीत, आदि विषयों के लिए जितना योग्य माना जाता है, उतना वैज्ञानिक या तकनीकी क्षेत्र के लिए नहीं। इससे अलग शिक्षा के लगातार महँगे होते जाने से भी अब विज्ञान या तकनीकी विषयों में महिलाओं की संख्या बढ़ नहीं रही है, क्योंकि शिक्षा के महँगे हो जाने से लड़का या लड़की में से परिवार सिर्फ एक को ही पढ़ा सके तो प्राथमिकता में लड़का ही होता है।
जो थोड़ी बहुत महिलाएँ विज्ञान या गणित विषयों की पढ़ाई करती भी हैं उनमें से बहुत ही कम महिलाएँ विज्ञान या तकनीकी से जुड़े शोध कार्यों में अपनी हिस्सेदारी कर पाती हैं। एक शोध के अनुसार दुनिया भर में वैज्ञानिक शोध कार्यों में लगे शोधार्थियों में केवल 30: महिलाएँ हैं जबकि भारत के मामले में यह आंकड़ा और भी नीचे है। जहाँ 2–8 लाख शोधार्थियों में महिलाओं का प्रतिशत केवल 14: है। इन आंकड़ों से समझा जा सकता है कि शोध संस्थानों में लैंगिक असमानता कितनी ज्यादा होती है जिसका असर हम आज के वैज्ञानिक शोध में महिलाओं से सम्बन्धित विषयों का बहुत कम शोध होने के रूप में देख सकते हैं (महिलाओं को होने वाली बीमारियों पर सबसे कम शोध होते हैं)। महिलाएँ, महिला सम्बन्धी विषयों की जरूरत को बेहतर समझ सकती हैं, इससे अलग महिलाओं से सम्बन्धित विषयों पर ही नहीं बल्कि और दूसरे विषयों में भी महिलाओं की भागीदारी उससे ज्यादा बेहतर बना सकती हैं। माना जाता है कि शोधकर्ताओं के जिस समूह में महिला और पुरुष दोनों होते हैं उनके प्रयोगों के परिमाण उस समूह से ज्यादा बेहतर थे जिसमें सिर्फ पुरुष ही शोधार्थी थे। कुछ शोध से पता चलता है कि महिलाएँ विज्ञान के प्रति पुरुषों से एकदम भिन्न रवैया रखती हैं, जिससे पूरे समूह  के सोचने का दायरा बढ़ जाता है। विज्ञान से जुड़े क्षेत्र में शिक्षा व रोजगार के लिए महिलाओं व लड़कियों की भागीदारी बढ़ाने के उद्देश्य से  ‘विज्ञान में महिलाओं व लड़कियों के अंतरराष्ट्रीय दिवस’ पर प्रोत्साहन दिया जा रहा है।
महिलाएँ शोध कार्यों में नहीं जातीं, इसके पीछे समाज में महिलाओं की घरेलू जिम्मेदारियों को निभाना, मातृत्व और बच्चों के पालन–पोषण, बुजुर्गों का ध्यान रखने जैसी सामाजिक जिम्मेदारीयाँ हैं, जिन्हें मुख्यता महिलाएँ ही निभाती हैं। भारत जैसे देश में तो जैसे ये कार्य सिर्फ महिलाओं के ही होते हैं। महिलाएँ कोई भी पेशा करती हों लेकिन उनकी पहली भूमिका माँ, बहन, बेटी, बहू से जुड़ी होती है। महिलाएँ जहाँ इन जिम्मेदारियों को निभाने में हर रोज अपने समय को औसतन 352 मिनट का समय देती हैं वहीं पुरुष इन सब के लिए केवल 52 मिनट दिन भर में खर्च करते हैं। जहाँ महिलाओं का 9:00 से 5:00 वाली निश्चित समय की नौकरी करना ही एक बड़ी चुनौती हो वहाँ शोध कार्यों जैसी अनिश्चित समय सीमा वाले पेशे को करना महिलाओं के लिए बहुत कठिन हो जाता है।
विज्ञान से सम्बद्ध संस्थाओं में महिलाओं की मौजूदगी के मामले में भारत 69 देशों की सूची में लगभग सबसे निचले पायदान पर है। विज्ञान पत्रिका ‘नेचर’ के सर्वेक्षण के अनुसार ‘भारतीय राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी’ में 2013 में कुल 864 सदस्यों में सिर्फ 52 महिलाएँ थीं। वर्ष 2014 तक इस संस्थान के 31–सदस्यीय अधिशासी समिति में एक भी महिला सदस्य नहीं थी। भारत की तुलना में अमेरिका, स्विट्जरलैंड और स्वीडन में राष्ट्रीय अकादमी के शासन मण्डल में 47 फीसदी महिलाएँ हैं, क्यूबा, नीदरलैंड और ब्रिटेन में विज्ञान अकादमियों में 40 फीसदी से अधिक महिलाएँ हैं।
हरित अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देने और जलवायु संकट से निपटने में विज्ञान की एक खास भूमिका है और इसमें सभी की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए यह जरूरी है कि विज्ञान से पुरुषत्व को जोड़ने वाली धारणाएँ तोड़ी जाएँ। संयुक्त राष्ट्र शैक्षिणिक, वैज्ञानिक एवं सांस्कृतिक संगठन (यूनेस्को) के आंकड़े दर्शाते हैं कि विज्ञान, टेक्नोलॉजी, इंजीनियरिंग और गणित यानी स्टैम विषयों में महिलाओं द्वारा प्रकाशित शोध की संख्या कम है, उन्हें अपने शोध का मेहनताना भी कम मिलता है और पुरुष सहकर्मियों की तुलना में वे करियर में उतना आगे नहीं बढ़ पातीं।
वर्ष 2014–2016 तक के आंकड़े दर्शाते हैं कि सूचना व संचार टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में महिलाओं व लड़कियों की संख्या कम है– महिलाएँ कुल संख्या का महज तीन फीसदी हंै जबकि प्राकृतिक विज्ञान, गणित व सांख्यिकी में यह आंकड़ा पाँच फीसदी तक सीमित है।
महिलाओं की शोध संस्थाओं में संख्या को बढ़ाने के लिए समाज में महिलाओं की शिक्षा और उनकी सामाजिक भूमिका का फिर से बँटवारा करना पड़ेगा जिसमें महिलाओं की पारिवारिक जिम्मेदारी को परिवार में उचित ढंग से बाँटना पड़ेगा। उसके मातृत्व के गुण को महिला की कमजोरी की तरह नहीं बल्कि उसकी सामाजिक आवश्यकता की तरह देखा जाए तब ही महिलाओं को समाज में अपनी योग्यता दिखाने का सही अवसर मिल पाएगा। महिलाओं को परिवार से अलग उनके कार्य स्थलों पर सम्मान और सुरक्षित माहौल देना होगा उनके घरों से कार्य स्थलों तक आने–जाने के लिए सुरक्षित माहौल देना होगा तभी महिलाएँ आगे बढ़ कर अपनी योग्यता को दिखा सकेंगी।
–दीप्ति


पोलैंड का महिला आन्दोलन




पिछले साल जब पूरी दुनिया कोरोना महामारी से जूझ रही थी, तब पोलैंड की महिलाएँ अपने हक की लड़ाई भी लड़ रही थीं। महिलाओं की इस लड़ाई में देश के हर वर्ग–हर उम्र के लोग शामिल हुए। पोलैंड के पिछले तीस सालों के इतिहास में यह सबसे बड़ा आन्दोलन था। यह आन्दोलन महिलाओं के गर्भपात से सम्बन्धित कानूनों में बदलाव को लेकर हुआ। 
पूरे यूरोप में पोलैंड ही एकमात्र ऐसा देश है जहाँ गर्भपात से सम्बन्धित कानून बहुत ही कड़े हैं। साल 2016 में जब वहाँ की सरकार ने गर्भपात को निषेध करते हुए गैरकानूनी घोषित कर दिया था तब पूरा देश एकजुट होकर उठ खड़ा हुआ। लोगों ने काले कपड़े, पट्टा आदि बांध कर इस फैसले पर कड़ा विरोध जताया और पूरे देश में जगह–जगह भारी विरोध प्रदर्शन हुए। यह आन्दोलन ‘ब्लैक प्रोटेस्ट’ के नाम से पोलैंड के इतिहास में हमेशा के लिए दर्ज हो गया। आन्दोलन के दबाव में आकर सरकार ने यह कानून वापिस ले लिया। पर जो नये कानून बनाये उनमें केवल विशेष परिस्थितियों में ही महिलाओं को गर्भपात का अधिकार मिला।
पोलैंड सरकार के अनुसार महिलाएँ सिर्फ तीन परिस्थितियों में ही गर्भपात करा सकती थीं––
(1) जब भ्रूण के कारण माँ की जान को खतरा हो।
(2) जब भ्रूण व्यभिचार या बलात्कार का परिणाम हो। 
(3) जब भ्रूण असमान्य हो और जन्म के बाद उसके जीवित बच पाने की सम्भावना न हो।
इन कड़े कानूनों को भी वहाँ की महिलाएँ थोड़े–बहुत विरोध के साथ ढोती रहीं।
अक्टूबर 2020 में पोलैंड के सर्वोच्च न्यायालय ने एक नया नियम प्रस्तावित किया जिसमें ऊपर दी गयी तीन परिस्थितियों में से अन्तिम को समाप्त किये जाने का फरमान था। इस आदेश के पक्ष में न्यायालय का तर्क था कि “सिर्फ महिलाओं की सुविधा के लिए अजन्मे बच्चे की हत्या ठीक नहीं” और “भ्रूण को भी दीक्षास्नान, अन्तिम संस्कार और माँ की गोद में दम तोड़ने का अधिकार मिलना चाहिए।”
न्यायालय के इस बेतुके तर्क पर आन्दोलनकारी महिलाओं का प्रतिउत्तर था कि एक अजन्मे शिशु के अधिकारों का बचाव करने में उनके अधिकार छीने जा रहे हैं। इस नियम के बाद महिलाओं को उनके अपने ही शरीर पर अधिकार नहीं रहेगा। सरकार चाहती है कि महिलाएँ उस परिस्थिति में भी बच्चे को जन्म दें जबकि बच्चा जन्म लेते ही या कुछ समय बाद ही दम तोड़ देगा। एक माँ के लिए इससे ज्यादा पीड़ादायक और भयावह क्या होगा!
सरकार के इस अमानवीय आदेश के विरोध में पोलैंड की महिलाएँ एक बार फिर से संगठित होकर संघर्ष के लिए तैयार हो गयीं। 22 अक्टूबर 2020 को महिला कार्यकर्ता सुशानो अपने कुछ साथियों के साथ न्यायालय पहुँची और वहाँ से वर्तमान सत्ताधारी पार्टी पीआईएस के मुखिया के घर तक मार्च निकाला। देश के 580 शहरों–कस्बों में विरोध–प्रदर्शन हुए और मार्च निकाले गये जिनमें लाखों लोग शामिल हुए। इन विरोध–प्रर्दशनों में न सिर्फ महिलाएँ, बच्चे, वृद्ध, पुरुष, छात्र सभी शामिल हुए। वहाँ के बस–टैक्सी चालकों ने भी अपनी गाड़ियों पर “वी आर विद यू” (हम तुम्हारे साथ हैं) लिखवाकर इस आन्दोलन का समर्थन किया।
भारी विरोध प्रर्दशनों के कारण इस कानून को अब तक लागू नहीं किया गया है। इस आन्दोलन के नेतृत्व का कहना है कि यह आन्दोलन अब सत्ताधारी पार्टी के इस्तीफे के साथ ही रुकेगा। पोलैंड के लोगों ने इस आन्दोलन को क्रान्ति का नाम दिया है। वह क्रान्ति जो नया सवेरा लायेगी!
इस आन्दोलन को तोड़ने की कोशिश में वहाँ की धर्मपरायण और चर्च की कठपुतली सरकार ने कई हथकण्डे अपनाये। निचले स्तर की राजनीति करते हुए वहाँ के शिक्षा मंत्री ने बयान दिया कि जिन विश्वविद्यालयों ने आन्दोलन का समर्थन किया, उनको दिये जाने वाले भत्तों में कटौती कर दी जायेगी। यहाँ तक कि महामारी को भी हथियार बनाने में इन्हें लाज नहीं आयी। सरकारी पक्ष के वकील ने कहा कि आन्दोलनकारी भीड़ इकट्ठी कर के महामारी को बढ़ावा दे रहे हैं। इन पर महामारी को जानबूझ कर बढ़ावा देने की धाराएँ लगायी जायेंगी, जिनमें आठ वर्ष तक की कैद का प्रावधान है।
इन सब घटिया राजनीतिक दाँव–पेंचों के बावजूद इस आन्दोलन ने सीना तान कर सरकार को चुनोती दी। महिलाएँ “माई बॉडी, माई च्वॉइस” (मेरा शरीर, मेरा चुनाव) के बैनर लिये कोरोना के दौर में अपनी जान की परवाह किये बिना, अपनी आजादी के लिए सड़कों पर डटी रहीं। 
इस नये कानून या गर्भपात से सम्बन्धित कानूनों में जो सख्ती है, उसका कारण जानना बहुत जरूरी है। पोलैंड की राजनीति में चर्च का बहुत अधिक प्रभाव है। चर्च के अनुसार भ्रूण की हत्या पाप है। चर्च के प्रभाव के चलते वहाँ की सरकार बार–बार गर्भपात विरोधी कानून बनाने के कोशिश कर रही है। जिससे कि यह पाप न हो। अब सवाल यह है कि इस पाप को पुण्य में बदलने की कीमत क्या है? उत्तर है– महिलाओं का उनके अपने शरीर और जिन्दगी पर अधिकार।
समस्या के मूल में जाएँ तो यह समझ आता है कि राजसत्ता पर धर्म का हस्तक्षेप ही वह कारण है जिससे पोलैंड में हलचल मच गयी। कोरोना महामारी के दौर में जब पूरी दुनिया अपने–अपने घरों हमें कैद थी, तब पोलैंडवासी सड़कों पर उतरने को मजबूर हुए।
इतिहास गवाह है कि दुनिया में कहीं भी, जब–जब राजनीति पर धर्म का हस्तक्षेप हुआ है, परिणाम हमेशा ही बुरे रहे हैं। धर्म राजनीतिक स्वार्थ को साधने में ढ़ाल बन जाता है। बदले में राजनीति धर्म के सही–गलत, सभी नियमों का समर्थन करती है।
–अपूर्वा तिवारी