Friday, March 8, 2013

चीख का पार्श्व संगीत : आशु वर्मा


  कम्प्यूटर पर क्लिक करते ही
  उग आते हैं किसी बड़े आर्किटेक्ट के ग्राफिक्स
  काले स्क्रीन पर संतरी-हरी-नीली-पीली
  मुर्दा रेखाओं के साथ खड़े हो जाते हैं अपार्टमेन्ट
  बेडरूम, डिजाइनर टॉयलेट
  और मोडयुलर किचेन के साथ
  ठीक उसी समय
  वहीँ-कहीं छीन जाता है कोई गाँव, कोई क़स्बा या फिर कोई शहर पुराना....
  रहने लगता है वहां कोई नया शहर
  दे दिया जाता है उसे
  कोई नया नाम... 
  मसलन, नोएडा, वैशाली, गुडगाँव, निठारी वगैरह वगैरह....

  चमचमाते कांच वाले अजीब किस्म के कारखाने
  आसमान छूती इमारतें
  आठ लाइनों वाले राजपथ
  टोल-टैक्स बूथ
  सैंडी और कैंडी से भरे कॉल सेंटर,
  इन सबके बीच छितराने लगती है ऑक्सीज़न
  और सभ्यता किसी ठंडी कब्र में छुप जाती है
  तेज़ रफ़्तार गाड़ियों
  जगमगाते शौपिंग माँल
  गमकते फ़ूड कोर्ट
  शोर मचाते डिस्को के बीच
  सांय-सांय गूंजती है
  एक ठंडी डरावनी चुप्पी .......
  ध्यान दें, ध्यान दें तो इस चुप्पी में पार्श्व संगीत की तरह बजती रहती है
  एक चीख
  जो उठती है किसी कॉल सेंटर के पास रात दो बजे,
  बन रही किसी इमारत की एक सौ बीसवीं मंजिल से,
  किसी एक्सप्रेस हाइवे के सूने से मोड़ से,
  या फिर, किसी एयर-कंडीशंड कार की पिछली सीट से.
  ये चीख अब बम्बई की भीड़ भारी लोकल ट्रेन
  पूना के किसी क्लब के स्वीमिंग पूल
  या दिल्ली की भीड़ भरी बस
  या फिर महरौली के किसी फ़ार्म हाउस से भी आती है......

  बाकी हमारे आपके घरों से
  चीख नहीं आती है,
  बस आती है एक घुटी सी आवाज़ ....
  बल्कि यूं कहें की गले में घों-घों और
  चुप्पी के बीच की सी आवाज़
  जिसमें फर्क आपको खुद ही करना होता है
  और समझना होता है आँख के नीचे
  उभर आये काले धब्बों
  डूबती हंसी और  
  घर में तारी मुर्दा खामोशी को...
  अगर आप गौर से सुनें तो शहरों और गांवों के ऊपर
  और क्षोभमंडल के बीच
  ऊपर टगी इस चीख में
  शामिल होती हैं गलियों और मोहल्लों से आती चीख भी
  जिनसे मिलकर बनता है
  चीख का मौन पार्श्व-संगीत.

  अगर आप देश की राजधानी दिल्ली में हैं तो
  शायद आपको सुनाई न दे
  या फिर शायद बड़ा जोर लगाना पड़े सुनने में
  कई और चीखें ......
  जो दूर, कहीं बहुत दूर से आती हैं 
  जिसके बिना पूरा नहीं होता चीख का यह ऑर्केस्ट्रा
  मौन का यह पार्श्व संगीत .....
  यह चीख आती है बिहार के धूल उड़ाते
  किसी दक्खिन टीले से
  या फिर बस्तर या उड़ीसा के आदिम गाँवों से.....
  एक सिसकी आती है पंजाब के एन आर आई घर से..

  अहिल्या के घर से उठी यह चीख
  कितने ही युगों गुज़रती ....
  कभी मद्धम, तो कभी द्रुत आरोह-अवरोह से करती है पार्श्व संगीत को और भी उदास....
  लोग कहते हैं की इस पार्श्व संगीत में बजता है
  दुनिया का सबसे बड़ा साज़
  जिसमे हर वर्ष जुड़ते हैं नब्बे हज़ार तार...
  लोग यह भी कहते हैं की जब कोई साज़
  बहुत दिन बज जाता है,
  तब,
  टूटने लगते हैं उसके तार...
  तब, टूटने लगते है उसके....




  

समाज को लड़कियों के रहने लायक बनाओ


एक लडकी मर गयी..!
तो क्या हुआ...?
रोज़ लड़कियां मरती हैं. ..!!
नहीं, हम उस लडकी की बात कर रहें हैं जो 16 दिसम्बर की रात को हैवानियत का शिकार हुयी. यह वह लड़की थी जिसे देश की राजधानी दिल्ली में छ: वहशी लोगों के द्वारा रौंद डाला गया.
आप सब पिछले 12-14 दिनों से सुन पढ़ रहे होंगे कि एक लड़की पहले दिल्ली और फिर सिंगापुर के एक अस्पताल में ज़िन्दगी और मौत के बीच झूल रही थी और आखिरकार 28-29 दिसम्बर की रात को उसने दम तोड़ दिया. मीडिया के माध्यम से हम इस लड़की को दामिनी के नाम से जानते है. जो कुछ दामिनी ने झेला उसके समक्ष बलात्कार शब्द बहुत छोटा पड़ जाता है.
  दामिनी पहली लड़की नहीं थी, और दामिनी आखिरी लड़की भी नहीं है. न जाने
कितनी दामानियाँ रोज़ लुटती-पिटती दम तोड़ देती हैं.
  पिछले कुछ दिनों से दिल्ली में उथल-पुथल मची हुई है. 16 दिसंबर को तेईस वर्षीय पारा-मेडिकल छात्रा के साथ हुए जघन्य सामूहिक बलात्कार के बाद सिर्फ दिल्ली में ही नहीं, कलकत्ता, बम्बई, बंगलौर या फिर छोटे-बड़े बहुत सारे शहरों में लोगों का गुस्सा फूट पड़ा. इसकी तुलना कुछ हद तक 1970 के दशक में ‘मथुरा बलात्कार कांड’ के बाद पूरे देश में फैली महिला आन्दोलन की लहर से की जा सकती है, जिसने हमारे देश में नारी मुक्ति आन्दोलन को नयी ऊँचाई तक पहुँचाने में अहम भूमिका निभाई थी. लेकिन ऐसा पहली बार हुआ कि महिलाओं से जुड़े किसी मुद्दे पर पहली बार लोग इतने मुखर रूप में  राजधानी की सड़कों पर उतर आये. नौजवान लड़के-लड़कियों ने पुलिस की लाठियों, आंसू गैस के गोलों और कड़ाके की ठण्ड में पानी की बौछारों का सामना करते हुए, अपने-अपने तरीके से गुस्से का इज़हार किया. लडकियों का गुस्सा बाँध तोड़ कर फूट पड़ा. ज़ाहिर है कि हर एक लड़की को अपनी ज़िन्दगी में कभी न कभी भोगे हुए अपमान का दंश बलात्कार की शिकार लड़की के साथ एकमएक हो गया. गुस्से में किसी ने कह की बलात्कारी को फांसी की सजा दो, तो किसी ने उसे नपुंसक बनाने की माँग की. वर्षों हि नहीं, सदियों से संचित गुस्से का लावा जब फूटता है, तो कोई भी समूह ऐसी ही बात करता है. भावना विवेक पर भारी पड़ना लाजिमी हो जाता है.
      समय आ गया है, जब हमें लड़कियों और औरतों के खिलाफ मर्दवादी घृणा और हिंसा से जुड़े मुद्दों को बहुत ही गंभीरता से लेना चाहिए. भारतीय समाज बहुत सारे समाजों से बिलकुल भिन्न है. वास्तव में यह विरोधाभासों का संगम है. एक तरफ धुर आधुनिकता दिखाई देती है, तो दूसरी तरफ बेहद पिछड़े मध्यकालीन मूल्य. मनुस्मृति और दुसरे धर्मग्रंथों में हज़ारों साल पहले स्त्रियों के बारे में जो पुरुषवादी मूल्य-मान्यताएं और विधि-निषेध दिल और दिमाग में बैठाए हैं, वो मौका पाते ही बेहद हिंसक और वीभत्स रूप फूट पड़ते हैं. पीढी दर पीढी इसे बाल जीवन घुट्टी की तरह पिलाया जाता है. परिवारों में अगर दो लैंगिक रूप से भिन्न बच्चे होते हैं तो एक को औरत की तरह ढाला जाता है और दूसरे को मर्द के रूप में. उनकी मानसिकताएं, सपने, अपेक्षाएं, हावभाव, और अभिरुचियाँ भी अलग-अलग होती हैं. उनके लिए शरीर और इज्ज़त-आबरू के मायने भी अलग-अलग होते हैं. माँ-बहन की गालियां सर्वमान्य हैं, जिनमें यौन क्रिया को बीभत्स और हिंसक रूप दिया जाता है. बचपन से लड़के लड़कियाँ इन गालियों को सुनते हुए बड़े होते हैं और उनके मन पर इनकी गहरी छाप होती है. अगर कोई लड़की अपनी पहचान या अस्तित्व के लिए सचेत होती है, आग्रहशील होती है, तो उसकी औकात बताने का एक सबसे सरल तरीका होता है, उसे शारीरिक रूप से अपमानित करना. उसे अहसास कराया जाता है कि मर्दानगी के मातहत रहने पर ही वह सुरक्षित रह सकती है और विरोध करने पर उससे बदला लिया जाता है. बलात्कार इसका चरम रूप है.
    हिंसा मर्दानगी का हथियार है. हिंसा से ही मर्दानगी हासिल हो सकती है या फिर दिखाई जा सकती है. यह रवैय्या घर-बाहर, हर जगह दिखाई देता है. यह हिंसा शारीरिक भी हो सकती है और मानसिक भी. गंदे इशारे और गन्दा स्पर्श, आँख मरना, शरीर से छेड़छाड़, मोबाइल से गन्दी बातें और गंदे मैसेज....सैकड़ों साधन हैं जिनसे रेप का माहौल तैयार होता है. फिल्मों और फिल्मी गानों में अश्लीलता की कोई हद नहीं. हिंसा और सेक्स को  निरंतर देखते रहने से बचपन का भोलापन ख़त्म होता जा रहा है.
इंटरनेट पर अनगिनत पोर्न साईट भी हैं, जो बीमार मानसिकता पैदा करती हैं.
    हमारा समाज ऐसा पुरुषवादी समाज है जिसमें यदि लडकियाँ खुद को बचा कर न रखें, वे टाइम से घर ना लौटें, घर के अन्दर माँएं चौकीदारी न करें, लडकियाँ भाई या किसी मर्द के साथ न जाएँ, तो उनके साथ कभी भी बलात्कार हो सकता है..... कहाँ-कहाँ, कैसे और कौन उसे बचाता रहेगा? पुलिस सुरक्षा बढ़ा देने, बलात्कारी को मृत्यु दंड देने या नपुंसक बना देने से क्या बलात्कार ख़त्म हो जायेंगे? क्या हत्या के खिलाफ कठोरतम दंड का प्रावधान होने से हत्या रुक गयी? कानूनी सख्ती सिर्फ प्रतिरोधक का काम करती रहेंगी. समाज को सभ्य बनाये रखने के लिए ऐसे प्रतिरोधकों की ज़रुरत होती है, कमज़ोर तबकों की हिफाज़त के लिए कानून ज़रूरी होते हैं. लेकिन, नए कानूनों के बन जाने से ही अपनी सुरक्षा को लेकर लड़कियों, उनकी माँओं, उनके घरवालों का लगातार चिंता और तनाव में रहना ख़त्म नहीं हो जायेगा.
    हमारे देश में सालाना नब्बे हजार बलात्कार होते हैं हज़ारों घटनाएं अनरिपोर्टेड रह जाती हैं. घर के भीतर करीबी रिश्तेदारों द्वारा किये जाने वाले बलात्कार के मामलों का गला मौकाए वारदात पर ही घोंट दिया जाता है. कश्मीर से लेकर सुदूर दक्षिण के मंदिर शहरों और जगमगाते गुजरात से लेकर मणिपुर, नागालैंड और असम समेत पूर्वोत्तर के राज्यों तक या फिर छत्तीसगढ़, उड़ीसा और झारखंड के आदिवासी गाँवों या फिर उत्तरी भारत के गाँव-देहातों तक, न जाने कितनी ही ऎसी घटनाएं अनकही-अनसुनी रह जाती हैं.
  पिछले बीस-पच्चीस सालों में जिस तरह से देश का विकास किया जा रहा है, जिस तरह से पैसे और मुनाफे की देवी की आराधना हो रही है, जिस तरह से सरकारी खजाने की लूट तथा रोज़गार, जमीन और जीवन की असुरक्षा बढी है, उसमें औरत के प्रति हिंसा का बढ़ना स्वाभाविक है. गाँवों और शहरों में बदहवास घूमते बेरोजगार, बिल्डरों और भू-मफियाओं, सटोरियों, नेताओं की बेतहाशा बढ़ती कमाई तथा मौजमस्ती की बदलती परिभाषा ने औरतों के प्रति हिंसा को पहले से कई गुना बढ़ा दिया है. ताकतवर और पढ़ा लिखा तबका आवाज़ उठा लेता है. दिल्ली की घटना के प्रति सड़कों पर उतर आये प्रतिरोध ने इसे साबित भी कर दिया. लेकिन इसने यह भी साबित कर दिया की प्रतिरोध संगठित न हो तो उसे भटकाना, तोडना या बदनाम करना भी उतना ही आसान होता है. ऐसे आन्दोलनों का तात्कालिक मांगों और सतही मुद्दों में उलझ कर रह जाना भी स्वाभाविक है. दिल्ली में बलात्कार के खिलाफ जनाक्रोश और लोगों के स्वतःप्रवर्तित संघर्ष को आगे, बहुत आगे, अपने घरों, देहातों और लोगों के दिलोदिमाग तक पहुंचाने की ज़रुरत है. ज़रुरत है जनमानस में गहराई से बैठी पुरुषवादी सोच पर चोट करने की. ज़रुरत है घर के अन्दर बच्चे की परवरिश  मर्द और औरत के रूप में न करके, एक सजग इंसान और स्वस्थ नागरिक के रूप में उसे बड़ा करने की. ज़रूरत है घर के फैसलों में लड़की और औरत को बराबरी की भागीदारी सुनिश्चित करने की, संपत्ति के अधिकार को ज़मीनी स्तर पर लागू करने की. वास्तव में आज ज़रुरत है तेज़ी से बदलती, वैश्वीकृत दुनिया में लड़की और औरत को भीतर से मज़बूत बनाने, उसमें आत्मविश्वास पैदा करने और पूर्ण बराबरी से परिपूर्ण इंसानी  मूल्यों पर आधारित, न्यायपूर्ण परिवार और समाज की बुनियाद रखने की.
      दिसम्बर के सर्द माहौल में युवाओं के आक्रोश से पैदा हुई इस गर्मी और उम्मीद को कायम रखते हुए नारी मुक्ति के सवाल को आगे बढ़ाना आज समय की पुकार है.   
महिलाओं में आत्मनिर्भरता, आत्मगौरव की चेतना, सामाजिक सरोकार, संगठन और पितृसत्ता की हर अभिव्यक्ति के खिलाफ निरन्तर प्रतिरोध हमारी अस्मिता और अस्तित्व की समस्या का अंतिम समाधान प्रस्तुत करेगा. आइये, हम मिलजुल कर इस दिशा में आगे बढ़ें.

वो जो बच्चियों से भी डर गये -- किश्वर नाहीद

अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के मौके पर पढ़िए और सुनिए- किश्वर नाहीद की नज़्म- वो जो बच्चियों से भी डर गये.

"वो जो बच्चियों से भी डर गये,
वो जो इल्म से भी गुरेज पा
करे ज़िक्र रब्बे-करीम का
वो जो हुक्म देता है इल्म का
करे उस के हुक्म से मावरा, ये मुनादियाँ 
न किताब हो किसी हाथ में 
न ही उँगलियों में कलम रहे
कोई नाम लिखने की जा न हो
न हो रस्मे-इज़्में-सना कोई.
वो जो बच्चियों से भी डर गये
करे शहर-शहर मुनादियाँ 
कि हरएक कद्दे-हयानुमा को नकाब दो
कि हरएक दिल के सवाल को ये जवाब दो 
नहीं चाहिए उन्हें बच्चियाँ 
उड़ें ताईरों की तरह बुलंद 
नहीं चाहिए कि ये बच्चियाँ 
कहीं मदरसों, कहीं दफ्तरों का भी रुख करें
कोई शोला रु, कोई बासफा हैं कोई 
तो सहने-हरम ही उसका मक़ाम है 
यही हुक्म है ये कलाम है.

वो जो बच्चियों से भी डर गये 
वो यहीं कहीं हैं करीब में 
इन्हें देख लो इन्हें जान लो 
नहीं इनसे कुछ भी बाईद शहरे-जवाल में 
रखो हौसला रखो ये यकीं 
के जो बच्चियों से भी डर गये 
वो हैं कितने छोटे वजूद में."

किश्वर नाहिद की आवाज़ में सुनिए उनकी नज़्म-
इस लिंक पर जाइये.

http://www.youtube.com/watch?v=u92keHHTouY




Thursday, March 7, 2013

8 मार्च, अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस पर एक पर्चा



(यह पर्चा हमारी सहेलियों ने भेजा है जो महिलाओं के बीच चेतना और जागरूकता लाने के लिए सक्रिय हैं.)

अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस पर आयोजित विचार गोष्ठी और सांस्कृतिक कार्यक्रम में शामिल हों!

बहनो,


8 मार्च औरतों के सामूहिक संघर्ष की एक शानदार यादगार है । आज से ठीक 103 साल पहले 1910 में कोपेनहेगन में हुए अन्तराष्ट्रीय महिला सम्मेलन में क्लारा जेटकिन ने इस महान दिन को अन्तरराष्ट्रीय दिवस के रूप में मनाने का प्रस्ताव रखा था । 8 मार्च, 1857 को न्यूयार्क की कपड़ा फैक्ट्री में महिला मजदूरों ने संगठित संघर्ष की शानदार मिशाल पेश की थी । इस ऐतिहासिक संघर्ष में कामगार महिलाओं की माँगें थीं– काम के घंटे घटाकर 10 घंटे किये जायें, काम की स्थितियाँ सुरक्षित हों तथा लिंगभेद, नस्लभेद, संपत्ति या शैक्षिक योग्यताओं को आधार  बनाये बिना ‘सार्विक मताधिकार’ की बहाली हो । संघर्ष की उसी परम्परा को याद करते हुए 17 देशों से आयी लगभग 100 महिला प्रतिनिधियों ने सर्वसहमति से यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया ।

इन महिला मजदूरों के संघर्ष से प्रेरणा लेकर दुनिया भर में औरतों ने राजनीतिक व कानूनी अधिकार हासिल करने के लिये खुद को संगठित करने की कोशिशें तेज की । इसके लिए महिलाओं ने असंख्य कुर्बानियाँ दीं । समाज की जकड़बंदियों से जूझते हुए जीवन के हर क्षेत्र में अपनी जगह बनायी और हमारे लिए आगे बढ़ने का रास्ता तैयार किया ।

लेकिन आज इस दिन के गरिमामय इतिहास को लगातार धूमिल किया जा रहा है । जो लड़ाई औरतों के अस्तित्व के संघर्ष के रूप में शुरू हुई थी उसे मात्र एक त्यौहार बना दिया गया है । महिला दिवस के स्वरूप को पूरी तरह बदल दिया गया है । आज इस मौके पर ब्यूटी पार्लर सस्ते दामों पर महिलाओं को खूबसूरत बनाने पर तुल जाते हैं, शॉपिंग मॉलों में तरह–तरह की छूट का प्रलोभन दिया जाता है, क्रीम पाउडर, लाली लिपस्टिक सभी जगह भारी छूट के टैग लगे दिखते हैं । सरकारी गैर–सरकारी संस्थाएँ इस दिन को महज मौज–मस्ती, सैर–सपाटे तक सीमित कर देती हैं । मैट्रो और बसों में इस दिन महिलाओं के लिए यात्रा नि%शुल्क कर दी जाती है । किसी न किसी सरकारी योजना के बोर्ड सड़कों पर लगे दिख जाते हैं । महिला सुरक्षा और महिला सशक्तिकरण के नारे बुलंद किये जाते हैं । फैशनेबुल महिला संगठनों द्वारा सबसे अच्छी गृहणी, सबसे अच्छी माँ जैसी प्रतियोगिताएँ आयोजित की जाती हैं । टीवी चैनलों और पत्र–पत्रिकाओं में कॉरपोरेट महिलाओं के साक्षात्कार छापे–दिखाये जाते हैं । महिला विशेषांक के रूप में घर व परिवार को सुखी बनाने, पति को खुश रखने, कपड़ा सिलने, स्वेटर बुनने या अच्छा खाना बनाने के नुस्खे प्रकाशित किये जाते हैं । भारतीय महिला का गुणगान करते हुए उन्हें सीता, सावित्री, सती के रूप में प्रतिष्ठित करके इस दिन को गुजार दिया जाता है ।

इन आयोजनों में आम महिलाएँ, उनकी समस्याएँ और उनकी जरूरतें गायब रहती हैं । आज महिलाओं की शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और समाजिक सुरक्षा में लगातार कटौती की जा रही है । दहेज हत्या, भ्रूण हत्या, घरेलू हिंसा, यौन हिंसा तथा सम्मान के लिए हत्या जैसी समस्याएँ और भी वीभत्स रूप लेती जा रही हैं । पुरुषवादी समाज में हर पल औरत को उसकी हद समझायी जाती है, प्रेम करने पर सूली पर चढ़ा दिया जाता है।

भारतीय आयुर्विज्ञान संघ (आईएमए) की एक रिपोर्ट के अनुसार देश में हर साल एक लाख महिलाएँ बच्चा पैदा करने के दौरान अपनी जान गँवा देती हैं । खून की कमी की शिकार इन महिलाओं का इलाज दो रुपये की दवा से सम्भव है, लेकिन जागरुकता की कमी के कारण हर रोज 300 महिलाओं की जान चली जाती है । लड़कियों की खरीद–फरोख्त और वेश्यावृत्ति में ढकेलने का बाजार दिन दूनी रात चैगुनी तरक्की कर रहा है । ऐसे में महिला दिवस को और समूचे महिला समुदाय की समस्या को नजरन्दाज करते हुए केवल गिनी–चुनी महिलाओं की सफलता को उछालना तथा इसे रंगारंग कार्यक्रमों और मौज–मस्ती के दिन में बदल देना महिला
संघर्षों की शानदार विरासत का मजाक उड़ाना नहीं, तो भला और क्या है ?

बहनो, यदि आज हम में से कुछ महिलाएँ पढ़ रही हैं, नौकरी कर रही हैं, अपनी समस्याओं का हल ढूँढते हुए आगे बढ़ रही हैं, तो यह हमारी पूर्वज बहनों के लम्बे संघर्षों और कुर्बानियों का ही परिणाम है । आज महिलाएँ पुराने तरीके से जीने से इंकार कर रही हैं । लेकिन यह जरूरी है कि हमारी आँखों में नारी मुक्ति का सपना हो । हमारा मानना है कि नारी मुक्ति का अर्थ है– औरत को एक इंसान के रूप में जीने का हक हो, सामाजिक–आर्थिक जीवन में उसकी बढ़–चढ़ कर भागीदारी सुनिश्चित हो, वह सामाजिक भेदभाव का शिकार न हो, बेसिर–पैर के रीति–रिवाज उस पर न लादे जाएँ, समाज में उसे अपनी पहचान के अवसर मिलें, जीवन के हर क्षेत्र में उसेबराबरी का हक हो ।

इसका मतलब यह बिलकुल नहीं है कि हम पुरुषों के विरोधी हैं और न ही हम परिवार को तोड़ देना चाहते हैं । समानता का अर्थ सिर्फ इतना है कि औरतों को कानूनी, राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, पारिवारिक क्षेत्र में बराबरी का हक हो । बहनो, हमारी तमाम समस्याओं का एक ही हल है । आओ, हम खुद मिलकर अपने बारे में सोचें । कुछ न कहने और सब कुछ सहन करते जाने का ही नतीजा है कि हमें दूसरों के हाथ का खिलौना बना दिया गया है । ऐसे में आगे बढ़ी हुई महिलाओं का यह दायित्व बन जाता है कि वे केवल व्यक्तिगत स्तर पर अपनी बेहतरी का प्रयास न करके सामूहिक स्तर पर भी संघर्ष को आगे बढ़ायें । हमें मिलकर सही–गलत का फैसला खुद करना होगा । समाज में व्याप्त पुरुषवादी मानसिकता से लड़ते हुए हमें नारी मुक्ति
की लड़ाई में भाग लेना होगा ।

यह सच है कि महिलाएँ अपनी प्रतिकूल परिस्थितियों में भी मुक्ति की राह पर चल पड़ी हैं, लेकिन संगठित समाज की चुनौतियों से अकेले–अकेले नहीं लड़ा जा सकता इसीलिए हमें एकजुट होकर अपनी मुक्ति के रास्ते पर कदम आगे बढ़ाने की जरूरत है । नारी चेतना पुस्तकालय इसी प्रयास में एक शुरूआत भर है । हम उन सभी महिलाओं का आह्वान करती हैं, जिन्हें जैसे–तैसे, घिसट–घिसट कर जिन्दगी गुजारना पसंद नहीं । चेतना और संगठन के बल पर ही हम अपनी हालात बदल सकती हैं ।

नारी चेतना पुस्तकालय
शाहदरा