Friday, August 22, 2014

पाप का एक प्याला -सिमिन बहबहानी



मुझे चाहिए एक प्याला पाप का
उसने कहा मुझे चाहिए ऐसा जिसे पाना नहीं मुमकिन.

-मौलवी
मुझे चाहिए एक प्याला पाप का, एक प्याला दुराचार का, 
और कुछ गीली मिट्टी अँधेरे में सनी,
जिससे गढ़ सकूँ एक तस्वीर आदमी से मिलती-जुलती,
काठ की बाँहों और पुआल के बालों वाली,
  उसका मुँह बड़ा है.
  दाँत सारे झड़ गये हैं.
  उसकी नज़रों से टपकती है उसके भीतर की बदसूरती.
  वहशत ने उसे हर पाबन्दी के खिलाफ कर दिया
  और उसकी पेशानी पर उग आई एक “शर्मनाक अंग” बनकर.
  उसकी आँखें जैसे दो गहरी लाल किरनें,
  एक टिकी है सोने की थैली पर,
  दूसरी बिस्तर में मिलनेवाले मौज-मज़े पर.
  वह गिरगिट की तरह बदलता है रंग,
  ईल मछली की तरह दो दिल हैं उसके.
  एक बड़े शाख की तरह बढ़ता है वह,
  जैसे उसके जिस्म ने हासिल कर ली हो
  पेड़-पौधों की खासियत.
तब, वह मेर पास आएगा,
मेरे ऊपर ज़ुल्म ढाने के इरादे से.
मैं विरोध करुँगी और 
चीखूंगी उसके खौफ के खिलाफ. और वह आदमी नाम का राक्षस 
अपनी तौहीनियों के दम पर मुझे वश में कर लेगा.
  उसकी आँखों में झॅाकती एकटक 
  मासूमियत और शर्म से भरी,
  मैं खुद को फटकारूँगी—देख लिया,
  “आदम” की तमन्ना में किस तरह बितायी सारी उम्र.
  अब मिल गया न जो तुमने चाहा था.

(ईरान की विख्यात कवियत्री, महिलाओं की आज़ादी और मानवाधिकारों के लिए लड़नेवाली सिमिन बहबहनी का 87 साल की उम्र में 19 अगस्त 2014 देहांत हो गया. फारसी साहित्य में उनके महत्वपूर्ण योगदान के लिए उनको दो बार नोबेल पुरष्कार के लिए नामित किया गया ज़बकि उनकी कविताओं को सेंसरशिप से भी गुजरना पड़ा. ईरान की आम जनता प्यार से उनको ‘ईरान की शेरनी’ कहती थी.)

Saturday, March 8, 2014

पितृसत्ता का मतलब क्या है ?

सभी बहनों को ८ मार्च, अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर क्रन्तिकारी अभिवादन और शुभकामनाएँ!

‘सत्ता’ का सामान्य अर्थ है– एक पक्ष का दूसरे पर शासन, नियंत्रण, वर्चस्व. पितृसत्ता का मतलब पुरुषों द्वारा समग्रता में महिलाओं के ऊपर शासन, नियंत्रण, वर्चस्व और अधीनीकरण. साथ ही इसमें पुरुषों द्वारा स्त्रियों के शोषण, उत्पीड़न और हिंसा के लिए अनुकूल अवसर प्रदान करना भी निहित है. पितृसत्ता की समस्या में पुरुष अहंकार, पुरुष वर्चश्व, पुरुष उपेक्षा, पुरुष पूर्वाग्रह, पुरुष पक्षपात की एक पूरी श्रृंखला शामिल है. इन सब को स्वाभाविक जीवन शैली के रूप में सामाजिक स्वीकृति, यहाँ तक कि मंजूरी हासिल है. यही कारण है कि अधिकांश मामलों में इसे एक गंभीर सामाजिक बीमारी नहीं माना जाता, जबकि वास्तविकता यही है. इस तरह, यह आलोचना से परे रहता है, इसे सही ठहराया जाता है और इसे स्वत: सिद्ध माना जाता है.

अधिकांश महिलाओं के लिए रोज–रोज की जिंदगी में पितृसत्ता का असली मतलब है– तरह–तरह के भेदभाव से दम घुटना, आजादी में बिनावजह कटौती और सुविधाओं में भारी कमी. निश्चय ही इसका मतलब है. ज्यादा से ज्यादा घरेलू काम, ज्यादा से ज्यादा जिम्मेदारी, बहुत अधिक पीड़ा और बहुत कम सम्मान, बहुत कम प्रभाव तथा किसी भी परिसम्पत्ति, संसाधन, सम्पदा, आय और यहाँ तक कि खुद अपनी जिंदगी पर भी बहुत ही कम अधिकार और नियंत्रण. इसका मतलब दोयम दर्जे का नागरिक होना है, जिसे अतिरिक्त आर्थिक शोषण बर्दास्त करना पड़ता है. इसका मतलब है सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से अधीनता, दमन और उत्पीड़न. इसका मतलब है– कहीं भी, कभी भी, हर तरह की प्रताड़ना और हिंसा, जिसकी शुरुआत जन्म लेने से पहले ही हो जाती है और मृत्यु तक जारी रहती है, घर के भीतर भी और सार्वजानिक जीवन में भी. 

महिलाएँ चाहे किसी भी जाति या वर्ग की हों, पितृसत्ता समान रूप से उनकी जिंदगी को बहुत ही कठिन और असह्य बना देती है. हालाँकि महिलाएँ जिस खास वर्ग, जाति, धर्म, राष्ट्र या कबीले से सम्बन्धित होती हैं, उसके अनुसार पितृसत्ता के रूप और अंतवस्तु में अंतर भी होते हैं– गरीब ग्रामीण, दलित और मुस्लिम महिलाओं को कई मायने में सबसे बुरी तरह इसकी मार झेलनी पड़ती है.

दूसरी ओर पुरुषों के मामले में पितृसत्ता का मतलब है– किसी भी उपलब्ध संसाधन, परिसम्पत्ति और आय, जिनमें महिलाएँ भी शामिल हैं, ज्यादा से ज्यादा नियंत्रण, इसका मतलब है तुलनात्मक रूप से बेहतर अवसर. इसका मतलब है, सामाजिक और सांस्कृतिक क्षेत्र में बेहतर ठाट–बाट, मान–सम्मान और प्रभाव. यह सब लड़कियों/महिलाओं के ऊपर कम उम्र से ही उनके सामायिक वर्चश्व, प्रताड़ना और हिंसा को आसान बना देता है. इसके चलते पुरुषों को अपने घर में महिलाओं से ज्यादा आराम मिलता है, जबकि काम और जिम्मेदारी कम होती है.

हम बनावटी पदानुक्रम और सत्ता की जिस व्यवस्था में जी रहे हैं, वह पुरुषों द्वारा महिलाओं के ऊपर शासन, नियंत्रण और वर्चश्व को परिवार संस्था के जरिये बढ़ावा देती है. पितृसत्ता अधिकांश पुरुषों की जिंदगी को, जिनमें मजदूर और अन्य उत्पीड़ित वर्गों/जातियों के पुरुष भी शामिल हैं, कई–कई तरीकों से बेहद आसान बनाती है. ऐसे पुरुषों के नियंत्रण में कम से कम कुछ औरतें तो होती ही हैं, जिनका वे फायदा उठा सकते है, उनके प्रति गैरजिम्मेदाराना व्यवहार कर सकते हैं तथा उनके ऊपर अपना गुस्सा और कुंठा निकाल सकते हैं. मौका पाते ही वे दूसरी औरतों को भी निशाना बनाते हैं और उनके साथ होने वाली हिंसा में शामिल हो जाते हैं.

यौन नैतिकता के दोहरे मानदंड इस बात को सुनिश्चित करते हैं कि पुरुष व्यभिचार, द्विविवाह, विवाहेत्तर यौनक्रिया, वेश्यावृति इत्यादि करता रह सकता है, जबकि महिलाएँ ऐसा कोई भी कदम उठा लें तो उसके भयंकर परिणाम सामने आते हैं. जिन वर्गों, जातियों, धर्मों, राष्ट्रीयताओं या कबीलों से किसी पुरुष का सम्बंध होता है, उनकी भिन्नताएँ निश्चय ही उनके वर्चश्व को सीमित या विस्तारित करने में प्रमुख भूमिका निभाती हैं लेकिन पितृसत्ता सारत: और अनिवार्यत: सभी पुरुषों को कुल मिला कर महिलाओं की तुलना में कहीं ज्यादा आसान और आरामदायक जिंदगी बिताने में मददगार है.

नारी मुक्ति की बुनियादी शर्त है पितृसत्ता का अंत.

(मुक्ति के स्वर पत्रिका के अंक 15 में प्रकाशित)

Friday, March 7, 2014

औरतों की कविताएँ : शुभा


1.औरतें
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औरतें मिट्टी के खिलौने बनाती हैं
मिट्टी के चूल्हे
और झाँपी बनाती हैं

औरतें मिट्टी से घर लीपती हैं
मिट्टी के रंग के कपडे पहनती हैं
और मिट्टी की तरह गहन होती हैं

औरतें इच्छाएं पैदा करती हैं और
ज़मीन में गाड़ देती हैं

औरतों की इच्छाएं
बहुत दिनों में फलती हैं 
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2.
औरत के हाथ में न्याय
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औरत कम से कम पशु की तरह
अपने बच्चे को प्यार करती है
उसकी रक्षा करती है

अगर आदमी छोड़ दे
बच्चा मां के पास रहता है
अगर मां छोड़ दे
बच्चा अकेला रहता है

औरत अपने बच्चे के लिए
बहुत कुछ चाहती है
और चतुर ग़ुलाम की तरह 
मालिकों से उसे बचाती है
वह तिरिया चरित्तर रचती है

जब कोई उम्मीद नहीं रहती
औरत तिरिया चरित्तर छोड़कर
बच्चे की रक्षा करती है

वह चालाकी छोड़ 
न्याय की तलवार उठाती है

औरत के हाथ में न्याय 
उसके बच्चे के लिए ज़रूरी
तमाम चीजों की गारंटी है।
***

3.
औरत के बिना जीवन
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औरत दुनिया से डरती है
और दुनियादार की तरह जीवन बिताती है
वह घर में और बाहर
मालिक की चाकरी करती है

वह रोती है
उलाहने देती है
कोसती है
पिटती है 
और मर जाती है

बच्चे आवारा हो जाते हैं
बूढ़े असहाय
और मर्द अनाथ हो जाते हैं
वे अपने घर में चोर की तरह रहते हैं
और दुखपूर्वक अपनी थाली खुद मांजते हैं
***

4.
औरतें काम करती हैं
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चित्रकारों, राजनीतिज्ञों, दार्शनिकों की
दुनिया के बाहर
मालिकों की दुनिया के बाहर
पिताओं की दुनिया के बाहर
औरतें बहुत से काम करती हैं

वे बच्चे को बैल जैसा बलिष्ठ
नौजवान बना देती हैं
आटे को रोटी में
कपड़े को पोशाक में
और धागे को कपड़े में बदल देती हैं।

वे खंडहरों को
घरों में बदल देती हैं
और घरों को कुंए में
वे काले चूल्हे मिट्टी से चमका देती हैं
और तमाम चीज़ें संवार देती हैं

वे बोलती हैं 
और कई अंधविश्वासों को जन्म देती हैं
कथाएं लोकगीत रचती हैं

बाहर की दुनिया के आदमी को देखते ही
औरतें ख़ामोश हो जाती हैं।
***

5.
निडर औरतें
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हम औरतें चिताओं को आग नहीं देतीं
क़ब्रों पर मिट्टी नहीं देतीं
हम औरतें मरे हुओं को भी 
बहुत समय जीवित देखती हैं

सच तो ये है हम मौत को
लगभग झूठ मानती हैं
और बिछुड़ने का दुख हम
खूब समझते हैं
और बिछुड़े हुओं को हम
खूब याद रखती हैं
वे लगभग सशरीर हमारी
दुनियाओं में चलते-फिरते हैं

हम जन्म देती हैं और इसको
कोई इतना बड़ा काम नहीं मानतीं
कि हमारी पूजा की जाए

ज़ाहिर है जीवन को लेकर हम 
काफी व्यस्त रहती हैं
और हमारा रोना-गाना
बस चलता ही रहता है

हम न तो मोक्ष की इच्छा कर पाती हैं
न बैरागी हो पाती हैं
हम नरक का द्वार कही जाती हैं

सारे ऋषि-मुनि, पंडित-ज्ञानी
साधु और संत नरक से डरते हैं

और हम नरक में जन्म देती हैं
इस तरह यह जीवन चलता है
***

6.
बाहर की दुनिया में औरतें
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औरत बाहर की दुनिया में प्रवेश करती है
वह खोलती है
कथाओं में छिपी अंतर्कथाएं
और न्याय को अपने पक्ष में कर लेती हैं
वह निर्णायक युद्द को 
किनारे की ओर धकेलती है
और बीच के पड़ावों को
नष्ट कर देती है

दलितों के बीच
अंधकार से निकलती है औरत
रोशनी के चक्र में धुरी की तरह

वह दुश्मन को गिराती है
और सदियों की सहनशक्ति
प्रमाणित करती है
***