जब
देश आजाद हुआ और संविधान लागू हुआ तो प्रत्येक नागरिक को कुछ अधिकार प्राप्त हुए।
आजादी की लम्बी लड़ाई लड़ी ही इसलिए गयी थी कि हर इनसान को अधिकार मिलंे ताकि उसकी
मूलभूत आवश्यकताएँ पूरी हों। आजादी के बाद नागरिकों को कुछ संवैधानिक और कानूनी
अधिकार हासिल हुए। इसमें कुछ प्रावधान विशेषकर महिलाओं के लिए ही बनाये गये। कानून
में भी कई अधिनियम और संशोधन महिला संरक्षण को ध्यान में रखते हुए किये गये।
परन्तु जागरूकता के अभाव के कारण ज्यादातर महिलाएँ अपने इन अधिकारों से आज भी
वंचित हंै।
इन
अधिकारों को हम दो श्रेणियों में वर्गीकृत कर सकते हैं––
संवैधानिक और कानूनी अधिकार। भारत के संविधान निर्माताओं का
उद्देश्य भारत में एक लोककल्याणकारी राज्य की स्थापना करना था। इस दृष्टि से
अधिकांश नीति निर्देशक तत्वों द्वारा आर्थिक सुरक्षा और आर्थिक न्याय के सम्बन्ध
में व्यवस्था की गयी है तो वहीं मौलिक अधिकार राज्य के किसी भी नागरिक के विरुद्ध
धर्म, जाति, लिंग आदि के आधार पर कोई
विभेद नहीं करता, प्रत्येक नागरिक को अवसर की समानता देता है,
मानव व्यापार पर प्रतिबंध लगाता है, प्रत्येक
नागरिक को समान रूप से जीविका के साधन कमाने की आजादी देता है, प्रत्येक नागरिक को समान कार्य के लिए समान वेतन प्रदान करने का आदेश देता
है। इनके अलावा संविधान में विशेषकर महिलाआंे के लिए पंचायत एवं नगर पालिका के
अध्यक्ष और सदस्य के चुनावों में एक तिहाई आरक्षण का प्रावधान किया गया है।
केवल
लिख देने मात्र से यह सुनिश्चित नहीं हो जाता कि हर नागरिक अपनी मूलभूत जरूरतें
पूरी कर पा रहा है, जबकि वास्तविक
तस्वीर से तो सब रूबरू हैं। समान कार्य के लिए समान वेतन किसे मिल रहा है, माना सरकारी नौकरियों में मिल भी रहा है, पर यह तो
किसी से छिपा नहीं की सरकारी नौकरियों से कितनी आबादी का गुजारा चलता है। देश की
अस्सी प्रतिशत आबादी निजी क्षेत्र या असंगठित क्षेत्र में काम करके अपना गुजर–बसर कर रही है जहाँ कोई सेवा शर्त या श्रम कानून लागू नहीं होता। मानव
व्यापार प्रतिबंधित है परन्तु धड़ल्ले से आज भी हो रहा है। संयुक्त राष्ट्र की एक
रिपोर्ट के अनुसार भारत सहित दर्जनों एशियाई देशों से बच्चों की तस्करी कर यूरोप
के कई हिस्सों में जिस्मफरोशी के काले कारोबार में धकेला जा रहा है। संयुक्त
राष्ट्र की संस्था यूएन ऑफिस ऑन ड्रग्स एंड क्राइम (यूएनओडीसी) की ग्लोबल रिपोर्ट
ऑन ट्रैफिकिंग इन पर्सन 2018 के मुताबिक मानव तस्करी अब भयानक रूप ले चुकी है।
तस्करी के शिकार लोगों में तीस फीसदी बच्चे शामिल हैं और इनमंे लड़कियों की संख्या
सबसे अधिक है। रही बात पंचायत और नगर पालिका में महिला आरक्षण की, तो ‘प्रधानपति–प्रधानपुत्र’
से सब परिचित हैं। महिला केवल नाम के लिए प्रधान है बाकी सारे
निर्णय उसका पति या पुत्र लेता है। कानपुर देहात के रसूलाबाद ब्लाक की लाला भगत
ग्राम पंचायत की महिला प्रधान राम देवी का कहना है कि, “हम
ज्यादा पढ़े–लिखे नहीं हैं, प्रधानी के
चुनाव में महिला सीट आरक्षित थी, बेटे की जिद के कारण चुनाव
लड़ी और जीत भी गयी, मंै घर का काम देखूँ या प्रधानी करूँ।”
ऐसे ही कई और उदाहरण हैं।
सरकार
का दायित्व है कि सुनिश्चित करे कि प्रत्येक नागरिक अपने अधिकारों को जाने और लाभ
उठाये। पर हमारी सरकारें शायद ही इन मुद्दों को तवज्जों दें और ऐसी योजनाएँ तैयार
करें जिससे हर नागरिक अपने अधिकार के बारे में जागरूक हो सके। अधिकार तो हैं पर वे
प्राप्त हों और कोई भेद–भाव न हो, इसके लिए जरूरी है कि हर संस्था, कार्यस्थल और हर
जगह समिति गठित हो जिसका कार्य निरन्तर निगरानी रखना हो।
संवैधानिक
अधिकार के अलावा नागरिकों को कानूनी अधिकार भी उपलब्ध हैं जिसमें कुछ विशेष
प्रावधान केवल महिलाओं के संरक्षण के लिए बने हैं। जैसे––
कन्या भ्रूण हत्या के खिलाफ अधिकार–– पीसीएनडीटी
अधिनियम–1994, समान वेतन का अधिकार––
समान वेतन अधिनियम 1976, सम्पति का अधिकार––
हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम 1956, घरेलू हिंसा
के खिलाक रोकथाम कानून–– घरेलू हिंसा अधिनियम 2005, कार्यस्थल में उत्पीड़न के खिलाफ अधिकार–– अधिनियम
2013, यौन उत्पीड़न के मामले में नाम सार्वजनिक न करने का
अधिकार, मातृत्व सम्बन्धी अधिकार जिसे 2017 के संशोधन के बाद
12 सप्ताह से 26 सप्ताह कर दिया गया है। इन कानूनों के अलावा भी कुछ और अधिकार
महिलाओं को प्राप्त हैं जिसे उन्हें जानना चाहिए जैसे सूरज डूबने के बाद और उगने
से पहले गिरफ्तार न होने का, केवल किसी महिला सिपाही द्वारा
ही गिरफ्तारी होने का, जीरो एफआईआर करवाने का–– इसमें महिला किसी भी पुलिस थाने में अपनी एफआईआर दर्ज करवा सकती है चाहे
घटना का स्थान उस थाने के अन्तर्गत आता हो या न आता हो, पीछा
करने के खिलाफ–– धारा 354–डी आईपीसी,
वर्चुअल (ऑनलाइन) शिकायत करने का–– ईमेल या
पोस्ट द्वारा।
यह
सब देख के लगता है जैसे महिलाओं को सभी अधिकार प्राप्त हो गये हैं और वे पूरी तरह
सुरक्षित हैं, लेकिन सवाल अब भी वही है––
इतने अधिकारों के बावजूद महिलाओं की स्थिति इतनी निराशाजनक क्यों
है। अगर इतने अधिकार हैं तो समाज में बराबरी क्यों नहीं है? जवाब
फिर वही है कि इन्हें लागू करने में हमारी सरकारें विफल रही हंै। भ्रूण हत्या आज
भी हो रही है और कानून इसे रोकने में विफल है। एक रिपोर्ट के मुताबिक इस मामले में
देश की राजधानी में पिछले दो दशकों में एक भी अपराधी जेल नहीं गया। बहुत केसों में
निचली अदालत ने अपराधियों को नाममात्र का शुल्क जमा करवाकर बरी कर दिया, जबकि ऐसे मामलों की अधिकतम सजा तीन साल कारावास और पचास हजार आर्थिक दंड
है। अगर सम्पति की बात करें तो समाज में कौन लड़की अपने पिता की सम्पति में अधिकार
माँगती और हासिल कर पाती है। रही बात पति द्वारा गुजारा भत्ते की तो आये दिन
न्यायालय में ऐसे केस आते रहते हैं जहाँ पति भगोड़ा साबित होता है। महिलाएँ आज भी
घरेलू हिंसा की शिकार हो रही हैं। ऐसे मामलों में कोई कमी नहीं आयी है। दहेज आज भी
प्रचलन में है। कार्यस्थल में उत्पीड़न के खिलाफ जो महिला शिकायत करती है, उसके हिस्से केवल मानसिक यातना आती है, न्याय नहीं।
ऐसे मामलों में अधिकांश रसूखदार लोग शामिल होते हैं और ज्यादातर मामलों में
कामकाजी महिलाएँ शिकायत करने पर अपने काम से हाँथ धो बैठती हैं।
ऐसा
नहीं है कि केवल लागू करने के धरातल पर ही गड़बड़ी है। कदम–कदम पर पितृसत्तात्मक मूल्य–मान्यताओं की जकड़बन्दी
और मुनाफा केन्द्रित व्यवस्था भी समस्या के समाधान में बहुत बड़ी बाधा है। कानून को
लागू करने की बात करें तो इसके लिए जितनी भी संस्थाएँ हैं, उसमंे
पदों पर विराजमान लोग महिला विरोधी विचारों से बुरी तरह पीड़ित होते हैं। अगर उनके
खिलाफ अगर संघर्ष नहीं किया जाये तो वे अधिकार भी कागज पर रह जायेंगे। संघर्ष से
ही आज कई संस्थाओं में ‘वीमेन–सेल’
का गठन हुआ है जो ये निगरानी रखती है कि महिला के साथ कोई भेद–भाव न हो। इस भेद–भाव वाले समाज में जहाँ धन–दौलत और पूँजी का वर्चस्व है, सरकारें पूँजीपतियों
के हित के लिए काम करती हैं और न्याय भी पैसे का मुहताज है।
मीडिया
सच नहीं दिखाता। ऐसे में स्त्रियों को खुद ही जागरूक होना पड़ेगा। केवल जागरूक होने
से भी काम नहीं चलेेगा, यदि महिलाएँ संगठित न हों। संगठन का
बहुत महत्त्व है। यही विकल्प है। अगर समाज की आधी आबादी इस उद्देश्य में साथ एक
नहीं होगी तो तस्वीर नहीं बदलेगी। इसलिए न्याय पसन्द पुरुष–स्त्री
दोनों को साथ मिलकर बेहतर समाज के निर्माण के लिए संघर्ष करना होगा। मतलब बहनों
हमंे संघर्ष करना पड़ेगा। डॉ– अम्बेडकर का यह नारा, “शिक्षित बनो, संगठित हो और संघर्ष करो” हमारा प्रेरणा स्रोत बनेगा।
–– जूही
(मुक्ति के स्वर अंक 21, मार्च 2019)
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