Wednesday, October 6, 2021

घरेलू महिलाओं की हैसियत



35 वर्षीय पूनम घर का सारा काम जैसे झाड़ू लगाना, खाना बनाना, बच्चों को तैयार करके स्कूल भेजना, सुबह पाँच बजे उठकर कड़ाके की ठण्ड में जानवरों के लिए चारा लाने जैसा काम तो करती ही थी, पति व देवर के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर खेतों में भी काम करती थी। फिर भी घर में उसकी कोई हैसियत नहीं थी। सास और पति उसकी उपेक्षा करते थे। अगर किसी बात का वह विरोध करती तो उसके साथ मारपीट करते थे। पूनम अनपढ़ थी। उसे अपने अधिकारों के बारे में लेशमात्र का ज्ञान न था। उसे बचपन से ही पति और ससुराल वालों की सेवा करना और उनके हर जुल्म को बर्दाश्त करते रहना सिखाया गया था। जो वह पालन कर रही थी। 
इसी बीच उसको कुष्ठ रोग हो गया था जिसके चलते उसके घर वालों ने उसके साथ भेदभाव करना शुरू कर दिया। उसका रसोई में जाना सख्त मना था। उसका छुआ परिवार के लोग ही नहीं खाते थे। साथ ही गाँव के लोग भी उससे भेदभाव करते थे। उसका पड़ोसियों के घर आना–जाना बन्द हो गया और एक दिन उसे घर से निकाल दिया गया। वह कितना भी रोती रही, गिड़गिड़ाती रही, उनके पैरों पर गिरती रही, कि मैं घर से दूर झोपड़ी में रह लूँगी, भीख माँग कर खा लूँगी मगर मुझे मत निकालो लेकिन हैवानियत की सारी हदें पार करते हुए उसके पति ने उसे जंगल में स्थित एक मंदिर के पास छोड़ दिया। 
यह काम उसके पति के मानसिक वहशीपन और चरम स्वार्थ को दर्शाता है। पूनम भूख प्यास से मर गयी या कोई जानवर खा गया, पता नहीं चला, लेकिन यह घटना महिला अस्तित्व पर गहरा सवाल छोड़ती है। 
ऐसी कहानी बस पूनम की ही नहीं ज्यादातर घरेलू और आर्थिक रूप से निर्भर महिलाओं की है। वे पूरी जिन्दगी अपने घर वालों की सेवा करती हैं। लेकिन जब वे  बीमार या कमजोर हो जाती हैं तो उन्हें एक इनसान भी नहीं समझा जाता क्योंकि आज भी पैतृक सम्पत्ति में महिलाओं का अ/िाकार न के बराबर है। सामाजिक रूप से कमजोर महिलाओं को गुजारे के लिए भी पिता, पति या पुत्र पर आश्रित रहना पड़ता है। इस तरह उनके पास अपना कुछ भी नहीं होता। 
2005 में सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला दिया है कि पैतृक सम्पत्ति में महिला व पुरुष का बराबर का हक होगा लेकिन यह कानून जमीनी स्तर पर लागू होता दूर तक दिखाई नहीं देता। 
सामाजिक दबाव के चलते महिलाएँ पैतृक सम्पत्ति पर अपना दावा छोड़ देती हैं। उसे इस आधार पर सही ठहराया जाता है कि उनके पिता विवाह में ढेर सारा धन और दहेज देते हैं। इसलिए पूरी सम्पत्ति बस बेटों की रह जाती है। लेकिन कुछ लड़कियाँ अपना हक माँगती भी हैं तो उनकी माँग को अवैध बता दिया जाता है।
कमजोर वर्ग से आने के चलते महिलाओं का लगातार शोषण होता है। आर्थिक  स्थिति ठीक नहीं होने के चलते उन्हें हमेशा दूसरों पर आश्रित रहना पड़ता है। समाज की गलत परम्पराओं की वजह से उनकी आर्थिक स्थिति बहुत कमजोर है। 
इसके साथ ही यह तथ्य चैंकाने वाला है कि कामकाजी महिलाओं की संख्या में गिरावट आ रही है। अर्थव्यवस्था पर नजर रखने वाले “सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इण्डियन इकोनामी” की रिपोर्ट के अनुसार 2017 के शुरुआती चार महीनों में कामकाजी लोगों में नौ लाख से ज्यादा पुरुष जुड़ें जबकि इस दौरान कामकाजी महिलाओं की संख्या में 24 लाख की कमी आयी। 
कमजोर आर्थिक हैसियत के चलते महिलाएँ हमेशा ही समाज के निचले पायदान पर धकेल दी जाती हैं। उनके अ/िाकार छीन लिये जाते हैं। देवी, ममतामयी माँ, नारी शक्ति आदि उथले सम्मान के बावजूद सच यह है कि उन्हें कभी भी घर से निकाला जा सकता है, जिससे वे दर–दर की ठोकर खाने को मजबूर हो जायें। इसलिए महिलाओं की पहली लड़ाई है अपने आर्थिक आधार को मजबूत बनाना। इससे उनके अन्दर आत्मविश्वास बढ़ता है और उन्हें अपनी समस्याओं से लड़ने में ताकत मिलती है और पति तथा परिवार के आगे वे कभी असहाय नहीं रह जातीं। आत्मनिर्भर होकर ही वे सामाजिक गतिवि/िायों में भी भाग ले सकती हैं।

–– ज्योति

इस व्यवस्था में माँ के लिए कोई नौकरी नहीं


–– कोमल 
हमेशा एक बात सुनने को मिलती है कि महिलाएँ बच्चों की वजह से अपने कैरियर में सफल नहीं होती हैं। जबकि माँ बनना महिलाओं को प्रकृति द्वारा दिया गया अनमोल तोहफा है जिसका संसार के सृजन में बहुत बड़ा योगदान है। लेकिन आज यही वरदान महिलाओं की आजादी और पुरुषों से कदम से कदम मिला कर चलने में बेड़ियाँ बनती जा रही है। लेकिन माँ बनने का मतलब यह बिलकुल नहीं है कि हमारे बच्चे हमारे काम की रुकावट हैं। तो फिर रूकावट कहाँ है? जाहिरा तौर पर इसकी जड़े हमारे समाज और इसे संचालित करने वाली व्यवस्था में ही निहित हैं। 
बीबीसी की वर्ष 2014 की रिपोर्ट के अनुसार दिल्ली और इसके आस–पास के इलाकों में काम करने वाली 1000 महिलाओं के सर्वे में पाया गया कि केवल 18–34 प्रतिशत विवाहित महिलाएँ ही बच्चा पैदा करने के बाद भी काम करना जारी रखती हैं। इसका कारण स्पष्ट तौर पर महिलाओं की उपेक्षित स्थिति और उनकी जिम्मेदारियाँ हैं। शादी के बाद घर और बच्चों की सारी जिम्मेदारी लड़कियों को ही दे दी जाती है। उन्हें बताया जाता है कि घर और बच्चों को सम्भालना ही तुम्हारा मुख्य काम है। ये सब करने के लिए हमारा समाज और पितृसत्तात्मक विचार उसे मजबूर करता है कि वह नौकरी और बच्चे की जिम्मेदारी में से सिर्फ बच्चे की जिम्मेदारी चुने। अगर कोई महिला ऐसा न करे तो हमारा समाज उसे असभ्य कहने लगता है। इसके पीछे पुरुषवादी सोच काम करती है। यह सोच पढ़ी–लिखी महिलाओं को भी प्रभावित करती है, जो महिलाओं को आगे बढ़ने से रोकती है। हमारा समाज हमेशा ही महिलाओं को घर के अन्दर कैद करने के लिए कुछ न कुछ तिकड़म भिड़ाता रहता है। 
कम्पनियों को महिलाओं द्वारा बच्चा पैदा करने से कोई मुनाफा नहीं है बल्कि वे उनकी छुट्टी और सैलरी को भी घाटे के रूप में देखते हैं। कई बार मासिक चक्र के चलते छुट्टी लेने पर महिलाओं को काम से निकाल दिया जाता है। हद तो तब हो गयी जब महाराष्ट्र के बीड, मध्य प्रदेश और राजस्थान में कम्पनियों ने महिलाओं के गर्भाशय को निकलवा दिया जिससे महिलाओं से कोल्हू के बैल की तरह काम कराया जा सके और मुनाफा निचोड़ा जा सके। 
आईटी सैक्टर में काम करने वाली महिलाओं के श्रम का योगदान देश की जीडीपी में  है। लेकिन इसके बावजूद श्रम शाक्ति में महिलाओं की संख्या (शहरी और ग्रामीण) में तेजी से गिरावट आयी है। एक दशक पहले नौकरी करने वाली महिलाओं का हिस्सा 43 प्रतिशत से घटकर अब मात्र 27 प्रतिशत रह गया है। कितनी बड़ी विडम्बना है कि हमारे डिजिटल इंडिया और 5 ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था बनाने के दावों के बीच सिर्फ 27 प्रतिशत महिलाओं के पास रोजगार है, जबकि यह आँकड़ा चीन में सबसे ज्यादा यानी 64 प्रतिशत है। 
‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’ बस एक नारा बनकर रह गया है। यह जरूर है कि  महिलाओं को कई अधिकार संविधान में दिये गये हंै। लेकिन व्यवहार में शादी से पहले उसके फैसले पिता और भाई लेते हंै और शादी के बाद पति। हमेशा लड़कियों को कहा जाता है कि शादी की बाद वह नौकरी करेगी या घर सम्भालेगी, यह फैसला ससुराल वालों का होगा। और अकसर शादी के बाद उसकी नौकरी छुड़ा दी जाती है क्योंकि उसे अच्छी माँ बनना है। 
नौकरीपेशा महिलाओं के पति कभी बच्चों की देखरेख करने, उनके कपड़े धोने, कपड़े खरीदने जैसे कई कामों में उनकी कोई मदद नहीं करते। बच्चों की सारी जिम्मेदारी माँ को ही सम्भालनी पड़ती है।
रोज–रोज के घरेलू कामों में महिलाओं की ऊर्जा को खपा दिया जाता है। उन्हें समाजोपयोगी काम से वंचित रखना महिलाओं का ही नहीं पूरे देश का नुकसान है। सच तो यह है कि अगर कोई समाज चाहे तो इस समस्या को बड़ी आसानी से हल किया जा सकता है। अगर घरेलू कामों का समाजीकरण कर दिया जाये, यानी खाना बनाना, कपड़े धोना, बच्चों के बड़े–बड़े पालना घर बना दिये जायें तो लाखों–लाख महिलाएँ नीरस घरेलू कामों से स्वतंत्र होकर नौकरी कर सकेंगी, उनके बच्चे भी पल जायेंगे और देश के निर्माण में वे अपना भी योगदान दे सकेंगी। इसके साथ ही जो महिलाएँ कामकाजी हैं उनके लिए प्रेग्नेंसी लीव देने के साथ–साथ बच्चों के रख रखाव और घर से ऑफिस की दूरी कम  की जा सकती है जिससे महिलाओं को ऑफिस में काम करने और बच्चों को सम्भालने में आसानी होगी। 

महिलाओं में बढ़ता कैंसर


 
आज भारत समेत पूरे दुनिया में कैंसर एक भयावह बीमारी के रूप में हमारे सामने खड़ी है। शायद ही ऐसा कोई व्यक्ति हो जिसने किसी अपने प्रिय को कैंसर की वजह से न खोया हो। हाल ही में मेरी एक चाची जिनकी उम्र महज 52 साल थी, उनकी मृत्यु ब्रेस्ट कैंसर की वजह से हुई है और मेरी एक सहेली ब्लड कैंसर से दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल में जीवन और मृत्यु के बीच झूल रही है जिसकी उम्र अभी मात्र 25 वर्ष है।
 कैंसर का इलाज इतना महँगा है कि इसमें अक्सर लोग मरीज को बचा नहीं पाते हैं और ऊपर से पूरा परिवार कर्जे और गरीबी के दलदल में फँस जाता है। बीमारी का इलाज करवाने के दौरान अपनी जमीन–मकान तक बेचना या गिरवी रखना पड़ता है। सीधे शब्दों में कहें तो पूरा परिवार बर्बादी की कगार पर खड़ा हो जाता है।
कैंसर महिलाओं और पुरुषों दोनों में ही बहुत ज्यादा तेजी से बढ़ रहा है। हमारे देश में हर साल कैंसर के 15 लाख नये मामले दर्ज होते हैं।
“द लैंसेट अंकोलॉजी” में छपी रिपोर्ट के अनुसार जहाँ दुनिया भर में महिलाओं के मुकाबले पुरुषों में 25: अधिक कैंसर पाया जाता है वहीं भारत में यह आंकड़ा महिलाओं में पुरुषों की अपेक्षा ज्यादा है।
आज समाज में जाँच की जाये तो हर 10 व्यक्ति में से एक को कैंसर होने की सम्भावना है। ग्रामीण क्षेत्र की महिलाओं को 60 में से एक को और शहरी स्तर पर 22 में से एक महिला को कैंसर है। पिछले 6 साल में महिलाओं के बीच कैंसर की दर में तेजी से उछाल आया है। महिलाओं में मुख्य रूप से स्तन, सर्वाइकल, ओवेरियन, गर्भाशय, मुँह और मसूड़े का कैंसर होता है।
70: कैंसर से पीड़ित महिलाओं में स्तन, सर्वाइकल, ओवेरियन और गर्भाशय का कैंसर है। जिसका इलाज से बचाव कर पाने की गुंजाइश सबसे ज्यादा होती है। महिलाओं में स्तन कैंसर 27: है और सर्वाइकल कैंसर 23: है। 
बच्चेदानी के मुँह में होने वाले कैंसर से ही भारत में हर साल लगभग 73,000 महिलाओं की जान चली जा रही है। गर्भाशय ग्रीवा कैंसर से 15 से 45 उम्र की महिलाएँ सबसे अधिक प्रभावित होती हैं। हर 8 मिनट में एक महिला की सर्वाइकल कैंसर से जान जा रही है।
महिलाएँ अपने शरीर का इतना कम ध्यान रखती हैं कि खासकर वह अपने प्रजनन या यौन सम्बन्धी अंगों में होने वाली किसी भी समस्या को लगातार छुपाती रहती हैं जिसकी वजह से किसी भी प्रकार की बीमारी बढ़ती जाती है।
हमारे देश में आज भी मात्र 18: महिलाएँ ही सैनिटरी पैड्स का इस्तेमाल कर पाती हंै। बाकी की महिलाएँ आज भी पुराने गन्दे कपड़े या एक ही कपड़े को बार–बार धोकर इस्तेमाल करती हैं जिसके चलते योनि या गर्भाशय के मुख पर कैंसर का खतरा और ज्यादा बढ़ जाता है। औसतन 1 महीने के सेनेटरी पैड का खर्चा 50 रुपये होता है और घर में अगर दो महिलाएँ भी हैं तो 100 रुपये खर्च बढ़ जाता है। जिनकी मासिक आय 100 रुपये खर्च करने के योग्य न हो वह कहाँ से सेनेटरी पैड का इस्तेमाल कर पाएँगी, ऊपर से हमारे देश की सरकार ने सेनेटरी पैड पर 12 परसेंट टैक्स लगाया है, जबकि अभी हाल ही में एक खबर आयी है कि स्कॉटलैंड की सरकार ने माहवारी से सम्बन्धित सभी प्रोडक्ट, जैसे– सेनेटरी पैड, महावारी कप, टेंपून्स इत्यादि को सभी महिलाओं के लिए मुफ्त कर दिया है। महिलाओं को यूरीन इन्फेक्शन भी बहुत ज्यादा होता है। काम की जगह और घर के बाहर गन्दे सार्वजनिक शौचालय का इस्तेमाल करने के कारण भी उन्हें तुरन्त इन्फेक्शन लग जाता है।
कैंसर जाँच के लिए जो ब्लड टेस्ट, डीएनए टेस्ट, बोन मैरो टेस्ट और लिक्विड बायोप्सी इत्यादि किये जाते हैं, उनका खर्च खासकर प्राइवेट अस्पतालों में बहुत ज्यादा है और बहुत से सरकारी अस्पतालों में ये टेस्ट मौजूद ही नहीं हंै, जिसकी वजह से प्राइवेट लैब या अस्पतालों में ये टेस्ट करवाने पड़ते हैं। सरकारी आँकड़ों के अनुसार हमारे देश में लगभग 80 प्रतिशत लोग 20 रुपये रोजाना पर गुजारा करते हैं। ऐसे में लोग कैसे प्राइवेट अस्पतालों में जा पाएँगे। इसके चलते समय पर बीमारी का पता चलना बेहद मुश्किल काम है। ग्रामीण क्षेत्रों में तो 80–100 किलोमीटर चलने के बावजूद एक ढंग का सरकारी अस्पताल और डॉक्टर नहीं मिलता। 
महिलाओं से यौन और प्रजनन सम्बन्धी स्वास्थ्य पर खुलकर बातचीत के कार्यक्रम चलाये जाने चाहिए। महिला स्वास्थ्य को लेकर सरकार को मुफ्त कैंप लगाने चाहिए व सरकार द्वारा एचपीवी टीकों की मुफ्त व्यवस्था होनी चाहिए। कैंसर की मुफ्त जाँच, इलाज केन्द्र और डॉक्टर बढ़ाया जाना जरूरी है। महिलाओं के बीच सामाजिक तौर पर उनकी  चेतना को उन्नत किया जाये, जिससे वे खुद अपनी जान की अहमियत को समझें और घर के अन्य सदस्यों को भी उनके स्वास्थ्य और दिनचर्या को लेकर संवेदनशील होकर सोचना जरूरी है। 
– स्वाति

महिलाओं की प्रसव–कालीन समस्याएँ


 
मेहनतकश महिलाएँ जब गर्भवती होती हैं तब भी उन्हें काम करना पड़ता है और उन्हें प्रसव के समय तक बिना आराम किये काम करना पड़ता है। 2019 में अर्थशास्त्री जीन ड्रेज के नेतृत्च में एक शोध दल ने भारत के छ: राज्यों छत्तीसगढ़, झारखण्ड, मध्यप्रदेश, ओडिशा, उत्तरप्रदेश और हिमाचल प्रदेश में जच्चा–बच्चा सर्वे किया। सर्वे में उन्होंने पाया कि भारत में 63 प्रतिशत ग्रामीण महिलाएँ अपने गर्भावस्था के दौरान आखिरी दिन तक काम करतीं हैं और केवल 37 प्रतिशत महिलाएँ ही हैं जिनको गर्भावस्था के समय आराम मिल पाता है। सामाजिक और आर्थिक रूप से ये सभी राज्य अन्य राज्यों से पिछड़े हैं। यहाँ मातृ मृत्यु दर एवं शिशु मृत्यु दर सबसे अधिक है। 
 यह सर्वेक्षण 706 महिलाओं पर किया गया था, जिनमें से गर्भवती महिलाएँ 342  थीं और नर्सिंग माताएँ  364 थीं। विभिन्न जिलों से आयी कई गर्भवती महिलाओं को अपने वजन की कोई जानकारी नहीं थी। गर्भावस्था के दौरान महिलाओं को पौष्टिक भोजन न मिलने के कारण उनमें से 49 प्रतिशत महिलाएँ कमजोर पायी गयी, 41 प्रतिशत महिलाओं के पैरों में सूजन थी, 17 प्रतिशत महिलाओं के आँखों की रौशनी कम मिली। हाल यह है कि बहुतायत महिलाओं को गर्भावस्था के दौरान पौष्टिक आहार नहीं मिल पाता है जिसके चलते पैदा होने वाला बच्चा औसत से कम वजन का होता है और वह पूरी तरह से स्वस्थ नहीं होता है यानी पैदा होने के समय से ही वह कुपोषण का शिकार होता है। 
नीति आयोग के अनुसार भारत में औसतन 1 लाख में 130 औरतों की गर्भावस्था से सम्बन्धित बीमारियों के कारण मृत्यु हो जाती है। 
आज भी देश के ग्रामीण इलाकों में ज्यादातर महिलाओं की कम उम्र में ही शादी कर दी जाती है जिससे उनका शरीर पूरी तरह से गर्भ धारण के लिए विकसित नहीं हो पाता। अशिक्षा के चलते महिलाओं को गर्भ धारण से सम्बन्धित पूरी जानकारी नहीं होती है। गरीबी और आहार से सम्बन्धित मूलभूत जानकारी न मिलने के चलते वे पौष्टिक भोजन का चुनाव नहीं कर पाती, आयरन, कैल्शियम और आहार में दूसरे आवश्यक तत्वों की कमीं से कई तरह की बिमारियाँ हो जाती हैं। उन्हें इन बीमारीयों की जानकारी भी नहीं होती। स्वास्थ्य सेवाओं और प्रशिक्षित चिकित्सा कर्मियों की भारी कमीं के कारण बहुत सारी महिलाएँ असमय काल के गाल में समा जातीं हैं। 
लेन्सिट जनरल की रिपोर्ट के अनुसार प्रसव के समय एनीमिया (खून की कमीं) के कारण गर्भवती महिलाओं की मृत्यु की सम्भावना दो गुनी बढ़ जाती है। 
सरकारी योजनाओं का लाभ लेने की आवेदन प्रक्रिया इतनी जटिल है कि अधिकतर ग्रामीण महिलाओं को इन सुविधाओं का लाभ मिल ही नहीं पाता। सार्वजानिक स्वास्थ्य केन्द्रों पर महिलाओं के लिए नि:शुल्क प्रसव व्यवस्था तो की गयी है, लेकिन जमीनी स्तर पर यह लागू होता नहीं दिखता, ज्यादातर योजनाएँ कागजी होतीं हैं। वहाँ भर्ती महिलाओं से पता चला कि उन्हें अपनी डिलीवरी पर 6,500 रुपये के लगभग खर्च करने पड़ते हैं चाहें उनकी स्थिति कितनी भी खराब हो। 
अस्पताल की सस्ती दवाइयों को छोड़कर जितनी भी महँगी दवाइयाँ होतीं हैं, उन्हें बाहर से खरीदना पड़ता है। इंजेक्शन से लेकर डिटोल, कॉटन, पैड तक लाना पड़ता है  जिसे उपलब्ध कराना बिल्कुल ही आसान काम है। एक आँकडे़ के अनुसार इस खर्च की पूर्ति करने के लिए एक तिहाई महिलाओं को अपनी कुछ सम्पत्ति बेचनी पड़ी या सूदखोरों से कर्ज लेना पड़ा। 
महिलाएँ हमारे समाज का निर्माण करती हैं और नवजात शिशु को जन्म देती हैं। अत: वह देश का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं, उनके स्वास्थ की पूर्ण जिम्मेदारी सरकार की होनी चाहिए।

–– रजनी यादव
 


महिलाओं के लिए सार्वजनिक शौचालय का अभाव असहनीय



महिलाएँ सामाजिक गैर बराबरी के चलते हमेशा से ही उत्पीड़न झेलती रही हैं। कहने को तो संविधान ने महिला–पुरुष दोनों को ‘एक आदमी एक वोट’ के तहत समान माना है और एक राजनीतिक हैसियत प्रदान की है परन्तु सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक रूप से दोनों के बीच बहुत गैर बराबरी है। अक्सर हम कई तरह की गैर बराबरी की बात करते हैं, पर शायद ही कभी हमने शौचालय की समान उपलब्धता के बारे में सोचा हो। अगर हम गहराई से इस विषय की पड़ताल करें तो पायेंगे की इस क्षेत्र में यह व्यवस्था कितनी असफल रही है और महिलाओं के लिए शौचालय की उपलब्धता की समस्या कितनी भयावह और विकराल रूप में हमारे सामने खड़ी है। 
हम देखते हैं कि आजकल महिलाओं के विशेषाधिकार की बात तो जोर शोर से की जा रही है, लेकिन अभी तो उनका समान अधिकारों के लिए ही संघर्ष खत्म नहीं हुआ है। सार्वजनिक स्थानों में साफ सुथरे शौचालय बुनियादी हक है, लेकिन स्त्रियों की इतनी अहम जरूरत को भी समाज और सरकार ने हमेशा नकारा है। वैसे तो सार्वजनिक स्थानों पर शौचालयों का ना होना पुरुषों के लिए भी समस्या है लेकिन उस तरह से नहीं जैसे एक स्त्री के लिए है क्योंकि वे पेशाब करने के लिए शौचालयों के मोहताज नहीं। देश के इतिहास में पहली बार 2011 में सुप्रीम कोर्ट ने स्त्रियों की इस अव्यक्त समस्या पर नोटिस लिया और स्कूलों में लड़के तथा लड़कियों के लिए अलग–अलग शौचालयों की व्यवस्था को शिक्षा के बुनियादी अधिकार से जोड़ा। 
एक शोध के अनुसार पुरुषों की तुलना में महिलाओं को शौचालय में दुगुना समय लगता हैं। कम से कम एक चैथाई महिलाएँ किसी एक समय में मासिक धर्म में होती हैं। इसके अलावा गर्भपात के दौरान खून बहना, या गर्भाशय की रसौलियों की वजह से ज्यादा खून बहना, इन स्थितियों में बार–बार कपड़ा या पैड बदलना जरूरी होता है। इसके बावजूद महिलाओं के लिए सार्वजनिक शौचालय का बेहद अभाव है। कस्बों, छोटे शहरों के बाजारों में तो हम इनकी कल्पना भी नहीं कर सकते। छोटे बस स्टेशनों और रेलवे स्टेशनों के शौचालय में तो भयानक गन्दगी के कारण घुसना भी सम्भव नहीं होता। 
बुनियादी स्तर पर इन सुविधाओं का अभाव बेहद बेचैनी और घबराहट पैदा करता है। शौचालय के अभाव में यात्रा के समय अधिकांश महिलाएँ या तो कम खाती–पीती हैं या कुछ भी नही खातीं। जो उपलब्ध शौचालय हैं उनमें अधिकांश में या तो दरवाजे नहीं होते या फिर कुण्डी नहीं होती। शौचालय की भयानक गन्दगी की वजह से यात्रा कर रही महिलाओं को अक्सर मूत्रालय का संक्रमण (यूरिन इन्फेक्शन) होता रहता है। सब महिलाएँ अक्सर ही ऐसी स्थिति से गुजरती हैं। कई बार तो इन्हीं वजहों से यात्राएँ भी टालनी पड़ती हैं। अगर गन्दगी से बचने के लिए किसी अन्य खुली और सुरक्षित जगह तलाशनी हो तो चार जोड़ी आँखें उत्सुकता में पीछा करने लगती हैं। 
सार्वजनिक शौचालय का अभाव या उनका गन्दगी से पटा रहना स्वास्थ्य की दृष्टि से बेहद खतरनाक है। शौच या पेशाब रोक कर ज्यादा देर रहने से पाचन और पेशाब सम्बन्धी बीमारियाँ हो जाती हैं। पानी कम पीने के कारण महिलाओं के शरीर में गम्भीर बीमारियाँ पैदा होने की सम्भावना कई गुना बढ़ जाती है। किडनी फेल, पेशाब की नली में रुकावट या फिर किसी तरह की यूरिनरी इंफेक्शन आदि का स्तर महिलाओं में इसी वजह से कई गुना बढ़ जाता है। अमीर से अमीर और यहाँ तक कि ऊँचे राजनीतिक पदों पर आसीन महिलाओं को भी अपने जीवन में किसी न किसी समय इस तरह की स्थितियों से गुजरना पड़ता है। 
सरकार ‘हर घर शौचालय’ की बात करती है। पर सोचने की बात यह है कि गरीब कहाँ से 20–25 हजार का टॉयलेट बनवा पाएगा? आबादी को ध्यान में रखें तो हर कुछ किलोमीटर पर शौचालय बनाना सरकार की जिम्मेदारी होनी चाहिए। परन्तु जो काम सरकार का है उसे वह निजी कम्पनियों को दे रही है, जहाँ शौचालय के इस्तेमाल के लिए पैसे अदा करने पड़ते हैं। जो व्यवस्था नि:शुल्क होनी चाहिए वहाँ हम पैसे दे रहे हैं। दिल्ली की मेट्रो ट्रेन को ही लें, इतना किराया देने पर भी टॉयलेट जाने के लिए हमें पैसा देना पड़ता है। 
लोकहित वकील और प्रोफेसर जॉनयेफ इस विषय पर कहते हैं कि जब विशालकाय सार्वजनिक इमारतें बनी थीं, तब महिलाओं के लिए रेस्टरूम बड़ा सवाल नहीं था क्योंकि तब बड़ी मात्रा में महिलाएँ ऑफिस या सार्वजनिक स्थानों पर नहीं थीं। पर आज की स्थिति में यदि महिलाओं को ऐसी हालत का सामना करना पड़ रहा है तो निश्चय ही यह उनके समान सुरक्षा अधिकार का उलंघन है। 
वास्तव में यह पूँजीवादी व्यवस्था ही विकलांग है जो कोई भी सकारात्मक रास्ता सुझाने में नाकाम रही है। अधिकाँश सरकारी संस्थाओं में महिला विरोधी विचारों वाले असंवेदनशील लोग ही विराजमान हैं। पर्याप्त और साफ शौचालयों का सार्वजनिक स्थानों पर अभाव स्पष्ट रूप से दर्शाता है की सरकारें महिलाओं की जरूरतों के प्रति किस हद तक असंवेदनशील और गैर जिम्मेदार हैं। 

–– जूही द्विवेदी 

दुनिया जहान में महिलाओं का बढ़ता संघर्ष



(1)
बेलारूस की राजधानी मिन्स्क में पिछले कई हफ्तों से लगातार प्रदर्शन जारी है। 10 हजार से भी अधिक महिलाएँ सड़क पर रैली निकालकर विरोध प्रदर्शन कर रही हंै, हाथों में फूल और झंडे लिए “इस्तीफा दो” के नारे लगा रही हैं, बेलारूस में महिलाओं की स्वतंत्रता का गीत “कुपालिंका” गाती हुई जुलूस निकाल रही हैं। अपने अधिकारों के लिए लड़ती सैकड़ों–हजारों महिलाओं का ये हुजूम बेहद खूबसूरत है।
बेलारूस में 9 अगस्त, 2020 को राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव आयोजित होने थें। पिछले 26 सालों से बेलारूस में लगातार एलेक्सजेंडर लुकाशेंको की तानाशाही बरकरार है। इस बार कड़ी टक्कर देने के लिए लुकाशेंको के खिलाफ विपक्षी महिला नेता स्वेतलाना तिखोनावस्काया खड़ी थीं। 9 अगस्त को सम्पन्न हुए चुनावों में लगातार सातवीं बार लुकाशेंको ने 80 प्रतिशत वोटों के साथ जीत हासिल की। बस इसी बात से बेलारूस की जनता का गुस्सा उभरा। उनका मानना है कि लुकाशेंको ने चुनाव में धांधले–बाजी करके ये जीत हासिल की है, तभी से बेलारूस में लुकाशेंको के खिलाफ जबरदस्त प्रदर्शन जारी है, लोग सड़क पर हैं, महिलाएँ मुख्य तौर पर इस आन्दोलन की अगुवाई कर रही हैं। हर रविवार को तो भारी मात्रा में महिलाएँ सरकारी सुरक्षा–बलों द्वारा किये जाने वाले अभद्र व्यवहार, उत्पीड़न व मार तक की परवाह किये बिना वहाँ आती हैं, उनकी एक ही माँग है कि लुकाशेंको राष्ट्रपति पद से इस्तीफा दें। एक प्रदर्शनकारी महिला कहती हैं, “ये जीने और मरने का सवाल है, हमें अपने देश को बचाने और उसे स्वतंत्र रखने की जरूरत है, हमें अपना देश बहुत प्यारा है।”
प्रदर्शन करने वाले व विपक्षी नेताओं के विरुद्ध लुकाशेंको ने कड़ी कार्रवाई की, उन्हें जेल भिजवा दिया इसीलिये स्वेतलाना तिखोनावस्काया को लिथुआनिया भागना पड़ा। बेलारूस की टॉप बास्केटबॉल चैंपियन येलेना लुईचेनका जिन्होंने अपने देश की तरफ से ओलंपिक्स में भी भाग लिया था, इस आन्दोलन का हिस्सा थीं। प्रदर्शन करने के आरोप में पुलिस ने 15 दिन के लिए उन्हें डिटेंशन सेंटर में डाल दिया और उनकी एक अन्य साथी को पुलिस का नकाब फाड़ने के जुर्म में 2–5 साल की जेल की सजा सुना दी। लुईचेनका कहती हैं, “ये ऐसा समय है जब आप कैद में इसलिए नहीं हैं क्योंकि आपने कोई जुर्म किया है बल्कि इसलिए हैं क्योंकि आप अपनी आजादी की लड़ाई लड़ना चाहते हैं। लेकिन महिलाओं का हौसला बुलन्द है और मैं ये देखकर बहुत अधिक उत्साहित हूँ।” उन्होंने यह भी कहा, “जेल में कैद औरतों को यातनाएँ देने और उनका बलात्कार करने वाले किसी भी बेलरूसी अधिकारी पर कोई कार्यवाही नहीं की गयी, उसके बावजूद भी किसी महिला ने यह नहीं कहा कि उन्हें यहाँ (जेल) आने का किसी भी तरह का कोई पछतावा है, बल्कि यह कहा कि हम अपनी जंग जारी रखेंगे और आवाज उठाते रहेंगे।”
सभी महिलाओं के इस क्रान्तिकारी जज्बे को सलाम!
(2)
सऊदी अरब में, महिला अधिकारों के लिए आवाज उठाने वाली 31 साल की सामाजिक कार्यकर्ता लुजैन अल–हथलौल को महिलाओं के लिए ड्राइविंग का अधिकार माँगने के जुर्म में 28 दिसम्बर 2020 को सऊदी के स्पेशल कोर्ट, जहाँ आतंकवाद और राष्ट्रीय सुरक्षा से सम्बन्धित मामलों की सुनवाई होती हैं, में पाँच साल, आठ महीने की जेल की सजा सुना दी गयी। महिलाओं के अधिकारों के लिए विदेशी पत्रकारों, राजनीतिज्ञों और मानवाधिकार संगठनों से संपर्क रखने के कारण लुजैन पर राज्य की राजनीतिक व्यवस्था को बदलने और राष्ट्रीय सुरक्षा को नुकसान पहुँचाने के आरोप लगाए गए।
हालाँकि मई 2018 में ही, उन्हें और उनके कुछ साथियों को महिलाओं को गाड़ी चलाने के अधिकार दिए जाने की माँग के चलते ही गिरफ्तार कर लिया गया था। उनकी गिरफ्तारी के ठीक एक महीने बाद जून 2018 में, उन्हीं के संघर्षों के चलते वहाँ की सल्तनत द्वारा महिलाओं को यह अधिकार प्राप्त हो गया। लेकिन महिलाओं का संघर्ष यहीं खत्म नहीं हुआ। एक खबर के मुताबिक, सऊदी में बहुत कम जगह ऐसी हैं जहाँ महिलाओं का ड्राइविंग लाइसेंस बनाया जाता है और साथ ही ड्राइविंग निर्देशों के लिए महिलाओं से पुरुषों की तुलना में दोगुना शुल्क लिया जाता है।
सऊदी अरब में महिलाओं को अपनी छोटी से छोटी आजादी पाने के लिए भी बहुत अधिक संघर्ष करना पड़ता है। सऊदी अरब दुनिया में अकेला ऐसा देश था जहाँ महिलाओं को अकेले गाड़ी चलाने की आजादी नहीं थी। उन्हें ड्राइविंग लाइसेंस नहीं दिए जाते थे, अगर उन्हें गाड़ी चलानी है तो अपने किसी पुरुष अभिभावक (पिता, भाई, पति इत्यादि) से अनुमति लेकर उन्हें साथ रखना पड़ता था। यदि कोई महिला अकेली गाड़ी चलाती पायी गयी तो पुलिस उसको गिरफ्तार कर लेती थी और जुर्माना लगाती थी। 2014 में लुजैन को भी ड्राइविंग करने के जुर्म में 73 दिन तक के लिए हिरासत में रखा गया था। लुजैन और उनके साथियों ने इसके विरुद्ध एक अभियान चलाया। महिलाओं के आवाज उठाने के बाद इस्लामिक विद्वानों की परिषद ने एक फतवा तक जारी कर दिया व महिलाओं के गाड़ी चलाने को गलत बताया, ये तक कहा कि इससे महिलाओं की पुरुषों से नजदीकी बढ़ेगी और वे विपरीत सेक्स के प्रति आकर्षित होंगी। 
अन्तरराष्ट्रीय दबाव के चलते, कोर्ट ने अभी लुजैन की सजा के कार्यकाल को 2018 से मानते हुए उन्हें 2 साल 10 महीने की रियायत दे दी है। लुजैन के घरवालों का कहना है कि मार्च 2021 तक उनकी रिहाई हो जाएगी। पर उसके बाद भी लुजैन को अगले 3 सालों तक किसी भी विरोध–प्रदर्शन या अभियान में हिस्सा लेने और 5 साल तक दूसरे देशों की यात्रा पर मनाही है। 
लुजैन ने बताया कि जिस दौरान वे जेल में थीं, उन्हें और उनके साथियों को बहुत बुरी स्थिति में रखा जाता था। जेल में उन्हें इलेक्ट्रिक शॉक व शारीरिक यातनाएँ दी जाती थीं। उनके साथ यौन हिंसा तक हुई और जब उन्होंने इसके खिलाफ कोर्ट में शिकायत दर्ज की तो जज ने उसे मानने से इनकार कर दिया, जबकि सरकार ने खुद अपनी जाँच–पड़ताल में इन सब बातों की पुष्टि कर दी थी। लुजैन के घरवालों ने बताया कि जेल में परिवार वालों से मिलने के प्रतिबन्ध व अन्य बुरी परिस्थितियों के विरोध में लुजैन 2 हफ्तों की भूख–हड़ताल पर भी रहीं। लूजैन की बहन लीना हथलौल ने कहा, “मेरी बहन आतंकवादी नहीं है, वह एक सामाजिक कार्यकर्ता है। जिन सुधारों की मोहम्मद बिन सलमान और सऊदी सल्तनत वकालत करते हैं, वह उसकी लड़ाई लड़ रही है, और फिर उसी के लिए सजा सुनाया जाना हद दर्जे का दोगलापन है।”
(3)
पाकिस्तान की लाहौर हाईकोर्ट ने सोमवार, 4 जनवरी 2021 को बलात्कार पीड़िता की वर्जिनिटी टेस्ट की प्रक्रिया को खत्म कर देने का आदेश दिया। पाकिस्तान की जनता और मानवाधिकार संगठनों ने इस फैसले का स्वागत किया है। पिछले काफी समय से बहुत से मानव अधिकार संगठन व सामाजिक कार्यकर्ता इसके विरोध में आवाज उठा रहे थे, पिछले साल मार्च में उन्होंने इसके विरुद्ध याचिका भी डाली, उनकी माँग थी कि रेप के मामलों में वर्जिनिटी टेस्ट जिसका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है, को खत्म किया जाना चाहिए। सबकी मेहनत आखिरकार रंग लायी और उनकी जीत हुई। अभी यह नियम पाकिस्तान के केवल पंजाब प्रान्त में ही लागू होगा, लेकिन बाकी जगहों के लिए एक मिसाल बनेगा, हालाँकि ऐसी ही एक याचिका सिंध हाइकोर्ट में भी दायर की गयी है। 
पितृसत्तात्मक व्यवस्था की जड़ों को और मजबूत करता यह वर्जिनिटी टेस्ट अथवा टू फिंगर टेस्ट महिलाओं की गरिमा को ठेस पहुँचाने जैसा है जिसमें किसी चिकित्सक, यह भी जरूरी नहीं कि वह कोई महिला ही हो, के द्वारा पीड़ित महिला के जननांगों में एक या दो उंगली डालकर इस बात की पुष्टि करवाई जाती है कि वहाँ हायमन मौजूद है अथवा नहीं। मुख्य रूप से यह टेस्ट ये जानने के लिए किया जाता है कि महिला के पहले से कोई शारीरिक सम्बन्ध थे अथवा नहीं। इसके अलावा यदि महिला के पहले से शारीरिक सम्बन्ध रहे हों तो उसके बयान को कम तवज्जो दी जाती है। इस अवैज्ञानिक टेस्ट का प्रभाव अक्सर न्यायिक प्रक्रिया में पीड़िता के खिलाफ व आरोपियों के पक्ष में होता है। 
यूनाइटेड नेशन्स की 2018 की रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया भर के कम से कम 20 देशों में अब तक यह वर्जिनिटी टेस्ट किया जाता है, भले ही उस जगह यह अवैध ही क्यों न हो। महिलाओं के साथ हमारे समाज में हमेशा से ही दुर्व्यवहार होता रहा है, परन्तु बलात्कार जैसी घिनौनी घटना से पीड़ित होने के बावजूद मेडिकल प्रोटोकॉल के नाम पर इस तरह की कारवाई बेहद शर्मनाक है। इससे गुजरने वाली महिलाओं का कहना है कि ये फिर से बलात्कार होने जितना दर्दनाक है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार इस तरह का टेस्ट एक अनैतिक कृत्य है, इसका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है और यह मानवाधिकारों का उलंघन है। 
लाहौर हाई कोर्ट की चीफ जस्टिस आयशा मलिक ने इस पर अपना फैसला सुनाते हुए कहा है कि, “यह एक बेहद अपमानजनक प्रक्रिया है जिसमें यौन हिंसा व आरोपी पर ध्यान देने के बजाय पीड़िता को ही गलत साबित किया जाता है।” हाईकोर्ट के इस फैसले पर पाकिस्तान की एक एक्टिविस्ट लिखती हैं कि, “मैं उन सभी महिलाओं की शुक्रगुजार हूँ, जिन्होंने दशकों तक ये लड़ाई लड़ी और आगे भी लड़ती रहेंगी। लेकिन हम बाकी महिलाएँ ये न भूलें कि यह तो समस्या का बस छोटा सा हिस्सा था।”
(4)
अर्जेन्टीना में बुधवार, 30 दिसम्बर 2020 को 12 घण्टे तक चले सत्र के बाद, 38 मतों के साथ गर्भपात को कानूनी वैधता देने वाला विधेयक पारित कर दिया गया। पिछले कई दशकों से वहाँ की महिलाएँ इसके लिए आन्दोलन कर रही थीं। इस बिल के अनुसार, किसी भी महिला को अब 14 सप्ताह तक के गर्भ को गिराने की मंजूरी है, और साथ ही दुष्कर्म और स्वास्थ्य को खतरा होने की स्थिति में 14 सप्ताह बाद भी गर्भपात कराया जा सकता है। इस विधेयक का पास होना, लातिन अमरीका में होने वाले बड़े बदलावों में से एक है। 2018 में भी सदन में इस बिल को पास करवाने की कोशिश की गयी थी, पर मतों के कम होने के चलते यह बिल पास नहीं हो पाया था। वहाँ के राष्ट्रपति अल्बर्टो फर्नान्डीज ने भी इस बिल का समर्थन किया है। लातिन अमरीका के कुछ अन्य देश जैसे– क्यूबा, उरुग्वे और गयाना में भी इसे कानूनी वैधता प्राप्त है। 
अर्जेन्टीना में अब तक महिलाओं को गर्भपात करवाने की इजाजत नहीं थी। जो महिलाएँ गर्भपात करवाती थीं, उन्हें दण्डित किया जाता था व सम्मान की नजर से नहीं देखा जाता था। सरकार का कहना है कि करीब 4–4 करोड़ की आबादी वाले अर्जेन्टीना में एक साल में तकरीबन 3–7 लाख से 5–2 लाख तक अवैध गर्भपात होते हैं। इस बिल का पास होना, पिछले कई सालों से महिलाओं को एबॉर्शन का अधिकार दिए जाने की माँग कर रहे महिला आन्दोलनों की एक बड़ी जीत है। यह जीत इसलिए भी ऐतिहासिक है क्योंकि वहाँ के कैथोलिक चर्च के पोप इस बिल के विरोध में थे, लेकिन इन सब के बावजूद भी वहाँ की महिलाओं ने हार नहीं मानी और संगठित संघर्ष से जीत हासिल की।
अर्जेन्टीना की एक लेखक और एक्टिविस्ट क्लोडिया पिनाइरो ने बिल पास होने के एक दिन पहले कहा कि, “सबके लिए बेहद मुश्किल रहे इस साल के अन्त में हम सबको इस बेहद महत्वपूर्ण और न भूल पाने वाले क्षण का इंतजार है। मैं केवल यही आशा करती हूँ कि सीनेट यह महसूस करें कि महिलाओं के लिए अब पीछे हटने का कोई रास्ता नहीं बचा है। महिलाओं का यह आन्दोलन अब हमें हमारे शरीर व हमारे स्वास्थ्य के बारे में किसी और से अनुमति लेने और गुप्त रूप से गर्भपात करवाने को बाध्य करने की इजाजत नहीं देगा। 
“हमें अब भी उनकी ये बेतुकी दलीलें झेलनी पड़ती है कि हमें देश की आबादी बढ़ाने के लिए बच्चे करने ही होंगे, जैसे हम कोई इनसान नहीं बल्कि प्रजनन की कोई मशीन हैं या महज एक गर्भाशय हैं। लेकिन कल से यह सब बदल जाएगा। मुझे इस बारे में जरा भी सन्देह नहीं है।”
(5)
भारत मे 19 जनवरी 2021 को, मुम्बई हाइकोर्ट की नागपुर बेंच की महिला जज पुष्पा गनेड़ीवाला के अनुसार, एक 39 साल के व्यक्ति द्वारा बिना वस्त्र उतारे व भीतर हाथ डाले, बाहर से जबरन 12 साल की बच्ची के स्तन दबोचना पोस्को एक्ट (प्रोटेक्शन ऑफ चिल्ड्रन फ्रॉम सेक्सुअल ऑफन्सेज एक्ट) के अन्तर्गत यौन उत्पीड़न में नहीं आता। उनके निर्णयानुसार, उस व्यक्ति को इस अपराध से बरी कर दिया गया। न्याय व्यवस्था खुद जब स्त्री–विरोधी निर्णय देने लगे, तब महिलाएँ अपने साथ होने वाले अपराधों के लिए किसके सामने जाकर गुहार लगाएँ?
पीड़िता के मुताबिक, आरोपी सतीश बच्ची को खाने का सामान देने के बहाने अपने घर ले गया था। वहाँ उसने जबरदस्ती उसके ब्रेस्ट छूने और उसे निर्वस्त्र करने की कोशिश की। हाईकोर्ट ने इस मामले को यह कहते हुए कि आरोपी और पीड़िता के बीच यौन मंशा के साथ किसी तरह का कोई स्किन टू स्किन टच नहीं हुआ था, पोस्को एक्ट के अन्तर्गत रखने से इनकार कर दिया और आईपीसी सेक्शन 354 के तहत केवल शीलभंग के मामले में एक साल की सजा सुना दी। हालाँकि लोगों द्वारा इस बात की कड़ी निन्दा हुई है और इस फैसले को स्वीकार न करते हुए इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गयी है।
महाराष्ट्र सरकार के पूर्व स्टैंडिंग काउंसिल निशांत कत्नेसवरकर इस फैसले पर कहते हैं, “बॉम्बे हाईकोर्ट ने जो तर्क दिया है, उसे स्वीकार नहीं किया जा सकता है। पोक्सो कानून के प्रावधान कहीं भी निर्वस्त्र करने की बात नहीं करते हैं। लेकिन हाई कोर्ट ने ये तर्क दे दिया है जिसे स्वीकार नहीं किया जा सकता है।” 
ट्विटर पर एक महिला लिखती हैं, “मुम्बई कोर्ट का आज जो फरमान आया है उससे तो यही साबित हो रहा है कि आज भी भारत में पुरुषवादी मानसिकता वाले लोग हैं और महिलाओं की बराबरी और आजादी सिर्फ कागजों तक ही रह गई है। भारतीय न्याय व्यवस्था पर शर्म आती है।”

–रुचि मित्तल