Saturday, January 22, 2022

आत्मनिर्भर भारत में, उत्तर प्रदेश की आशक्त महिलाओं की कुछ झलकियाँ



अगर आप उत्तर प्रदेश में हैं और महिला हैं तो हो सकता है की जिन्दगी की व्यस्तताओं के कारण आपको यहाँ की राजनीति और सरकार की सही जानकारी न मिल पाती हो। गाँवों–कस्बों–और शहरों में अटे पड़े सरकारी विज्ञापन तो सरकारी महिला सशक्तिकारण की बड़ी  लुभावनी तस्वीर पेश करते हैं। पर अगर वास्तविक आँकड़ों और सच्चाई पर गौर करें तो हम एक दूसरी ही छवि पायेंगे। बल्कि हम महिलाएँ तो रोज उसे जी ही रही हैं। हम पायेंगे कि अखबार हत्या, आत्महत्या और बलात्कार की खबरों से भरे पड़े हैं, आप कहेंगे सबसे बड़ी जनसंख्या वाले प्रदेश में तो, यह महज चन्द घटनाएँ हैं।
चलिए, बात को और तथ्यपरक तरीके से देखने और समझने के लिए कुछ आँकड़ों पर एक नजर डालते है :–
1) उत्तर प्रदेश में औरतों के साथ होने वाला अपराध (पूरे देश के अनुपात में), 66–7 प्रतिशत है। (2019)
2) पूरे देश में दलितों के ऊपर अपराध में 7–3 प्रतिशत मामले बढ़े हैं।
दलितों के ऊपर होने वाले कुल अपराध का 25 प्रतिशत उत्तर प्रदेश में है 
उत्तर प्रदेश में दलित बच्चियों के साथ हाथरस , खीरी और बलरामपुर की घटनाएँ पूरे हालात के चन्द उदाहरण हैं।
3) आत्मनिर्भरता और सशक्तिकरण की कई कसौटियाँ हो सकती है, पर पूँजी पर आधारित समाज–व्यवस्था में रोजगार पहली कसौटी है।
महामारी से पहले भी, सामाजिक और सांस्कृतिक कारणों से भारत के कार्यबल में महिलाओं की भागीदारी पूरे दक्षिण एशिया में काफी कम है। आर्थिक सर्वेक्षण 2017–18 के अनुसार केवल 24 प्रतिशत महिलाएँ ही रोजगार में हैं। 
उत्तर प्रदेश में महिलाओं की रोजगार में भागीदारी 9–4 प्रतिशत है, हमारे पास हालिया संख्याएँ नहीं है, लेकिन हम उम्मीद करते है की तालाबन्दी के दौरान भीषण गिरावट आयी है।
उत्तर प्रदेश में बेरोजगारों की संख्या 58 प्रतिशत बढ़ी है। जून 30, 2018 में पढ़े–लिखे, रजिस्टर्ड बेरोजगारों की संख्या 21–39 लाख थी जो अगले दो सालो में बढ़कर 34 लाख हो गयी।
देश का 90 प्रतिशत कार्यबल असंगठित क्षेत्र में है, जिसमें बड़ी संख्या में औरतें हैं, जो मुख्यत: खेती और घरेलू काम में लगी हैं। प्रवासी पुरुषों की बड़ी संख्या वापस घर में आने से महिलाओं का घरेलू काम भी बढ़ गया और खेती में काम के अवसर भी घट गये हैं।
महिला स्वास्थ्य पर अगर नजर डालें तो लॉकडाउन के दौरान, ज्यादातर औरतें तमाम कारणों से जरूरी स्वास्थ्य सेवाएँ नहीं ले सकीं, इसके कारण वे अब अन्य स्वास्थ्य समस्याओं या नयी बीमारीयों की चपेट में आ रही हैं। 
महिलाओं के जीवन का अदृश्य क्षेत्र है ––उनका मानसिक स्वास्थ्य। हाल ही में नौजवान लड़कियों पर किये गये एक सर्वेक्षण में पाया गया है कि उनमें अवसाद, चिन्ता और तनाव का स्तर बहुत बढ़ गया है। दुखद बात यह है कि मानसिक स्वास्थ्य को कोई गम्भीरता से लेता ही नहीं।
एक तरफ मानसिक स्वास्थ्य की यह तस्वीर है तो दूसरी तरफ अधिकांश लडकियाँ कुपोषण और खून की कमी का शिकार हैं। कुपोषण और खून की कमी का प्रतिशत जो पहले 49–9 प्रतिशत था अब बढ़ कर 52–4 प्रतिशत हो गया।
6 महीने से 6 साल के लगभग चार लाख कुपोषित बच्चे उत्तर प्रदेश में हैं। हम इस स्थिति को महँगाई और रोजगार के सापेक्ष रख कर देख सकते हैं। दालें जो प्रोटीन का सबसे सुलभ स्रोत हैं, उनकी कीमत 96 रूपये से 110 रूपये प्रति किलो है। क्या इस बढ़ी हुई कीमत का असर महिलाओं और बच्चों के स्वास्थ्य पर नहीं पड़ता होगा? मुट्ठी भर लोगों को गैस, दाल, आटा और तेल की बढ़ी कीमतें फर्क नहीं डालती होंगी पर बड़ी आबादी को ये गहराई से प्रभावित करती है।
अगर ये चन्द आँकड़े तस्वीर स्पष्ट नहीं कर रहे, तो अपने आसपास कम्पटीशन देने वाले नौजवानों की आँखों और दिल में झाँक कर देखिए, बेचैनी भरी अनिश्चितता, हर हफ्ते जान ले रही है। आप किसी घरेलू कामवाली, जोमैटो डिलीवरी ब्वाय, ठेले वाले, मिस्त्री, पार्लर चलाने वाली गली मोहल्ले की औरत से बात करके भी स्थिति को समझ सकते हैं।
अब सवाल है दवा, स्वास्थ्य, रोजगार, सुरक्षा और सम्मान गायब कहाँ है? सरकार रोज वायदे कर रही है–– आत्मनिर्भर भारत और महिला सशक्तिकरण की। थोड़ा ध्यान से देखिए और सोचिए, जुमलेबाजी और लोक–लुभावन बातें या चन्द लोगों को चन्द टुकड़े देने से, हमारी समस्या हल नहीं होगी। हमें मन्दिर–मस्जिद, देशी और विदेशी, अपने और पराये, दोस्त और दुश्मन में उलझाने वाली पार्टी और सरकार नहीं चाहिए। हमें हमारे लिए यानि जनता के लिए नीतियाँ बनाने वाली, हम महिलाओं को सुरक्षा, बराबरी, आर्थिक निर्भरता और सम्मान देने वाली राजनीति और सरकार चाहिए।
–– पद्मा 


पाठा की बिटिया
गहरा साँवला रंग
पसीने से तर सुतवाँ शरीर
लकड़ी के गट्ठर के बोझ से
अकड़ी गर्दन
कहाँ रहती हो तुम
कोल गदहिया, बारामाफी, टिकरिया
कहाँ बेचोगी लकड़ी
सतना, बाँदा, इलाहाबाद
क्या खरीदोगी
सेंदुर, टिकुली, फीता
या आटा, तेल, नमक
घुप्प अँधेरे में
घर लौटती तुम
कितनी निरीह हो
इन गिद्धों भेड़ियों के बीच
तुम्हारे दु%खों को देखकर
खो गया है मेरी भाषा का ताप
गड्ड–मड्ड हो गये हैं बिंब
पीछे हट रहे हैं शब्द
इस अधूरी कविता के लिए
मुझे माफ करना
पाठा की बिटिया।
– केशव तिवारी
(पाठा: बुन्देलखण्ड के बाँदा जिले का पठारी भाग)

Monday, January 17, 2022

राम राज्य में महिलाओं की स्थिति



उत्तरप्रदेश अब रामराज्य बन चुका है। यहाँ भगवान राम के रूप में योगी अवतरित हुए हैं। उनके अनुसार राज्य में अपराध खत्म हो चुके हैं। पहले लड़कियों को घर से निकलने में डर लगता था लेकिन अब बैल भी अपने को सुरक्षित महसूस कर रहे हैं। अब अपराधी खुद थाने में आकर अपने अपराधों को कबूल करते हैं और सजा पाते हैं। महिलाओं से सम्बन्धित अपराधों में कमी आयी है। उनके अनुसार रामराज्य में पहले इनसान तो क्या जानवर भी सुरक्षित नहीं थे लेकिन अब सभी सुरक्षित हैं। वे अपराधों को रोकने के लिए वो हर सम्भव प्रयास कर रहे हैं जो वे कर सकते हैं। अलीगढ़ में, एक सभा को सम्बोधिात करते हुए देश के प्रधान सेवक ने भी कहा कि योगी के रामराज्य में महिलाएँ ज्यादा सुरक्षित हुई हैं।
ऊपर दिए गये बयान सच्चाई से कितना मेल खाते हैं? आइये, देखने की कोशिश करते हैं। एनसीआरबी के अनुसार ऐसा कोई दिन नहीं जाता जिस दिन इस रामराज्य में लड़कियों की इज्जत से न खेला जाता हो। 
हाथरस केस में एक दलित लड़की के साथ सरकार–परस्त दबंगों ने बलात्कार किया। पुलिस और आला अधिकारी बलात्कार की घटना को झुठलाते रहे। कुछ दिनों बाद पीड़िता की मौत हो गयी लेकिन उसे न्याय नहीं मिला। पीड़िता का शव परिवार को न देकर खुद ही आग के हवाले कर दिया गया। परिवार के लोग अपनी बेटी का अन्तिम बार चेहरा भी न देख सके। इसके बावजूद छुटभैया नेता, राज्य के सरकारी, गैर–सरकारी गुण्डे और पुलिस प्रशासन पीड़ित परिवार को धमकाते रहे और परिवार वालों पर केस वापस लेने का दबाव बनाते रहे। बाद में सीबीआई की जाँच में साबित हुआ कि जघन्य बलात्कार हुआ था।
बदायूँ में 55 वर्षीय महिला पूजा करने के लिए मन्दिर गयी। उस महिला के साथ उस मन्दिर के पुजारी ने ही बलात्कार किया। उसके साथ दरिन्दिगी की सभी हदें पार कर दी गयीं। पुलिस प्रशासन भी आरोपियों का ही साथ देता रहा।
इस राज्य की पुलिस की भाषा और आचरण महिलाविरोधी है। पुलिस कर्मियों द्वारा ऐसा माहौल बनाया जाता है जिसमें पीड़िता को लगता है कि मानो वही अपराधी हो। पीड़िता की रिपोर्ट तक दर्ज नहीं की जाती। पुलिस केस वापस लेने की धमकी देना शुरू कर देती है। अपराधियों की ताकत का गुणगान करती है। अगर किसी तरह से रिपोर्ट दर्ज हो भी जाये तो रिश्वत में मोटी रकम की माँग की जाती है। 
कहा जा सकता है कि महिलाओं को सुरक्षित होना है तो उनको जन्म लेने से बचना होगा। वे केवल उन 9 महीनों तक ही सुरक्षित रह सकती हैं जब वे अपनी माँ के पेट में हों।    
सच यह है कि उत्तर प्रदेश में महिलाओं को सुरक्षा देने वाली व्यवस्थाओं और योजनाओं को बन्द किया जा रहा है। इसके लिए हम महिला हेल्पलाइन ‘181’ को ले सकते हैं। इस हेल्पलाइन का उद्देश्य महिलाओं को तंग करने वाले अपराधियों को रोकना था, तत्काल महिलाओं को सुरक्षा मुहैया कराने का था। इस हेल्पलाइन में लगभग 365 महिला कर्मचारी काम करती थीं। इन्हें लगभग 15 महीनों से वेतन नहीं दिया गया। इन्होंने अपनी समस्या को अपने आला अधिकारी, सम्बन्धित मंत्री और मुख्यमंत्री के सामने रखा। लेकिन कोई सुनवाई नहीं हुई। फिर इन्होंने कई दिनों तक लखनऊ में आन्दोलन किया। इनमें से एक आन्दोलनकारी को आर्थिक तंगी के चलते आत्महत्या करने पर मजबूर होना पड़ा। इसके बावजूद सरकार ने बिना नोटिस दिये हेल्पलाइन बन्द कर दिया। उन महिलाओं के वेतन का क्या हुआ कुछ पता नहीं। वे अपना जीवन कैसे गुजार रही होंगी इसका हम अन्दाजा भी नहीं लगा सकते। आप समझ सकते हैं कि राज्य सरकार महिलाओं के प्रति कितना सम्वेदनशील है?
रामराज्य का इतिहास देखेंगे तो हम पाएँगे कि वह महिला विरोधी थी। उस समय सीता को अपने चरित्र की पवित्रता साबित करने के लिए अग्नि परीक्षा देनी पड़ी थी। लेकिन राम ने ऐसी कोई परीक्षा नहीं दी थी। उस समाज में तय था पुरुष जन्म से मरने तक हमेशा पवित्र होते हैं। इसलिए वह राज्य पुरुष हितैषी था। बाकी आप आज के रामराज्य की तस्वीर से तुलना कर सकते हैं। आप पाएँगे कि यह सरकार कहीं ज्यादा महिला विरोधी है।
हालाँकि दुनिया दुखों से भरी है, लेकिन यह उससे उबरने की कहानियों से भी भरी हुई है–––
हेलेन केलर (वे स्वयं अंधी, गूंगी और बहरी थीं परन्तु एक महान लेखिका और सामजिक कार्यकर्ता थीं) 

–– प्रीति 

Friday, January 7, 2022

लॉकडाउन में छिनती नौकरियाँ



अन्तरराष्ट्रीय श्रम संगठन (2021) की रिपोर्ट के अनुसार भारत में महिलाएँ पुरुषों की अपेक्षा 9–6 गुना ज्यादा काम करती है। पर उन्हें इस काम के बदले कम वेतन मिलता है। कोरोना महामारी में नौकरियाँ बहुत तेजी से घटीं जिससे लाखों करोड़ों की संख्या में लोग बेरोजगार हुए हैं। लेकिन सबसे ज्यादा महिलाएँ बेरोजगार हुई हैं।
कोरोना महामारी में महिलाओं की स्थिति इतनी ज्यादा खराब हुई है कि चारों तरफ हताशा और निराशा के अलावा कुछ नजर नहीं आ रहा है। हर जगह पर हर तबके की महिलाओं का शोषण हो रहा है। फिर वे चाहे सफाई कर्मचारी हों या खेती और दिहाड़ी मजदूरी करने वाली या घरेलू काम करने वाली महिलाएँ हों। लॉकडाउन में नौकरी छूट जाने पर वे मानसिक और भावनात्मक रूप से टूट गयीं, पैसे न होने के चलते उन्हें भारी मुश्किलों और चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है।
ऐसी ही एक घटना हमारे पड़ोस में एक 45 साल की महिला के साथ घटी, जिनके 3 बच्चे हैं। पति और बड़ा बेटा मजदूरी करते थे, लॉकडाउन में दोनों की नौकरी छूट गयी और पति की कोरोना से मौत भी हो गयी। पति की मृत्यु के बाद वे बहुत बीमार रहने लगीं, तंगी के चलते इलाज के लिए भी पैसे नहीं थे। उनकी हालत दिन पर दिन बिगड़ती जा रही थी और ऊपर से घर–गृहस्थी और बच्चों की जिम्मेदारी। लॉकडाउन के बाद भी उनके  बेटे को वापस नौकरी पर नहीं बुलाया गया, जिसके कारण घर की आर्थिक स्थिति बहुत ही बिगड़ गयी, यहाँ तक कि खाने के भी लाले पड़ गये। मुश्किल से उस परिवार का गुजारा हुआ। हम समझ सकते हैं कि उस माँ पर क्या गुजर रही होगी जिसकी आँखों के सामने उसके बच्चे भूख से तड़प रहे थे। 
यह केवल एक घर की कहानी नहीं है। अगर पूरे देश के आँकड़ों पर गौर करें तो हालात इससे भी बदतर है। इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट के अनुसार मार्च 2021 में 83 प्रतिशत महिलाओं को नौकरियों से बाहर किया गया, जबकि पुरुषों के लिए यह आँकड़ा 31–6 प्रतिशत है और लॉकडाउन के बाद की स्थिति में अक्टूबर–नबम्बर में महिलाओं की बेरोजगारी दर बढ़कर 54–7 प्रतिशत हो गयी, वहीं पुरुषों की बेरोजगारी दर 23–2 प्रतिशत ही थी। कोरोना से पहले महिलाओं की बेरोजगारी दर 25–6 प्रतिशत थी जबकि पुरुषों की 8–7 प्रतिशत थी।
सेंटर फॉर मॉननिटरिंग इंडियन इकोनामी के आँकड़ों से पता चलता है कि कोरोना की दूसरी लहर में बेरोजगारी दर में बेतहाशा बढ़ोत्तरी हुई है। भारत में कोरोना काल में फरवरी 2021 में 1–89 करोड़ लोगों को नौकरियों से हाथ धोना पड़ा जिससे बेरोजगारी दर 27 प्रतिशत हो गयी, जबकि पहली लहर 2020 में बेरोजगारी दर 20–9 प्रतिशत थी।
लॉकडाउन के चलते 2020 में देश के करीब 53 हजार होटलों व 5 लाख रेस्टोरेंटों में ताला पड़ गया। पूरे देश में इससे करीब 3 करोड़ लोगों का रोजगार प्रभावित हुआ है। उत्तर प्रदेश के करीब 20 हजार तथा लखनऊ के लगभग 850 होटल बन्द हो गये, जिसके कारण मजदूरी करने वाली महिलाएँ, सफाई कर्मचारियों, कारखानों में काम करने वाली महिलाएँ, बच्चों की देखरेख करने वाली आया, छोटे–छोटे ढाबों, होटलों, होस्टलों में खाना बनाने वाली महिलाओं की नौकरियाँ उजड़ गयीं, जिससे उन्हें अनेकों परेशानियों का सामना करना पड़ा। घर का खर्चा, बच्चों की पढ़ाई, मकान का किराया, बिजली का बिल जैसी जरूरतें पूरी करने में वे पूरी तरह से असमर्थ रहीं। 
नौकरियों के लिए गाँव से आने वाली महिलाएँ दिहाड़ी या मासिक वेतन पर उत्पादों की पैकिंग और कपड़ों की सिलाई–बुनाई जैसे काम करती हैं। इससे वे अपने गृहस्थ जीवन की जरूरतों की भरपायी करती हैं, लेकिन इस महामारी से लगे लॉकडाउन के कारण इन्हें अपनी नौकरी के साथ–साथ घर का किराया न दे पाने के कारण कई मकान मालिकों ने घर से बाहर निकाल दिया। 
यूनिवर्सिटी ऑफ मेनचेस्टर ग्लोबल डेवलपमेंट इंस्टिट्यूट की प्रोफेसर बीना अग्रवाल के अनुसार गुजारे भर कमाई वाली गरीब महिलाओं की छोटी–मोटी बचत भी खत्म हो गयी। बहुत से परिवार कर्ज के जाल में फँस गये और उन्हें अपनी सीमित सम्पत्ति जैसे कि छोटे जानवर, आभूषण और यहाँ तक कि अपने औजार या गाड़ियाँ बेचने के लिए मजबूर होना पड़ा है। सम्पत्ति का नुकसान उनके आर्थिक भविष्य को गम्भीर खतरे में डाल रहा है और उन्हें विनाश के कगार पर ला पटका है।
वास्तव में, पुरुषों की नौकरी जाने पर भी महिलाएँ गहरे रूप से प्रभावित होती हैं। उदाहरण के लिए, बेरोजगार पुरुष प्रवासियों के अपने गाँवों में लौटने से स्थानीय नौकरियों में भीड़भाड़ हो गयी है। छोटे कस्बों में पहले जो काम औरतें करती थीं वे अब पुरुषों के हिस्से आ गयी हैं। महिलाओं के घर के काम का बोझ–– खाना बनाना, बच्चों की देखभाल, जलावन की लकड़ी और पानी लाना भी पुरुषों के लौटने से काफी बढ़ गया है। भोजन की कमी का बोझ भी महिलाओं पर ही पड़ा है।
तो हम यह देख सकते हैं कि किस तरह से पिछले दो सालों से लॉकडाउन में लोगों ने कितनी नौकरियाँ गवाई होंगी। जो भी बची–खुची नौकरियाँ थी, वे कोरोना काल की दूसरी लहर के बीच नौकरियों के संकट को उजागर करती है। 
मुनाफाखोर व्यवस्था दिन पर दिन रोजगार खत्म करती जा रही है। हमें इसे रोकने के लिए संगठित होकर सवाल उठाने की जरूरत है।

–– कुमकुम

पितृसत्ता की परतें


 
आज अगर महिलाएँ पढ़–लिख कर अपने बलबूते पर आगे आ रही हैं तो वहाँ भी स्त्री–पुरुष असमानता मौजूद है। आँकड़ों के ढेर पर बैठ कर इस बात की कल्पना करना आसान है कि देश की आर्थिक प्रगति कैसे हो रही है। बहुत सारी बातों की अनदेखी करके अक्सर भारत के आधुनिक चेहरे को दिखाया जाता रहा है। ऐसा चेहरा, जिसमें प्रगति की चमक है और विकास की रेखाओं से आभामण्डल शोभित है। उद्योग–व्यापार और अन्य क्षेत्रों में आँकड़े कह रहे हैं कि हमारा देश भविष्य में दुनिया में सिरमौर बन कर उभरेगा। लेकिन इस तस्वीर में महिलाओं की जगह कहाँ है?
भारतीय समाज में पितृसत्ता के अनेक रूप हैं जिन्हें विभिन्न स्तरों पर देखा जा सकता है। पितृसत्ता एक व्यवस्था के रूप में किस तरह से काम करती है, इसे समझने के लिए इसकी विचारधारा को अहम माना गया है। विचारधारा के तौर पर यह महिलाओं में ऐसी सहमति पैदा करता है, जिसके तहत महिलाएँ पितृसत्ता को बनाये रखने में मदद करती हैं, क्योंकि समाजीकरण के जरिये वे खुद पुरुष वर्चस्व को आत्मसात करके उसके प्रति अपनी सहमति देती हैं। उनकी इस सहमति को कई तरीकों से हासिल किया जाता है। मसलन, उत्पादन संसाधनों तक उनकी पहुँच का न होना और परिवार के मुखिया पर उनकी आर्थिक निर्भरता। इस आधार पर यह समझना जरूरी हो जाता है कि पितृसत्ता सिर्फ एक वैचारिक व्यवस्था नहीं है, बल्कि इसका भौतिक आधार भी है।
पितृसत्ता में महिलाओं को शक्ति और वर्चस्व के साधनों से वंचित करने पर उनकी सहमति आसानी से हासिल कर ली जाती है। फिर जब महिलाएँ पितृसत्ता के इशारों पर जिन्दगी जीने लगती हैं तो उन्हें वर्गीय सुविधाएँ मिलने लगती हैं। उन्हें मान–सम्मान के तमगों से भी नवाजा जाता है। दूसरी तरफ जो महिलाएँ पितृसत्ता के कायदे–कानूनों और तौर–तरीकों को अपना सहयोग या सहमति नहीं देती हैं, उन्हें बुरा करार दे दिया जाता है और आमतौर पर सम्पत्ति और सुविधाओं से बेदखल कर दिया जाता है।
मुझे अक्सर यह लगता है कि सामाजिक रूप से अब भी हम काफी पिछड़े हैं। स्त्री स्वतंत्रता के नाम पर शिक्षा और नौकरी करने की छूट? इस आजाद देश में अपनी इच्छा से पढ़ने, नौकरी करने, न करने, विवाह करने या न करने की स्वतंत्रता जो हमारा संविधान हमें सालों पहले दे चुका है, वहाँ यह अनुमति का प्रश्न आता कहाँ से है? इस देश में स्त्री शिक्षा और स्वतंत्रता का आलम यह है कि लड़कियाँ खुद इस यह बताते हुए गर्व महसूस करती हैं कि मेरे घर वालों या ससुराल वालों ने मुझे आगे पढ़ने, नौकरी करने, साड़ी के बजाय सूट या जीन्स पहनने आदि को स्वीकार कर लिया है। वास्तव में यह पितृसत्ता के प्रति उनका बिना सोचे–समझे समर्पण और समर्थन है।
अपने जीवन के फैसले लेने और उसे किस तरह जीना है, यह तय करने का एक स्त्री को उतना ही अधिकार है, जितना एक पुरुष को है। विवाह, परिवार संस्था में घर–परिवार और बच्चों या घरेलू कार्यों की जिम्मेदारी जितनी स्त्री की है, उतनी ही पुरुष की भी हो। विडम्बना यह है कि स्त्री अगर आर्थिक रूप से स्वतंत्र है, तो भी वह भारतीय समाज के शोषण चक्र से मुक्त नहीं है।
नये जमाने के अनुसार अब महिलाओं की स्थिति में भी बदलाव की सम्भावना नजर आ रही है। देश के सेवा क्षेत्र में महिलाएँ अपनी हिस्सेदारी ज्यादा से ज्यादा निभाने का प्रयत्न कर रही हैं। अक्सर यह देखने में आता है कि घर में अगर लड़का और लड़की दोनों हैं, तो लड़के को नौकरी के लिए दूसरे शहर में भेजने में भी कोई समस्या नहीं रहती और लड़की को बहुत हुआ तो उसी शहर में छोटी–मोटी नौकरी करने के लिए भेज दिया जाता है। वह भी काफी मान–मनौव्वल के बाद।
बहरहाल, सभी ओर छाये धुन्ध के बीच उम्मीद की किरणें भी कभी–कभार दिख जाती हैं। मुम्बई में एक टैक्सी सेवा देने वाली कम्पनी ने अपने यहाँ केवल महिला ड्राइवरों को ही रखा है। इसके अलावा, एक संस्था ने घरेलू सहायिकाओं को अपने यहाँ नौकरी पर रखा है और वह संगठित तौर पर यह काम करने वाली पहली कम्पनी बन गयी है। कई कम्पनियों ने महिलाओं को सुविधाजनक समय के मुताबिक काम करने की अनुमति देना आरम्भ कर दिया है। लेकिन विचार से स्तर पर बराबरी आधारित बदलाव जब तक नहीं होगा, केवल आर्थिक स्वतंत्रता पितृसत्ता के ढाँचे को बदलने के लिहाज से कोई खास नतीजे नहीं देने वाली।
लेकिन पितृसत्ता के ढाँचे में बदलाव अपने आप नहीं होगा। इसके लिए चेतनासम्पन्न संगठन की जरूरत होगी और पितृसत्ता पर निरन्तर प्रहार की जरूरत होगी। 
(जनसत्ता से साभार) 
–– गरिमा सिंह