Saturday, March 7, 2020

भूमिहीन महिलाएँ




आदिम काल में जब आदिमानव अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे थे तो ठीक उसी वक्त लड़ाई की एक कमान महिलाओं के हाथ में थी। कृषि की अविष्कारक महिलाएँ ही मानी जाती हैं। जब मानव सभ्यता शुरू हुई तो पुरुष शिकार पर जाते थे और महिलाएँ जंगल से बीज लाती थीं और उनको घर के पास उगा कर खाने के लिए तैयार करती थीं। लेकिन बीज संरक्षक महिला और खेती की जननी अब भूमिहीन किसान है, क्योंकि कमजोर भूमि सुधार नीति के चलते महिला किसानों का हक मारा जा रहा है। 
2013 में भूमि सुधार नीति में महिलाओं को पैतृक सम्पति पर हक की बात कही गयी थी। मगर सदियों से चलती आ रही कुरीति का तोड़ इस भूमि सुधार नीति में भी नहीं था। एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी पुत्रों को सम्पति सौंपी जा रही है, कुछ ने इसको परम्परा के नाम पर किया और कुछ ने धर्म के नाम पर। मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने भी महिलाओं को कृषि भूमि के अधिकार से वंचित रखा है। ऑक्सफैम के अनुसार ग्रामीण भारत की 85 प्रतिशत किसान महिलाएँ हैं। मगर केवल 13 प्रतिशत कृषि भूमि उनके नाम पर पंजीकृत है। सिर्फ समाज से ही नहीं बल्कि सरकारी तन्त्र और सरकार से भी लड़ना है, किसान क्रेडिट कार्ड सिर्फ किसानों के बन सकते हैं। महिलाएँ तो खेतों में मजदूर हैं। तत्कालीन वित्तमंत्री अरुण जेटली ने बजट पेश करते हुए कई बार “प्रिय किसान भाइयो” कहा। ऐसा कहने वाले सदन के वे पहले नेता नहीं थे। वास्तव में महिला किसानों के अस्तित्व को नकार देना एक पूरी अर्थव्यवस्था को ही नकार देने जैसा है। 
महिलाओं की असमान आय की बात पहले से ही बहुत कम उठायी जाती है और अगर कहीं सुनायी भी देती है तो ज्यादातर द्वितीयक क्षेत्र और सेवा क्षेत्र से। प्राथमिक क्षेत्र की कृषि मजदूरांे की आवाज शायद ही इन मंचों से उठायी गयी।
1957 की बात है विश्वनाथ जो मुरादनगर के पास थाना अध्यक्ष थे उनके गाँव यह खबर पहुँच गयी कि उनकी ड्यूटी पर मौत हो गयी है। उनके घर में उनकी पत्नी जो केवल 32 साल की थीं वह विधवा हो गयीं। घर में 5 बच्चे, जिनमें 2 बेटियाँ और 3 बेटे थे। सबसे छोटा बेटा 2 साल का था। विश्वनाथ की पत्नी कल्याणी की जिन्दगी उसी तरह चलती रही। हर रोज कल्याणी का काम था सुबह 4 बजे उठ के अपनी गायों की सफाई करके चारा काटना, दूध निकलना, घर की सफाई करना, घरवालों के लिए दिन का खाना बनाना, बच्चों को स्कूल भेजना, फिर नाश्ता करके खेतो में चले जाना जहाँ कमरतोड़ मेहनत करना। दिन में गायों को जंगल लेकर जाना और जंगल से कई किलो लकड़ियाँ और घास लेकर आना और शाम को घर लौट कर फिर से गायों का दूध निकालना और फिर रात के खाने की तैयारी करना। इस बीच छोटे बेटे का भी ख्याल रखना। करीब 10 बजे अपनी कमर सीधी करना। पेंशन करीब 1 साल बाद मिलनी शुरू हुई। इस बीच कल्याणी की एक बेटी की कुपोषण की वजह से मौत हो गयी। अ/िाकांश महिलाओं की दिनचर्या किसी भी देश के श्रम कानून को शर्मसार करने के लिए काफी है। सातांे दिन और 12 महीने बिना किसी छुट्टी के कड़ी मेहनत करती हैं वह भी बिना किसी नियमित वेतन के। 
भारत की कृषि और पशुपालन महिलाओं के बिना असम्भव है। भारत के प्राथमिक क्षेत्र की रीढ़ महिलाएँ हैं। 2019 से पहले और आज 2019 में महिलाओं की स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया है। कल्याणी खेतों में सुबह से शाम तक मजदूरी करती थी। मगर वो किसान नहीं थी। आज भी महिलाओं के नाम पर बहुत कम भूमि पंजीकृत है। आज भी पुरुष बीड़ी पीते हुए पत्ते खेलते हुए गाँव की किसी चाय की दुकान के पास महफिल सजाये दिख जायेंगे क्योंकि वे जमीन के मालिक हैं। पुरुषों को जहाँ मालिकाना हक विरासत में मिला है वहीं महिलाओं को एक बहुत लम्बी लड़ाई के लिए तैयार होने की जरूरत है।

–– इना बहुगुणा

अभी संघर्ष बाकी है





दुनिया भर में महिलाओं की जिन्दगी में कितना विरोधाभास है––– एक तरफ दो अन्तरिक्ष वैज्ञानिक महिलाओं ने धरती से लाखों किलोमीटर दूर अन्तरिक्ष में चल कर इतिहास रचा तो दूसरी ओर भारत में पति की लम्बी आयु के लिए करवा चैथ का व्रत रखने के बाद एक महिला अपने ही पति के हाथों कुल्हाड़ी से काट दी गयी। स्वीडन की एक बच्ची ग्रेटा थर्नबर्ग पिछले कुछ महीनों से अपनी मर्जी से स्कूल की पढ़ाई छोड़ कर दुनिया के तमाम मुल्कों में घूम–घूम कर गहराते पर्यावरण संकट पर सरकारों को फटकार रही है तो ठीक उसी समय यहाँ अपनी पढ़ाई जारी रखने के लिए लडकियाँ हर रोज कदम–कदम पर संघर्ष कर रही हैं। यहाँ तो हाल यह है कि बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय जैसे विश्व प्रसिद्ध संस्थान की लड़कियों को छेड़छाड़ करने वाले अध्यापक के खिलाफ केस दर्ज करने के लिए हफ्तों प्रदर्शन करना पड़ता है और एक प्रतिष्ठित कॉलेज की छात्राओं को संस्कारी दिखने के लिए घुटने के नीचे तक की कुर्ती पहने का फरमान जारी किया जाता है। इस तरह संस्कार निभाने की सारी जिम्मेदारी लड़कियों और महिलाओं के कन्धों पर डाल कर यह पितृसत्तावादी समाज “भारमुक्त” होकर हाथ में धर्म और संस्कारों का कोड़ा लिए स्त्री जाति को सुधारने के महाअभियान पर फिर से निकल पड़ता है।
सच तो यह है कि दुनिया की जो सभ्यताएँ और धर्म जितने पुराने हैं वहाँ के समाज उतने ही पिछड़े और जकड़न भरे हैं। हजारों सालों में वहाँ धर्म, राजनीति, संस्कार, रीति–रिवाज, आचार–संहिताएँ, सब ने मिलकर एक ऐसा सजावटी आवरण तैयार किया है जिसमें लिपटा समाज बाहर से बड़ा ‘संस्कारी’ लगता है पर उसके भीतर घोर सडांध और बजबजाहट होती है। ये सब मिलकर पितृसत्ता को बनाये रखने में कोई कसर नहीं छोड़ते। जो भी घटना या बात पितृसत्ता को बनाये रखने में उपयोगी हो सकती है उसे ‘संस्कार’ कह कर बचाये रखा जाता है चाहे वह व्रत हो, आचार–व्यवहार हो, पिता की सम्पत्ति में बँटवारा हो, घरेलू काम हों या बाहर के काम, प्रेम या विवाह का मसला हो, सौन्दर्यबोध या कपड़े पहनने का मामला हो, सब ऐसे संस्कारी चश्मे से देखे जाते हैं जिसमें लड़कियों और महिलाओं के लिए सिर्फ बन्धन ही बन्धन हैं।
आजादी के बाद के कुछ दशकों में स्वतन्त्रता संघर्ष के ताप, औरतों के पक्ष में बने कानूनों, आर्थिक क्षेत्रों में मिलने वाले थोड़े अवसरों के कारण और आज की तुलना में थोड़े ही सही पर कुछ राजनीतिक आदर्शवाद, और सबसे बड़ी बात महिला आन्दोलन के जुझारू संघर्षों के कारण कहीं न कहीं स्थिति थोड़ी बेहतर हुई थी। परन्तु पिछले कुछ सालों में तो फिर से महसूस होने लगा है कि हमने जितना कुछ पाया उसे एक–एक कर छीना जा रहा है। लड़कियों और महिलाओं के लिए इतना असुरक्षित समाज आजादी के बाद से कभी नहीं रहा। यह असुरक्षा तब और खतरनाक हो जाती है जब सत्तासीन राजनीतिक दल के बलात्कारी नेताओं को बचाने में कोई कसर नहीं छोडी जाती। ‘संस्कार’ तब क्या शर्म से नहीं गड़ जाता जब बलात्कारी के पक्ष में जुलूस और रैलियाँ निकाली जाती हैं ? तब संस्कार कहाँ जाता है जब सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोग कुछ नहीं कहते और बलात्कार पीड़िता और उसके परिवार के मनोबल को तोड़ने के लिए सभी आपराधिक तरीके अपनाये जाते हैं ?
हम उन तमाम बलात्कार पीड़िताओं और उनके परिवारों के जज्बे और उनकी जिजीविषा को सलाम करते हैं जो घोर राजनीतिक–सामाजिक–प्रशासनिक दबावों के बावजूद अपने ऊपर हुए शारीरिक–मानसिक अत्याचार से टूटी नहीं और अपराधी का नंगा चेहरा समाज के सामने लाने में सफल रहीं या आज भी संघर्षरत हैं।
आज संसद का उद्देश्य और लक्ष्य बदल चुके हैं और उसके साथ ही राजनीतिक संस्कृति भी बदल चुकी है। अब जनता के हित केन्द्र में नहीं हैं। आगे बढ़ने के लिए सही–गलत, नैतिक–अनैतिक कुछ भी करना अब गलत नहीं माना जाता, इस स्वार्थी व्यवस्था ने सत्ता का हिस्सा बन चुकी महिला सांसदों को भी कितना कमजोर और छोटा बना दिया है जो बलात्कार की जघन्य घटनाओं पर चुप्पी साध लेती हैं ताकि उनकी पार्टी पर कोई आँच न आये। संसद में वे महिलाओं की प्रतिनिधि नहीं बल्कि पार्टी की सेविका की तरह काम करती हैं। दु:ख और क्षोभ की बात है कि बलात्कार जैसी घटनाओं पर चुप्पी साध कर वे पीड़िता के पक्ष में नहीं बल्कि बलात्कारी और कुल मिलाकर महिला विरोधी संस्कृति और राजनीति के साथ खड़ी हो जाती हैं। उनका महिला सशक्तिकरण पर लम्बे–लम्बे भाषण देना घिनौना लगता है।
दूसरी ओर देखें तो पिछले दशकों में धन और पूँजी की नीतियों के कारण एक ऐसी अर्थव्यवस्था तैयार हुई है जिसमें चरम स्वार्थ और लोभ–लाभ के लिए कुछ भी किया जा सकता है। इसका उदाहरण बीड, महाराष्ट्र में देखने को मिला जहाँ गन्ना खेतों में काम करने वाली महिलाओं की माहवारी को रोकने के लिए, उनके गर्भाशय निकाल लिए गये ताकि वे बिना किसी रूकावट के काम कर सकें–––! यह खबर अघोषित सेंसर से बच कर बाहर आ गयी। पर्दे के पीछे क्या हो रहा है इसका अन्दाजा ही लगाया जा सकता है। सेरोगेसी (किराये की कोख) के फलते–फूलते बाजार के बारे तो सभी को पता ही है।
यहाँ एक और महत्त्वपूर्ण बात, कश्मीर की महिलाओं की बात। पिछली कई सरकारों ने उन पर कम अत्याचार नहीं किये। उन पर सामूहिक बलात्कार की न जाने कितनी ही घटनाएँ हैं। वहाँ गायब कर दिये गये लोगों की बेसहारा पत्नियों की भारी तादाद है। पिछले कुछ महीनों में वहाँ जो भी चल रहा है उसके महिलाओं पर किस–किस तरह के शारीरिक–मानसिक–भावनात्मक प्रभाव पड़ रहे होंगे यह समझना कठिन नहीं है। कुछ रिपोर्ट आने भी लगी हैं।
उधर सुदूर ईरान की कहानी अलग है। वहाँ 40 साल के कड़े संघर्ष के बाद महिलाओं को स्टेडियम में जाकर फुटबॉल मैच देखने की अनुमति मिली। अभी उन्हें किस–किस मोर्चे पर लड़ना है इसका अन्दाज सहज ही लगाया जा सकता है। वहीं जमैका की एथलीट शैली एन फ्रेसर ने सबको अचरज में डाल दिया, जब बेटे को जन्म देने के कुछ ही महीने बाद विश्व 100 मीटर दौड़ प्रतियोगिता में उसने पुरुषों का रिकॉर्ड तोड़ फिर से यह साबित कर दिया कि महिलाएँ नैसर्गिक रूप से किसी से कम नहीं हैं। जैसे महिला आन्दोलन की सबसे महत्त्वपूर्ण नेताओं में से एक, सीमोन द बोउवार ने कहा था, “औरत पैदा नहीं होती बना दी जाती है,” हम कह सकते हैं कि “औरत हारती नहीं, हरा दी जाती है।”
औरतें जन्म देती हैं इसलिए धरती और पर्यावरण को भी बेहतर समझती हैं और उसे बचाने की लड़ाई में पुरुषों से कहीं आगे हैं, भारत में ही नहीं पूरी दुनिया में। चाहे वे अमेजन के जंगलों में लगी आग हो, या कनाडा में साफ पानी के लिए संघर्ष या ऑस्ट्रेलिया में कोयला खदानों द्वारा पर्यावरण विनाश, या फिर यहाँ भारत में तटीय इलाकों से लेकर पहाड़ों तक और झारखण्ड एवं छतीसगढ़ समेत तमाम आदिवासी इलाकों में पर्यावरण को बचाने की लड़ाई, आज महिलाएँ जुझारू तरीके से लड़ रही हैं।
वास्तव में पितृसत्ता के मजबूत बन्धनों के बावजूद महिलाओं ने बार–बार साबित किया है कि वे बेहद जिम्मेदार, संवेदनशील और समझदार नागरिक हैं। अपने संघर्षों से उन्होंने न केवल स्वयं को अपेक्षतया स्वतन्त्र किया है और स्वावलम्बी बनाया है बल्कि पूरे मानव समाज को भी आगे बढ़ाया है। मगर यह लड़ाई अभी अधूरी है। अभी उसे और लड़ा जाना बाकी है।
- आशु वर्मा