आदिम काल में जब आदिमानव अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे थे तो ठीक उसी वक्त लड़ाई की एक कमान महिलाओं के हाथ में थी। कृषि की अविष्कारक महिलाएँ ही मानी जाती हैं। जब मानव सभ्यता शुरू हुई तो पुरुष शिकार पर जाते थे और महिलाएँ जंगल से बीज लाती थीं और उनको घर के पास उगा कर खाने के लिए तैयार करती थीं। लेकिन बीज संरक्षक महिला और खेती की जननी अब भूमिहीन किसान है, क्योंकि कमजोर भूमि सुधार नीति के चलते महिला किसानों का हक मारा जा रहा है।
2013 में भूमि सुधार नीति में महिलाओं को पैतृक सम्पति पर हक की बात कही गयी थी। मगर सदियों से चलती आ रही कुरीति का तोड़ इस भूमि सुधार नीति में भी नहीं था। एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी पुत्रों को सम्पति सौंपी जा रही है, कुछ ने इसको परम्परा के नाम पर किया और कुछ ने धर्म के नाम पर। मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने भी महिलाओं को कृषि भूमि के अधिकार से वंचित रखा है। ऑक्सफैम के अनुसार ग्रामीण भारत की 85 प्रतिशत किसान महिलाएँ हैं। मगर केवल 13 प्रतिशत कृषि भूमि उनके नाम पर पंजीकृत है। सिर्फ समाज से ही नहीं बल्कि सरकारी तन्त्र और सरकार से भी लड़ना है, किसान क्रेडिट कार्ड सिर्फ किसानों के बन सकते हैं। महिलाएँ तो खेतों में मजदूर हैं। तत्कालीन वित्तमंत्री अरुण जेटली ने बजट पेश करते हुए कई बार “प्रिय किसान भाइयो” कहा। ऐसा कहने वाले सदन के वे पहले नेता नहीं थे। वास्तव में महिला किसानों के अस्तित्व को नकार देना एक पूरी अर्थव्यवस्था को ही नकार देने जैसा है।
महिलाओं की असमान आय की बात पहले से ही बहुत कम उठायी जाती है और अगर कहीं सुनायी भी देती है तो ज्यादातर द्वितीयक क्षेत्र और सेवा क्षेत्र से। प्राथमिक क्षेत्र की कृषि मजदूरांे की आवाज शायद ही इन मंचों से उठायी गयी।
1957 की बात है विश्वनाथ जो मुरादनगर के पास थाना अध्यक्ष थे उनके गाँव यह खबर पहुँच गयी कि उनकी ड्यूटी पर मौत हो गयी है। उनके घर में उनकी पत्नी जो केवल 32 साल की थीं वह विधवा हो गयीं। घर में 5 बच्चे, जिनमें 2 बेटियाँ और 3 बेटे थे। सबसे छोटा बेटा 2 साल का था। विश्वनाथ की पत्नी कल्याणी की जिन्दगी उसी तरह चलती रही। हर रोज कल्याणी का काम था सुबह 4 बजे उठ के अपनी गायों की सफाई करके चारा काटना, दूध निकलना, घर की सफाई करना, घरवालों के लिए दिन का खाना बनाना, बच्चों को स्कूल भेजना, फिर नाश्ता करके खेतो में चले जाना जहाँ कमरतोड़ मेहनत करना। दिन में गायों को जंगल लेकर जाना और जंगल से कई किलो लकड़ियाँ और घास लेकर आना और शाम को घर लौट कर फिर से गायों का दूध निकालना और फिर रात के खाने की तैयारी करना। इस बीच छोटे बेटे का भी ख्याल रखना। करीब 10 बजे अपनी कमर सीधी करना। पेंशन करीब 1 साल बाद मिलनी शुरू हुई। इस बीच कल्याणी की एक बेटी की कुपोषण की वजह से मौत हो गयी। अ/िाकांश महिलाओं की दिनचर्या किसी भी देश के श्रम कानून को शर्मसार करने के लिए काफी है। सातांे दिन और 12 महीने बिना किसी छुट्टी के कड़ी मेहनत करती हैं वह भी बिना किसी नियमित वेतन के।
भारत की कृषि और पशुपालन महिलाओं के बिना असम्भव है। भारत के प्राथमिक क्षेत्र की रीढ़ महिलाएँ हैं। 2019 से पहले और आज 2019 में महिलाओं की स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया है। कल्याणी खेतों में सुबह से शाम तक मजदूरी करती थी। मगर वो किसान नहीं थी। आज भी महिलाओं के नाम पर बहुत कम भूमि पंजीकृत है। आज भी पुरुष बीड़ी पीते हुए पत्ते खेलते हुए गाँव की किसी चाय की दुकान के पास महफिल सजाये दिख जायेंगे क्योंकि वे जमीन के मालिक हैं। पुरुषों को जहाँ मालिकाना हक विरासत में मिला है वहीं महिलाओं को एक बहुत लम्बी लड़ाई के लिए तैयार होने की जरूरत है।
–– इना बहुगुणा