एक
दिन मेरी एक पड़ोसन आयी और खुशी से बोली कि आज मेरी भैंस ब्याई है। मेरी सास ने
पूछा कि क्या दिया है। उसने बताया कि कटिया। यह बात सुनकर लगा कि अगर जानवरों में
लड़की आये तो बहुत अच्छा। वह वंश को आगे बढ़ायेगी और आर्थिक फायदा देगी। लेकिन अगर
हम इनसान की बात करंे तो लड़की के जन्म पर मातम मनाया जाता है। माँओं को बेइज्जत
किया जाता है। लड़की होने का मतलब है कि उसके पैदा होते ही उसके सारे खर्च की जिम्मेदारी
पिता को ही उठानी पड़ेगी और पिता के मरने के बाद भाई को। उसे एक बोझ माना जाता है।
क्या यह मुनाफे से संचालित सोच नहीं है? यहाँ
हर रिश्ता नफा–नुकसान देखकर तय होता है। शायद इसी नफे–नुकसान की इनसानियत विरोधी सोच के चलते बेटियों की संख्या लगातार घटती जा
रही है।
लिंग का अनुपात का अर्थ होता है–– किसी क्षेत्र विशेष में स्त्री और पुरुष की संख्या का अनुपात। किसी भौगोलिक क्षेत्र में प्रति हजार पुरुषों के मुकाबले स्त्रियों की संख्या को इसका मानक माना जाता हैंं। एक अध्ययन में भारत में कम लिंग अनुपात वाले 244 जिलों का पता चला है। इन जिलों में लिंग अनुपात गिरकर राष्ट्रीय स्तर से भी नीचे चला गया है जो 918 हैं। |
‘स्वास्थ्य, राज्य और प्रगातिशील भारत’ नाम की एक रिपोर्ट से पता चला है कि देश के इक्कीस बड़े राज्यों में से
सत्रह में लिंग अनुपात में भारी गिरावट हुई है। रिपोर्ट के मुताबिक जन्म के समय
लिंग अनुपात मामले में गुजरात की हालत सबसे खराब है, जहाँ यह
अनुपात 907 से घटकर 854 रह गया है। कन्याभू्रण हत्या के लिए पहले से ही बदनाम
हरियाणा पैतीस अंकांे की गिरावट के साथ दूसरे स्थान पर हैै और यह अनुपात लगातार
घटता जा रहा है।
कन्याभू्रण
हत्या को रोकने के लिए कई सरकारी योजनाएँ चलायी जा रही हंै। इनमें बेटी बचाओ–बेटी पढ़ाओ, लाडली योजना और सेल्फी विद डॉटर जैसे
अभियान शामिल हंै। इन योजनाओं के कोई आशाजनक परिणाम नहीं आये हैं। लिंग अनुपात
लगातार बिगड़ता जा रहा है।
आखिर
लिंग अनुपात क्यों नहीं सुधर रहा है? क्या
हमारे समाज की पितृसत्तात्मक मानसिकता में बदलाव नहीं आ रहा है? लिंग परीक्षण के खिलाफ देश में कड़े कानून हैं। इसके बावजूद लिंग परीक्षण
के जरिये भ्रूण में ही बेटे–बेटी की पहचान कर ली जाती है और
बेटियों को मार दिया जाता है। पिछले कुछ वर्षों से प्रतिवर्ष देश में तीन लाख
कन्याभ्रूण नष्ट कर दिये गये हैं। इससे महिलाओं की संख्या पुरुषों की तुलना में
करीब पाँच करोड़ कम है। इसमें बदलाव लाने और लड़कियों की दशा सुधारने के लिए अभियान
चलाये गये हैं। लेकिन इन सब के बावजूद लिंग अनुपात की स्थिति चिंताजनक है।
पूँजीवाद
ने दुनियाभर में तकनीक के विकास को तेज किया। मुनाफे के लिए पूँजीपति फैक्ट्री
लगाते हैं और नयी–नयी तकनीक का विकास
करते हैं। इससे समाज आगे बढ़ता है। चिकित्सा के क्षेत्र में नयी तकनीक और नयी
दवाइयाँ आने से असाध्य रोगों का इलाज सम्भव हो पाया है। इससे लोगों की जिन्दगी
बेहतर हुई है। लोगों की आयु लम्बी होती जा रही है। तकनीक के चलते श्रम आसान हो गया
है। इससे जिन कामों को कठिन माना जाता था और जिन्हें महिलाओं के लिए दुष्कर माना
जाता था, उन कामोें को महिलाएँ अब आसानी से कर लेती हैं।
तकनीक ने महिलाओं की स्थिति को बेहतर बनाया है।
लेकिन
तकनीक का एक नकारात्मक पहलू भी है। उन्नत तकनीक ने ही ऐसे आधुनिक साधन पैदा किये
हैं जिनसे कन्या को भू्रण में ही मार दिया जाता है। आज यह समस्या नासूर बन गयी है।
यह आज की सभ्यता के मुँह पर कालिख की तरह है। दरअसल भारतीय समाज सामन्ती सोच,
यानी पितृसत्तात्मक मूल्य–मान्यताओं से ग्रस्त
है। हमारे देश में आज भी बेटे–बेटी में फर्क करने की
मानसिकता मौजूद है। यह माना जाता है कि वंश बेटे से ही चलता है और माता–पिता की लाठी का एक मात्र सहारा बेटा ही होता है। जब तक ऐसी सोच को समाज
से खत्म नहीं किया जाता, लिंग अनुपात में सुधार असम्भव है।
–– अनीता
(मुक्ति के स्वर अंक 21, मार्च 2019)
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