Tuesday, March 23, 2021

मैं वह अजन्मी बच्ची हूँ



 
तनिष्क का मुस्लिम सास और हिन्दू बहु का विज्ञापन उतना ही दिलचस्प और खूबसूरत है जितने इसके बाकि विज्ञापन हैं। इसे वापस लेने का मतलब है कि यह एक अजीबो–गरीब कल्पना थी और इस तरह के रिश्ते असल में मौजूद नहीं होते। लेकिन ऐसा केवल वे दिखाते हैं। मैं इसकी एक जीती जागती मिसाल हूँ। मैं उस विज्ञापन की वही अजन्मी बच्ची हूँ।
मेरे माता–पिता जब 1971 में मिले तो उन्होंने “लव जिहाद” जैसा कोई भी शब्द नहीं सुना था। वे दोनों महाराष्ट्र के समाजवादी छात्र संगठन, युवक क्रान्ति दल से जुड़े थे, जो श्रम की लूट, जातीय उत्पीड़न, आदिवासी आबादी को हाशिये पर धकेलने जैसे मुद्दों को उठाते थे। जब मेरी माँ संगठन में आयीं तो वह 18 साल की हँसमुख, गोरी और हरी आखों वाली गोल–मटोल लड़की थी। उनके आस–पास के ज्यादातर मर्द उम्र में उनसे बड़े और अलग–अलग पृष्ठभूमि वाले, जैसे देहाती, गरीब, दलित, मुस्लिम थे। कई को तो उनसे देखते ही प्यार हो गया और उनसे शादी करने की इच्छा होने लगी। वास्तव में, माँ के लिए प्रस्ताव नाना के पास एक शान्त लड़के की तरफ से आया जो उनके परिवार की पृष्ठभूमि के लिए डरावना था। वह नलिनी पण्डित की बेटी थी जो एक मशहूर मार्क्सवादी–गाँधीवादी विद्वान् थे और यह पण्डित परिवार बहुत अमीर और जाना–माना था। इनके पास दादर में एक बहुत बड़ी कोठी, गाड़ी, और टेलीफोन जैसी चीजें भी थी।
जब उन्होंने अपने चिपलून के एक कोंकणी मुस्लिम साथी से शादी करने का फैसला किया तब दोनों ही तरफ धर्मान्धता थी। उनकी जान–पहचान वाली बूढ़ी औरतें उन्हें दादर की सड़को पर रोकती और पूछती, “तुम एक मुस्लिम से शादी करोगी? जरा सावधान रहना हाँ, उनके यहाँ तीन तलाक वाला सिस्टम है।” बाबा के बड़े भाई ने उनसे पूछा “अरे तुम एक हिन्दू लड़की से शादी क्यों करना चाहते हो।” बड़े भाई और कोई नहीं बल्कि हमीद दलवई थे, मुस्लिम सुधारवादी चैंक गये। उन्होंने सोचा की समाजवादी–गाँधीवादी शादी का तरीका भाड़ में जाये, हमें इस शादी का एक बड़ा जश्न मनाना चाहिए, ताकि सबको पता चले कि ये दोनों शादी कर रहे हैं। उन्होंने शादी के ढेर सारे कार्ड छपवाये और उन सभी को देते जो उनसे मिलते।
दादी की कहानियों के मुताबिक शादी में आये लोगों की कोई गिनती नहीं थी। हॉल भले ही छोटा था मगर हंगामाखेज था। लोग कोकम शर्बत के तीन हजार गिलास डकार गये। मेरे माता–पिता इतने लोगों की तरफ मुस्कुरायेऔर इतनों से हाथ मिलाये कि कुछ वक्त बाद उनके हाथ और गाल दुखने लगे। मेरी माँ के दोस्तों ने उनसे कहा “बाप रे, तुम्हारी शादी में इतनी जबरदस्त गलतफहमी है, हम खुशनसीब हैं कि वहाँ से सही–सलामत लौट आये।” शादी का जश्न मिर्जाली गाँव में भी मनाया गया, जहाँ दलवई परिवार ने पण्डित परिवार के लोगों और उनके दोस्तों के लिए बिरयानी तैयार की जो मुम्बई से गाड़ियों में आये थे।
यहाँ तनिष्क स्टाइल से कोई सोने के गहने ससुराल की तरफ से नहीं थे। हालाँकि, मेरी माँ जब पहली बार गाँव गयीं तो उन्हें चाँदी के झुमके मिले। “मगर चाँदी के तो कटोरियाँ और थाली बनते हैं”, उन्होंने मन ही मन में सोचा, सारस्वतों के दिवाली भोग को याद करते हुए। वर्गीय अन्तर इतना ज्यादा था! मगर वह एक समाजवादी आदर्श “क्षमता के हिसाब से दो, जरूरत के हिसाब से लो” के आधार पर नये परिवार गढ़ने में सफल रही। वह अपने मुम्बई कॉलेज से लेक्चरर के काम के जो पैसे मिलते थे, गाँव में अपने गरीब भाई–बन्धुओं को दे देती थी, क्योंकि मेरे पापा होल–टाइमर होने के चलते दिन–रात मजदूरों के जुलूस और आदिवासियों के साथ बातचीत में व्यस्त रहते थे। किसी की पढ़ाई के लिये पैसे भेजती थी, किसी को इलाज के लिए मुम्बई में अपने फ्लैट में बुला लेती थी या किसी की शादी की खरीदारी के लिए। वह उस कुनबे की सरदारनी थी।
तनिष्क ट्रोल्स को यह समझ में नहीं आता है कि एक चमकती आँखों वाली बहू मुस्लिम परिवार में इस तरह शामिल हुई जो सिर्फ महिलाएँ ही कर सकती हैं। यह लव जिहाद नहीं है, यह मुसलमानों की घर–वापसी है। लेकिन ट्रोल न केवल मुस्लिम विरोधी हैं बल्कि महिला विरोधी भी हैं। उन्हें लड़की “देने” में हार नजर आती है। उनको यह दिखा ही नहीं कि इस विज्ञापन में मुस्लिम परिवार हिन्दू त्योहार मना रहा है। मेरा परिवार ईद और दिवाली दोनों तरफ के रिश्तेदारों के साथ मिलकर मनाता है। खाना, रंगों से खेलना और रंग–बिरंगे कपडे़ पहनना सबको पसन्द है। इसमें नापसन्द करने वाली कौन सी बात है?
मेरी माँ अब भी हिन्दू हैं, जैसे मेरे पिता मुस्लिम हैं। दोनों में से कोई धार्मिक अनुष्ठानों का पालन नहीं करते हैं, लेकिन सांस्कृतिक उत्सव का आनन्द जरूर लेते हैं। शुरू के दिनों में, बुजुर्ग रिश्तेदारों ने मेरी माँ को सुझाव दिया कि उन्हें इस्लाम अपना लेना चाहिए, तभी उन्हें जन्नत मिलेगी। वह हँसती और कहतीं, “लेकिन मैं एक भौतिकवादी हूँ। मुझे बताएँ कि मुझे इस जीवन में, कहाँ और कैसे फायदा होगा।” वास्तव में उन्होंने शादी के कुछ महीने बाद अपनी पहचान को जाहिर करने के लिए एक बड़ी लाल बिन्दी पहनना शुरू कर दिया। बिन्दी और साड़ी ने उन्हें गंभीर और पेशेवर दिखने में भी मदद की, क्योंकि उन्होंने अर्थशास्त्र पढ़ाना शुरू कर दिया था और वह अपने छात्रों की तरह जवान दिखती थी। उन्होंने अपनी क्रान्तिकारी लड़ाई जारी रखी और हमारी परवरिश में एक वैकल्पिक मूल्य का इस्तेमाल किया।
उन्हें इस बात की परेशानी थी कि उनके बच्चे कैसे बढ़ते साम्प्रदायिक माहौल का सामना करेंगे। उन्होंने हमें रूसी किताबें और अन्य अन्तर्धमीय परिवारों और दोस्तों के माध्यम से एक सुरक्षित दुनिया देने के लिए कड़ी मेहनत की। फिर भी वे हमें दंगे, दुश्मनी और असुरक्षा से बचा नहीं सके। हमने विदेश यात्रा की, भले लोगों से जान–पहचान हुई, पढ़ाई और किताबों का मजा लिया और अपने परिवार की विविधता को आगे बढ़ाया।
मेरे भाई ने हैनान प्रांत की एक चीनी से शादी की और मैंने तेलंगाना रेड्डी के साथ जिन्दगी साझा करने का फैसला लिया। मैंने नागालैंड की एक बेटी मोन को भी गोद लिया। अब जब सभी बच्चे एक सार्वजनिक पार्क में एक साथ खेलते हैं,  एक अर्द्ध–चीनी लड़का, मराठी–तेलुगु लड़की और छोटी सी नागा योद्धा, आस–पास के लोग हैरत के साथ हमें देखते हैं। यह परिवार एक ही साथ अंग्रेजी, हिन्दी, मराठी, तेलुगु, मन्दारिन और कोंकणी में बात करता है।
और जब पूरी तरह एकांगी सोच वाले “सामान्य” लोग आकर हमसे पूछते हैं “लेकिन कैसे?” या “वाकई–––?” तो हम सिर्फ मुस्कुरा देते हैं। हमारा जीवन ट्रोल करने वालों का जवाब है। हम मौजूद हैं। अन्तर्धर्मीय परिवार न केवल जिन्दा है बल्कि पनपता भी है। और आप सब इसके आगे फीका पड़ जाते हैं।
–– समीना दलवई
(‘द इंडियन एक्सप्रेस’ से साभार, अनुवाद– उत्सा प्रवीण)

भारतीय किसान आन्दोलन को मजबूत बनाती महिलाओं से बातचीत



भारत में भूमि ही किसानों की माँ है, और यहाँ की माताएँ, बहनें और बेटियाँ इस आन्दोलन का एक मजबूत आधार बनी हुई हैं। 
50 साल की बलजीत कौर पंजाब (भारत) में ताउम्र खेती करती रही हैं। उनके लिए फसलों को उगाना, अपनी जमीन पर उनकी खेती करना सिर्फ एक पेशा नहीं है बल्कि उससे कहीं ऊपर एक वरदान की तरह है– यह उनके खून में है। 
यदि कोई सामान्य दिन होता, तो बलजीत कौर अपने खेतों में एक लम्बा समय बिता रही होतीं, ध्यान से बीजों को बोती और फसलों की कटाई कर रही होतीं। यह काम आसान नहीं है, लेकिन वह इसके लिए पूरी तरह समर्पित हैं। इसके बावजूद वह आज अपने खेतों में नहीं बल्कि भारत की राजधानी नयी दिल्ली की सीमा टिकरी बॉर्डर पर हैं, जहाँ वह और सैंकडों किलोमीटर दूर से आए अन्य महिला व पुरुष किसान सितम्बर में पास हुए नये कृषि कानूनों के खिलाफ धरने पर बैठे हैं। 
बलजीत कहती हैं, “हम अपनी जमीनों के लिए इन काले कानूनों के खिलाफ लड़ रहे हैं जो मोदी ने लागू किये हैं।” उन्हें डर है कि इन नये कृषि कानूनों के कारण उन जमीनों का मालिकाना जो पीढ़ियों से उनके परिवारों के पास रहा है, उनसे छिन जाएगा और उसे पाने के लिए वे दृढ़ निश्चयी हैं। 
किसान इस बात को लेकर चिन्तित हैं कि ये तीन कानून जो कृषि क्षेत्र को बर्बाद करने के लिए बनाए गए हैं, एमएसपी (न्यूनतम समर्थन मूल्य), सरकार द्वारा तय किया गया वह न्यूनतम मूल्य जिस पर किसान अपनी फसल बेच सकता है, की गारण्टी नहीं देते। बिना इस सुरक्षा मूल्य के किसानों को इस बात की आशंका है कि उन्हें प्राइवेट कम्पनियों के साथ कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग करनी पड़ेगी जहाँ ये कम्पनियाँ तय करेंगी कि किसान क्या उगाएगा और किस दाम पर बेचेगा। ये नियम कम्पनियों के, खेती की जमीनों को खरीदने व खाद्य सामग्री के संचय पर लगे प्रतिबन्ध को भी खत्म करते हैं। 
जबकि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी यह दावा कर रहे हैं कि ये कानून कृषि क्षेत्र को आधुनिक बना देंगे और किसान इस बात पर जोर दे रहे हैं कि एमएसपी की गारण्टी दिए बिना कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग और बड़े स्तर पर निजीकरण के लिए कृषि बाजारों को खोल देना पहले से शोषित वर्गों के और अधिक शोषण को आसान बना देगा।
पिछले कुछ हफ्तों में, इन नये कृषि कानूनों के खिलाफ चल रहे प्रदर्शन ने जोर पकड़ लिया है। सैंकड़ों–हजारों प्रदर्शनकारियों ने कृषि क्षेत्र में अग्रणी तीन राज्य पंजाब, हरियाणा और उत्तर–प्रदेश से देश की राजधानी दिल्ली की मुख्य सीमाओं– सिंघू और टिकरी बॉर्डर पर धरना प्रदर्शन करने के लिए रैली निकाली। 
सरकारी आकाओं की प्रदर्शनकारियों को शहर में न घुसने दे पाने की लाख कोशिशों के बावजूद भी किसानों के उत्साह में किसी तरह की कोई कमी नहीं दिखी। उनकी साधारण सी माँग है– काले कानूनों को वापस लो। 
“महिलाएँ पुरुषों से अधिक मेहनत करती हैं”
भारत मे प्रदर्शन कर रहे किसानों की सार्वजनिक छवि पर जहाँ पुरुषों का पलड़ा भारी है, वहीं महिलाएँ भी कुछ कम नहीं है। बल्कि महिला किसान तो इन नये कानूनों से सबसे अधिक प्रभावित होंगी। 
महिला किसान अधिकार मंच (एमएकेएएएम), एक भारतीय मंच जो महिला किसानों के अधिकारों के लिए आवाज उठाता है के अनुसार– सम्पूर्ण कृषि कार्यों का लगभग 75 प्रतिशत कार्य महिलाओं द्वारा किया जाता है, इसके बावजूद भी वें केवल 12 प्रतिशत जमीनों की मालिक हैं। 
एमएकेएएएम की कविता कुरुगंती कहती हैं कि महिला किसान जमीनों पर अपने मालिकाने हक की कमी के चलते धीरे–धीरे गायब होती जा रही हैं। कृषि क्षेत्र में व्यापक योगदान होने के बावजूद भी जमीनों पर हक न होने के कारण उनको किसान नहीं माना जाता और उनका इस कदर हाशिये पर आ जाने का अर्थ ये निकलता है कि वे इन नये कानूनों के तहत बड़ी–बड़ी कम्पनियों द्वारा किये जाने वाले शोषण से सबसे अधिक प्रभावित होंगी। 
खेती में मूल्य निर्धारण के मामले में सरकारी संरक्षण की कमी लिंग–भेद को और अधिक बढ़ावा देगी क्योंकि कृषि क्षेत्र में बढ़ती हुई प्रतियोगिता के आधार पर यह माना जाता है कि महिलाओं के बहुत सी सीमाओं जैसे– यातायात के साधनों की पहुँच से दूरी, घर की जिम्मेदारियाँ इत्यादि में बंधे होने के चलते उनके साथ पुरुषों की तुलना में व्यापार करना कहीं अधिक आसान होता है।
कुलविन्दर कौर और परमिन्दर कौर (‘कौर’ सभी सिक्ख महिलाओं को दिया जाने वाला एक उपनाम है) दो महिला किसान हैं जो 645 किलोमीटर (400 मील) की यात्रा करके जालंधर (पंजाब) से टिकरी पहुँची। उन्होंने अपने ट्रकों को खड़ा करके उसके पीछे वाले हिस्से में कैम्प लगा लिए और अन्य महिला प्रदर्शनकारियों के साथ धरने प्रदर्शन पर बैठ गयीं जब उन्होंने अलजजीरा को यह सब बताया। 
कुलविन्दर पूछती हैं, “जब कोई निश्चित मूल्य अथवा सरकारी मण्डी ही नहीं होगी तो कैसे हम अपने बच्चों को रोटी खिलाएंगे और कैसे ही अपनी फसलों को बेचेंगे?”
परमिन्दर भी आगे कहती हैं, “कोई काम आसान नहीं होता, आपको खाने के लिए काम करना ही पड़ेगा। लेकिन यदि काम करने के बाद भी हमें खाना न मिले, तो यह सचमुच बहुत गलत है।”
वे इस बात से चिन्तित हैं कि इन कानूनों के लागू हो जाने का अर्थ होगा– बड़ी–बड़ी प्राइवेट कम्पनियों के लिए काम करना जो उन्हें उनकी हाड़तोड़ मेहनत का बहुत कम मूल्य देंगी। दोनों महिलाएँ तर्क देती हैं कि निश्चित तौर पर ये बड़ी–बड़ी कम्पनियाँ किसानों से बहुत कम दाम पर उनकी फसलों को खरीदेंगी और लगभग चार गुना अधिक दाम पर उन्हें शहरों में बेच देंगी। 
60 साल की मलकीत कौर जो पिछले 30 सालों से खेती कर रही हैं तर्क देती हैं कि पंजाब में उनके गाँव मे बहुत सारी महिलाएँ खेती करती हैं और पुरुषों की तुलना में कहीं अधिक मेहनत करती हैं। 
आन्दोलन के सन्दर्भ में भी देखें तो जो महिलाएँ घर–परिवार व खेतों की देख–रेख के लिए घरों में रुकी हुई हैं, वे भी आन्दोलन में उतना ही बहुमूल्य योगदान दे रही हैं जितना कि दिल्ली की सीमाओं पर बेहद ठण्डी व विषम परिस्थितियों में पुरुषों के समकक्ष खड़ी महिलाएँ दे रही हैं। 
मलकीत खास तौर पर आन्दोलन में भागीदारी देने के लिए सिंघू बॉर्डर आयी हैं क्योंकि वह इस बात से बेहद परेशान हैं कि एमएसपी की गारण्टी न होने से उनकी आमदनी पर असर पड़ेगा। 
“यदि वे हमारी फसलों के दाम कम करते हैं तो हम कहाँ जाएँगे?”
अपनी इन आशंकाओं के बावजूद भी मलकीत यह उम्मीद करती हैं कि कानून वापस ले लिए जाएँगे और अपने इस दृढ़ विश्वास पर उनको पूरा यकीन है, वह कहती हैं, “मुझे पूरी उम्मीद है कि भगवान हमारी सुनेगा, हम इसीलिए यहाँ आये हैं।” हालाँकि मलकीत अगले दिन यहाँ से जा रही हैं, वह कहती हैं कि अब उनके परिवार से कोई और उनकी जगह लेगा। प्रदर्शनकारियों के लिए यह रास्ता अभी बहुत लम्बा है। 
“यह जीवन जीने का कोई अर्थ नहीं यदि हमारे बच्चे मुसीबत में हैं”
भारत मे अधिकतर वृद्ध महिला किसानों के लिए जमीनों के मालिकाना हक का मुद्दा वित्तीय मुद्दे से कहीं अलग है। उनके लिए जमीन पूजनीय होती है व इसका मालिकाना सदियों से चली आ रही उनकी परम्परा और संस्कृति में निहित एक वंशानुगत चलने वाला मामला है। 
बलजीत पूछती है, “हमारी आने वाली पीढ़ियाँ क्या कहेंगी कि हमने अपनी आवाज नहीं उठायी? यही कारण है कि हम सड़कों पर बैठे हैं ताकि अपने आने वाले बच्चों (पौत्रों) के लिए अपनी जमीनों को बचा सकें।”
ये आगे की सोच वाली मानसिकता टिकरी और सिंघू दोनों बॉर्डर पर बैठी वृद्ध महिलाओं के बीच एक आम सोच है। 
58 साल की जसपाल कौर टिकरी बॉर्डर पर दो अन्य महिला प्रदर्शनकारियों के साथ एक मैदान में बैठी हैं। वह कहती हैं, “भगत सिंह जैसे शहीदों की याद को जिन्दा रखने के लिए” उन्होंने और उनके एक साथी ने एक जैसा बसन्ती दुपट्टा (पीला स्कार्फ) ओढ़ रखा है। 
जसपाल अपने पति के साथ पंजाब से टिकरी तक आयीं क्योंकि उनका मानना है कि ये कानून आने वाली पीढ़ियों के लिए हानिकारक हैं, वह इन्हें अपने बाप–दादाओं की कड़ी मेहनत की कमाई छीनने का जरिया बताती हैं। वह कहती हैं, “यह जीवन जीने का कोई अर्थ नहीं यदि हमारे बच्चे मुसीबत में हैं।”
उनके कहे शब्दों का महत्व और अधिक बढ़ जाता है यदि हम इस बात पर नजर डालें कि खराब परिस्थितियों व खेती के कारण लिए गए कर्ज के चलते 2019 में 10000 से भी अधिक भारतीयों किसानों ने आत्महत्या करी। 
जसपाल बिना लड़खड़ाए बुलन्द आवाज में कहती हैं, “हम पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर आगे बढ़ते रहेंगे। हमें अपने सामने आयी हर मुसीबत को झेलना है।”
वे कहती हैं कि सभी किसान एकजुट हैं और जब एक दूसरे का साथ देने वाली संस्कृति बनती है तो सर्दी के इन महीनों में जान पड़ जाती है। 
सामूहिक रसोई और निस्वार्थ सेवा
विरोध–स्थलों पर एक सामुदायिक सक्रियता बनी हुई है क्योंकि वहाँ महिलाएँ और पुरुष क्रान्तिकारी गीत गाते हैं, नाचते हैं व नुक्कड़ नाटक करते हैं। 
33 साल की जस्सी सांघा, एक फिल्म निर्माता जो दिल्ली में चल रहे विरोध–प्रदर्शनों का लिखित दस्तावेज तैयार कर रही हैं खुद को “किसानों की स्वाभिमानी बेटी” बताती हैं। एक गीत में वह लिखती हैं कि महिलाएँ यह उद्घोष कर रही हैं: “ये महिलाएँ यहाँ राज्य से लड़ने आयी हैं, इसलिए तुम्हें इन महिलाओं की हिम्मतपरस्ती को सलाम करना होगा और इन्हें इनके अधिकार देने होंगे।”
सिक्खों की निस्वार्थ सेवा करने की प्रथा के आधार पर बहुत से विरोध–स्थलों पर लंगर (निशुल्क सामुदायिक रसोई) की व्यवस्था की गयी है। जस्सी बताती हैं, “हफ्तों से प्रदर्शनकारी इतना अधिक राशन ला रहे हैं कि वहाँ के स्थानीय लोग भी हमारे लंगर से ही खाना खाते हैं।”
पंजाब की एक अभिनेत्री व सामाजिक कार्यकर्ता सोनिया मान भी किसानों के साथ विरोध–प्रदर्शन में आयीं। वह कहती हैं, “मैं एक किसान की बेटी हूँ। मेरे पिता एक यूनियन लीडर थे और उन्होंने किसानों की खातिर अपनी जिन्दगी कुर्बान कर दी, यही कारण है कि मैं यहाँ हूँ।”
30 साल की सोनिया को साफ तौर पर पर यह स्पष्ट है कि ये कानून भूमिहीन महिला किसानों के साथ–साथ छोटे किसानों के लिए भी कितने अधिक हानिकारक साबित होंगे: “सभी बड़ी–बड़ी कम्पनियाँ हमारी जमीनों को हथियाना चाहती हैं और वहाँ अपने–अपने कॉरपोरेट हाउसेज खोलना चाहती हैं। इस प्रकार, वे पंजाब को खत्म करना चाहती हैं।”
जब से पंजाब में आन्दोलन शुरू हुआ है, प्रदर्शनकारियों का यही सन्देश है कि यह इस प्रकार का मुद्दा नहीं जो केवल पंजाब तक सीमित हो बल्कि ऐसा है जो सभी किसानों को प्रभावित करता है और इसके नतीजें भी देशव्यापी होंगे। इन प्रदर्शनकारियों के लिए, यह एक ऐसी लड़ाई है जो धर्म और राज्य से बढ़कर है। 
सोनिया कहती हैं, “हरियाणा, राजस्थान व अन्य राज्यों के किसान इस आन्दोलन में शामिल हैं। वे साथ आते हैं और साथ ही फैसलें लेते हैं। वे सभी का सम्मान करते हैं। वहाँ हमेशा हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख सभी रहते हैं और हर कोई यहाँ आता है।”
आँसू गैस के गोले व पानी की बौछारें
भारत में सत्तासीन भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के बयान व भाषण, विरोध करने वाले किसानों को ‘देशद्रोही’ होने का तमगा दे रहे हैं और कुछ तो उनको आतंकवादी तक कहने में नहीं झिझक रहे। 
सोनिया कहती हैं, “वे हमारे आन्दोलन को केवल नुकसान पहुँचाना चाहते हैं।” वह यह पक्के तौर पर मानती हैं कि सरकार और मीडिया इस आन्दोलन के उद्देश्य को धार्मिक और राष्ट्र–विरोधी करार देकर इसका दुष्प्रचार करने का प्रयास कर रही है। 
वैसे तो प्रदर्शनकारी इस बात से बेहद क्रोधित और अपनी बात पर अड़िग हैं, पर साथ ही सतर्क और धैर्यशील भी हैं और इस बात के लिए तो वे खास तौर से चैकन्ने रहते हैं कि अपनी ओर से उन्हें किस व्यक्ति को बात रखने की अनुमति देनी चाहिए। वे कहते हैं कि खालिस्तान (एक सिक्ख अलगाववादी आन्दोलन) का जरा भी कोई जिक्र उनके उद्देश्य को बहुत बुरी तरह प्रभावित कर देगा और मीडिया व सरकार को आन्दोलन का दुष्प्रचार करने का अवसर भी प्रदान करेगा।
निकिता जैन, एक पत्रकार जो जमीनी स्तर पर आन्दोलन से सम्बन्धित खबरों को कवर कर रही हैं, कहती हैं, “कुछेक लोगों के मत इस आन्दोलन को राष्ट्र–विरोधी नहीं बनाते और न ही किसानों को गलत साबित कर सकते हैं।” वह इन आरोपों की विडम्बना की ओर इशारा करती हुई कहती हैं, “जो अपने देश के हित के लिए सबसे अधिक कार्य करता है, आप उस अन्नदाता को देशद्रोही कैसे कह सकते हैं?”
जैन इस बात पर जोर देती हैं कि आन्दोलन कितना शान्तिपूर्ण है और यह कितनी अन्यायपूर्ण बात है कि किसानों द्वारा इतनी नरमी दिखायी जाने के बावजूद भी उनके साथ इतना बुरा बर्ताव किया जा रहा है। वह कहती हैं, “मन को उल्लास से भरता वहाँ का माहौल/संगीत बेहद खूबसूरत है।”
इन सब के बाद भी, शान्तिपूर्ण प्रदर्शनकारियों पर जिनमें बुजुर्ग प्रदर्शनकारी भी शामिल थे आँसू गैस के गोले व पानी की बौछारें छोड़ी गयीं। जस्सी कहती हैं, “भारत देश जो पूरी दुनिया मे सबसे बड़े लोकतंत्र के रूप में जाना जाता है वहाँ इन शान्तिपूर्ण प्रदर्शनों के दौरान जो कुछ भी हो रहा है वह पूर्ण रूप से मानव अधिकारों का उल्लंघन है।”
26 नवम्बर को निकिता जैन ने जो देखा वह बताती हैं, जब प्रदर्शनकारियों ने शान्तिपूर्वक दिल्ली में प्रवेश करने की कोशिश की तब पुलिस द्वारा उनके साथ अत्यन्त बर्बरतापूर्ण बर्ताव किया गया। वह ये तर्क देती हैं, “जनता को अपने हक के लिए विरोध करने का अधिकार है, पर इसका अर्थ यह नहीं कि सरकार उनका दमन करने लगे।”
“हमारे घुटने उनकी गर्दनों पर टिके हुए हैं” (यानि उनको किसी भी हालत में इन कानूनों को वापस लेना ही होगा)
पुलिस के अनुसार, प्रदर्शनों के दौरान प्रदर्शनकारियों की खराब परिस्थितियों के चलते दिल का दौरा, हाइपोथर्मिया व सड़क दुर्घटना के कारण कम से कम 25 मौतें हो चुकी हैं।
अधिकतर लोग जमीनों पर या फिर ट्रकों के पीछे वाले हिस्से में सोते हैं और शौचालयों के इस्तेमाल के लिए वहाँ के स्थानीय लोगों की मदद पर निर्भर हैं या फिर खुले में ही जाने को मजबूर है जहाँ किसी तरह की कोई सुविधा उपलब्ध नहीं है। लेकिन इन सबके बाद भी महिला किसान अपने संकल्प से विचलित नहीं हुई हैं अथवा डरी नहीं हैं। 
कानूनों की वापसी पर कोई आपसी समझौता न होने के बाद किसानों के यूनियन लीडर व सरकारी अधिकारियों के बीच होने वाली छठे दौर की वार्ता  को पिछले हफ्ते रद्द कर दिया गया। वे कहते हैं कि इसके बावजूद भी किसानों की माँगें लगातार दिल्ली की सीमाओं पर कोहराम मचाए हुए हैं और उनके इरादे मजबूत हैं। 
बलजीत और जसपाल की अलजजीरा से हुई बातचीत के एक दिन पहले वहाँ बारिश हुई थी, लेकिन किसी भी महिला ने ठण्ड या असुविधा होने की शिकायत नहीं की।
सरकार व किसानों की बातचीत के बीच चल रहे अवरोधों के बावजूद भी महिला किसानों ने वहीं डेरा डाल लिया है और जब तक उनकी माँगें पूरी नहीं होती तब तक वहीं इंतजार करने के लिए खुद को तैयार कर लिया है। 

परमिन्दर और कुलविन्दर दोनों ही बहुत बहादुर महिलाएँ हैं। परमिन्दर जिनकी आवाज दृढ़ व चेहरा निर्भीक है कहती हैं, “जब से यह आन्दोलन शुरू हुआ है हम तभी से यहाँ है और यहीं रहेंगे। हमें यहाँ कोई समस्या नहीं है, हमें अपने घरों की याद भी नहीं आ रही है।”
जैसा कि कुलविन्दर बताती हैं कि महिलाओं को अपने–अपने घरों से प्रोत्साहन मिल रहा है। वे हमें फोन करते हैं और कहते हैं, “डटे रहो, हार मत मानना।”
जब उनसे यह पूछा गया कि उनकी की जा रही कोशिशें सफल होंगी भी या नहीं, तो परमिन्दर और कुलविन्दर दोनों ही इस से सहमत थी और चुनौती भरे शब्दों में उन्होंने कहा, “वे इन कानूनों को वापस क्यों नहीं लेंगे जब हमारे घुटने उनकी गर्दनों पर टिके हुए हैं यानि उनको किसी भी हालत में इन कानूनों को वापस लेना ही होगा।”
जस्सी बोलती हैं कि किस प्रकार भारत में भूमि ही किसानों की माँ है, और यहाँ की माताएँ, बहनें और बेटियाँ इस आन्दोलन का एक मजबूत आधार बनी हुई हैं। 
किसानों का यह आन्दोलन अभी जारी रहने वाला है। जैसा कि बलजीत कहती हैं, “हमनें अपने अधिकारों के लिए अपनी आवाज उठायी है और अपने अधिकारों को पाकर ही रहेंगे।”
सन्नी शेरगिल
(साभार अलजजीरा, अनुवाद– रुचि मित्तल)

Friday, March 12, 2021

महिलाओं ने बदल दिया किसान आन्दोलन का स्वरूप




इस समय दिल्ली भारतीय किसानों की लम्बे समय से चली आ रही उथल–पुथल और दबी हुई तड़प की अभूतपूर्व हलचल का गवाह बन रही है। एनडीए सरकार द्वारा तीन कृषि कानूनों के खिलाफ अगस्त 2020 में शुरू हुआ विरोध, इस 25 नवम्बर के बाद से अपनी ताकत और बहादुरी का भरपूर प्रदर्शन करने के लिए तत्पर पंजाब और हरियाणा के किसानों ने ‘दिल्ली चलो’ का नारा दिया। 2–3 लाख किसानों की मौजूदगी के कारण ही यह आन्दोलन अनोखा नहीं है, जिसमें कड़कती ठंड में किसान बैठे हैं, बल्कि इस आन्दोलन ने पीढ़ियों से चले आ रहे धर्म, जाति, पेशे और लैंगिक भेदभाव को भी किसी हद तक मिटाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
जैसा कि अक्सर इस किस्म के मामलों में होता है, यह विरोध भी पहले पहल पुरुष किसानों ने अपनी जमीन और पैदावार को कॉरपोरेट के हाथों में जाने से बचाने के लिए शुरू किया, जैसे–जैसे सप्ताह और महीने बीतते गए, घर पर बैठी महिलाओं ने महसूस किया कि विरोध स्थलों पर जाकर, हजारों की संख्या में उपस्थिति दिखा कर आन्दोलन की एकजुटता को बढ़ाने का समय आ गया है। उनकी यह उपस्थिति कई कारणों से उल्लेखनीय है।
पहला तो यह कि यह मुख्यधारा के उस मिथक को चूर–चूर करता है कि भारतीय ग्रामीण स्त्रियाँ अपनी अस्मिता को स्वीकारने में असमर्थ हैं, और उनका अस्तित्व उनके आसपास के पुरुषों के आदेश से जुड़ा हुआ है। कई महिलाएँ या तो व्यक्तिगत किसानों के रूप में या विशेष किसान संघ के सदस्य के रूप में दिल्ली के सिंघु बॉर्डर या टिकरी बॉर्डर पर जा पहुँची हैं, वे अपनी सामूहिक और सामाजिक राजनीतिक चेतना का जबरदस्त प्रदर्शन कर रही हैं। उन्हें यकीन है कि एक सिंगल फोन कॉल मात्र पर ही उनकी घरों में ही रुकी हुई बहनें उन सबके लिए पर्याप्त भोजन और कपड़े मुहैय्या कर देंगी।
दूसरे, यह उस पूर्वाग्रह से ग्रसित धारणा को खारिज करता है कि महिलाएँ चाहे वह किसान हों या गृहिणी इन नये तथाकथित कृषि सुधारों की पेचीदगियों या प्रभावों से अनजान हैं, क्योंकि वे अनपढ़ हो सकती हैं या सरकार के इरादों से अनभिज्ञ हो सकती हैं। विरोध स्थल पर महिलाओं के साथ एक सार्थक बातचीत से आसानी से पता चलता है कि वे जानती हैं कि वे क्या और क्यों लड़ रहे हैं, जैसे अरुणा जो हरियाणा के सोनीपत की एक छात्रा है और हरमीत कौर जो एक गृहिणी हैं, नये आवश्यक वस्तु अधिनियम से पूरी तरह वाकिफ हैं, साथ ही किसानों द्वारा एमएसपी हटाने के लिए या अनुबन्ध खेती की ओर ले जाने वाले प्रावधानों से भी। वे जानती हैं कि ये कानून उनकी कृषि भूमि को हमेशा के लिए हथियाने के लिए बनाए गए हैं, जो उनकी भावी पीढ़ियों को उनके अधिकारों से वंचित कर देंगे, और उन्हें अडानी और अंबानी का मोहताज बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे।  
आन्दोलन में औरतों की विशेष भूमिका को अति उल्लेखनीय बनाने वाला तीसरा कारण यह है कि वह लिंग आधारित मापदण्डों और पितृसत्ता की उस कांच की छत को तोड़ता है जो उनके सम्पूर्ण जीवन को निर्धारित करता है। पारम्परिक धारणा के अनुसार उनका नियत स्थान घर की चहारदीवारी के भीतर है जहाँ सिर्फ चूल्हा–चैका करना ही उनका काम है, ये धारणा तब तोड़ी जाती हैं जब ये औरतें हाथों में विरोध के झण्डे लिए हुए – एकता और धैर्य के गीत गाते हुए आगे बढ़ती हैं। वे शाहीन बाग की उन बहादुर महिलाओं से प्रेरणा लेती हैं, जिन्होंने दिल्ली की पिछली सर्दियों के दौरान भारत सरकार के नागरिकता संशोधन अधिनियम के लिए राष्ट्रीय रजिस्टर (नागरिक रजिस्टर सीएए, एनआरसी)  के खिलाफ विरोध का चेहरा बन गर्इं थीं। वहाँ बयासी साल की बिलकिस दादी एक चेहरा थीं, यहाँ भी मोहिन्दर कौर और जांगिड़ कौर जैसी नानियाँ हैं, जो नारीवाद के नये पैमाने स्थापित कर रही हैं।
आखिर में, अपने हमराह पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर ये महिलाएँ जो रास्ते तय कर रही हैं वह संवाद और लोकतंत्र को मजबूती प्रदान करेगा। भारत के सिकुड़ते और सड़ते हुए राजनीतिक परिदृश्य में ये महिलाएँ  ताजा हवा की बयार लेकर आयी हैं, इस सच की अनदेखी करना सम्भव नहीं। उन्होंने अपने  प्रतिरोध में निहायत जरूरी चीजों जैसे सहानुभूति, इनसानियत तथा विश्वास का सम्मिश्रण किया है! 
तभी तो आँखों में अद्भुत चमक लिए हुए तेज तर्रार नानियाँ बताती हैं कि या तो वो सरकार को बिल वापिस लेने के लिए बाध्य कर, विजय प्राप्त करेंगी या फिर अपनी आखिरी सांस तक लड़ेंगी।
यह जानना सुखद है कि ये महिलाएँ किसी भी किस्म के दुर्भावना पूर्ण प्रचार को खत्म करने में सक्षम हैं तथा आन्दोलन को गति देने और बनाए रखने के लिए ये राजनीतिक अभिनेता के रूप में खुद को शुमार करती हैं।
–लक्ष्मी सुजाता
(काउण्टर करण्ट से साभार, अनुवाद– ऊषा नौडियाल)

Friday, March 5, 2021

पीड़ा में कैद पिछला साल गुजर गया



हमारा देश एक अभूतपूर्व बदलाव के दौर से गुजर रहा है। पूरे देश में उथल–पुथल मची हुई है। पिछला साल कोविड और कष्टपूर्ण लॉकडाउन में बीता जिससे कोई भी समुदाय अछूता नहीं रहा। लॉकडाउन के साथ ही शुरू हुए मजदूरों के महापलायन की पीड़ादायी छवियाँ अभी हम भूले नहीं हैं। लॉकडाउन के चलते मजदूरों ने अपने काम की जगह से अपने घरों तक हजारों मील का सफर पैदल ही पूरा किया। उस यात्रा में सभी को कष्ट हुआ पर सबसे ज्यादा कष्ट सहा अपनी उजड़ी गृहस्थी को सर पर ढोती, बच्चों को गोद में सम्भालती महिलाओं ने। गर्भवती महिलाओं ने भी सैकड़ों मील की यात्रा पैदल पूरी की। कई महिलाओं ने रास्ते में ही शिशु को जन्म दिया और फिर दूसरे दिन अज्ञात भविष्य की ओर चल पड़ीं।
लॉकडाउन के कारण पूरी दुनिया घरों में कैद हो गयी। यह कैद औरतों पर बहुत भारी पड़ी। इस बीच भारत ही नहीं सारी दुनिया में औरतों पर घरेलू हिंसा और अत्याचार में भयानक वृद्धि हुई। पहले से ही कैद औरत और अधिक गुलामी में बँध गयी। उसका बचा–खुचा निजी ‘स्पेस’ भी जाता रहा। दूसरी ओर ‘वर्क फ्रॉम होम’ के कारण औरतों पर काम का बोझ दोगुना हो गया। लॉकडाउन के कारण जिन हजारों महिलाओं को अपने काम से हाथ धोना पड़ा उनके कष्टों का तो कोई हिसाब ही नहीं है।
बीते वर्ष बलात्कारियों को राजनीतिक संरक्षण देने की संस्कृति और स्पष्ट और निर्लज्ज रूप से स्थापित हो गयी। उन्नाव से लेकर हाथरस की घटनाओं में इसे साफ तौर पर देखा जा सकता है।
इस बीच अलग–अलग स्तरों और रूपों में लड़कियों और औरतों पर पितृसत्तात्मक शोषण और अत्याचार बदस्तूर जारी रहा, लेकिन तमाम अवसरों पर वह प्रतिकार करती भी दिखीं, कहीं अकेले–अकेले तो कहीं संगठित होकर। लेकिन हाल–फिलहाल जिन महिलाओं ने भारत ही नहीं पूरी दुनिया का ध्यान अपनी और खींचा है, वे हैं किसान औरतें जो किसानों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर किसान आन्दोलन के हर मोर्चे पर अपनी मौजूदगी से न सिर्फ आन्दोलन को ताकत दे रही हैं, बल्कि अपने किसान होने के उस दावे को भी प्रस्तुत कर रही हैं जो उन्हें समाज ने नहीं दिया। जिस तरह से महिलाएँ खेती की रीढ़ हैं उसी तरह से वे किसान आन्दोलन की भी रीढ़ हैं। उनकी भारी मौजूदगी ने आन्दोलन को पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तरप्रदेश के घर–घर में पहुँचा दिया है। और अब इसका दायरा राजस्थान, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र तक तक बढ़ गया है और बढ़ता ही जा रहा है।
किसान आन्दोलन में महिला किसानों की भागीदारी से आन्दोलन का स्वरूप ही बदल गया है। वह अधिक मानवीय, रचनात्मक, अनुशासित और गम्भीर हो गया है। उनकी अभूतपूर्व भागीदारी ने इस आन्दोलन को पहले के आन्दोलन से बिलकुल भिन्न रूप दिया है, उसकी जड़ें मजबूत की है और उसे लम्बे समय तक चलाने की ताकत दी है। इसमें शामिल लड़कियों और महिलाओं ने महीनों तक चले धरनों को संयोजित और अनुशासित बना दिया है। इस आन्दोलन में शामिल सभी को एक परिवार बना दिया है। उनकी सक्रिय मौजूदगी से उसमें शामिल नौजवान भी गम्भीर, अनुशासित और अधिक मानवीय हो गये हैं, यहाँ तक कि लोगों की भाषा बदल गयी है। इसने आन्दोलन की एक नयी संस्कृति, ‘सबको, बच्चे, बूढ़े, किशोर, नौजवान, सबको साथ लेकर’ चलने की संस्कृति को जन्म दिया है। यह सारे प्रभाव इतने ताकतवर हैं कि अन्तर्राष्ट्रीय मीडिया तक का ध्यान उन पर गया है।
दिल्ली के सिंघू, टीकरी बॉर्डर पर जो महिलाएँ महीनों से बैठी हैं वास्तव में वे सितम्बर 2020 से तीन कृषि कानून के खिलाफ अपना विरोध दर्ज करा रही हैं। वे किसान मोर्चा के झंडे तले संगठित थीं और इससे पहले भी रेल रोको कार्यक्रम और धरने के माध्यम से अपना विरोध जता रही थीं। पंजाब से जो महिलाएँ अपना घर–परिवार लेकर दिल्ली धरने पर आ पहुँची हैं उन्होंने बीते वर्ष बर्बाद होती खेती के कारण बहुत कुछ खोया है। अपने परिवार को कर्ज के जाल में फँसते देखा है और बहुतों ने अपने की आत्महत्या की पीड़ा भी सही है। इसीलिए वे सिर्फ किसी के बुलाने पर नहीं आयी हैं बल्कि खुद सोच–समझकर, होशो–हवास में अपना विरोध दर्ज करने और अपना हिसाब माँगने आई हैं। वे जानती हैं कि फसल पर न्यूनतम समर्थन मूल्य खत्म होने, खेती को ठेके पर देने और दाल, चावल,आलू जैसी अनिवार्य कृषि उपज को ‘अनिवार्य वास्तु कानून, की सुरक्षा से बाहर कर देने जैसी खतरनाक बातों वाला कृषि कानून यदि लागू हो गया तो वे भी बर्बाद होंगी, उनका परिवार बर्बाद होगा। वे समझ रही हैं कि पिछले 20–25 सालों में खेती का बाजारीकरण हुआ है, बीज, बिजली, डीजल, खाद पहुँच के बाहर हो गए हैं, फसलों का सही दाम तो शायद ही मिला हो। इसीलिए धरना स्थल पर जाने वाले पत्रकारों के सवालों का वे पूरे आत्मविश्वास और तथ्यों के साथ जवाब दे रही हैं। वास्तव में उनकी लड़ाई एक ऐतिहासिक सामाजिक और आर्थिक लड़ाई है जो सभी औरतों को साहस के साथ जीने और अपने हकों के लिए दावा करने का रास्ता दिखा रही है।
इतिहास बताता है कि कोई भी संघर्ष खाली नही जाता। संघर्ष हार कर भी हारता नहीं, वह हमेशा एक और नये संघर्ष की जमीन तैयार कर देता है। इन किसान औरतों का किसानों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर लड़ना महिला आन्दोलन के लिए एक निर्णायक मोड़ है। इससे उनमें शामिल महिलाएँ ही मजबूत नहीं हुई हैं बल्कि दूर खड़ी औरतों और लड़कियों को भी इससे ताकत मिली है, लड़ने का तरीका मिला है, बदलाव और भावी जीत में विश्वास पैदा हुआ है।