Tuesday, December 28, 2021

श्रद्धांजली : महिला मुक्ति की पथ–प्रदर्शक बहनों को आखिरी सलाम



कमला भसीन: ‘संगठित महिलाएँ न कभी हारी हैं न कभी हारेंगी’


दक्षिण एशिया में अपने नारों, गीतों और अकाट्य तर्कों से नारीवादी आन्दोलन को बुलन्दियों पर ले जाने वाली मशहूर लेखिका और नारीवादी आन्दोलनकारी कमला भसीन पिछले दिनों हमारे बीच नहीं रही। उन्होंने दक्षिण एशिया के नारीवादी आन्दोलन को नयी ऊँचाइयों तक ले जाने में एक अहम भूमिका निभायी। उन्होंने अपने गीतों, सरल भषा और सहज स्वभाव से अपने विचारों को आम जनमानस तक पहुँचायी।
उन्होंने ग्रामीण महिलाओं से लेकर महानगरीय संस्कृति में पली–बढ़ी महिलाओं को एक सूत्र में बाँधा और भारतीय नारीवादी आन्दोलन को एक संगठित स्वरूप देने में अहम भूमिका निभायी। उनके बात करने के अन्दाज से लेकर लोगों से मिलने–जुलने के उनके ढंग में एक ऐसा जादू और जीवन के प्रति उत्साह था जिससे वह मिलने वालों को भी मुश्किल लक्ष्यों के प्रति सकारात्मक बना देती थीं। 
एक लम्बे समय से उनको जानने–समझने वालीं कविता श्रीवास्तव भारतीय नारीवादी आन्दोलन में उनके योगदान को बयाँ करते हुए कहती हैं, “कमला भसीन ने इस देश में अन्य बहनों के साथ मिलकर महिला आन्दोलन खड़ा करने में एक पायनियर की भूमिका अदा की है। दक्षिण एशियाई नारीवादी आन्दोलन का प्रसिद्ध नारा ‘पितृसत्ता से आजादी, मेरी बहनें माँगे आजादी, मेरी बेटी माँगे आजादी, मेरी अम्मी माँगे आजादी, भूख से माँगे आजादी–––’उन्होंने पाकिस्तान की साथी निखत के साथ मिलकर बनाया था। नारी


नीति की कहानी बनाम महिलाओं का सम्पत्ति पर अधिकार


     

नोएडा की एक मल्टीनेशनल कम्पनी में पिछले 10–12 साल से काम करने वाली नीति 6 महीने पहले माँ बनी। अब कोरोना काल में उसके सामने संकट है कि छोटे से बच्चे को घर में छोड़कर कैसे दोबारा अपना ऑफिस ज्वाइन करे।
नीति जब बीएससी कर रही थी तब उसके पिता को जानलेवा बीमारी के चलते अस्पताल में लम्बे समय तक भर्ती रहना पड़ा। इसके चलते नीति को जैसे–तैसे अपना बीएससी खत्म करके तुरन्त ही घर के हालात को सुधारने के लिए यूपी के एक छोटे से गाँव से नौकरी करने नोएडा आना पड़ा।
पहले तो उसकी इच्छा थी कि वह एमएससी करे, फिर एमएससी नहीं कर पायी तो उसे लगा कि एमबीए कर ले। लेकिन अपनी नौकरी और घर की जिम्मेदारियों के चलते वह अपनी आगे की कोई भी पढ़ाई नहीं कर पायी।
इन 10 सालों में उसने जितना भी पैसा कमाया उसका एक छोटा सा हिस्सा अपने महीने के खर्चे के लिए रखकर वह सारा पैसा घर दे दिया करती थी। उसे लगता था कि पापा नहीं हैं तो उसके दोनों छोटे भाइयों की पढ़ाई और घर की जिम्मेदारी उसी की है।
नीति एमबीए नहीं कर पायी, लेकिन छोटे भाई को करवा दिया और अब वह भी एक मल्टीनेशनल कम्पनी में नौकरी करता है।
एक बार नीति को अपनी कम्पनी से सिंगापुर या कनाडा में जाकर काम करने का ऑफर मिला था लेकिन अपने घर की जिम्मेदारियों के चलते उसने उसे भी मन मार कर ठुकरा दिया था।
इस बीच तीनों भाई बहनों की शादी भी हो गयी।
पहले नीति से बड़े भाई की शादी हुई फिर नीति की और उसके बाद छोटे भाई की।
नीति ने अपने भाइयों की शादी में भी पैसा दिया, लेकिन अपनी शादी पर उसने अपने स्वाभिमानी स्वभाव के चलते बैंक से एक, डेढ़ लाख रुपए लोन लेकर, बिना घर से एक रूपये की मदद लिए खुद साधारण तरीके से अपनी शादी की दावत की। उसने अपनी माँ से भी कह दिया कि मुझे किसी भी तरीके का कोई दहेज या गहने नहीं चाहिए।
कुछ महीनों पहले नीति के घर की सम्पत्ति का बँटवारा हुआ। उनकी 46 बीघा जमीन थी। जिसमें से 10 बीघा माँ के नाम और बाकी 36 बीघा दो भाइयों के नाम हो गये।
बहन के बारे में ना घर वालों ने सोचा ना बहन ही इस बारे में हिम्मत कर पायी, कि वह अपना हिस्सा माँग पाये। जबकि उसे पता है कि यह उसका भी अधिकार है। लेकिन भाइयों से रिश्ते ना खराब हो जायें या फिर नाते रिश्तेदार कहीं उसे ताने ना देने लगें, यह सोचकर वह चुप रह गयी।
जमीन में हिस्सेदारी मिलते ही एक भाई ने अपनी दूध की डेरी खोली और एक भाई ने अपने हिस्से के खेत में एक्स्ट्रा इनकम के लिए मुर्गियों का फॉर्म खोल दिया। नीति अगर अपने घर का एक नालायक बेटा होती, तो भी उसके हिस्से में बिना माँगे ही सम्पत्ति आ जाती। 10 –12 साल नौकरी करने के बावजूद नीति का बैंक अकाउंट खाली है। और छोटे भाई 18–18 बीघा जमीन के मालिक हैं।

सम्पत्ति के मामले में महिलाओं की सामाजिक स्थिति

भारतीय समाज में सदियों से घर में लड़की पैदा होते ही उनको पराये घर की मान लिया जाता है। लड़की के मातृ–पितृ पक्ष वाले सोचते हैं कि लड़की का चल–अचल सम्पत्ति पर अधिकार तो उसकी शादी के बाद ससुराल के घर पर होगा और ससुराल वाले सोचते हैं कि लड़की पराये घर से आई है। शादी के बाद भी लड़की का अपने पति की आकस्मिक मृत्यु के बाद ही सम्पत्ति पर हक मिल पाता है या फिर किसी वजह से तलाक होने से मात्र गुजारा भत्ता दे दिया जाता है। अन्यथा महिलाओं का ना तो ससुराल में और ना ही अपने पैतृक घर में सम्पत्ति पर किसी भी तरीके का अधिकार होता है। अगर कोई लड़की पैतृक सम्पत्ति पर अपना अधिकार माँगती है तो उसे हमारे पुरुषवादी समाज में यह मान लिया जाता है कि लड़की अपना अधिकार न माँग कर भाइयों का हिस्सा माँग रही है। माँ–बाप भी पितृसत्तात्मक सोच से ग्रसित होने के चलते बेटियों को उनका हक नहीं देते हैं और यह सोच लेते हैं कि बुढ़ापे में बेटा ही उनके काम आएगा। इसलिए वे चुपचाप बेटे के पक्ष में चले जाते हैं और लड़कियों को वापस मायके न आने की हिदायत तक दे दी जाती है। यहाँ तक कि खुद महिलाएँ भी अपने भाइयों से या माँ–बाप से सम्बन्ध खराब न हो जाए या समाज उन्हें लालची ना समझने लगे और उनको समाज में लोगों के सामने बेइज्जत ना होना पड़े, यह सोचकर अपना अधिकार नहीं माँगती हैं। बल्कि बहुत सी महिलाएँ सम्पत्ति में अधिकार होने को लेकर जागरूक न होने के चलते व बचपन से उनकी जिस तरीके से पराये घर जाने के लिए पालन–पोषण किया जाता है, उसके चलते खुद ही यह मान लेती हैं कि इसमें हमारा कोई अधिकार नहीं है। हमारी शादी हो गयी है, अब ससुराल का घर ही हमारा घर है।
जब पैतृक सम्पत्ति में बँटवारे के समय बहुत से पिताओं के द्वारा लड़कों के नाम वसीयत लिखी जाती है तो उसमें भी यह कह दिया जाता है कि हमने लड़की की शादी में और उसके दहेज में जो देना था दे दिया है, अब हम उसे कुछ भी नहीं देना चाहते। जबकि हम सभी जानते हैं कि दहेज लेना या देना एक बुरी प्रथा है उसको खत्म करके हमें पुरजोर तरीके से महिलाओं को उनका सही अधिकार देना चाहिए। जिस दिन लड़कियों को उनका जायज हक दिया जाने लगेगा उस दिन स्वत: ही दहेज प्रथा खत्म हो जाएगी।
ससुराल में भी पति–पत्नी के आपसी झगड़े में पति द्वारा पत्नी को घर से निकाल दिया जाता है, तब भी महिलाओं को अपनी कमजोर आर्थिक स्थिति के चलते मायके वालों के सामने ही भीख और दया पर गुजारा करना पड़ता है। मायके वाले किसी तरह महिला को इज्जत से गुजारा भत्ता दें यही बहुत बड़ी बात है। बल्कि ज्यादातर परिवार में शादी के बाद लड़की का मायके में रहना घर वालों को बोझ ही लगता है।

महिलाओं के पैतृक सम्पत्ति पर अधिकार सम्बन्धी कानून

हमारे देश में महिलाओं को लैंगिक बराबरी देने के लिए विभिन्न कानून बनाये गये हैं जिनमें से एक है पैतृक सम्पत्ति पर कानूनी अधिकार। डॉ भीमराव अंबेडकर ने संविधान में तो हमारे देश के सभी नागरिकों को बराबरी का अधिकार दिया है, लेकिन उसके बावजूद महिलाओं को सम्पत्ति पर बराबरी का अधिकार देने के लिए 1951 में हिन्दू कोड बिल पारित करने का संसद में प्रयास किया गया था, तब विपक्ष के द्वारा घोर विरोध किए जाने के चलते लागू नहीं हो पाया था। इसके चलते तत्कालीन कानून मंत्री डॉक्टर अंबेडकर ने दुखी होकर अपना इस्तीफा दे दिया था। उसके बावजूद सन 2005 में महिलाओं को उसी बिल में संशोधन करके सम्पत्ति में बराबरी का अधिकार दिया गया था। इसके बाद बहुत सी महिलाओं ने अपने अधिकारों के लिए कोर्ट केस कर दिये थे, लेकिन पिछले 15 साल से कानून में पारदर्शिता न होने के चलते बहुत सी महिलाओं को परेशानी उठानी पड़ रही थी। बाद में सुर्पीम कोर्ट के तीन जजों की पीठ ने 2020 में स्पष्ट रूप से फैसला सुना दिया था कि महिलाएँ विवाहित हों या अविवाहित उन्हें उसकी पैतृक सम्पत्ति में पुरुषों के बराबर का अधिकार दिया जाएगा और यह लड़की का जन्मसिद्ध अधिकार है। 2020 का यह फैसला 1951 में पेश किये गये डॉक्टर अंबेडकर के हिन्दू कोड बिल की ही जीत है।
आज 21वीं सदी की इस अत्याधुनिक समय में महिलाओं के पास भारत में मात्र 12–9 प्रतिशत खेती की जमीन पर मालिकाना है, जबकि खेती के काम में महिलाओं का लगभग 75 प्रतिशत का योगदान रहता है। हाड़–तोड़ मेहनत करने के बावजूद महिलाएँ सिर्फ खेतिहर मजदूर बनकर रह गयी हैं।
सम्पत्ति के मामले में ग्रामीण इलाके में महिलाओं के पास खुद से खरीदी गयी या फिर किसी भी तरीके से मिली सम्पत्ति का मालिकाना 31–4 प्रतिशत है जबकि यही आँकड़ा शहरों में मात्र 22–9 प्रतिशत है। ग्रामीण इलाकों में शहरों की तुलना में सम्पत्ति के मामले में लैंगिक समानता ज्यादा होने का एक मुख्य कारण पुरुषों का शहर में आकर मजदूरी करना भी है।

सम्पत्ति पर अधिकार होने के महिलाओं को फायदे 

आज की घोर पूँजीवादी (पैसे से चलने वाली) दुनिया में हम सभी जानते हैं कि हमारी दिनचर्या के सभी काम हमारे आर्थिक स्थिति के अनुसार ही सुचारु ढंग से चलते हैं। समाज में किस की क्या हैसियत है यह उसकी जमीन जायदाद और सम्पत्ति पर ही निर्भर करती है। आर्थिक स्थिति मजबूत होने से हम अपनी जिन्दगी के ज्यादातर जरूरी फैसले खुद ले पाते हैं अन्यथा दूसरों के फैसलों में सिर झुका कर हामी भरनी पड़ती है।
समाज में अगर हम जातिगत रूप से भी देखते हैं तो हमारे सामने समाज में उसी का दबदबा होता है जो आर्थिक रूप से संपन्न जातियाँ हैं। घर परिवार में बड़े फैसले भी ज्यादातर पुरुष ही लेते हैं क्योंकि उनके पास एक मजबूत आर्थिक आधार होता है।
हमारे पुरुष प्रधानसमाज की मानसिकता यह है कि महिलाओं को पुरुषों के नीचे दबकर रहना चाहिए। महिलाओं से दोयम दर्जे का व्यवहार करने वाले इस समाज को डर है कि महिलाओं को अगर सम्पत्ति पर अधिकार मिल गया तो वे बराबरी के अधिकार के लिए लड़ने लगेंगीं और पुरुषसत्ता को नकार देंगीं जिससे सदियों से चली आ रही पितृसत्तात्मक गुलामी की बेड़ियाँ टूट जाएँगी और सामन्तवादी पारिवारिक ढ़ाँचा टूट सकता है।
अगर अपना जायज अधिकार माँगने के चलते परिवार वालों से किसी महिला का सम्बन्ध्ा खराब हो भी जाता है तो हमें ऐसे सम्बन्ध क्यों बनाये रखने चाहिए जो हमारा हक मारना चाहते हैं?
सम्पत्ति और जमीन जायदाद को लेकर हमारे समाज में सगे भाइयों में भी लड़ाई होती हैं, लेकिन लड़ाई के डर से पुरुष तो अपना हक नहीं छोड़ते। फिर हम महिलाओं को अपना हक क्यों छोड़ना चाहिए?
इस दुनिया की आधी आबादी होने के चलते हमें कमला भसीन (नारीवादी सामाजिक कार्यकर्ता) की यह लाइनें याद रखनी चाहिए–
ना कम ना ज्यादा,
हमें चाहिए आधा–आधा।

-स्वाति सरिता

संपादकीय



कोरोना काल में शुरू हुई आर्थिक–सामाजिक और स्वास्थ्य सम्बन्धी परेशानियाँ खत्म होने का नाम नहीं ले रहीं, यूँ इन परेशानियों ने तो अधिकांश लोगों को किसी न किसी रूप में प्रभावित किया है परन्तु मजदूर–किसान, शहरी गरीबों और गरीब महिला समुदाय को बहुत गहरे तक तोड़ दिया है। जहाँ अधिकांश गरीबों का रोजगार छिन गया है वहीं गरीब महिलाओं की रोजी–रोटी के साथ सुख–चैन और स्वास्थ्य दोनों ही खत्म हो गये हैं। लम्बे–लम्बे समय तक चले लॉकडाउन के दौरान लाखों औरतों–मर्दों ने भारतीय इतिहास की सबसे लम्बी पलायन यात्राएँ की।
लॉकडाउन खत्म होते ही वे एक बार फिर अपना माल–असबाब उठाये पहले से बुरी शर्तों पर अपने जीवन को ‘सँवारने’ में लग गये। औरतें कम होती आमदनी में अपने परिवार का पेट भरने और तन ढकने के लिए जद्दोजहद करती रहती हैं। अपने परिवार का पेट पालने के लिए और कुछ ‘अतिरिक्त’ कमा लेने के लिए वे हद से ज्यादा कम पैसे पर काम करने को तैयार हैं। पिछले दिनों ऐसी घटनाएँ सामने आयी हैं जहाँ औरतें 40–50 रूपये में दिहाड़ी या घरेलू काम करने के लिए तैयार हो गयीं या दो जून रोटी के लिए अपनी बेटियों को किसी अनजान शहर में भेज दिया। कोरोना बाद के काल में नौकरियों में औरतों की घटती हिस्सेदारी ने उनके भविष्य को और अन्धकारमय बना दिया है।
महँगाई ने सबकी कमर तोड़ रखी है। ‘विकास’ जितना भी हुआ हो मगर बिना गैस, तेल और दालों के चूल्हा–चैका तो औरतों को ही संभालना होता है। वास्तव में अपनी मेहनत के अलावा वे हर चीज में ‘किफायत’ को मजबूर हैं चाहे वह स्वास्थ्य हो या भोजन।
‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ का नारा मजाक साबित हो चुका है। न तो बेटियाँ बच रही हैं न ही पढ़ पा रही हैं। कोरोना काल में माँ–बाप की नौकरियाँ छिनने के बाद सरकारी स्कूल की शोभा बढ़ाती लडकियाँ घरेलू कामों में फँस गयीं, परिजनों के साथ अपने गाँव वापस चली गयीं या उनके कामों में सहायक बन गयीं। कितनी लडकियाँ स्कूल में लौटीं इसका कोई आँकड़ा नहीं है।
पिछले कुछ महीनों में कितने ‘निर्भया काण्ड’ हो गये। उनमें कार्रवाई तो दूर, अपराधियों को राजनीतिक संरक्षण मिलता गया। नतीजा, अपराधी बेखौफ घूम रहे हैं। बल्कि यूँ कहें कि अपराधी और राजनीतिज्ञ के बीच की धुंधली लकीर भी अब मिट चुकी है।
लेकिन जिस तरह स्याह अँधेरी सुरंग के दूसरे छोर पर हमेशा उजाला होता है, उसी तरह बीते महीनों में तमाम मुसीबतों और परेशानियों के बावजूद लड़कियों ने कुछ क्षेत्रों में अपना झण्डा गाड़ ही दिया, जैसे, हमारी खिलाड़ी लड़कियाँ। वो भी सामान्य घरों कीं, मणिपुर, झारखण्ड छतीसगढ़, मध्य प्रदेश, हरियाणा के पिछड़े इलाकों की। आधी–अधूरी खुराक और सामाजिक भेदभाव झेलती इन खिलाड़ी लडकियों ने गाँवों के मैदानों पर अपना कौशल निखारते, लम्बा रास्ता पार करते हुए टोक्यो ओलम्पिक (जापान) तक का गौरवपूर्ण सफर पार किया।
किसान आन्दोलन में महिला किसानों की भरपूर हिस्सेदारी ने महिला आन्दोलन को भी मजबूत बनाया और उसके शहरी मध्यवर्गीय चरित्र को बदल दिया। कितनी सुखद बात है कि खेती करने वाली औरतों ने स्वयं को महज औरत न समझ कर किसान समझा, नये कृषि कानूनों से खेती–किसानी को होने वाले नुकसान को समझा और पूरी तरह आन्दोलन की हमसफर बनीं। उनके आगे बढ़ने में जितना हाथ खेती की खराब होती परिस्थितियों का था उतना ही हाथ उन किसान नेत्रियों का भी था जो दशकों में उनके बीच काम कर रही थीं। नतीजा यह है कि किसान औरतें अपने पूरे वजूद, हैसियत और समझदारी के साथ आन्दोलन का हिस्सा बनीं हैं। पिछले एक साल में उनकी हिस्सेदारी ने घर, परिवार, समुदाय और गाँव में संबन्धों और कामों की परिभाषा बदल दी है। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि 8 मार्च 2021 को टीकरी बॉर्डर पर महिला दिवस के अवसर पर जितनी बड़ी संख्या में महिलाएँ इकट्ठा हुईं उतनी महिला दिवस के इतिहास में किसी देश में कभी भी शामिल नहीं हुईं। यह अपने आप में अभूतपूर्व है और इस बात का सबूत है कि औरतों ने किसान आन्दोलन को अपना बना लिया है और किसान आन्दोलन ने औरतों को।
ऐसा नहीं है कि आन्दोलन में भागीदारी के बाद उन्हें पूर्ण बराबरी मिल गयी हो, लेकिन पूर्व के सम्बन्धों का रूप और उनकी हैसियत निश्चित ही बदली है। वे स्वविवेक से आन्दोलन में जाती हैं और जब किसी शहीद किसान के मातम में जाती हैं तो उस आवेग, दु:ख और गुस्से के साथ शामिल होती हैं जैसे उनका कोई साथी संघर्ष की राह में बिछुड़ गया हो।
तमाम निराश कर देने वाली, असभ्यता और क्रूरता की सारी हदें पार कर देने वाली घटनाओं के बावजूद आज लड़कियाँ और महिलाएँ दो कदम आगे बढीं हैं, अपने अधिकारों के प्रति जागरूक हुई हैं, जो आजादी पायी है उसे खोने के लिए तैयार नहीं और जिन्होंने आजादी नहीं पायी है वे किसी भी कीमत पर उसे पाने के लिए बेकरार हैं, आजादी के सपने को छोड़ने के लिए तैयार नहीं, और यही सबसे सुन्दर और उम्मीद भरी बात है।

खुद को जानना खुशहाली की अंतिम गारण्टी नहीं है, लेकिन यह खुशी का हिमायती है और यह लड़ने का जज्बा पैदा करता है। –सीमोन दि बोउवार

-आशु वर्मा

Wednesday, October 6, 2021

घरेलू महिलाओं की हैसियत



35 वर्षीय पूनम घर का सारा काम जैसे झाड़ू लगाना, खाना बनाना, बच्चों को तैयार करके स्कूल भेजना, सुबह पाँच बजे उठकर कड़ाके की ठण्ड में जानवरों के लिए चारा लाने जैसा काम तो करती ही थी, पति व देवर के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर खेतों में भी काम करती थी। फिर भी घर में उसकी कोई हैसियत नहीं थी। सास और पति उसकी उपेक्षा करते थे। अगर किसी बात का वह विरोध करती तो उसके साथ मारपीट करते थे। पूनम अनपढ़ थी। उसे अपने अधिकारों के बारे में लेशमात्र का ज्ञान न था। उसे बचपन से ही पति और ससुराल वालों की सेवा करना और उनके हर जुल्म को बर्दाश्त करते रहना सिखाया गया था। जो वह पालन कर रही थी। 
इसी बीच उसको कुष्ठ रोग हो गया था जिसके चलते उसके घर वालों ने उसके साथ भेदभाव करना शुरू कर दिया। उसका रसोई में जाना सख्त मना था। उसका छुआ परिवार के लोग ही नहीं खाते थे। साथ ही गाँव के लोग भी उससे भेदभाव करते थे। उसका पड़ोसियों के घर आना–जाना बन्द हो गया और एक दिन उसे घर से निकाल दिया गया। वह कितना भी रोती रही, गिड़गिड़ाती रही, उनके पैरों पर गिरती रही, कि मैं घर से दूर झोपड़ी में रह लूँगी, भीख माँग कर खा लूँगी मगर मुझे मत निकालो लेकिन हैवानियत की सारी हदें पार करते हुए उसके पति ने उसे जंगल में स्थित एक मंदिर के पास छोड़ दिया। 
यह काम उसके पति के मानसिक वहशीपन और चरम स्वार्थ को दर्शाता है। पूनम भूख प्यास से मर गयी या कोई जानवर खा गया, पता नहीं चला, लेकिन यह घटना महिला अस्तित्व पर गहरा सवाल छोड़ती है। 
ऐसी कहानी बस पूनम की ही नहीं ज्यादातर घरेलू और आर्थिक रूप से निर्भर महिलाओं की है। वे पूरी जिन्दगी अपने घर वालों की सेवा करती हैं। लेकिन जब वे  बीमार या कमजोर हो जाती हैं तो उन्हें एक इनसान भी नहीं समझा जाता क्योंकि आज भी पैतृक सम्पत्ति में महिलाओं का अ/िाकार न के बराबर है। सामाजिक रूप से कमजोर महिलाओं को गुजारे के लिए भी पिता, पति या पुत्र पर आश्रित रहना पड़ता है। इस तरह उनके पास अपना कुछ भी नहीं होता। 
2005 में सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला दिया है कि पैतृक सम्पत्ति में महिला व पुरुष का बराबर का हक होगा लेकिन यह कानून जमीनी स्तर पर लागू होता दूर तक दिखाई नहीं देता। 
सामाजिक दबाव के चलते महिलाएँ पैतृक सम्पत्ति पर अपना दावा छोड़ देती हैं। उसे इस आधार पर सही ठहराया जाता है कि उनके पिता विवाह में ढेर सारा धन और दहेज देते हैं। इसलिए पूरी सम्पत्ति बस बेटों की रह जाती है। लेकिन कुछ लड़कियाँ अपना हक माँगती भी हैं तो उनकी माँग को अवैध बता दिया जाता है।
कमजोर वर्ग से आने के चलते महिलाओं का लगातार शोषण होता है। आर्थिक  स्थिति ठीक नहीं होने के चलते उन्हें हमेशा दूसरों पर आश्रित रहना पड़ता है। समाज की गलत परम्पराओं की वजह से उनकी आर्थिक स्थिति बहुत कमजोर है। 
इसके साथ ही यह तथ्य चैंकाने वाला है कि कामकाजी महिलाओं की संख्या में गिरावट आ रही है। अर्थव्यवस्था पर नजर रखने वाले “सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इण्डियन इकोनामी” की रिपोर्ट के अनुसार 2017 के शुरुआती चार महीनों में कामकाजी लोगों में नौ लाख से ज्यादा पुरुष जुड़ें जबकि इस दौरान कामकाजी महिलाओं की संख्या में 24 लाख की कमी आयी। 
कमजोर आर्थिक हैसियत के चलते महिलाएँ हमेशा ही समाज के निचले पायदान पर धकेल दी जाती हैं। उनके अ/िाकार छीन लिये जाते हैं। देवी, ममतामयी माँ, नारी शक्ति आदि उथले सम्मान के बावजूद सच यह है कि उन्हें कभी भी घर से निकाला जा सकता है, जिससे वे दर–दर की ठोकर खाने को मजबूर हो जायें। इसलिए महिलाओं की पहली लड़ाई है अपने आर्थिक आधार को मजबूत बनाना। इससे उनके अन्दर आत्मविश्वास बढ़ता है और उन्हें अपनी समस्याओं से लड़ने में ताकत मिलती है और पति तथा परिवार के आगे वे कभी असहाय नहीं रह जातीं। आत्मनिर्भर होकर ही वे सामाजिक गतिवि/िायों में भी भाग ले सकती हैं।

–– ज्योति

इस व्यवस्था में माँ के लिए कोई नौकरी नहीं


–– कोमल 
हमेशा एक बात सुनने को मिलती है कि महिलाएँ बच्चों की वजह से अपने कैरियर में सफल नहीं होती हैं। जबकि माँ बनना महिलाओं को प्रकृति द्वारा दिया गया अनमोल तोहफा है जिसका संसार के सृजन में बहुत बड़ा योगदान है। लेकिन आज यही वरदान महिलाओं की आजादी और पुरुषों से कदम से कदम मिला कर चलने में बेड़ियाँ बनती जा रही है। लेकिन माँ बनने का मतलब यह बिलकुल नहीं है कि हमारे बच्चे हमारे काम की रुकावट हैं। तो फिर रूकावट कहाँ है? जाहिरा तौर पर इसकी जड़े हमारे समाज और इसे संचालित करने वाली व्यवस्था में ही निहित हैं। 
बीबीसी की वर्ष 2014 की रिपोर्ट के अनुसार दिल्ली और इसके आस–पास के इलाकों में काम करने वाली 1000 महिलाओं के सर्वे में पाया गया कि केवल 18–34 प्रतिशत विवाहित महिलाएँ ही बच्चा पैदा करने के बाद भी काम करना जारी रखती हैं। इसका कारण स्पष्ट तौर पर महिलाओं की उपेक्षित स्थिति और उनकी जिम्मेदारियाँ हैं। शादी के बाद घर और बच्चों की सारी जिम्मेदारी लड़कियों को ही दे दी जाती है। उन्हें बताया जाता है कि घर और बच्चों को सम्भालना ही तुम्हारा मुख्य काम है। ये सब करने के लिए हमारा समाज और पितृसत्तात्मक विचार उसे मजबूर करता है कि वह नौकरी और बच्चे की जिम्मेदारी में से सिर्फ बच्चे की जिम्मेदारी चुने। अगर कोई महिला ऐसा न करे तो हमारा समाज उसे असभ्य कहने लगता है। इसके पीछे पुरुषवादी सोच काम करती है। यह सोच पढ़ी–लिखी महिलाओं को भी प्रभावित करती है, जो महिलाओं को आगे बढ़ने से रोकती है। हमारा समाज हमेशा ही महिलाओं को घर के अन्दर कैद करने के लिए कुछ न कुछ तिकड़म भिड़ाता रहता है। 
कम्पनियों को महिलाओं द्वारा बच्चा पैदा करने से कोई मुनाफा नहीं है बल्कि वे उनकी छुट्टी और सैलरी को भी घाटे के रूप में देखते हैं। कई बार मासिक चक्र के चलते छुट्टी लेने पर महिलाओं को काम से निकाल दिया जाता है। हद तो तब हो गयी जब महाराष्ट्र के बीड, मध्य प्रदेश और राजस्थान में कम्पनियों ने महिलाओं के गर्भाशय को निकलवा दिया जिससे महिलाओं से कोल्हू के बैल की तरह काम कराया जा सके और मुनाफा निचोड़ा जा सके। 
आईटी सैक्टर में काम करने वाली महिलाओं के श्रम का योगदान देश की जीडीपी में  है। लेकिन इसके बावजूद श्रम शाक्ति में महिलाओं की संख्या (शहरी और ग्रामीण) में तेजी से गिरावट आयी है। एक दशक पहले नौकरी करने वाली महिलाओं का हिस्सा 43 प्रतिशत से घटकर अब मात्र 27 प्रतिशत रह गया है। कितनी बड़ी विडम्बना है कि हमारे डिजिटल इंडिया और 5 ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था बनाने के दावों के बीच सिर्फ 27 प्रतिशत महिलाओं के पास रोजगार है, जबकि यह आँकड़ा चीन में सबसे ज्यादा यानी 64 प्रतिशत है। 
‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’ बस एक नारा बनकर रह गया है। यह जरूर है कि  महिलाओं को कई अधिकार संविधान में दिये गये हंै। लेकिन व्यवहार में शादी से पहले उसके फैसले पिता और भाई लेते हंै और शादी के बाद पति। हमेशा लड़कियों को कहा जाता है कि शादी की बाद वह नौकरी करेगी या घर सम्भालेगी, यह फैसला ससुराल वालों का होगा। और अकसर शादी के बाद उसकी नौकरी छुड़ा दी जाती है क्योंकि उसे अच्छी माँ बनना है। 
नौकरीपेशा महिलाओं के पति कभी बच्चों की देखरेख करने, उनके कपड़े धोने, कपड़े खरीदने जैसे कई कामों में उनकी कोई मदद नहीं करते। बच्चों की सारी जिम्मेदारी माँ को ही सम्भालनी पड़ती है।
रोज–रोज के घरेलू कामों में महिलाओं की ऊर्जा को खपा दिया जाता है। उन्हें समाजोपयोगी काम से वंचित रखना महिलाओं का ही नहीं पूरे देश का नुकसान है। सच तो यह है कि अगर कोई समाज चाहे तो इस समस्या को बड़ी आसानी से हल किया जा सकता है। अगर घरेलू कामों का समाजीकरण कर दिया जाये, यानी खाना बनाना, कपड़े धोना, बच्चों के बड़े–बड़े पालना घर बना दिये जायें तो लाखों–लाख महिलाएँ नीरस घरेलू कामों से स्वतंत्र होकर नौकरी कर सकेंगी, उनके बच्चे भी पल जायेंगे और देश के निर्माण में वे अपना भी योगदान दे सकेंगी। इसके साथ ही जो महिलाएँ कामकाजी हैं उनके लिए प्रेग्नेंसी लीव देने के साथ–साथ बच्चों के रख रखाव और घर से ऑफिस की दूरी कम  की जा सकती है जिससे महिलाओं को ऑफिस में काम करने और बच्चों को सम्भालने में आसानी होगी। 

महिलाओं में बढ़ता कैंसर


 
आज भारत समेत पूरे दुनिया में कैंसर एक भयावह बीमारी के रूप में हमारे सामने खड़ी है। शायद ही ऐसा कोई व्यक्ति हो जिसने किसी अपने प्रिय को कैंसर की वजह से न खोया हो। हाल ही में मेरी एक चाची जिनकी उम्र महज 52 साल थी, उनकी मृत्यु ब्रेस्ट कैंसर की वजह से हुई है और मेरी एक सहेली ब्लड कैंसर से दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल में जीवन और मृत्यु के बीच झूल रही है जिसकी उम्र अभी मात्र 25 वर्ष है।
 कैंसर का इलाज इतना महँगा है कि इसमें अक्सर लोग मरीज को बचा नहीं पाते हैं और ऊपर से पूरा परिवार कर्जे और गरीबी के दलदल में फँस जाता है। बीमारी का इलाज करवाने के दौरान अपनी जमीन–मकान तक बेचना या गिरवी रखना पड़ता है। सीधे शब्दों में कहें तो पूरा परिवार बर्बादी की कगार पर खड़ा हो जाता है।
कैंसर महिलाओं और पुरुषों दोनों में ही बहुत ज्यादा तेजी से बढ़ रहा है। हमारे देश में हर साल कैंसर के 15 लाख नये मामले दर्ज होते हैं।
“द लैंसेट अंकोलॉजी” में छपी रिपोर्ट के अनुसार जहाँ दुनिया भर में महिलाओं के मुकाबले पुरुषों में 25: अधिक कैंसर पाया जाता है वहीं भारत में यह आंकड़ा महिलाओं में पुरुषों की अपेक्षा ज्यादा है।
आज समाज में जाँच की जाये तो हर 10 व्यक्ति में से एक को कैंसर होने की सम्भावना है। ग्रामीण क्षेत्र की महिलाओं को 60 में से एक को और शहरी स्तर पर 22 में से एक महिला को कैंसर है। पिछले 6 साल में महिलाओं के बीच कैंसर की दर में तेजी से उछाल आया है। महिलाओं में मुख्य रूप से स्तन, सर्वाइकल, ओवेरियन, गर्भाशय, मुँह और मसूड़े का कैंसर होता है।
70: कैंसर से पीड़ित महिलाओं में स्तन, सर्वाइकल, ओवेरियन और गर्भाशय का कैंसर है। जिसका इलाज से बचाव कर पाने की गुंजाइश सबसे ज्यादा होती है। महिलाओं में स्तन कैंसर 27: है और सर्वाइकल कैंसर 23: है। 
बच्चेदानी के मुँह में होने वाले कैंसर से ही भारत में हर साल लगभग 73,000 महिलाओं की जान चली जा रही है। गर्भाशय ग्रीवा कैंसर से 15 से 45 उम्र की महिलाएँ सबसे अधिक प्रभावित होती हैं। हर 8 मिनट में एक महिला की सर्वाइकल कैंसर से जान जा रही है।
महिलाएँ अपने शरीर का इतना कम ध्यान रखती हैं कि खासकर वह अपने प्रजनन या यौन सम्बन्धी अंगों में होने वाली किसी भी समस्या को लगातार छुपाती रहती हैं जिसकी वजह से किसी भी प्रकार की बीमारी बढ़ती जाती है।
हमारे देश में आज भी मात्र 18: महिलाएँ ही सैनिटरी पैड्स का इस्तेमाल कर पाती हंै। बाकी की महिलाएँ आज भी पुराने गन्दे कपड़े या एक ही कपड़े को बार–बार धोकर इस्तेमाल करती हैं जिसके चलते योनि या गर्भाशय के मुख पर कैंसर का खतरा और ज्यादा बढ़ जाता है। औसतन 1 महीने के सेनेटरी पैड का खर्चा 50 रुपये होता है और घर में अगर दो महिलाएँ भी हैं तो 100 रुपये खर्च बढ़ जाता है। जिनकी मासिक आय 100 रुपये खर्च करने के योग्य न हो वह कहाँ से सेनेटरी पैड का इस्तेमाल कर पाएँगी, ऊपर से हमारे देश की सरकार ने सेनेटरी पैड पर 12 परसेंट टैक्स लगाया है, जबकि अभी हाल ही में एक खबर आयी है कि स्कॉटलैंड की सरकार ने माहवारी से सम्बन्धित सभी प्रोडक्ट, जैसे– सेनेटरी पैड, महावारी कप, टेंपून्स इत्यादि को सभी महिलाओं के लिए मुफ्त कर दिया है। महिलाओं को यूरीन इन्फेक्शन भी बहुत ज्यादा होता है। काम की जगह और घर के बाहर गन्दे सार्वजनिक शौचालय का इस्तेमाल करने के कारण भी उन्हें तुरन्त इन्फेक्शन लग जाता है।
कैंसर जाँच के लिए जो ब्लड टेस्ट, डीएनए टेस्ट, बोन मैरो टेस्ट और लिक्विड बायोप्सी इत्यादि किये जाते हैं, उनका खर्च खासकर प्राइवेट अस्पतालों में बहुत ज्यादा है और बहुत से सरकारी अस्पतालों में ये टेस्ट मौजूद ही नहीं हंै, जिसकी वजह से प्राइवेट लैब या अस्पतालों में ये टेस्ट करवाने पड़ते हैं। सरकारी आँकड़ों के अनुसार हमारे देश में लगभग 80 प्रतिशत लोग 20 रुपये रोजाना पर गुजारा करते हैं। ऐसे में लोग कैसे प्राइवेट अस्पतालों में जा पाएँगे। इसके चलते समय पर बीमारी का पता चलना बेहद मुश्किल काम है। ग्रामीण क्षेत्रों में तो 80–100 किलोमीटर चलने के बावजूद एक ढंग का सरकारी अस्पताल और डॉक्टर नहीं मिलता। 
महिलाओं से यौन और प्रजनन सम्बन्धी स्वास्थ्य पर खुलकर बातचीत के कार्यक्रम चलाये जाने चाहिए। महिला स्वास्थ्य को लेकर सरकार को मुफ्त कैंप लगाने चाहिए व सरकार द्वारा एचपीवी टीकों की मुफ्त व्यवस्था होनी चाहिए। कैंसर की मुफ्त जाँच, इलाज केन्द्र और डॉक्टर बढ़ाया जाना जरूरी है। महिलाओं के बीच सामाजिक तौर पर उनकी  चेतना को उन्नत किया जाये, जिससे वे खुद अपनी जान की अहमियत को समझें और घर के अन्य सदस्यों को भी उनके स्वास्थ्य और दिनचर्या को लेकर संवेदनशील होकर सोचना जरूरी है। 
– स्वाति

महिलाओं की प्रसव–कालीन समस्याएँ


 
मेहनतकश महिलाएँ जब गर्भवती होती हैं तब भी उन्हें काम करना पड़ता है और उन्हें प्रसव के समय तक बिना आराम किये काम करना पड़ता है। 2019 में अर्थशास्त्री जीन ड्रेज के नेतृत्च में एक शोध दल ने भारत के छ: राज्यों छत्तीसगढ़, झारखण्ड, मध्यप्रदेश, ओडिशा, उत्तरप्रदेश और हिमाचल प्रदेश में जच्चा–बच्चा सर्वे किया। सर्वे में उन्होंने पाया कि भारत में 63 प्रतिशत ग्रामीण महिलाएँ अपने गर्भावस्था के दौरान आखिरी दिन तक काम करतीं हैं और केवल 37 प्रतिशत महिलाएँ ही हैं जिनको गर्भावस्था के समय आराम मिल पाता है। सामाजिक और आर्थिक रूप से ये सभी राज्य अन्य राज्यों से पिछड़े हैं। यहाँ मातृ मृत्यु दर एवं शिशु मृत्यु दर सबसे अधिक है। 
 यह सर्वेक्षण 706 महिलाओं पर किया गया था, जिनमें से गर्भवती महिलाएँ 342  थीं और नर्सिंग माताएँ  364 थीं। विभिन्न जिलों से आयी कई गर्भवती महिलाओं को अपने वजन की कोई जानकारी नहीं थी। गर्भावस्था के दौरान महिलाओं को पौष्टिक भोजन न मिलने के कारण उनमें से 49 प्रतिशत महिलाएँ कमजोर पायी गयी, 41 प्रतिशत महिलाओं के पैरों में सूजन थी, 17 प्रतिशत महिलाओं के आँखों की रौशनी कम मिली। हाल यह है कि बहुतायत महिलाओं को गर्भावस्था के दौरान पौष्टिक आहार नहीं मिल पाता है जिसके चलते पैदा होने वाला बच्चा औसत से कम वजन का होता है और वह पूरी तरह से स्वस्थ नहीं होता है यानी पैदा होने के समय से ही वह कुपोषण का शिकार होता है। 
नीति आयोग के अनुसार भारत में औसतन 1 लाख में 130 औरतों की गर्भावस्था से सम्बन्धित बीमारियों के कारण मृत्यु हो जाती है। 
आज भी देश के ग्रामीण इलाकों में ज्यादातर महिलाओं की कम उम्र में ही शादी कर दी जाती है जिससे उनका शरीर पूरी तरह से गर्भ धारण के लिए विकसित नहीं हो पाता। अशिक्षा के चलते महिलाओं को गर्भ धारण से सम्बन्धित पूरी जानकारी नहीं होती है। गरीबी और आहार से सम्बन्धित मूलभूत जानकारी न मिलने के चलते वे पौष्टिक भोजन का चुनाव नहीं कर पाती, आयरन, कैल्शियम और आहार में दूसरे आवश्यक तत्वों की कमीं से कई तरह की बिमारियाँ हो जाती हैं। उन्हें इन बीमारीयों की जानकारी भी नहीं होती। स्वास्थ्य सेवाओं और प्रशिक्षित चिकित्सा कर्मियों की भारी कमीं के कारण बहुत सारी महिलाएँ असमय काल के गाल में समा जातीं हैं। 
लेन्सिट जनरल की रिपोर्ट के अनुसार प्रसव के समय एनीमिया (खून की कमीं) के कारण गर्भवती महिलाओं की मृत्यु की सम्भावना दो गुनी बढ़ जाती है। 
सरकारी योजनाओं का लाभ लेने की आवेदन प्रक्रिया इतनी जटिल है कि अधिकतर ग्रामीण महिलाओं को इन सुविधाओं का लाभ मिल ही नहीं पाता। सार्वजानिक स्वास्थ्य केन्द्रों पर महिलाओं के लिए नि:शुल्क प्रसव व्यवस्था तो की गयी है, लेकिन जमीनी स्तर पर यह लागू होता नहीं दिखता, ज्यादातर योजनाएँ कागजी होतीं हैं। वहाँ भर्ती महिलाओं से पता चला कि उन्हें अपनी डिलीवरी पर 6,500 रुपये के लगभग खर्च करने पड़ते हैं चाहें उनकी स्थिति कितनी भी खराब हो। 
अस्पताल की सस्ती दवाइयों को छोड़कर जितनी भी महँगी दवाइयाँ होतीं हैं, उन्हें बाहर से खरीदना पड़ता है। इंजेक्शन से लेकर डिटोल, कॉटन, पैड तक लाना पड़ता है  जिसे उपलब्ध कराना बिल्कुल ही आसान काम है। एक आँकडे़ के अनुसार इस खर्च की पूर्ति करने के लिए एक तिहाई महिलाओं को अपनी कुछ सम्पत्ति बेचनी पड़ी या सूदखोरों से कर्ज लेना पड़ा। 
महिलाएँ हमारे समाज का निर्माण करती हैं और नवजात शिशु को जन्म देती हैं। अत: वह देश का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं, उनके स्वास्थ की पूर्ण जिम्मेदारी सरकार की होनी चाहिए।

–– रजनी यादव
 


महिलाओं के लिए सार्वजनिक शौचालय का अभाव असहनीय



महिलाएँ सामाजिक गैर बराबरी के चलते हमेशा से ही उत्पीड़न झेलती रही हैं। कहने को तो संविधान ने महिला–पुरुष दोनों को ‘एक आदमी एक वोट’ के तहत समान माना है और एक राजनीतिक हैसियत प्रदान की है परन्तु सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक रूप से दोनों के बीच बहुत गैर बराबरी है। अक्सर हम कई तरह की गैर बराबरी की बात करते हैं, पर शायद ही कभी हमने शौचालय की समान उपलब्धता के बारे में सोचा हो। अगर हम गहराई से इस विषय की पड़ताल करें तो पायेंगे की इस क्षेत्र में यह व्यवस्था कितनी असफल रही है और महिलाओं के लिए शौचालय की उपलब्धता की समस्या कितनी भयावह और विकराल रूप में हमारे सामने खड़ी है। 
हम देखते हैं कि आजकल महिलाओं के विशेषाधिकार की बात तो जोर शोर से की जा रही है, लेकिन अभी तो उनका समान अधिकारों के लिए ही संघर्ष खत्म नहीं हुआ है। सार्वजनिक स्थानों में साफ सुथरे शौचालय बुनियादी हक है, लेकिन स्त्रियों की इतनी अहम जरूरत को भी समाज और सरकार ने हमेशा नकारा है। वैसे तो सार्वजनिक स्थानों पर शौचालयों का ना होना पुरुषों के लिए भी समस्या है लेकिन उस तरह से नहीं जैसे एक स्त्री के लिए है क्योंकि वे पेशाब करने के लिए शौचालयों के मोहताज नहीं। देश के इतिहास में पहली बार 2011 में सुप्रीम कोर्ट ने स्त्रियों की इस अव्यक्त समस्या पर नोटिस लिया और स्कूलों में लड़के तथा लड़कियों के लिए अलग–अलग शौचालयों की व्यवस्था को शिक्षा के बुनियादी अधिकार से जोड़ा। 
एक शोध के अनुसार पुरुषों की तुलना में महिलाओं को शौचालय में दुगुना समय लगता हैं। कम से कम एक चैथाई महिलाएँ किसी एक समय में मासिक धर्म में होती हैं। इसके अलावा गर्भपात के दौरान खून बहना, या गर्भाशय की रसौलियों की वजह से ज्यादा खून बहना, इन स्थितियों में बार–बार कपड़ा या पैड बदलना जरूरी होता है। इसके बावजूद महिलाओं के लिए सार्वजनिक शौचालय का बेहद अभाव है। कस्बों, छोटे शहरों के बाजारों में तो हम इनकी कल्पना भी नहीं कर सकते। छोटे बस स्टेशनों और रेलवे स्टेशनों के शौचालय में तो भयानक गन्दगी के कारण घुसना भी सम्भव नहीं होता। 
बुनियादी स्तर पर इन सुविधाओं का अभाव बेहद बेचैनी और घबराहट पैदा करता है। शौचालय के अभाव में यात्रा के समय अधिकांश महिलाएँ या तो कम खाती–पीती हैं या कुछ भी नही खातीं। जो उपलब्ध शौचालय हैं उनमें अधिकांश में या तो दरवाजे नहीं होते या फिर कुण्डी नहीं होती। शौचालय की भयानक गन्दगी की वजह से यात्रा कर रही महिलाओं को अक्सर मूत्रालय का संक्रमण (यूरिन इन्फेक्शन) होता रहता है। सब महिलाएँ अक्सर ही ऐसी स्थिति से गुजरती हैं। कई बार तो इन्हीं वजहों से यात्राएँ भी टालनी पड़ती हैं। अगर गन्दगी से बचने के लिए किसी अन्य खुली और सुरक्षित जगह तलाशनी हो तो चार जोड़ी आँखें उत्सुकता में पीछा करने लगती हैं। 
सार्वजनिक शौचालय का अभाव या उनका गन्दगी से पटा रहना स्वास्थ्य की दृष्टि से बेहद खतरनाक है। शौच या पेशाब रोक कर ज्यादा देर रहने से पाचन और पेशाब सम्बन्धी बीमारियाँ हो जाती हैं। पानी कम पीने के कारण महिलाओं के शरीर में गम्भीर बीमारियाँ पैदा होने की सम्भावना कई गुना बढ़ जाती है। किडनी फेल, पेशाब की नली में रुकावट या फिर किसी तरह की यूरिनरी इंफेक्शन आदि का स्तर महिलाओं में इसी वजह से कई गुना बढ़ जाता है। अमीर से अमीर और यहाँ तक कि ऊँचे राजनीतिक पदों पर आसीन महिलाओं को भी अपने जीवन में किसी न किसी समय इस तरह की स्थितियों से गुजरना पड़ता है। 
सरकार ‘हर घर शौचालय’ की बात करती है। पर सोचने की बात यह है कि गरीब कहाँ से 20–25 हजार का टॉयलेट बनवा पाएगा? आबादी को ध्यान में रखें तो हर कुछ किलोमीटर पर शौचालय बनाना सरकार की जिम्मेदारी होनी चाहिए। परन्तु जो काम सरकार का है उसे वह निजी कम्पनियों को दे रही है, जहाँ शौचालय के इस्तेमाल के लिए पैसे अदा करने पड़ते हैं। जो व्यवस्था नि:शुल्क होनी चाहिए वहाँ हम पैसे दे रहे हैं। दिल्ली की मेट्रो ट्रेन को ही लें, इतना किराया देने पर भी टॉयलेट जाने के लिए हमें पैसा देना पड़ता है। 
लोकहित वकील और प्रोफेसर जॉनयेफ इस विषय पर कहते हैं कि जब विशालकाय सार्वजनिक इमारतें बनी थीं, तब महिलाओं के लिए रेस्टरूम बड़ा सवाल नहीं था क्योंकि तब बड़ी मात्रा में महिलाएँ ऑफिस या सार्वजनिक स्थानों पर नहीं थीं। पर आज की स्थिति में यदि महिलाओं को ऐसी हालत का सामना करना पड़ रहा है तो निश्चय ही यह उनके समान सुरक्षा अधिकार का उलंघन है। 
वास्तव में यह पूँजीवादी व्यवस्था ही विकलांग है जो कोई भी सकारात्मक रास्ता सुझाने में नाकाम रही है। अधिकाँश सरकारी संस्थाओं में महिला विरोधी विचारों वाले असंवेदनशील लोग ही विराजमान हैं। पर्याप्त और साफ शौचालयों का सार्वजनिक स्थानों पर अभाव स्पष्ट रूप से दर्शाता है की सरकारें महिलाओं की जरूरतों के प्रति किस हद तक असंवेदनशील और गैर जिम्मेदार हैं। 

–– जूही द्विवेदी 

दुनिया जहान में महिलाओं का बढ़ता संघर्ष



(1)
बेलारूस की राजधानी मिन्स्क में पिछले कई हफ्तों से लगातार प्रदर्शन जारी है। 10 हजार से भी अधिक महिलाएँ सड़क पर रैली निकालकर विरोध प्रदर्शन कर रही हंै, हाथों में फूल और झंडे लिए “इस्तीफा दो” के नारे लगा रही हैं, बेलारूस में महिलाओं की स्वतंत्रता का गीत “कुपालिंका” गाती हुई जुलूस निकाल रही हैं। अपने अधिकारों के लिए लड़ती सैकड़ों–हजारों महिलाओं का ये हुजूम बेहद खूबसूरत है।
बेलारूस में 9 अगस्त, 2020 को राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव आयोजित होने थें। पिछले 26 सालों से बेलारूस में लगातार एलेक्सजेंडर लुकाशेंको की तानाशाही बरकरार है। इस बार कड़ी टक्कर देने के लिए लुकाशेंको के खिलाफ विपक्षी महिला नेता स्वेतलाना तिखोनावस्काया खड़ी थीं। 9 अगस्त को सम्पन्न हुए चुनावों में लगातार सातवीं बार लुकाशेंको ने 80 प्रतिशत वोटों के साथ जीत हासिल की। बस इसी बात से बेलारूस की जनता का गुस्सा उभरा। उनका मानना है कि लुकाशेंको ने चुनाव में धांधले–बाजी करके ये जीत हासिल की है, तभी से बेलारूस में लुकाशेंको के खिलाफ जबरदस्त प्रदर्शन जारी है, लोग सड़क पर हैं, महिलाएँ मुख्य तौर पर इस आन्दोलन की अगुवाई कर रही हैं। हर रविवार को तो भारी मात्रा में महिलाएँ सरकारी सुरक्षा–बलों द्वारा किये जाने वाले अभद्र व्यवहार, उत्पीड़न व मार तक की परवाह किये बिना वहाँ आती हैं, उनकी एक ही माँग है कि लुकाशेंको राष्ट्रपति पद से इस्तीफा दें। एक प्रदर्शनकारी महिला कहती हैं, “ये जीने और मरने का सवाल है, हमें अपने देश को बचाने और उसे स्वतंत्र रखने की जरूरत है, हमें अपना देश बहुत प्यारा है।”
प्रदर्शन करने वाले व विपक्षी नेताओं के विरुद्ध लुकाशेंको ने कड़ी कार्रवाई की, उन्हें जेल भिजवा दिया इसीलिये स्वेतलाना तिखोनावस्काया को लिथुआनिया भागना पड़ा। बेलारूस की टॉप बास्केटबॉल चैंपियन येलेना लुईचेनका जिन्होंने अपने देश की तरफ से ओलंपिक्स में भी भाग लिया था, इस आन्दोलन का हिस्सा थीं। प्रदर्शन करने के आरोप में पुलिस ने 15 दिन के लिए उन्हें डिटेंशन सेंटर में डाल दिया और उनकी एक अन्य साथी को पुलिस का नकाब फाड़ने के जुर्म में 2–5 साल की जेल की सजा सुना दी। लुईचेनका कहती हैं, “ये ऐसा समय है जब आप कैद में इसलिए नहीं हैं क्योंकि आपने कोई जुर्म किया है बल्कि इसलिए हैं क्योंकि आप अपनी आजादी की लड़ाई लड़ना चाहते हैं। लेकिन महिलाओं का हौसला बुलन्द है और मैं ये देखकर बहुत अधिक उत्साहित हूँ।” उन्होंने यह भी कहा, “जेल में कैद औरतों को यातनाएँ देने और उनका बलात्कार करने वाले किसी भी बेलरूसी अधिकारी पर कोई कार्यवाही नहीं की गयी, उसके बावजूद भी किसी महिला ने यह नहीं कहा कि उन्हें यहाँ (जेल) आने का किसी भी तरह का कोई पछतावा है, बल्कि यह कहा कि हम अपनी जंग जारी रखेंगे और आवाज उठाते रहेंगे।”
सभी महिलाओं के इस क्रान्तिकारी जज्बे को सलाम!
(2)
सऊदी अरब में, महिला अधिकारों के लिए आवाज उठाने वाली 31 साल की सामाजिक कार्यकर्ता लुजैन अल–हथलौल को महिलाओं के लिए ड्राइविंग का अधिकार माँगने के जुर्म में 28 दिसम्बर 2020 को सऊदी के स्पेशल कोर्ट, जहाँ आतंकवाद और राष्ट्रीय सुरक्षा से सम्बन्धित मामलों की सुनवाई होती हैं, में पाँच साल, आठ महीने की जेल की सजा सुना दी गयी। महिलाओं के अधिकारों के लिए विदेशी पत्रकारों, राजनीतिज्ञों और मानवाधिकार संगठनों से संपर्क रखने के कारण लुजैन पर राज्य की राजनीतिक व्यवस्था को बदलने और राष्ट्रीय सुरक्षा को नुकसान पहुँचाने के आरोप लगाए गए।
हालाँकि मई 2018 में ही, उन्हें और उनके कुछ साथियों को महिलाओं को गाड़ी चलाने के अधिकार दिए जाने की माँग के चलते ही गिरफ्तार कर लिया गया था। उनकी गिरफ्तारी के ठीक एक महीने बाद जून 2018 में, उन्हीं के संघर्षों के चलते वहाँ की सल्तनत द्वारा महिलाओं को यह अधिकार प्राप्त हो गया। लेकिन महिलाओं का संघर्ष यहीं खत्म नहीं हुआ। एक खबर के मुताबिक, सऊदी में बहुत कम जगह ऐसी हैं जहाँ महिलाओं का ड्राइविंग लाइसेंस बनाया जाता है और साथ ही ड्राइविंग निर्देशों के लिए महिलाओं से पुरुषों की तुलना में दोगुना शुल्क लिया जाता है।
सऊदी अरब में महिलाओं को अपनी छोटी से छोटी आजादी पाने के लिए भी बहुत अधिक संघर्ष करना पड़ता है। सऊदी अरब दुनिया में अकेला ऐसा देश था जहाँ महिलाओं को अकेले गाड़ी चलाने की आजादी नहीं थी। उन्हें ड्राइविंग लाइसेंस नहीं दिए जाते थे, अगर उन्हें गाड़ी चलानी है तो अपने किसी पुरुष अभिभावक (पिता, भाई, पति इत्यादि) से अनुमति लेकर उन्हें साथ रखना पड़ता था। यदि कोई महिला अकेली गाड़ी चलाती पायी गयी तो पुलिस उसको गिरफ्तार कर लेती थी और जुर्माना लगाती थी। 2014 में लुजैन को भी ड्राइविंग करने के जुर्म में 73 दिन तक के लिए हिरासत में रखा गया था। लुजैन और उनके साथियों ने इसके विरुद्ध एक अभियान चलाया। महिलाओं के आवाज उठाने के बाद इस्लामिक विद्वानों की परिषद ने एक फतवा तक जारी कर दिया व महिलाओं के गाड़ी चलाने को गलत बताया, ये तक कहा कि इससे महिलाओं की पुरुषों से नजदीकी बढ़ेगी और वे विपरीत सेक्स के प्रति आकर्षित होंगी। 
अन्तरराष्ट्रीय दबाव के चलते, कोर्ट ने अभी लुजैन की सजा के कार्यकाल को 2018 से मानते हुए उन्हें 2 साल 10 महीने की रियायत दे दी है। लुजैन के घरवालों का कहना है कि मार्च 2021 तक उनकी रिहाई हो जाएगी। पर उसके बाद भी लुजैन को अगले 3 सालों तक किसी भी विरोध–प्रदर्शन या अभियान में हिस्सा लेने और 5 साल तक दूसरे देशों की यात्रा पर मनाही है। 
लुजैन ने बताया कि जिस दौरान वे जेल में थीं, उन्हें और उनके साथियों को बहुत बुरी स्थिति में रखा जाता था। जेल में उन्हें इलेक्ट्रिक शॉक व शारीरिक यातनाएँ दी जाती थीं। उनके साथ यौन हिंसा तक हुई और जब उन्होंने इसके खिलाफ कोर्ट में शिकायत दर्ज की तो जज ने उसे मानने से इनकार कर दिया, जबकि सरकार ने खुद अपनी जाँच–पड़ताल में इन सब बातों की पुष्टि कर दी थी। लुजैन के घरवालों ने बताया कि जेल में परिवार वालों से मिलने के प्रतिबन्ध व अन्य बुरी परिस्थितियों के विरोध में लुजैन 2 हफ्तों की भूख–हड़ताल पर भी रहीं। लूजैन की बहन लीना हथलौल ने कहा, “मेरी बहन आतंकवादी नहीं है, वह एक सामाजिक कार्यकर्ता है। जिन सुधारों की मोहम्मद बिन सलमान और सऊदी सल्तनत वकालत करते हैं, वह उसकी लड़ाई लड़ रही है, और फिर उसी के लिए सजा सुनाया जाना हद दर्जे का दोगलापन है।”
(3)
पाकिस्तान की लाहौर हाईकोर्ट ने सोमवार, 4 जनवरी 2021 को बलात्कार पीड़िता की वर्जिनिटी टेस्ट की प्रक्रिया को खत्म कर देने का आदेश दिया। पाकिस्तान की जनता और मानवाधिकार संगठनों ने इस फैसले का स्वागत किया है। पिछले काफी समय से बहुत से मानव अधिकार संगठन व सामाजिक कार्यकर्ता इसके विरोध में आवाज उठा रहे थे, पिछले साल मार्च में उन्होंने इसके विरुद्ध याचिका भी डाली, उनकी माँग थी कि रेप के मामलों में वर्जिनिटी टेस्ट जिसका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है, को खत्म किया जाना चाहिए। सबकी मेहनत आखिरकार रंग लायी और उनकी जीत हुई। अभी यह नियम पाकिस्तान के केवल पंजाब प्रान्त में ही लागू होगा, लेकिन बाकी जगहों के लिए एक मिसाल बनेगा, हालाँकि ऐसी ही एक याचिका सिंध हाइकोर्ट में भी दायर की गयी है। 
पितृसत्तात्मक व्यवस्था की जड़ों को और मजबूत करता यह वर्जिनिटी टेस्ट अथवा टू फिंगर टेस्ट महिलाओं की गरिमा को ठेस पहुँचाने जैसा है जिसमें किसी चिकित्सक, यह भी जरूरी नहीं कि वह कोई महिला ही हो, के द्वारा पीड़ित महिला के जननांगों में एक या दो उंगली डालकर इस बात की पुष्टि करवाई जाती है कि वहाँ हायमन मौजूद है अथवा नहीं। मुख्य रूप से यह टेस्ट ये जानने के लिए किया जाता है कि महिला के पहले से कोई शारीरिक सम्बन्ध थे अथवा नहीं। इसके अलावा यदि महिला के पहले से शारीरिक सम्बन्ध रहे हों तो उसके बयान को कम तवज्जो दी जाती है। इस अवैज्ञानिक टेस्ट का प्रभाव अक्सर न्यायिक प्रक्रिया में पीड़िता के खिलाफ व आरोपियों के पक्ष में होता है। 
यूनाइटेड नेशन्स की 2018 की रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया भर के कम से कम 20 देशों में अब तक यह वर्जिनिटी टेस्ट किया जाता है, भले ही उस जगह यह अवैध ही क्यों न हो। महिलाओं के साथ हमारे समाज में हमेशा से ही दुर्व्यवहार होता रहा है, परन्तु बलात्कार जैसी घिनौनी घटना से पीड़ित होने के बावजूद मेडिकल प्रोटोकॉल के नाम पर इस तरह की कारवाई बेहद शर्मनाक है। इससे गुजरने वाली महिलाओं का कहना है कि ये फिर से बलात्कार होने जितना दर्दनाक है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार इस तरह का टेस्ट एक अनैतिक कृत्य है, इसका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है और यह मानवाधिकारों का उलंघन है। 
लाहौर हाई कोर्ट की चीफ जस्टिस आयशा मलिक ने इस पर अपना फैसला सुनाते हुए कहा है कि, “यह एक बेहद अपमानजनक प्रक्रिया है जिसमें यौन हिंसा व आरोपी पर ध्यान देने के बजाय पीड़िता को ही गलत साबित किया जाता है।” हाईकोर्ट के इस फैसले पर पाकिस्तान की एक एक्टिविस्ट लिखती हैं कि, “मैं उन सभी महिलाओं की शुक्रगुजार हूँ, जिन्होंने दशकों तक ये लड़ाई लड़ी और आगे भी लड़ती रहेंगी। लेकिन हम बाकी महिलाएँ ये न भूलें कि यह तो समस्या का बस छोटा सा हिस्सा था।”
(4)
अर्जेन्टीना में बुधवार, 30 दिसम्बर 2020 को 12 घण्टे तक चले सत्र के बाद, 38 मतों के साथ गर्भपात को कानूनी वैधता देने वाला विधेयक पारित कर दिया गया। पिछले कई दशकों से वहाँ की महिलाएँ इसके लिए आन्दोलन कर रही थीं। इस बिल के अनुसार, किसी भी महिला को अब 14 सप्ताह तक के गर्भ को गिराने की मंजूरी है, और साथ ही दुष्कर्म और स्वास्थ्य को खतरा होने की स्थिति में 14 सप्ताह बाद भी गर्भपात कराया जा सकता है। इस विधेयक का पास होना, लातिन अमरीका में होने वाले बड़े बदलावों में से एक है। 2018 में भी सदन में इस बिल को पास करवाने की कोशिश की गयी थी, पर मतों के कम होने के चलते यह बिल पास नहीं हो पाया था। वहाँ के राष्ट्रपति अल्बर्टो फर्नान्डीज ने भी इस बिल का समर्थन किया है। लातिन अमरीका के कुछ अन्य देश जैसे– क्यूबा, उरुग्वे और गयाना में भी इसे कानूनी वैधता प्राप्त है। 
अर्जेन्टीना में अब तक महिलाओं को गर्भपात करवाने की इजाजत नहीं थी। जो महिलाएँ गर्भपात करवाती थीं, उन्हें दण्डित किया जाता था व सम्मान की नजर से नहीं देखा जाता था। सरकार का कहना है कि करीब 4–4 करोड़ की आबादी वाले अर्जेन्टीना में एक साल में तकरीबन 3–7 लाख से 5–2 लाख तक अवैध गर्भपात होते हैं। इस बिल का पास होना, पिछले कई सालों से महिलाओं को एबॉर्शन का अधिकार दिए जाने की माँग कर रहे महिला आन्दोलनों की एक बड़ी जीत है। यह जीत इसलिए भी ऐतिहासिक है क्योंकि वहाँ के कैथोलिक चर्च के पोप इस बिल के विरोध में थे, लेकिन इन सब के बावजूद भी वहाँ की महिलाओं ने हार नहीं मानी और संगठित संघर्ष से जीत हासिल की।
अर्जेन्टीना की एक लेखक और एक्टिविस्ट क्लोडिया पिनाइरो ने बिल पास होने के एक दिन पहले कहा कि, “सबके लिए बेहद मुश्किल रहे इस साल के अन्त में हम सबको इस बेहद महत्वपूर्ण और न भूल पाने वाले क्षण का इंतजार है। मैं केवल यही आशा करती हूँ कि सीनेट यह महसूस करें कि महिलाओं के लिए अब पीछे हटने का कोई रास्ता नहीं बचा है। महिलाओं का यह आन्दोलन अब हमें हमारे शरीर व हमारे स्वास्थ्य के बारे में किसी और से अनुमति लेने और गुप्त रूप से गर्भपात करवाने को बाध्य करने की इजाजत नहीं देगा। 
“हमें अब भी उनकी ये बेतुकी दलीलें झेलनी पड़ती है कि हमें देश की आबादी बढ़ाने के लिए बच्चे करने ही होंगे, जैसे हम कोई इनसान नहीं बल्कि प्रजनन की कोई मशीन हैं या महज एक गर्भाशय हैं। लेकिन कल से यह सब बदल जाएगा। मुझे इस बारे में जरा भी सन्देह नहीं है।”
(5)
भारत मे 19 जनवरी 2021 को, मुम्बई हाइकोर्ट की नागपुर बेंच की महिला जज पुष्पा गनेड़ीवाला के अनुसार, एक 39 साल के व्यक्ति द्वारा बिना वस्त्र उतारे व भीतर हाथ डाले, बाहर से जबरन 12 साल की बच्ची के स्तन दबोचना पोस्को एक्ट (प्रोटेक्शन ऑफ चिल्ड्रन फ्रॉम सेक्सुअल ऑफन्सेज एक्ट) के अन्तर्गत यौन उत्पीड़न में नहीं आता। उनके निर्णयानुसार, उस व्यक्ति को इस अपराध से बरी कर दिया गया। न्याय व्यवस्था खुद जब स्त्री–विरोधी निर्णय देने लगे, तब महिलाएँ अपने साथ होने वाले अपराधों के लिए किसके सामने जाकर गुहार लगाएँ?
पीड़िता के मुताबिक, आरोपी सतीश बच्ची को खाने का सामान देने के बहाने अपने घर ले गया था। वहाँ उसने जबरदस्ती उसके ब्रेस्ट छूने और उसे निर्वस्त्र करने की कोशिश की। हाईकोर्ट ने इस मामले को यह कहते हुए कि आरोपी और पीड़िता के बीच यौन मंशा के साथ किसी तरह का कोई स्किन टू स्किन टच नहीं हुआ था, पोस्को एक्ट के अन्तर्गत रखने से इनकार कर दिया और आईपीसी सेक्शन 354 के तहत केवल शीलभंग के मामले में एक साल की सजा सुना दी। हालाँकि लोगों द्वारा इस बात की कड़ी निन्दा हुई है और इस फैसले को स्वीकार न करते हुए इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गयी है।
महाराष्ट्र सरकार के पूर्व स्टैंडिंग काउंसिल निशांत कत्नेसवरकर इस फैसले पर कहते हैं, “बॉम्बे हाईकोर्ट ने जो तर्क दिया है, उसे स्वीकार नहीं किया जा सकता है। पोक्सो कानून के प्रावधान कहीं भी निर्वस्त्र करने की बात नहीं करते हैं। लेकिन हाई कोर्ट ने ये तर्क दे दिया है जिसे स्वीकार नहीं किया जा सकता है।” 
ट्विटर पर एक महिला लिखती हैं, “मुम्बई कोर्ट का आज जो फरमान आया है उससे तो यही साबित हो रहा है कि आज भी भारत में पुरुषवादी मानसिकता वाले लोग हैं और महिलाओं की बराबरी और आजादी सिर्फ कागजों तक ही रह गई है। भारतीय न्याय व्यवस्था पर शर्म आती है।”

–रुचि मित्तल


Saturday, May 1, 2021

विज्ञान विषयों में महिलाओं की भागीदारी




आज के युग में जब औरत अपनी पहुँच, अपनी दस्तक हर क्षेत्र में दे रही है, वह वैज्ञानिक, उद्योगपति, राजनेता, तकनीशियन, सभी जगह अपनी भागीदारी दे रही है, तब भी समाज में महिलाओं के लिए कुछ चुनिन्दा पेशे हैं, जैसे शिक्षिका, नर्स, डॉक्टर या अन्य सेवा भाव वाले काम। आज भी औरतों को मानवीय विषयों जैसे सौंदर्यशास्त्र, कला, संगीत, आदि विषयों के लिए जितना योग्य माना जाता है, उतना वैज्ञानिक या तकनीकी क्षेत्र के लिए नहीं। इससे अलग शिक्षा के लगातार महँगे होते जाने से भी अब विज्ञान या तकनीकी विषयों में महिलाओं की संख्या बढ़ नहीं रही है, क्योंकि शिक्षा के महँगे हो जाने से लड़का या लड़की में से परिवार सिर्फ एक को ही पढ़ा सके तो प्राथमिकता में लड़का ही होता है।
जो थोड़ी बहुत महिलाएँ विज्ञान या गणित विषयों की पढ़ाई करती भी हैं उनमें से बहुत ही कम महिलाएँ विज्ञान या तकनीकी से जुड़े शोध कार्यों में अपनी हिस्सेदारी कर पाती हैं। एक शोध के अनुसार दुनिया भर में वैज्ञानिक शोध कार्यों में लगे शोधार्थियों में केवल 30: महिलाएँ हैं जबकि भारत के मामले में यह आंकड़ा और भी नीचे है। जहाँ 2–8 लाख शोधार्थियों में महिलाओं का प्रतिशत केवल 14: है। इन आंकड़ों से समझा जा सकता है कि शोध संस्थानों में लैंगिक असमानता कितनी ज्यादा होती है जिसका असर हम आज के वैज्ञानिक शोध में महिलाओं से सम्बन्धित विषयों का बहुत कम शोध होने के रूप में देख सकते हैं (महिलाओं को होने वाली बीमारियों पर सबसे कम शोध होते हैं)। महिलाएँ, महिला सम्बन्धी विषयों की जरूरत को बेहतर समझ सकती हैं, इससे अलग महिलाओं से सम्बन्धित विषयों पर ही नहीं बल्कि और दूसरे विषयों में भी महिलाओं की भागीदारी उससे ज्यादा बेहतर बना सकती हैं। माना जाता है कि शोधकर्ताओं के जिस समूह में महिला और पुरुष दोनों होते हैं उनके प्रयोगों के परिमाण उस समूह से ज्यादा बेहतर थे जिसमें सिर्फ पुरुष ही शोधार्थी थे। कुछ शोध से पता चलता है कि महिलाएँ विज्ञान के प्रति पुरुषों से एकदम भिन्न रवैया रखती हैं, जिससे पूरे समूह  के सोचने का दायरा बढ़ जाता है। विज्ञान से जुड़े क्षेत्र में शिक्षा व रोजगार के लिए महिलाओं व लड़कियों की भागीदारी बढ़ाने के उद्देश्य से  ‘विज्ञान में महिलाओं व लड़कियों के अंतरराष्ट्रीय दिवस’ पर प्रोत्साहन दिया जा रहा है।
महिलाएँ शोध कार्यों में नहीं जातीं, इसके पीछे समाज में महिलाओं की घरेलू जिम्मेदारियों को निभाना, मातृत्व और बच्चों के पालन–पोषण, बुजुर्गों का ध्यान रखने जैसी सामाजिक जिम्मेदारीयाँ हैं, जिन्हें मुख्यता महिलाएँ ही निभाती हैं। भारत जैसे देश में तो जैसे ये कार्य सिर्फ महिलाओं के ही होते हैं। महिलाएँ कोई भी पेशा करती हों लेकिन उनकी पहली भूमिका माँ, बहन, बेटी, बहू से जुड़ी होती है। महिलाएँ जहाँ इन जिम्मेदारियों को निभाने में हर रोज अपने समय को औसतन 352 मिनट का समय देती हैं वहीं पुरुष इन सब के लिए केवल 52 मिनट दिन भर में खर्च करते हैं। जहाँ महिलाओं का 9:00 से 5:00 वाली निश्चित समय की नौकरी करना ही एक बड़ी चुनौती हो वहाँ शोध कार्यों जैसी अनिश्चित समय सीमा वाले पेशे को करना महिलाओं के लिए बहुत कठिन हो जाता है।
विज्ञान से सम्बद्ध संस्थाओं में महिलाओं की मौजूदगी के मामले में भारत 69 देशों की सूची में लगभग सबसे निचले पायदान पर है। विज्ञान पत्रिका ‘नेचर’ के सर्वेक्षण के अनुसार ‘भारतीय राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी’ में 2013 में कुल 864 सदस्यों में सिर्फ 52 महिलाएँ थीं। वर्ष 2014 तक इस संस्थान के 31–सदस्यीय अधिशासी समिति में एक भी महिला सदस्य नहीं थी। भारत की तुलना में अमेरिका, स्विट्जरलैंड और स्वीडन में राष्ट्रीय अकादमी के शासन मण्डल में 47 फीसदी महिलाएँ हैं, क्यूबा, नीदरलैंड और ब्रिटेन में विज्ञान अकादमियों में 40 फीसदी से अधिक महिलाएँ हैं।
हरित अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देने और जलवायु संकट से निपटने में विज्ञान की एक खास भूमिका है और इसमें सभी की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए यह जरूरी है कि विज्ञान से पुरुषत्व को जोड़ने वाली धारणाएँ तोड़ी जाएँ। संयुक्त राष्ट्र शैक्षिणिक, वैज्ञानिक एवं सांस्कृतिक संगठन (यूनेस्को) के आंकड़े दर्शाते हैं कि विज्ञान, टेक्नोलॉजी, इंजीनियरिंग और गणित यानी स्टैम विषयों में महिलाओं द्वारा प्रकाशित शोध की संख्या कम है, उन्हें अपने शोध का मेहनताना भी कम मिलता है और पुरुष सहकर्मियों की तुलना में वे करियर में उतना आगे नहीं बढ़ पातीं।
वर्ष 2014–2016 तक के आंकड़े दर्शाते हैं कि सूचना व संचार टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में महिलाओं व लड़कियों की संख्या कम है– महिलाएँ कुल संख्या का महज तीन फीसदी हंै जबकि प्राकृतिक विज्ञान, गणित व सांख्यिकी में यह आंकड़ा पाँच फीसदी तक सीमित है।
महिलाओं की शोध संस्थाओं में संख्या को बढ़ाने के लिए समाज में महिलाओं की शिक्षा और उनकी सामाजिक भूमिका का फिर से बँटवारा करना पड़ेगा जिसमें महिलाओं की पारिवारिक जिम्मेदारी को परिवार में उचित ढंग से बाँटना पड़ेगा। उसके मातृत्व के गुण को महिला की कमजोरी की तरह नहीं बल्कि उसकी सामाजिक आवश्यकता की तरह देखा जाए तब ही महिलाओं को समाज में अपनी योग्यता दिखाने का सही अवसर मिल पाएगा। महिलाओं को परिवार से अलग उनके कार्य स्थलों पर सम्मान और सुरक्षित माहौल देना होगा उनके घरों से कार्य स्थलों तक आने–जाने के लिए सुरक्षित माहौल देना होगा तभी महिलाएँ आगे बढ़ कर अपनी योग्यता को दिखा सकेंगी।
–दीप्ति


पोलैंड का महिला आन्दोलन




पिछले साल जब पूरी दुनिया कोरोना महामारी से जूझ रही थी, तब पोलैंड की महिलाएँ अपने हक की लड़ाई भी लड़ रही थीं। महिलाओं की इस लड़ाई में देश के हर वर्ग–हर उम्र के लोग शामिल हुए। पोलैंड के पिछले तीस सालों के इतिहास में यह सबसे बड़ा आन्दोलन था। यह आन्दोलन महिलाओं के गर्भपात से सम्बन्धित कानूनों में बदलाव को लेकर हुआ। 
पूरे यूरोप में पोलैंड ही एकमात्र ऐसा देश है जहाँ गर्भपात से सम्बन्धित कानून बहुत ही कड़े हैं। साल 2016 में जब वहाँ की सरकार ने गर्भपात को निषेध करते हुए गैरकानूनी घोषित कर दिया था तब पूरा देश एकजुट होकर उठ खड़ा हुआ। लोगों ने काले कपड़े, पट्टा आदि बांध कर इस फैसले पर कड़ा विरोध जताया और पूरे देश में जगह–जगह भारी विरोध प्रदर्शन हुए। यह आन्दोलन ‘ब्लैक प्रोटेस्ट’ के नाम से पोलैंड के इतिहास में हमेशा के लिए दर्ज हो गया। आन्दोलन के दबाव में आकर सरकार ने यह कानून वापिस ले लिया। पर जो नये कानून बनाये उनमें केवल विशेष परिस्थितियों में ही महिलाओं को गर्भपात का अधिकार मिला।
पोलैंड सरकार के अनुसार महिलाएँ सिर्फ तीन परिस्थितियों में ही गर्भपात करा सकती थीं––
(1) जब भ्रूण के कारण माँ की जान को खतरा हो।
(2) जब भ्रूण व्यभिचार या बलात्कार का परिणाम हो। 
(3) जब भ्रूण असमान्य हो और जन्म के बाद उसके जीवित बच पाने की सम्भावना न हो।
इन कड़े कानूनों को भी वहाँ की महिलाएँ थोड़े–बहुत विरोध के साथ ढोती रहीं।
अक्टूबर 2020 में पोलैंड के सर्वोच्च न्यायालय ने एक नया नियम प्रस्तावित किया जिसमें ऊपर दी गयी तीन परिस्थितियों में से अन्तिम को समाप्त किये जाने का फरमान था। इस आदेश के पक्ष में न्यायालय का तर्क था कि “सिर्फ महिलाओं की सुविधा के लिए अजन्मे बच्चे की हत्या ठीक नहीं” और “भ्रूण को भी दीक्षास्नान, अन्तिम संस्कार और माँ की गोद में दम तोड़ने का अधिकार मिलना चाहिए।”
न्यायालय के इस बेतुके तर्क पर आन्दोलनकारी महिलाओं का प्रतिउत्तर था कि एक अजन्मे शिशु के अधिकारों का बचाव करने में उनके अधिकार छीने जा रहे हैं। इस नियम के बाद महिलाओं को उनके अपने ही शरीर पर अधिकार नहीं रहेगा। सरकार चाहती है कि महिलाएँ उस परिस्थिति में भी बच्चे को जन्म दें जबकि बच्चा जन्म लेते ही या कुछ समय बाद ही दम तोड़ देगा। एक माँ के लिए इससे ज्यादा पीड़ादायक और भयावह क्या होगा!
सरकार के इस अमानवीय आदेश के विरोध में पोलैंड की महिलाएँ एक बार फिर से संगठित होकर संघर्ष के लिए तैयार हो गयीं। 22 अक्टूबर 2020 को महिला कार्यकर्ता सुशानो अपने कुछ साथियों के साथ न्यायालय पहुँची और वहाँ से वर्तमान सत्ताधारी पार्टी पीआईएस के मुखिया के घर तक मार्च निकाला। देश के 580 शहरों–कस्बों में विरोध–प्रदर्शन हुए और मार्च निकाले गये जिनमें लाखों लोग शामिल हुए। इन विरोध–प्रर्दशनों में न सिर्फ महिलाएँ, बच्चे, वृद्ध, पुरुष, छात्र सभी शामिल हुए। वहाँ के बस–टैक्सी चालकों ने भी अपनी गाड़ियों पर “वी आर विद यू” (हम तुम्हारे साथ हैं) लिखवाकर इस आन्दोलन का समर्थन किया।
भारी विरोध प्रर्दशनों के कारण इस कानून को अब तक लागू नहीं किया गया है। इस आन्दोलन के नेतृत्व का कहना है कि यह आन्दोलन अब सत्ताधारी पार्टी के इस्तीफे के साथ ही रुकेगा। पोलैंड के लोगों ने इस आन्दोलन को क्रान्ति का नाम दिया है। वह क्रान्ति जो नया सवेरा लायेगी!
इस आन्दोलन को तोड़ने की कोशिश में वहाँ की धर्मपरायण और चर्च की कठपुतली सरकार ने कई हथकण्डे अपनाये। निचले स्तर की राजनीति करते हुए वहाँ के शिक्षा मंत्री ने बयान दिया कि जिन विश्वविद्यालयों ने आन्दोलन का समर्थन किया, उनको दिये जाने वाले भत्तों में कटौती कर दी जायेगी। यहाँ तक कि महामारी को भी हथियार बनाने में इन्हें लाज नहीं आयी। सरकारी पक्ष के वकील ने कहा कि आन्दोलनकारी भीड़ इकट्ठी कर के महामारी को बढ़ावा दे रहे हैं। इन पर महामारी को जानबूझ कर बढ़ावा देने की धाराएँ लगायी जायेंगी, जिनमें आठ वर्ष तक की कैद का प्रावधान है।
इन सब घटिया राजनीतिक दाँव–पेंचों के बावजूद इस आन्दोलन ने सीना तान कर सरकार को चुनोती दी। महिलाएँ “माई बॉडी, माई च्वॉइस” (मेरा शरीर, मेरा चुनाव) के बैनर लिये कोरोना के दौर में अपनी जान की परवाह किये बिना, अपनी आजादी के लिए सड़कों पर डटी रहीं। 
इस नये कानून या गर्भपात से सम्बन्धित कानूनों में जो सख्ती है, उसका कारण जानना बहुत जरूरी है। पोलैंड की राजनीति में चर्च का बहुत अधिक प्रभाव है। चर्च के अनुसार भ्रूण की हत्या पाप है। चर्च के प्रभाव के चलते वहाँ की सरकार बार–बार गर्भपात विरोधी कानून बनाने के कोशिश कर रही है। जिससे कि यह पाप न हो। अब सवाल यह है कि इस पाप को पुण्य में बदलने की कीमत क्या है? उत्तर है– महिलाओं का उनके अपने शरीर और जिन्दगी पर अधिकार।
समस्या के मूल में जाएँ तो यह समझ आता है कि राजसत्ता पर धर्म का हस्तक्षेप ही वह कारण है जिससे पोलैंड में हलचल मच गयी। कोरोना महामारी के दौर में जब पूरी दुनिया अपने–अपने घरों हमें कैद थी, तब पोलैंडवासी सड़कों पर उतरने को मजबूर हुए।
इतिहास गवाह है कि दुनिया में कहीं भी, जब–जब राजनीति पर धर्म का हस्तक्षेप हुआ है, परिणाम हमेशा ही बुरे रहे हैं। धर्म राजनीतिक स्वार्थ को साधने में ढ़ाल बन जाता है। बदले में राजनीति धर्म के सही–गलत, सभी नियमों का समर्थन करती है।
–अपूर्वा तिवारी

Thursday, April 22, 2021

अनसुने और अज्ञात मार्गदर्शक




भारत में जिन मुद्दों से दलित औरतों की जिन्दगी में प्रभाव पड़ता है अकसर वह नारीवादी आन्दोलन की चर्चाओं में कम ही आ पाते हैं। लेकिन फिर भी ग्रामीण क्षेत्रों की छोटी जाति–बिरादरी की औरतें अपने हकों के लिए संघर्ष करती आई हैं। भारत में नारीवादी लैंगिक न्याय के लिए संघर्ष करती हैं– महिलाओं की गतिशीलता के अधिकार के लिए, लैंगिक हिंसा और भेदभाव के खिलाफ। लेकिन ये शहरी क्षेत्रों तक ही केन्द्रित है। उन संघर्षों ने महिलाओं के लिए प्रमुख जीत हासिल की है जो दोनों, प्रगतिशील कानूनी और सामाजिक मानदण्डों में परिवर्तन को सामने ला रहे हैं।
हालाँकि भारत में दलित महिलाओं को अपने हकों के लिए कई जमीनी संघर्षों का नेतृत्व किया, जबकि उन्होंने खुद को नारीवादियों के रूप में नहीं पहचाना होगा। यह संघर्ष 1970 के दशक में उत्तराखण्ड के चिपको आन्दोलन से लेकर केरल के श्रमिक हड़ताल तक के हैं। यह संघर्ष बेहद स्थानीय थे फिर भी उनका प्रभाव उनकी सोच से आगे निकल गया। उनमें से कुछ पर एक नजर डालते हैं–


श्रमिक हड़ताल
नर्सिंग जैसे महिलाप्रधान व्यवसायों में महिलाओं को आमतौर पर बहुत कम भुगतान किया जाता है। इन व्यवसायों को गंभीरता से नहीं लिया जाता है या एक ‘सेवा’ का नाम देकर भुगतान कम किया जाता है। यहाँ तक कि शारीरिक श्रम सहित अन्य व्यवसायों में, लिंग के आधार पर वेतन में अन्तर बना रहता है। केरल में चाय बागान श्रमिकों और नर्सों ने हाल ही में इस तरह के भेदभाव को खत्म करने में कामयाबी हासिल की। केरल के मुन्नार के चाय बागानों में चाय की पत्ती चुनने वाली अधिकांश महिला मजदूर दलित हैं, जो दशकों पहले तमिलनाडु से पलायन कर गई थीं। वे कठोर परिस्थितियों में प्रतिदिन 14 घंटे न्यूनतम दैनिक मजदूरी 232रु के लिए काम करती थी, जबकि राज्य में शारीरिक काम करने वाले मजदूरों के लिए औसत दैनिक वेतन 500रु से अधिक था। महिलाएँ बिना शौचालय वाले टिन शेड में रहती थीं और उनके बच्चे अकसर स्कूली पढ़ाई पूरी नहीं कर पाते थे।
2015 में, जब बागान प्रबन्धन ने श्रमिकों के वार्षिक बोनस को आधा कर दिया, तो कुछ महिला कार्यकर्ता मौन विरोध में मुन्नार की सड़कों पर बैठ गयी। कुछ ही दिनों में प्रदर्शनकारियों की संख्या लगभग 12,000 हो गई। समूह ने खुद को पोम्बिलाई ओरूमई नाम दिया। पुरुष प्रधान ट्रेड यूनियन में महिलाएँ बहुत कम बोला करती थीं, इसलिए विरोध प्रदर्शन के दौरान उन्होंने शोषणकारी ट्रेड यूनियनों और अपने ही घर के मर्दों को प्रदर्शन से दूर रखा।
एक महीने के अन्दर, राज्य सरकार को कदम उठाना पड़ा और प्रबन्धन को श्रमिकों की न्यूनतम मजदूरी को 301रु तक बढ़ाना पड़ा। ओरुमई के कुछ नेता स्थानीय निकाय तक के चुनाव जीत गए। यह भारत में सम्भवत: पहली बार था जब आम महिला श्रमिकों के एक समूह ने प्रबन्धन और स्थापित यूनियनों का मुकाबला करते हुए सफलता हासिल की।
इसी तरह केरल के निजी अस्पतालों में काम करने वाली नर्सों ने 2017 में उचित वेतन के लिए संघर्ष किया और जीत हासिल की। बेहद कम भुगतान पाने वाली नर्सों ने 2012 में संगठित हो विरोध प्रदर्शन किया, जिसके बाद उनका मासिक न्यूनतम मूल वेतन बढ़ा कर 9500रु कर दिया गया। लेकिन कई अस्पताल प्रबन्धकों ने इस राशि का भुगतान नहीं किया। दबाव और प्रबन्धन के खतरों के बावजूद 2017 में राज्य भर के अस्पतालों में नर्सों ने एक महीने तक लगातार हड़ताल की। राज्य सरकार ने तब नर्सों के संघ और प्रबन्धन के साथ बातचीत की। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा नियुक्त जगदीश प्रसाद समिति की सिफारिशों के अनुरूप नर्सों का न्यूनतम वेतन 20,000रु तक बढ़ा दिया गया।
बेंगलुरु में भी महिला श्रमिकों के बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन हुए हैं। अप्रैल 2016 में शहर में ठहराव आया, क्योंकि कपड़ा कारखाने की हजारों महिला मजदूरों ने अन्य श्रमिकों के साथ सड़कों पर अनायास कब्जा कर लिया। फैक्ट्रियों में शोषण और यौन उत्पीड़न का सामना करने वाली महिलाएँ केन्द्र सरकार की श्रमिकों के पीएफ खातों तक पहुँच को प्रतिबन्धित करने की योजना का विरोध कर रही थी। सरकार को इस विचार को तुरन्त त्यागने के लिए मजबूर होना पड़ा।


पर्यावरण संरक्षण के लिए विरोध
जब जल–जंगल जैसे प्राकृतिक संसाधन नष्ट हो जाते हैं तो हाशिये के समुदायों की महिलाएँ सबसे अधिक प्रभावित होती हैं। 1970 के दशक की शुरुआत में उत्तराखण्ड में महिलाओं ने पेड़ों की कटाई रोकने के लिए ‘चिपको आन्दोलन’ की शुरुआत की। सरकार की नीतियों और वाणिज्यिक हितों के कारण क्षेत्र के जंगल तेजी से घट रहे थे, जिसके परिणाम स्वरूप बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाएँ आर्इं। इसने गढ़वाली समुदाय की वन संसाधनों तक पहुँच सीमित कर दी। समुदाय की महिलाएँ जीवन यापन के लिए लघु वन्य–उपज इकट्ठा करती थीं। चिपको आन्दोलन की परिकल्पना सर्वोदय सदस्यों (विनोबा भावे के अनुयायियों) के एक समूह द्वारा की गई थी, लेकिन यह गढ़वाली महिलाएँ थीं जिन्होंने इसे एक आन्दोलन में बदल दिया। गौरा देवी व अन्य महिलाओं ने अपने गाँवों में महिलाओं को संगठित किया, उन्होंने उन पेड़ों को गले लगाया जिन्हें कोई भी काटने का प्रयास कर रहा था। अन्तत: राज्य सरकारों ने जंगलों में अस्थाई रूप से पेड़ों की कटाई पर प्रतिबन्ध लगा दिया।
चिपको के समान ही ‘झारखण्ड जंगल बचाओ आन्दोलन’ (जेजेबीए) है। आदिवासी समुदायों के नेतृत्व में यह राज्यव्यापी आन्दोलन सन 2000 से बढ़ रहा है। इस आन्दोलन का उद्देश्य जनजातीय समुदायों को जंगल में अधिकार दिलाने और इसे व्यवसायिक शोषण से मुक्त कराना है। यहाँ भी महिलाएँ सबसे अधिक प्रभावित हुर्इं और आन्दोलन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बनी रहीं। उनके सहज विरोध ने पुलिस और वन अधिकारियों को पीछे हटने और यहाँ तक कि पेड़ों की कटान की योजनाओं को छोड़ देने पर मजबूर किया। उदाहरण के लिए कर्मा बेड़ा गाँव में जब वन विभाग के अधिकारियों ने व्यावसायिक रूप से उपयोगी नीलगिरी के पेड़ लगाने की कोशिश की, तो जेजेबीए महिलाओं ने लाठी और दरान्ती के साथ उनका सामना किया। अधिकारी बाद में वहाँ कभी नहीं लौटे। झारखण्ड के जंगल अब जेजेबीए की निगरानी में पुनर्जीवित हो रहे हैं।
केरल के प्लाचीमाडा गाँव में, आदिवासी महिलाओं ने शक्तिशाली कोका–कोला कम्पनी के खिलाफ लड़ाई जीती। कम्पनी का कारखाना, गाँव से पांच लाख लीटर भूजल खींच रहा था और भूजल को गम्भीर रूप से प्रदूषित कर रहा था। इसने ग्रामीणों के स्वास्थ्य और उनकी फसलों को प्रभावित किया। महिलाओं को अपने दैनिक कृषि काम और लड़कियों को स्कूल छोड़ना पड़ा ताकि वे दिन में दो बार 5 किलोमीटर पैदल चलकर साफ पानी ला सकें। 50 वर्ष की कृषि मजदूर मयिलम्मा ने ‘कोका–कोला विरुद्ध समिति’ की स्थापना की, जिसने कारखाने के बाहर लगातार विरोध प्रदर्शन किया। समुदाय की महिलाओं ने भी कई प्रदर्शनों का नेतृत्व किया और गिरफ्तारियों का सामना किया। आखिरकार 2004 में कारखाना बन्द कर दिया गया, पर इसके 4 साल बाद ही इसका संचालन पुन: शुरू हो गया।


शराबबन्दी और घरेलू हिंसा के खिलाफ लड़ाई
90 के दशक की शुरुआत में आन्ध्र प्रदेश में ग्रामीण महिलाओं ने अपमानजनक शराबी पतियों से तंग आकर राज्यव्यापी शराब विरोधी आन्दोलन का नेतृत्व किया। इसकी शुरुआत तब हुई जब वर्धनिनी रोसम्मा नामक छात्रा अपनी पाठ्यपुस्तक की एक कहानी से प्रेरित हुई, जिसमें एक महिला एक शराब लॉबी के खिलाफ लड़ती है। रोसम्मा ने नेल्लोर जिले के अपने पैतृक गाँव डबगुंटा में महिलाओं को संगठित किया। समूह ने स्थानीय ताड़ी के ठेके पर झाड़ू और मिर्च पाउडर से हमला किया और इसे बन्द करने के लिए मजबूर कर दिया। इस ने राज्य भर की महिलाओं को आन्दोलन में शामिल होने के लिए प्रेरित किया। उनके विरोध में आन्ध्र प्रदेश सरकार को 1993 में देसी शराब पर प्रतिबन्ध लगाने और 1995 में शराबबन्दी लागू करने के लिए मजबूर किया, हालाँकि यह अस्थाई रूप से ही था।


उत्तर प्रदेश में एक महिला सतर्कता समूह है जो अब गुलाबी गैंग के नाम से जाना जाता है। 2003 में यह समूह सबसे दूरस्थ और सबसे पिछड़े इलाकों में से एक में शुरू हुआ था, जब अधेड़ सम्पत पाल देवी ने एक व्यक्ति को अपनी पत्नी को पीटने से रोकने की कोशिश की थी, उस व्यक्ति ने सम्पत को गालियाँ दी। अगले दिन सम्पत लाठियों के साथ महिलाओं के समूह को लेकर आई और उस आदमी की पिटाई कर दी। अब समूह में हजारों महिलाएँ हैं जिसमें से ज्यादातर निचली जातियों की हंै, जिनके पास न्याय की पहुँच नहीं है। उन्होंने गुलाबी रंग की साड़ियाँ और लहंगे पहने। यह समूह हिंसा की शिकार महिलाओं की सहायता करता है और उन्हें आजीविका कमाने में मदद करता है। इसके अलावा यह दहेज, बाल विवाह आदि को रोकने की दिशा में भी काम करता है। इसने भ्रष्ट सरकारी अधिकारियों के खिलाफ भी कार्यवाही की है।
आन्ध्र प्रदेश और कर्नाटक में भी शराबबन्दी के लिए संघर्ष जारी है, पोम्बिलाई ओरूमई आन्दोलन की नेताओं को मुख्यधारा के राजनीतिक दलों द्वारा बार–बार निशाना बनाया जाता है। लेकिन इन संघर्षों ने न केवल एक विशिष्ट माँग को पूरा किया बल्कि अपने समुदाय में महिलाओं की स्थिति को बदल दिया।
उदाहरण के लिए चिपको आन्दोलन और जेजेबीए, दोनों में महिलाएँ अपनी पारम्परिक भूमिका से आगे बढ़ीं। गढ़वाली महिलाओं का अपने ग्राम सभाओं में कोई प्रतिनिधित्व नहीं था, वास्तव में अपने ही समुदाय के लोगों ने ‘विकास’ के नाम पर चिपको आन्दोलन का विरोध किया। लेकिन अधिकांश महिलाओं ने विरोध से डर कर भागने की बजाय ग्राम सभाओं में अपने लिए प्रतिनिधित्व की माँग की। पोम्बिलाई ओरूमई महिलाओं का कहना है कि उनके पति उनके साथ अब दुर्व्यवहार नहीं करते हैं। 
बड़े स्तर पर इन आन्दोलनों ने मिसाल कायम की है और वैश्विक मीडिया का ध्यान भी अपनी ओर खींचा है। इन आन्दोलनों पर अकादमिक शोध भी किये गए है। कुछ आन्दोलनों को अन्यत्र भी दोहराया गया है। उदाहरण के लिए, चिपको आन्दोलन उप–हिमालय क्षेत्र के साथ–साथ पश्चिमी घाटों को बचाने के लिए कर्नाटक में अप्पिको आन्दोलन के नाम से हुआ। यहाँ तक कि जापान में भी इस तर्ज पर 2009 में एक आन्दोलन हुआ। भले ही इन संघर्षों को औपचारिक रूप से नारीवादी आन्दोलनों के रूप में पहचान नहीं मिली लेकिन इन्होंने देश–विदेश में महिलाओं के अधिकारों के पाठ्यक्रम को बदल दिया है।
––नव्या पी के (अनुवाद - शालिनी)


पर्यावरण और नारीवाद




जीवन, प्रकृति, पृथ्वी, पर्यावरण पारिस्थितिकी कोई भी एक नाम लो, स्त्रीत्व की गूँज सुनाई देती है। इसी तरह पालन, पोषण, प्यार, करुणा और सहानुभूति आदि मानवीय गुण भी स्त्रीत्व के बोधक होते हैं। शुरू से ही माना जाता रहा है कि पुरुषों की तुलना में औरतें प्रकृति के ज्यादा करीब होती हंै। जब भी पर्यावरण के क्षरण और प्राकृतिक संसाधनों के अनुचित और अन्यायपूर्ण दोहन की बात होती है तो सवाल यह उठता है कि कौन इससे सबसे ज्यादा प्रभावित होता है? इसका जवाब भी तुरन्त हाजिर हो जाता है– सदियों से दमित समुदाय, और जब भी दमित समुदाय की बात हो तो औरत सबसे पहले स्थान पर होती है। पर्यावरण विनाश और औरतों पर पुरुषों के प्रभुत्व दोनों की वजह भी एक सी ही हैं, वह है पितृसत्ता और पूँजीवाद।
दो सौ सालों के उपनिवेशवाद और पूँजीवाद के वर्चस्व के चलते ही हम आज इस हालत में पहुँचे हंै, इसी के कारण हम पर्यावरण सम्बन्धी तमाम समस्याएँ झेल रहे हैं। हालाँकि औद्यौगिकरण के चरम के साथ औरतों ने सामाजिक कल्याण, शिक्षा, स्वास्थ्य और समानता के लिए कई संस्थाओं और आन्दोलनों को जन्म दिया और उन्हें पनपाने में अपनी पूरी ऊर्जा खपाई है।
सन् 1970 में फ्रांस की फेमिनिस्ट फ्रेंकोइस द युबों ने सबसे पहले पर्यावरण और औरतों के परस्पर सम्बन्ध को एक नाम दिया– इको फेमिनिज्म। जिसने एक आन्दोलन का रूप लेकर सहज ही इस ओर लोगों का ध्यान आकर्षित किया।
पर्यावरण स्त्रीवाद यानि इको फेमिनिज्म के अनुसार स्त्री और पर्यावरण पारिस्थितिकी के बीच एक अटूट सम्बन्ध है क्योंकि दोनों ही पितृसत्ता और पूँजीवाद के शिकार हैं। 
समाज की रचना के क्रम में पितृसत्तात्मक मूल्यों के प्रभुत्व को स्थापित किया गया। इको फेमिनिज्म के अनुसार, संसार के सभी दमित समुदाय अगर संगठित होकर सामाजिक पदानुक्रम (हेरार्की) को तोड़ सकें तो एक नये समावेशी समाज का निर्माण हो सकता है। अफसोस तो यह है कि मानव जाति पर्यावरण को ठीक उसी तरह नियन्त्रित करना चाहती है जैसे पितृसत्ता स्त्री जाति को करती है, वैसे ही जैसे अमीर गरीबों पर और गोरी चमड़ी वाले लोग काले भूरे लोगों को हीन मान कर उनपर अपनी श्रेष्ठता का अभिमान जताते हैं।
पर्यावरण स्त्रीवाद के अनुसार समाज में औरतों के साथ जो व्यवहार किया जाता है, ठीक वैसा ही मनुष्य जाति प्रकृति के साथ करती है, यही नहीं, पाश्चात्य दर्शन और यहाँ तक कि विज्ञान ने भी औरतों को पुरुषों से कमतर आँकने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। सोचने का यह दमनकारी नजरिया पूर्णत: पूर्वाग्रह ग्रसित था। स्त्री और प्रकृति के ऊपर प्रभुत्व ने समाज में हेरार्की को स्थापित किया। मूल्यों का यह दोगलापन ही स्त्री और पर्यावरण की बुरी दशा का जिम्मेदार है। खासकर तीसरी दुनिया के देशों में जहाँ औरतें ही घर की मुख्य संग्राहक होती हैं, उन्हें र्इंधन और पानी के लिए तथा अन्य बुनियादी जरूरतों के लिए घोर श्रम करना पड़ता है, जो पर्यावरण के विनाश का सर्वाधिक दुष्प्रभाव झेलती हैं, जबकि वह घरेलू प्रबन्धन की कर्ता–धर्ता होने के कारण कृषि, जल, जंगल, जमीन और घरेलू अर्थशास्त्र के आपसी सम्बन्ध को अच्छी तरह समझती हैं। 
एक अध्ययन के हिसाब से किसी भी इलाके के पुरुषों की अपेक्षा वहाँ की औरतें वहाँ के क्षेत्रीय पेड़–पौधों की पहचान करने और उनका प्रचलित नाम बताने में ज्यादा सफल रही हैं। पहचान की यह क्षमता उन्हें उनके उत्तरदायित्वों के निर्वहन से मिली है। 
पश्चिमी और अमीर देशों में भी गरीब लोग रेडियोएक्टिव कचरे के जहरीले साये में जीने को मजबूर हैं। लिंगभेद, रंगभेद जातिभेद, वर्गभेद ने यहाँ तक कि प्रजातिभेद ने जाने–अंजाने मनुष्यता का गला घोंटने में कोई कसर नहीं छोड़ी है।
इको फेमिनिज्म जैसा कि उसके नाम से जाहिर होता है, फेमिनिस्टों की पर्यावरण के प्रति चिन्ता मात्र नहीं है, बल्कि यह एक व्यापक और गहरी चेतना से ओतप्रोत आन्दोलन है। जहाँ एक ओर यह पितृसत्तात्मक व्यवस्था के दायरे में मौजूद लिंग भेद को खत्म करने की और एक नयी व्यवस्था की वकालत करता है, वहीं दूसरी ओर न सिर्फ मनुष्य जाति बल्कि पृथ्वी पर मौजूद समस्त प्राणियों जीव–जन्तु और पेड़–पौधे के अस्तित्व की रक्षा के लिए निरन्तर संघर्ष की भी हिमायत करता है, अपने अलग–अलग विभिन्न गुणों क्षमताओं के कारण जिन भी प्रजातियों का लगातार दोहन और शोषण किया जाता है, उन्हें अस्तित्व के संकट से उबारा जाए तभी प्रकृति में सन्तुलन बना रहेगा और पृथ्वी पर आसन्न संकट टल सकेगा।
इसी तरह इस पितृसत्तात्मक व्यवस्था में जबतक नेतृत्व में औरतों की भागीदारी कम होगी और स्वतंत्र निर्णय लेने की क्षमता का विकास नहीं हो जाता तब तक समानता की बात करना बेमानी है।
समानता के लिए संघर्ष और पूरे दमित समुदाय को उसके अधिकारों के लिए जागृत करने के साथ–साथ समाज का मूल्यांकन करते हुए यह भी जानना जरूरी है कि आखिर हम ऐसे क्यों हैं?
क्या हम वास्तव में पर्यावरण की चिन्ता करते हैं? क्या हम इसकी रक्षा के लिए अपनी आदतों में बदलाव ला सकते हैं, या फिर सुविधा–भोगी बनकर मात्र नारे लगा कर ही अपना कर्तव्य पूरा हुआ मान लेते हैं?
क्या हम वास्तव में लिंग भेद जैसे कुविचार को घृणित और मनुष्यता के खिलाफ समझते हैं, या फिर आधुनिक न कहलाए जाने के डर से बस ऊपरी तौर पर इसका समर्थन करते हैं? 
क्या हम पृथ्वी पर मौजूद सभी जीव–जन्तु, पेड़–पौधों के जीने के अधिकार और अस्तिव बचाने की जद्दोजहद के प्रति थोड़ा सा भी संवेदनशील हैं? या फिर हम इस पृथ्वी को वीर–भोग्या–वसुन्धरा मानकर शक्तिशाली और स्वार्थी मनुष्यों के हाथ का खिलौना बनने देंगे? इस तरह के अनेक सवाल आज हमारे सामने खड़े हैं जिनका हल इको फेमिनिज्म के मतानुसार जीवन के प्रचलित मूल्यों में बदलाव से सम्भव है। 
आक्रामक तौर तरीकों, शक्ति के दुरुपयोग, दमन करने की प्रवृति जैसे नकारात्मक मूल्यों के स्थान पर अहिंसात्मक व्यवहार, परस्पर सहयोग, देखभाल, रख–रखाव और सतत विकास जैसे मूल्यों को समाज में स्थापित किया जाना चाहिए। जो भी व्यक्ति इन मूल्यों पर विश्वास रखता है, वह इकोफेमिनिस्ट है। इस तरह यह विचार पूर्णत: किसी भी तरह के भेद को अस्वीकार करता है, और दमित–शोषित तथा वंचितों के पक्ष में दृढ़ता पूर्वक अपनी एक स्पष्ट सोच रखता है।
 पर्यावरण नीतिविद क्रिस कुओमो के अनुसार दमित समुदाय एक–दूसरे के साथ कटिबद्ध होकर खड़ा रहे तो ये समस्या काफी हद तक सुलझाई जा सकती है। वह तो स्त्री के प्रकृति के करीब होने को एक सांस्कृतिक मिथ मानती हैं, और इसे सामाजिक पक्ष से जोड़ती हैं। उनके अनुसार समाज द्वारा प्रदत्त कार्य ही उन्हें प्रकृति के तौर तरीकों को समझने में और मनुष्य के प्रकृति से जुड़ाव को बेहतर तरीके से समझने में कारगर साबित हुआ है। स्त्रियाँ प्रकृति पर हमारी भौतिक निर्भरता और उसकी शक्ति को बखूबी समझती हैं। समाज ने उसके हिस्से जो काम उसे सौंपे हैं उन्हीं की वजह से एक खास किस्म की संवेदनशीलता और सहानुभूति उसके अन्दर संचारित हुई है, वह नैतिक ज्ञान उसे अपने स्त्री शरीर की वजह से नहीं बल्कि उसके स्त्री शरीर को दी गई जिम्मेदारियों की वजह से मिला है। इसका एक महत्वपूर्ण उदाहरण सन् 1973 में उत्तराखण्ड का चिपको आन्दोलन है, जब सुदूर पहाड़ की ग्रामीण स्त्रियों ने पेड़ों से चिपक कर कॉमर्शियल प्रयोग के लिए जंगल कटने से बचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। 
अमेरिका की नेटिव औरतों ने अपनी जमीन पर यूरेनियम के रेडियोएक्टिव कचरे को डम्प किए जाने का विरोध किया।
सन् 1977 में केन्या की महिलाओं ने वंगरी मथाई के नेतृत्व में लाखों पेड़ लगाकर मरुस्थलीकरण को रोकने के लिए संघर्ष किया था, जिसे ग्रीन बेल्ट मूवमेंट के नाम से जाना जाता है। 1980 में हार्लेम की औरतों ने बंजर खाली जगहों पर सामुदायिक बगीचे लगाकर एक ग्रीन मॉडल की शुरुआत की जो धीरे–धीरे अमेरिका के डेट्रॉयट शहर से अन्य स्थानों पर भी पहुँच गया, जिन्हें गार्डेनिंग एंजेल्स के नाम से जाना जाता है।
अलग–अलग देशों और संस्कृतियों की हजारों औरतों ने जल प्रदूषण, भूमि क्षरण, वनों की कटाई, और मरुस्थलीकरण के खिलाफ रियो द जेनेरियो के अर्थ समिट साल 1992 में भाग लेकर अपनी आवाज बुलन्द की।
हाल ही में ओडिशा की महिलाओं ने जल, जंगल और जमीन को बचाने की मुहिम चलाई है। 
स्वीडन की 18 वर्षीय लड़की ग्रेटा थनबर्ग का पर्यावरण प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन के खिलाफ संघर्ष बहुत उम्मीदें जगाने में कामयाब रहा है। 
 एक ओर तो पूरी दुनिया में बुनियादी स्तर (ग्रास रूट) पर पर्यावरण और स्त्रियों के जीवन को लेकर एक राजनैतिक समझ विकसित हुई है।  वहीं दूसरी ओर समाज में निरन्तर बढ़ती आक्रामकता, धार्मिक कट्टरता, दूसरों से घृणा, अनियन्त्रित उपभोग की प्रवृति, तथा प्रदर्शनप्रियता के कारण समाज के नैतिक मूल्यों का भी बुरी तरह ह्रास हुआ है, जिसके कारण स्त्री जाति पर क्रूरता और बलात्कार की घटनाओं में भयंकर वृद्धि हुई है।
कुल मिलाकर कहा जाए तो हम जिस संकट के दौर से गुजर रहे हैं, उससे मुक्ति पाने के लिए और भी ज्यादा प्रयासों की सख्त जरूरत है। ऐसे में इको फेमिनिज्म की प्रासंगिकता और भी बढ़ जाती है।
आज जब हम क्लाइमेट एमरजेंसी का सामना कर रहे हैं, हमारी धरती और उसके बाशिन्दों के अस्तित्व पर खतरा मंडरा रहा है, ऐसी परिस्थिति में समस्त दमित समुदाय को एकजुट होकर इस धरती को बचाने में अपना योगदान देना ही होगा वरना बहुत देर हो जायेगी।
-उषा नौडियाल

एक मजदूर महिला की कहानी उसी की जुबानी



एक मजदूर महिला की कहानी उसी की जुबानी
घर से जब निकली तो देखा कि भट्टे पर काम करने वाली एक महिला सामने खड़ी है। गोद में एक बच्चा किलक रहा है। लॉकडाउन के दौरान वह हमारे मुहल्ले में काफी दूर से पैदल चलकर राशन माँगने आयी। उससे बातचीत करके पता चला कि उसका नाम झुनिया है और वह पेट से है। यह देखकर बड़ा दुख हुआ कि जिस औरत को आराम की जरूरत है, उसे राशन के लिए दर–दर भटकना पड़ रहा है। कैसी विपदा की घड़ी है? जब वह एक नयी जिन्दगी के सृजन का काम कर रही है, तो उसे माँगने की जरूरत क्यों आन पड़ी? उसने कहा कि आज तक किसी के सामने हाथ नहीं फैलाया बहन। खुद मेहनत से कमाकर घर चलाती हूँ। लोगों से माँगते हुए अच्छा तो नहीं लग रहा है। लेकिन क्या करूँ? पहले अन्दर से अच्छा नहीं लग रहा था और हिम्मत भी नहीं हो रही थी, लेकिन जब लगा कि अब गुजारा नहीं हो सकेगा तो मैं घर से निकल आयी। 
उसने कुछ याद करते हुए फिर कहना शुरू किया कि जानती हैं दीदी, सबसे पहले इस कालोनी में मैं क्यों आयी हूँ क्योंकि यह कालोनी मुझे अपनी सी लगती है। यहाँ मैंने कई सालों तक मजदूरी की है। पचासों घरों को बनाने में र्इंट–गारा पकड़ाया। जिस घर में आप रह रही हैं। इसमें भी मैं मजदूरी कर चुकी हूँ। यहाँ पर ही मेरे दोनों बड़े बच्चे धूल में खेलते थे और मैं काम करती थी। जब छोटे बच्चे को भूख लगती तो अपना दूध पिलाती और जब रोने लगता तो पीठ पर बाँधकर काम करने लगती। दीदी, मेरी एक बेटी भी है। बड़े वाले बेटे से दो साल बड़ी। उस समय जब मैं काम करती, वह अपने छोटे भाई की रखवाली करती और उसे खिलाती। उसका बचपन अपने भाई को खिलाने में ही गुजर गया। खुद खेलने की उम्र में अपने भाई को खिलाती रही। वह स्कूल का मुँह तक नहीं देख पायी। अगर वह स्कूल जाती और छोटे को नहीं सम्हालती तो मैं काम कैसे कर पाती?
उसे टोककर मैंने पूछा, चलो ठीक है, लेकिन बुरे वक्त के लिए पैसे भी तो बचाये होंगे, उसे खर्च क्यों नहीं करती?
उसने जबाब दिया कि दीदी, हम जगह–जगह जाकर बिल्डिंग बनाते हैं। हमें इसी शहर में काम करते हुए दस साल हो गये। हमने कई मकान बनाये, लेकिन अपना एक कमरा तक नहीं बना पाये। हम एक हसरत मन में लेकर आये थे कि खूब मेहनत से काम करके अपना एक कमरा बना लें। सिर छिपाने के लिए एक छत हो। लेकिन दीदी आपसे क्या छुपाना। हम सच कह रहे हैं कि इन दस सालों में दस हजार भी नहीं बचा पाये। परिवार में कोई न कोई बीमार हो ही जाता है। घर पर बूढ़े सास–ससुर को कुछ न कुछ रुपये भेजने पड़ते हैं। उनकी दवा और खाने का खर्चा ज्यादा तो हम नहीं कर पाते, बस जिन्दा रह सके इतना हो पाता है। उन्होंने भी अपनी पूरी जिन्दगी मजदूरी करते निकाल दी और अपने लिए एक कमरा भी नहीं बना पाये। कुछ बचा नहीं पाये। यही हमारी जिन्दगी है। दीदी, आपसे क्या छुपाना।
उसने आगे कहा कि दीदी लॉकडाउन के कारण काम भी बन्द है। थोड़े पैसे थे, वे भी खर्च हो गये। जब बच्चों की भूख बर्दाश्त नहीं हुई तो माँगने चली आयी।
इसके बाद मैंने उसकी कुछ मदद की। लेकिन मेरे मन में यह सवाल बार–बार आता रहा कि उस औरत ने मेरठ के कई नामी स्कूल–कालेजों कालोनियों की बिल्डिंग बनाने में काम किया। बच्चों को कमर पर बाँधकर या उन्हें धूल–धूप में छोड़कर अपनी जवानी के अनमोल क्षण खपा दिये। दूर–दूर से बच्चे आकर इन कालेजों में पढ़ते हैं। इन्जीनियर, डॉक्टर, नर्स, वकील आदि का सपना बुनते हैं, लेकिन यह औरत और इसके बच्चे मजदूर ही रहेंगे। बच्चे अनपढ़ ही रह जायेंगे। बड़ी–बड़ी इमारतों में रहने वाले लोग इन मजदूरों को असभ्य कहते हैं क्योंकि ये झुग्गियों में रहते हैं। क्या कभी वह दिन आयेगा जब इनके बच्चे भी पढ़ पायेंगे? इन्हें इनका हक कब मिलेगा?
-सुनीता शर्मा

Tuesday, April 6, 2021

महिलाएँ राजनीतिक चर्चा क्यों न करें



 
 हमारे समाज में बहुत से लोग अकसर कहते हैं कि, ‘राजनीति एक खराब चीज है और हम राजनीति से दूर रहते हैं’, लेकिन यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण सोच है। राजनीति किसी भी समाज का एक अविभाज्य अंग होता है। हम राजनीति करें या न करें, इसका हमारे जीवन और हमारे भविष्य पर पूरा असर पड़ता है। हमारे समाज में एक कहावत है, “माँ भी बच्चे को तभी दूध पिलाती है, जब बच्चा रोता है”। इसी कहावत की तर्ज पर हम कह सकते हैं कि महिलाएँ जब तक अपने लिए खुद अपनी आवाज मुखर नहीं करेंगी, तब तक उन्हें भी इस समाज में अपने लिए कुछ नहीं मिलेगा। हमारे देश की कार्यपालिका, न्यायपालिका, विधायिका किस तरीके से काम करती हैं और किसके पक्ष में काम करती हंै, यह सब राजनीति से तय होता है, जाहिर है कि जो भी राजनीति करेगा, नीतियाँ भी उसी के पक्ष में बनेंगी। वे लोग अपने ही पक्ष में सुविधाएँ निर्मित करेंगे। इसलिए महिलाओं को भी अपनी समस्याओं की गहराई को समझते हुए राजनीति में बढ़–चढ़कर हिस्सेदारी करनी चाहिए, हालाँकि उसके लिए एक लम्बा संघर्ष करना पड़ेगा तभी हम लोग अपना हक–हकूक पा सकते हैं। 
हम लोग अकसर देखते हैं कि हर इनसान के पास चाहे वह किसी भी उम्र, लिंग, क्षेत्र, भाषा का हो, एक दूसरे से गप्पे मारने के लिए रुचि के अनुसार ढेर सारे किस्से–कहानियाँ और राजनीतिक–सामाजिक मुद्दे होते हैं। सभी लोग गपशप करते हुए अपने बाकी के काम भी निपटा रहे होते हैं। जिन्हें फिल्में देखना, गाने सुनना, कविता लिखना, कहानी पढ़ना, लिखना, जिम जाना, पूजा पाठ इत्यादि जो भी पसन्द होता है, वे उसी तरीके की बातें करते हैं। अक्सर देखने को मिलता है कि महिलाओं के बातचीत के मुद्दे, पुरुषों की बातचीत के मुद्दों से कुछ अलग होते हैं। जिसकी जिन्दगी जीने का जितना बड़ा दायरा होता है उसकी बातों में भी वह झलक रहा होता है। आम घरों में देखने को मिलता है कि घर के पुरुष सुबह उठकर चाय की चुस्की के साथ अखबार पढ़ते हैं फिर अपनी पसन्द की खबर के बारे में घर से लेकर दफ्तर तक राजनीतिक मुद्दों पर बातें करते हुए मिल जाते हैं। यहाँ तक कि वे रास्ते में भी अनजान लोगों से किसी ना किसी तरह की राजनीतिक बातें और बहसबाजी करते हुए आसानी से देखे जा सकते हैं। 
पुरुष किसी भी वर्ग, जाति या धर्म के हों, उनका कथन सही हो या गलत फिर भी वह राजनीतिक बातचीत में भागीदारी लेते हैं और किसी न किसी विचारधारा पर अपनी राय देने से पीछे नहीं हटते हैं। पुरुषों की बातचीत के मुद्दे में अधिकतर देश दुनिया, शेयर बाजार, चुनावी हार–जीत, अर्थव्यवस्था की सरगर्मी, क्रिकेट–फुटबॉल के टूर्नामेंट, महिलाओं पर लैंगिक भेदभाव पूर्ण टिप्पणियाँ, सिनेमा, अश्लील किस्से, धार्मिक चर्चाएँ और जमीन–जायदाद खरीदने–बेचने के विषय ज्यादा होते हंै। कुल मिलाकर देखा जाये तो पुरुषों की बातचीत के मुद्दे अमूमन घर और बच्चों के कामों से बाहर के होते हैं और उनकी बातचीत के मुद्दों में देश–दुनिया के राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक मुद्दे शामिल होते हैं। 
दूसरी तरफ, अगर महिलाओं की बातचीत के मुद्दों पर नजर डाली जाये तो हमें देखने को मिलेगा कि जिस महिला की जिन्दगी जीने का दायरा जितना छोटा होता है, उसकी बातचीत का भी दायरा बहुत ही सीमित होता है। आमतौर पर महिलाओं की बातचीत के मुद्दों में साफ–सफाई, फैशन, कपड़े, मेकअप, खरीदारी, बच्चों से सम्बन्धित बातचीत, आस–पड़ोस के लोगों के बारे में चर्चा, टेलीविजन या सीरियल के किस्से, घरेलू झगड़े या तारीफ, व्रत–त्यौहार की तैयारी ही होते हैं जबकि राजनीतिक और खेल सम्बन्धी बातें बहुत ही कम होती हैं। यहाँ तक कि महिलाएँ उसी राजनीतिक पार्टी या विचारधारा का समर्थन कर रही होती हंै, जिसका समर्थन उस घर के पुरुष कर रहे होते हैं। हमारे समाज में छेड़छाड़ और बलात्कार जैसे जघन्य अपराध इतनी अधिक संख्या में हो रहे हैं कि महिलाएँ ऐसे किस्सों को भी अपनी बातचीत में शामिल रखती हैं और उनसे बहुत ज्यादा असुरक्षित  भी महसूस करती हैं, लेकिन फिर भी वे इन अपराधों की जड़ तक नहीं सोच पाती हैं। सीधे शब्दों में कहा जाये तो अधिकांश महिलाओं की जिन्दगी में देश–दुनिया से जुड़े बड़े सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक मुद्दे शामिल ही नहीं होते हैं। 
हालाँकि आज महिलाएँ सामाजिक जीवन के हर क्षेत्र में आगे बढ़ रही हैं, लेकिन अगर आँकड़ों पर नजर डाली जाये तो आज भी बहुत ही कम महिलाएँ हैं जो राजनीति में, खेल में या सरकारी या निजी क्षेत्र के किसी बड़े पदों में हिस्सेदारी कर रही हैं। यही कारण है कि महिलाएँ आज भी बहुत से क्षेत्रों में पुरुषों से पिछड़ी हुई हैं और उन्हें अपनी बराबरी के लिए दिन–रात और हर कदम पर अपनी आजादी और सुरक्षा के लिए संघर्ष करना पड़ता है। 
महिलाओं की राजनीतिक मुद्दों में कम रुचि रखने के मुख्य कारण हैं–– कम शिक्षित होना, घरेलू काम में उलझे रहना, घरेलू मानसिकता का बन जाना, परम्परावादी जीवन शैली अपनाना, मीडिया द्वारा महिलाओं को माल के रूप में पेश करना,  सुन्दरता, शालीनता, आज्ञाकारी, ममता आदि गुणों को महिमामण्डित करना। जो महिलाएँ मुखर होकर अपनी समस्याओं को समाज के आगे रखती हैं और जो अपनी जिन्दगी अपनी मनमर्जी से जीती हैं, उन महिलाओं को विभिन्न तरीके से नीचा दिखाना और उनका चरित्र हनन शुरू कर दिया जाता है। यहाँ तक कि उन्हें कुलटा, वेश्या, घरतोडू जैसे नकारात्मक विशेषण दे दिये जाते हैं। 
दूसरी तरफ जो औरतें चुपचाप सर झुकाकर पुरुषों के हर सही–गलत फैसले का समर्थन करती हैं, उनको आदर्श स्त्री के रूप में समाज में स्थापित कर दिया जाता है। इसी के चलते महिलाओं ने खुद को उसी देवी स्वरूप आदर्श स्त्री के रूप में ढालने के लिए पुरुषों के आगे समर्पित कर दिया। हमारे पुरुष प्रधान समाज ने महिलाओं को हमेशा ही घरेलू कामों के सीमित घेरे के अन्दर ही उलझा करके रखा। उन्हें किसी भी बड़े सामाजिक या आर्थिक मसलों पर आगे बढ़ने ही नहीं दिया। पुरुषों ने हमेशा ही जमीन जायदाद, सम्पत्ति और यहाँ तक की महिलाओं के जीवन और उनके शरीर के ऊपर भी अपना ही पूरा अधिकार रखा। सदियों से महिलाओं के ऊपर पुरुषों ने विभिन्न नीति–नियम, कानून बनाकर तमाम तरीके की बंदिशें लगायीं और उनकी बेड़ियों को और मजबूत किया। 
हमें यह गौर करना चाहिए कि जितने भी वेद, पुराण, बाइबिल, कुरान, हदीस,  मनुस्मृति या अन्य धार्मिक ग्रंथ लिखे गये हैं उन सभी के लेखक पुरुष रहे हैं और उन पुरुषों ने अपनी सहूलियत के लिए स्त्रियों के बारे में बहुत सारे नीति–नियम उन किताबों में लिखे। इनके मुताबिक महिलाओं को हमेशा ही एक खास दायरे में बँ/ो होने को ही उनकी अच्छाई बताया गया है।  महिलाओं का राजनीति या शासन करना तो दूर की बात, उन्हें पढ़ने–लिखने से भी दूर रखने के पूरे प्रयास किये गये थे, ताकि वह चुपचाप पुरुषों द्वारा उनके ऊपर किए जा रहे शासन को गुलामों की तरह सहन करती रहे। इन सब चीजों ने धीरे–धीरे महिलाओं को और ज्यादा गर्त में डालने का काम किया। इसे ही महिलाओं द्वारा अपनी नियति मान लिया गया और उन्होंने खुद को राजनीति और सामाजिक दायरे से दूर कर लिया। 
आज 17 वीं लोकसभा में अब तक की सबसे ज्यादा 78 महिला सांसद हैं जो पूरे सांसदों की 14 प्रतिशत हैं। लेकिन यह संख्या महिलाओं की आबादी में हिस्सेदारी के हिसाब से बहुत कम है। बाकी क्षेत्रों में हालत और भी खराब है। राजनीति में शामिल महिलाएँ बाकी महिलाओं की सुरक्षा या बराबरी को लेकर कुछ खास भूमिका नहीं निभा रही हैं, बल्कि वह भी अचेतन रूप से इसी पुरुषवादी सत्ता का पोषण कर रही हैं। 
दुनिया भर में महिलाओं ने अपने अधिकारों को पाने के लिए आन्दोलन किये। सावित्रीबाई फुले ने महिलाओं की पढ़ाई–लिखाई के लिए इस पुरुष प्रधान समाज से एक बड़ा सामाजिक जोखिम लिया था तब जाकर आज हम पढ़ और लिख पा रही हैं। यहाँ तक कि महिलाओं का अपने शरीर को लेकर भी कोई अधिकार नहीं था। आज जो गर्भनिरोधक दवाएँ बाजार में उपलब्ध हैं, उसके लिए भी महिलाओं ने यूरोप में एक बड़ा आन्दोलन किया था तब जाकर के उन्हें यह अधिकार मिला कि वह अपनी जरूरत और इच्छा के मुताबिक बच्चे पैदा कर सकें। 
19वीं सदी में महिलाओं द्वारा चलाए जा रहे समाज सुधार आन्दोलन में 1890 के दौरान महाराष्ट्र की आनन्दीबेन और काशीबाई छाता और जूते पहन कर के जब निकली थी, तो उन पर लोगों द्वारा पत्थर फेंके गये थे यह कहकर कि, “यह पुरुषों के प्रतीक चिन्ह हैं।” ताराबाई शिन्दे ने जब ‘स्त्री पुरुष तुलना’ किताब लिखी थी और यह कहा था कि स्त्रियों और पुरुषों में कोई ज्यादा भेद नहीं है और वह एक समान हैं, तो उस पर भी समाज में बहुत तीखी बहस शुरू हुई थी। 
महिलाओं ने भारत के स्वतंत्रता संग्राम के समय भी स्वतंत्रता आन्दोलन में खुलकर हजारों लाखों की संख्या में अपनी राजनीतिक भूमिका सुनिश्चित की थी। लेकिन उसमें भी महिलाओं ने पितृसत्ता से आजादी के लिए और अपने लिए बराबरी को लेकर कोई भी बड़ा देशव्यापी सक्रिय आन्दोलन नहीं चलाया था। उसके बावजूद भी महिलाओं ने  बराबरी, स्वतंत्रता और सुरक्षा के लिए जब भी आवाज उठाई है और घरों से बाहर निकल कर के अपने हक माँगे हैं तो उन्हें उसमें कुछ हद तक जीत भी हासिल हुई और कई बार विरोध का सामना भी करना पड़ा। 
महिलाओं को 1956 में हिन्दू कोड बिल लागू करवाने के लिए भी आन्दोलन करना पड़ा था, जिसका बहुत से पुरुषों ने विरोध भी किया था, लेकिन उसके बावजूद भी अन्त में महिलाओं की ही जीत हुई। 
मुस्लिम महिलाओं ने भी जिन्हें हमेशा ही परदे में रहने और पराए मर्दों से दूर रहने की विभिन्न मौलवियों द्वारा फतवे दिये जाते थे। वह भी आज देश भर में हजारों जगह अपने हक के लिए बाहर निकल आती हैं और भारतीय संविधान और राजनीति को समझने की पुरजोर कोशिश कर रही हैं। महिलाओं को जो अधिकार किसी भी धार्मिक किताब ने नहीं दिये, वे अधिकार उन्हें संविधान ने दिये हैं, यह बात आज बहुत सी महिलाओं को समझ में आ चुकी है। महिलाएँ आज बहुत से आन्दोलनों की अगुवाई कर रही हैं, चाहे वह स्कूल–कॉलेज, गली, मोहल्ले हो या संसद में। आन्दोलन चाहे स्वतंत्रता संग्राम का रहा हो या आज की वर्तमान परिस्थिति में नागरिकता संशोधन बिल को लेकर उन्हें पुरुषों ने अपने खुद के स्वार्थ के लिए भले समर्थन दिया हो, लेकिन फिर भी महिलाएँ हर जगह की तरह राजनीति में भी आगे आ रही हैं। महिलाओं की संख्या अभी भी आधी आबादी के हिसाब से बहुत ही कम है, फिर भी वह तरह–तरह के सामाजिक मुक्ति आन्दोलनों में भाग लेकर खुद की मुक्ति का भी रास्ता तलाश कर रही हैं।
–– स्वाति सरिता

Tuesday, March 23, 2021

मैं वह अजन्मी बच्ची हूँ



 
तनिष्क का मुस्लिम सास और हिन्दू बहु का विज्ञापन उतना ही दिलचस्प और खूबसूरत है जितने इसके बाकि विज्ञापन हैं। इसे वापस लेने का मतलब है कि यह एक अजीबो–गरीब कल्पना थी और इस तरह के रिश्ते असल में मौजूद नहीं होते। लेकिन ऐसा केवल वे दिखाते हैं। मैं इसकी एक जीती जागती मिसाल हूँ। मैं उस विज्ञापन की वही अजन्मी बच्ची हूँ।
मेरे माता–पिता जब 1971 में मिले तो उन्होंने “लव जिहाद” जैसा कोई भी शब्द नहीं सुना था। वे दोनों महाराष्ट्र के समाजवादी छात्र संगठन, युवक क्रान्ति दल से जुड़े थे, जो श्रम की लूट, जातीय उत्पीड़न, आदिवासी आबादी को हाशिये पर धकेलने जैसे मुद्दों को उठाते थे। जब मेरी माँ संगठन में आयीं तो वह 18 साल की हँसमुख, गोरी और हरी आखों वाली गोल–मटोल लड़की थी। उनके आस–पास के ज्यादातर मर्द उम्र में उनसे बड़े और अलग–अलग पृष्ठभूमि वाले, जैसे देहाती, गरीब, दलित, मुस्लिम थे। कई को तो उनसे देखते ही प्यार हो गया और उनसे शादी करने की इच्छा होने लगी। वास्तव में, माँ के लिए प्रस्ताव नाना के पास एक शान्त लड़के की तरफ से आया जो उनके परिवार की पृष्ठभूमि के लिए डरावना था। वह नलिनी पण्डित की बेटी थी जो एक मशहूर मार्क्सवादी–गाँधीवादी विद्वान् थे और यह पण्डित परिवार बहुत अमीर और जाना–माना था। इनके पास दादर में एक बहुत बड़ी कोठी, गाड़ी, और टेलीफोन जैसी चीजें भी थी।
जब उन्होंने अपने चिपलून के एक कोंकणी मुस्लिम साथी से शादी करने का फैसला किया तब दोनों ही तरफ धर्मान्धता थी। उनकी जान–पहचान वाली बूढ़ी औरतें उन्हें दादर की सड़को पर रोकती और पूछती, “तुम एक मुस्लिम से शादी करोगी? जरा सावधान रहना हाँ, उनके यहाँ तीन तलाक वाला सिस्टम है।” बाबा के बड़े भाई ने उनसे पूछा “अरे तुम एक हिन्दू लड़की से शादी क्यों करना चाहते हो।” बड़े भाई और कोई नहीं बल्कि हमीद दलवई थे, मुस्लिम सुधारवादी चैंक गये। उन्होंने सोचा की समाजवादी–गाँधीवादी शादी का तरीका भाड़ में जाये, हमें इस शादी का एक बड़ा जश्न मनाना चाहिए, ताकि सबको पता चले कि ये दोनों शादी कर रहे हैं। उन्होंने शादी के ढेर सारे कार्ड छपवाये और उन सभी को देते जो उनसे मिलते।
दादी की कहानियों के मुताबिक शादी में आये लोगों की कोई गिनती नहीं थी। हॉल भले ही छोटा था मगर हंगामाखेज था। लोग कोकम शर्बत के तीन हजार गिलास डकार गये। मेरे माता–पिता इतने लोगों की तरफ मुस्कुरायेऔर इतनों से हाथ मिलाये कि कुछ वक्त बाद उनके हाथ और गाल दुखने लगे। मेरी माँ के दोस्तों ने उनसे कहा “बाप रे, तुम्हारी शादी में इतनी जबरदस्त गलतफहमी है, हम खुशनसीब हैं कि वहाँ से सही–सलामत लौट आये।” शादी का जश्न मिर्जाली गाँव में भी मनाया गया, जहाँ दलवई परिवार ने पण्डित परिवार के लोगों और उनके दोस्तों के लिए बिरयानी तैयार की जो मुम्बई से गाड़ियों में आये थे।
यहाँ तनिष्क स्टाइल से कोई सोने के गहने ससुराल की तरफ से नहीं थे। हालाँकि, मेरी माँ जब पहली बार गाँव गयीं तो उन्हें चाँदी के झुमके मिले। “मगर चाँदी के तो कटोरियाँ और थाली बनते हैं”, उन्होंने मन ही मन में सोचा, सारस्वतों के दिवाली भोग को याद करते हुए। वर्गीय अन्तर इतना ज्यादा था! मगर वह एक समाजवादी आदर्श “क्षमता के हिसाब से दो, जरूरत के हिसाब से लो” के आधार पर नये परिवार गढ़ने में सफल रही। वह अपने मुम्बई कॉलेज से लेक्चरर के काम के जो पैसे मिलते थे, गाँव में अपने गरीब भाई–बन्धुओं को दे देती थी, क्योंकि मेरे पापा होल–टाइमर होने के चलते दिन–रात मजदूरों के जुलूस और आदिवासियों के साथ बातचीत में व्यस्त रहते थे। किसी की पढ़ाई के लिये पैसे भेजती थी, किसी को इलाज के लिए मुम्बई में अपने फ्लैट में बुला लेती थी या किसी की शादी की खरीदारी के लिए। वह उस कुनबे की सरदारनी थी।
तनिष्क ट्रोल्स को यह समझ में नहीं आता है कि एक चमकती आँखों वाली बहू मुस्लिम परिवार में इस तरह शामिल हुई जो सिर्फ महिलाएँ ही कर सकती हैं। यह लव जिहाद नहीं है, यह मुसलमानों की घर–वापसी है। लेकिन ट्रोल न केवल मुस्लिम विरोधी हैं बल्कि महिला विरोधी भी हैं। उन्हें लड़की “देने” में हार नजर आती है। उनको यह दिखा ही नहीं कि इस विज्ञापन में मुस्लिम परिवार हिन्दू त्योहार मना रहा है। मेरा परिवार ईद और दिवाली दोनों तरफ के रिश्तेदारों के साथ मिलकर मनाता है। खाना, रंगों से खेलना और रंग–बिरंगे कपडे़ पहनना सबको पसन्द है। इसमें नापसन्द करने वाली कौन सी बात है?
मेरी माँ अब भी हिन्दू हैं, जैसे मेरे पिता मुस्लिम हैं। दोनों में से कोई धार्मिक अनुष्ठानों का पालन नहीं करते हैं, लेकिन सांस्कृतिक उत्सव का आनन्द जरूर लेते हैं। शुरू के दिनों में, बुजुर्ग रिश्तेदारों ने मेरी माँ को सुझाव दिया कि उन्हें इस्लाम अपना लेना चाहिए, तभी उन्हें जन्नत मिलेगी। वह हँसती और कहतीं, “लेकिन मैं एक भौतिकवादी हूँ। मुझे बताएँ कि मुझे इस जीवन में, कहाँ और कैसे फायदा होगा।” वास्तव में उन्होंने शादी के कुछ महीने बाद अपनी पहचान को जाहिर करने के लिए एक बड़ी लाल बिन्दी पहनना शुरू कर दिया। बिन्दी और साड़ी ने उन्हें गंभीर और पेशेवर दिखने में भी मदद की, क्योंकि उन्होंने अर्थशास्त्र पढ़ाना शुरू कर दिया था और वह अपने छात्रों की तरह जवान दिखती थी। उन्होंने अपनी क्रान्तिकारी लड़ाई जारी रखी और हमारी परवरिश में एक वैकल्पिक मूल्य का इस्तेमाल किया।
उन्हें इस बात की परेशानी थी कि उनके बच्चे कैसे बढ़ते साम्प्रदायिक माहौल का सामना करेंगे। उन्होंने हमें रूसी किताबें और अन्य अन्तर्धमीय परिवारों और दोस्तों के माध्यम से एक सुरक्षित दुनिया देने के लिए कड़ी मेहनत की। फिर भी वे हमें दंगे, दुश्मनी और असुरक्षा से बचा नहीं सके। हमने विदेश यात्रा की, भले लोगों से जान–पहचान हुई, पढ़ाई और किताबों का मजा लिया और अपने परिवार की विविधता को आगे बढ़ाया।
मेरे भाई ने हैनान प्रांत की एक चीनी से शादी की और मैंने तेलंगाना रेड्डी के साथ जिन्दगी साझा करने का फैसला लिया। मैंने नागालैंड की एक बेटी मोन को भी गोद लिया। अब जब सभी बच्चे एक सार्वजनिक पार्क में एक साथ खेलते हैं,  एक अर्द्ध–चीनी लड़का, मराठी–तेलुगु लड़की और छोटी सी नागा योद्धा, आस–पास के लोग हैरत के साथ हमें देखते हैं। यह परिवार एक ही साथ अंग्रेजी, हिन्दी, मराठी, तेलुगु, मन्दारिन और कोंकणी में बात करता है।
और जब पूरी तरह एकांगी सोच वाले “सामान्य” लोग आकर हमसे पूछते हैं “लेकिन कैसे?” या “वाकई–––?” तो हम सिर्फ मुस्कुरा देते हैं। हमारा जीवन ट्रोल करने वालों का जवाब है। हम मौजूद हैं। अन्तर्धर्मीय परिवार न केवल जिन्दा है बल्कि पनपता भी है। और आप सब इसके आगे फीका पड़ जाते हैं।
–– समीना दलवई
(‘द इंडियन एक्सप्रेस’ से साभार, अनुवाद– उत्सा प्रवीण)