Tuesday, December 21, 2010

maya enjelo ki kavita- aurat ke kam

मुझे बच्चे पालने हैं
कपड़े रफू करने हैं
फर्श साफ करना है 
हाट-बाज़ार करना है
फिर सालन तलना है
बच्चे को नहलाना है
पूरे कुनबे को खिलाना है
बगिया की निराई  करनी है   
कमीज पर इस्तरी  करनी है
बच्चों को संवारना  है 
टीन का डिब्बा काटना है
झोपड़ी साफ़  करनी है
बीमार की देख-रेख करनी है
कपास  तोड़ कर लाना है
   चमको मेरे ऊपर, सूरज की  किरणों
   बरसो मेरे उपर, बादल की बूंदों
   अहिस्ता-अहिस्ता गिरो, ओस के कण
   और फिर से शीतल करो मेरी भौंहें
तूफान मुझे उड़ा ले चल यहाँ  से 
अपने प्रबल  वेग हवा के साथ  
तैरने  दो  हमे आकाश के आ-पार
ताकि फिर से  कर सकूँ आराम
हौले-हौले गिरो, बर्फ के फाहे
ढक लो मुझे सफेदी में
ठन्डे बर्फीले चुम्बन और
आज की रात मुझे आराम करने दो
सूरज, वर्षा मेहराबदार आसमान
परबत, सागर, पत्ती और छात्तान
चाँद चमकता, टिम-टिम तारे
तुम सब ही हो ख़ास हमारे. 

Monday, December 20, 2010

नई बात: माइआ अंज़ालो की कविता: मैं हूँ कि उठती जाती हूँ.

नई बात: माइआ अंज़ालो की कविता: मैं हूँ कि उठती जाती हूँ.: "सुप्रसिद्ध अमरिकी कवियत्री माइआ अंज़ालो (Maya Angelou) की इस बेहतरीन कविता के अनुवाद में मनोज पटेल ने बहुत सिर धुना है. वजह है, इस कविता का ..."

Thursday, December 16, 2010

मुक्ति के स्वर, अंक-१२ अभी-अभी प्रकाशित हुई है. उसका सम्पादकीय यहाँ प्रस्तुत है.
सम्पादकीय
हमारा देश विडम्बनाओं और विरोधाभाषों का पुंज है- गोदामों में सड़ता अनाज और भुखमरी, अत्याधुनिक अस्पताल और साधारण बीमारियों से असंख्य मौत, आर्थिक समृद्धि  के आँकड़े और नरक से भी बदतर जिन्दगी जीते लोग, महिलाओं के सशक्तिकरण और तरक्की के दावे और उनकी बद से बदतर होती जिन्दगी। स्त्री भ्रूण हत्या से लेकर दहेज हत्या, अपनी मर्जी से शादी करने पर हत्या... सूची अन्तहीन है।
मुक्ति के स्वर का यह अंक मान-मर्यादा के नाम पर नवविवाहित युगलों की नृशंस हत्या जैसी गम्भीर सामाजिक समस्या पर केन्द्रित है जो महिलाओं के विरु( पुरुषवादी, पितृसत्तात्मक सोच की बर्बरतापूर्ण अभिव्यक्ति है। इसी वर्ष करनाल की एक अदालत द्वारा मनोज-बबली हत्याकाण्ड में पाँच लोगों को फांसी की सजा सुनाने के बावजूद ऐसी नृशंसता जारी है। यहाँ तक कि देश की राजधानी में ही जून माह में दो चचेरी बहनों और उनमें से एक के पति की बर्बर हत्या कर दी गयी। उत्तर-पूर्वी दिल्ली में अन्र्तजातीय विवाह करने वाले एक युगल को लड़की के परिवार वालों द्वारा बिजली का करन्ट लगा कर मार डाला गया।
इस बीच मान-मर्यादा के नाम पर हत्या के समर्थन और विरोध में कानूनी लड़ाई भी शुरू हुई है। खाप पंचायतों की ओर से हिन्दू विवाह कानून, 1955 में संशोधन करके सगोत्रा शादी पर रोक लगाने के पक्ष में अभियान चलाया गया। जून माह में सगोत्रा विवाह पर रोक के लिए दिल्ली उच्च न्यायालय में एक याचिका दायर की गयी। न्यायालय ने उस याचिका को खारिज करते हुए, न्यायालय का समय बर्बाद करने के लिए, याचिकाकर्ताओं को पफटकार लगायी। 21 जून को शक्ति वाहिनी नामक संस्था की ओर से दायर एक जनहित याचिका पर विचार करते हुए सर्र्वोच्च न्यायालय की खण्डपीठ ने केन्द्र सरकार और आठ राज्यों की सरकारों ;हरियाणा, पंजाब, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखण्ड, हिमाचल प्रदेश, और राजस्थानद्ध से जवाब तलब किया कि मर्यादा के नाम पर हत्याओं को रोकने के लिए उन्होंने क्या उपाय किये हैं।
न्यायालय ने निर्देश दिया है कि ऐसे मामलों में हिंसा या हिंसा की धमकी देने के खिलापफ पुलिस मामला दर्ज करे। न्यायालय का मानना है कि ‘‘इन हत्याओं में किसी भी मायने में मान-सम्मान जैसी कोई बात नहीं और वास्तव में यह सामन्ती सोच वाले बर्बर लोगों द्वारा की गयी हत्या की कार्रवाई के सिवा कुछ नहीं, जिन्हें सख्त सजा मिलनी चाहिए।’’
भारत सरकार, महिलाओं के विरु( हर प्रकार के भेदभाव के निर्मूलन के बारे में संयुक्त राष्ट्र संघ सम्मेलन, का भागीदार है। इसलिए उसकी जिम्मेदारी बनती है कि वह महिलाओं के प्रति पारिवारिक और शादी विवाह सम्बन्धी भेदभाव का अन्त करे। साथ ही ‘मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा’ के ऊपर  हस्ताक्षर करने के चलते भी सरकार की यह जिम्मेदारी है कि वह लोगों के जीवन और स्वतंत्रता की हिफाजत करे। लेकिन सरकार इस मामले में पूरी तरह लापरवाह और बेअसर साबित हुई है। यही कारण है कि मान-मर्यादा के नाम पर मासूम युवकों-युवतियों की हत्या या उत्पीड़न और धमकियों के भय से आत्महत्या की घटनाएँ लगातार जारी हैं। दरअसल वोट-बैंक की चिन्ता में कोई भी राजनीतिक पार्टी या नेता इस मामले में जुबान खोलना नहीं चाहता। उल्टे कुछ नेता तो खुलेआम जातिवादी ताकतों का समर्थन भी करते हैं। पुलिस-प्रशासन भी इन अपराधों को जानबूझ कर अनदेखा करता है और कई मामलों में तो अपराधियों को शह देता है।
ऐसे में न्यायपालिका के निर्देशों का भला क्या असर होगा? पहले भी, 2006 में सर्वोच्च न्यायालय ने सरकारों को निर्देश जारी किया था कि वे इस बात की गारण्टी करें कि अपनी जाति या धर्म के बाहर शादी करने वाले जोड़ों को परेशान करने या डराने-धमकाने की घटनाओं पर रोक लगे। लेकिन न्यायालय के इस निर्देश को किसी भी सरकार ने गम्भीरता से नहीं लिया। उनमें इतनी इच्छा शक्ति नहीं है कि वे अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह कर सकें।
जाहिर है कि मान-मर्यादा के नाम पर जघन्य हिंसा की प्रकृति सती प्रथा के नाम पर विधवा स्त्राी को पति की चिता के साथ जला देने से कम नृशंस नहीं है। लेकिन केवल कानून के दम पर इसका अन्त सम्भव नहीं। सामाजिक संगठनों द्वारा इस मुद्दे को लेकर व्यापक जन अभियान और सामाजिक आन्दोलन चलाकर ही इस बर्बरता का अन्त किया जा सकता है। परम्परा के नाम पर सड़े-गले संस्कारों, मूल्य-मान्यताओं और कुप्रथाओं का अन्त करके ही अब तक समाज आगे बढ़ता रहा है। पिछले सौ सालों में ही हमारा देश और समाज ऐसी कई बुराइयों से मुक्त हुआ है, जिनमें नर बली, सती प्रथा और बाल विवाह से लेकर छुआछूत तक शामिल हैं। मान-मर्यादा के नाम पर निर्मम और नृशंस हत्या भी इसका अपवाद नहीं है। यह प्रसन्नता का विषय है कि इस दिशा में कुछ संगठनों और प्रगतिशील व्यक्तियों की ओर से सार्थक प्रयास भी शुरू हुए हैं।
उम्मीद है कि ‘मुक्ति के स्वर’ के इस अंक के बारे में अपनी बेबाक राय सुझाव और सलाह के जरिये इसे बेहतर बनाने में आपका सहयोग पूर्ववत बना रहेगा।

Wednesday, September 29, 2010

कविता- जो कुछ देखा-सुना, समझा, कह दिया- निर्मला पुतुल

बिना किसी लाग-लपेट के
तुम्हेँ अच्छा लगे, ना लगे, तुम जानो
चिकनी-चुपड़ी भाषा की
उम्मीद न करो मुझसे
जीवन के उबड़-खाबड़ रास्ते पर चलते
मेरी भाषा भी रुखड़ी हो गई है
मैं नहीं जानती कविता की परिभाषा
छंद, लय, तुक का
और न ही शब्दों और भाषाओँ में है
मेरी पकड़
घर-गृहस्ती सँभालते
लड़ते अपने हिस्से की लड़ाई
जो कुछ देखा सुना भोगा
बोला-बतियाया
आस-पास के संगी-साथी से
लिख दिया सीधा-सीधा
समय की स्लेट पर
टेढ़े-मेढे अक्षरों में जैसे-तैसे
तुम्हारी मर्जी तुम पढ़ो, न पढ़ो.
मिटा दो, या नष्ट कर दो पूरी स्लेट ही
पर याद रखो.
फिर आएगा,
और लिखेगा बोलेगा वहीसब कुछ
जो कुछ देखेगा-सुनेगा
भोगते तुम्हारे बीच रहते
तुम्हारे पास शब्द हैं, तर्क है बुद्धि है
पूरी की पूरी व्यवस्था है तुम्हारे हाथों में
तुम सच को झुठला सकते हो
बार-बार बोल कर
कर सकते हो ख़ारिज एक वाक्य में
सब कुछ मेरा
आँखों देखी को
गलत साबित कर सकते हो तुम
जानती हूँ मैं
पर मत भूलो.
अभी पूरी तरह खत्म नहीं हुए
सच को सच और झूठ को
पूरी ताकत से झूठ कहने वाले लोग.

Tuesday, September 28, 2010

शहीद-ए-आज़म भगत सिंह के 104वें जन्म दिन-एक शुरुआत

शहीद-ए-आज़म भगत सिंह के 104वें  जन्म दिन-28 सितम्बर 2010 को हम मुक्ति के स्वर की शुरुआत कर रहे हैं जो महिलओं की समस्यों, सपनों और संघर्षों की अभिव्यक्ति का मंच है. इसके माध्यम से हम तमाम संघर्ष-रत महिला साथियों से संवाद कायम करना चाहते हैं. हमारा मानना है कि जो महिलाएं अपनी आर्थिक आज़ादी और आत्मसम्मान के लिए लड़ रही हैं वे अपनी ज़िंदगी के कठिन रास्तों पर चलते हुए नारी समुदाय की मुक्ति की राह पर भी आगे कदम बढ़ाएंगी और अनुभवों से सीखते हुए वैचारिक रूप से भी मजबूत होती जाएंगी.
           आज महिलओं की स्थिति में जो भी परिवर्तन दिखाई देते हैं और जो भी अधिकार हमें हासिल हुए हैं वे अतीत में लड़े गए अनगिनत साहसिक संघर्षों की देन है. लेकिन आज भी समज की अधिकांश औरतें शिक्षा, रोज़गार और आत्मनिर्णय के अधिकारों से वंचित है.
            पुरुषप्रधान सोच और पूंजीवादी शोषण के बोझ से मुक्ति के लिए हमें अपने सामूहिक प्रयासों को तेज करना  होगा. नारी चेतना और संगठन की राह पर यह एक शुरुआती कदम है. उम्मीद है कि इसमें हमें आप सबका पूरा सहयोग मिलेगा.