Sunday, December 30, 2012


            समाज को लड़कियों के रहने लायक बनाओ

एक लडकी मर गयी..!
तो क्या हुआ...?
रोज़ लड़कियां मरती हैं. ..!!
नहीं, हम उस लडकी की बात कर रहें हैं जो 16 दिसम्बर की रात को हैवानियत का शिकार हुयी. यह वह लड़की थी जिसे देश की राजधानी दिल्ली में छ: वहशी लोगों के द्वारा रौंद डाला गया.
आप सब पिछले 12-14 दिनों से सुन पढ़ रहे होंगे कि एक लड़की पहले दिल्ली और फिर सिंगापुर के एक अस्पताल में ज़िन्दगी और मौत के बीच झूल रही थी और आखिरकार 28-29 दिसम्बर की रात को उसने दम तोड़ दिया. मीडिया के माध्यम से हम इस लड़की को दामिनी के नाम से जानते है. जो कुछ दामिनी ने झेला उसके समक्ष बलात्कार शब्द बहुत छोटा पड़ जाता है.
  दामिनी पहली लड़की नहीं थी, और दामिनी आखिरी लड़की भी नहीं है. न जाने
कितनी दामानियाँ रोज़ लुटती-पिटती दम तोड़ देती हैं.
  पिछले कुछ दिनों से दिल्ली में उथल-पुथल मची हुई है. 16 दिसंबर को तेईस वर्षीय पारा-मेडिकल छात्रा के साथ हुए जघन्य सामूहिक बलात्कार के बाद सिर्फ दिल्ली में ही नहीं, कलकत्ता, बम्बई, बंगलौर या फिर छोटे-बड़े बहुत सारे शहरों में लोगों का गुस्सा फूट पड़ा. इसकी तुलना कुछ हद तक 1970 के दशक में ‘मथुरा बलात्कार कांड’ के बाद पूरे देश में फैली महिला आन्दोलन की लहर से की जा सकती है, जिसने हमारे देश में नारी मुक्ति आन्दोलन को नयी ऊँचाई तक पहुँचाने में अहम भूमिका निभाई थी. लेकिन ऐसा पहली बार हुआ कि महिलाओं से जुड़े किसी मुद्दे पर पहली बार लोग इतने मुखर रूप में  राजधानी की सड़कों पर उतर आये. नौजवान लड़के-लड़कियों ने पुलिस की लाठियों, आंसू गैस के गोलों और कड़ाके की ठण्ड में पानी की बौछारों का सामना करते हुए, अपने-अपने तरीके से गुस्से का इज़हार किया. लडकियों का गुस्सा बाँध तोड़ कर फूट पड़ा. ज़ाहिर है कि हर एक लड़की को अपनी ज़िन्दगी में कभी न कभी भोगे हुए अपमान का दंश बलात्कार की शिकार लड़की के साथ एकमएक हो गया. गुस्से में किसी ने कह की बलात्कारी को फांसी की सजा दो, तो किसी ने उसे नपुंसक बनाने की माँग की. वर्षों हि नहीं, सदियों से संचित गुस्से का लावा जब फूटता है, तो कोई भी समूह ऐसी ही बात करता है. भावना विवेक पर भारी पड़ना लाजिमी हो जाता है.
      समय आ गया है, जब हमें लड़कियों और औरतों के खिलाफ मर्दवादी घृणा और हिंसा से जुड़े मुद्दों को बहुत ही गंभीरता से लेना चाहिए. भारतीय समाज बहुत सारे समाजों से बिलकुल भिन्न है. वास्तव में यह विरोधाभासों का संगम है. एक तरफ धुर आधुनिकता दिखाई देती है, तो दूसरी तरफ बेहद पिछड़े मध्यकालीन मूल्य. मनुस्मृति और दुसरे धर्मग्रंथों में हज़ारों साल पहले स्त्रियों के बारे में जो पुरुषवादी मूल्य-मान्यताएं और विधि-निषेध दिल और दिमाग में बैठाए हैं, वो मौका पाते ही बेहद हिंसक और वीभत्स रूप फूट पड़ते हैं. पीढी दर पीढी इसे बाल जीवन घुट्टी की तरह पिलाया जाता है. परिवारों में अगर दो लैंगिक रूप से भिन्न बच्चे होते हैं तो एक को औरत की तरह ढाला जाता है और दूसरे को मर्द के रूप में. उनकी मानसिकताएं, सपने, अपेक्षाएं, हावभाव, और अभिरुचियाँ भी अलग-अलग होती हैं. उनके लिए शरीर और इज्ज़त-आबरू के मायने भी अलग-अलग होते हैं. माँ-बहन की गालियां सर्वमान्य हैं, जिनमें यौन क्रिया को बीभत्स और हिंसक रूप दिया जाता है. बचपन से लड़के लड़कियाँ इन गालियों को सुनते हुए बड़े होते हैं और उनके मन पर इनकी गहरी छाप होती है. अगर कोई लड़की अपनी पहचान या अस्तित्व के लिए सचेत होती है, आग्रहशील होती है, तो उसकी औकात बताने का एक सबसे सरल तरीका होता है, उसे शारीरिक रूप से अपमानित करना. उसे अहसास कराया जाता है कि मर्दानगी के मातहत रहने पर ही वह सुरक्षित रह सकती है और विरोध करने पर उससे बदला लिया जाता है. बलात्कार इसका चरम रूप है.
    हिंसा मर्दानगी का हथियार है. हिंसा से ही मर्दानगी हासिल हो सकती है या फिर दिखाई जा सकती है. यह रवैय्या घर-बाहर, हर जगह दिखाई देता है. यह हिंसा शारीरिक भी हो सकती है और मानसिक भी. गंदे इशारे और गन्दा स्पर्श, आँख मरना, शरीर से छेड़छाड़, मोबाइल से गन्दी बातें और गंदे मैसेज....सैकड़ों साधन हैं जिनसे रेप का माहौल तैयार होता है. फिल्मों और फिल्मी गानों में अश्लीलता की कोई हद नहीं. हिंसा और सेक्स को  निरंतर देखते रहने से बचपन का भोलापन ख़त्म होता जा रहा है.
इंटरनेट पर अनगिनत पोर्न साईट भी हैं, जो बीमार मानसिकता पैदा करती हैं.
    हमारा समाज ऐसा पुरुषवादी समाज है जिसमें यदि लडकियाँ खुद को बचा कर न रखें, वे टाइम से घर ना लौटें, घर के अन्दर माँएं चौकीदारी न करें, लडकियाँ भाई या किसी मर्द के साथ न जाएँ, तो उनके साथ कभी भी बलात्कार हो सकता है..... कहाँ-कहाँ, कैसे और कौन उसे बचाता रहेगा? पुलिस सुरक्षा बढ़ा देने, बलात्कारी को मृत्यु दंड देने या नपुंसक बना देने से क्या बलात्कार ख़त्म हो जायेंगे? क्या हत्या के खिलाफ कठोरतम दंड का प्रावधान होने से हत्या रुक गयी? कानूनी सख्ती सिर्फ प्रतिरोधक का काम करती रहेंगी. समाज को सभ्य बनाये रखने के लिए ऐसे प्रतिरोधकों की ज़रुरत होती है, कमज़ोर तबकों की हिफाज़त के लिए कानून ज़रूरी होते हैं. लेकिन, नए कानूनों के बन जाने से ही अपनी सुरक्षा को लेकर लड़कियों, उनकी माँओं, उनके घरवालों का लगातार चिंता और तनाव में रहना ख़त्म नहीं हो जायेगा.
    हमारे देश में सालाना नब्बे हजार बलात्कार होते हैं हज़ारों घटनाएं अनरिपोर्टेड रह जाती हैं. घर के भीतर करीबी रिश्तेदारों द्वारा किये जाने वाले बलात्कार के मामलों का गला मौकाए वारदात पर ही घोंट दिया जाता है. कश्मीर से लेकर सुदूर दक्षिण के मंदिर शहरों और जगमगाते गुजरात से लेकर मणिपुर, नागालैंड और असम समेत पूर्वोत्तर के राज्यों तक या फिर छत्तीसगढ़, उड़ीसा और झारखंड के आदिवासी गाँवों या फिर उत्तरी भारत के गाँव-देहातों तक, न जाने कितनी ही ऎसी घटनाएं अनकही-अनसुनी रह जाती हैं.
  पिछले बीस-पच्चीस सालों में जिस तरह से देश का विकास किया जा रहा है, जिस तरह से पैसे और मुनाफे की देवी की आराधना हो रही है, जिस तरह से सरकारी खजाने की लूट तथा रोज़गार, जमीन और जीवन की असुरक्षा बढी है, उसमें औरत के प्रति हिंसा का बढ़ना स्वाभाविक है. गाँवों और शहरों में बदहवास घूमते बेरोजगार, बिल्डरों और भू-मफियाओं, सट्टेबाज, नेताओं की बेतहाशा बढ़ती कमाई तथा मौजमस्ती की बदलती परिभाषा ने औरतों के प्रति हिंसा को पहले से कई गुना बढ़ा दिया है. ताकतवर और पढ़ा लिखा तबका आवाज़ उठा लेता है. दिल्ली की घटना के प्रति सड़कों पर उतर आये प्रतिरोध ने इसे साबित भी कर दिया. लेकिन इसने यह भी साबित कर दिया की प्रतिरोध संगठित न हो तो उसे भटकाना, तोडना या बदनाम करना भी उतना ही आसान होता है. ऐसे आन्दोलनों का तात्कालिक मांगों और सतही मुद्दों में उलझ कर रह जाना भी स्वाभाविक है. दिल्ली में बलात्कार के खिलाफ जनाक्रोश और लोगों के स्वतःप्रवर्तित संघर्ष को आगे, बहुत आगे, अपने घरों, देहातों और लोगों के दिलोदिमाग तक पहुंचाने की ज़रुरत है. ज़रुरत है जनमानस में गहराई से बैठी पुरुषवादी सोच पर चोट करने की. ज़रुरत है घर के अन्दर बच्चे की परवरिश  मर्द और औरत के रूप में न करके, एक सजग इंसान और स्वस्थ नागरिक के रूप में उसे बड़ा करने की. ज़रूरत है घर के फैसलों में लड़की और औरत को बराबरी की भागीदारी सुनिश्चित करने की, संपत्ति के अधिकार को ज़मीनी स्तर पर लागू करने की. वास्तव में आज ज़रुरत है तेज़ी से बदलती, वैश्वीकृत दुनिया में लड़की और औरत को भीतर से मज़बूत बनाने, उसमें आत्मविश्वास पैदा करने और पूर्ण बराबरी से परिपूर्ण इंसानी  मूल्यों पर आधारित, न्यायपूर्ण परिवार और समाज की बुनियाद रखने की.
      दिसम्बर के सर्द माहौल में युवाओं के आक्रोश से पैदा हुई इस गर्मी और उम्मीद को कायम रखते हुए नारी मुक्ति के सवाल को आगे बढ़ाना आज समय की पुकार है.   
महिलाओं में आत्मनिर्भरता, आत्मगौरव की चेतना, सामाजिक सरोकार, संगठन और पितृसत्ता की हर अभिव्यक्ति के खिलाफ निरन्तर प्रतिरोध हमारी अस्मिता और अस्तित्व की समस्या का अंतिम समाधान प्रस्तुत करेगा. आइये, हम मिलजुल कर इस दिशा में आगे बढ़ें.

Wednesday, December 26, 2012


  चीख का पार्श्व संगीत : आशु वर्मा

  कम्प्यूटर पर क्लिक करते ही
  उग आते हैं किसी बड़े आर्किटेक्ट के ग्राफिक्स
  काले स्क्रीन पर संतरी-हरी-नीली-पीली
  मुर्दा रेखाओं के साथ खड़े हो जाते हैं अपार्टमेन्ट
  बेडरूम, डिजाइनर टॉयलेट
  और मोडयुलर किचेन के साथ
  ठीक उसी समय
  दूर कहीं छीन जाता है कोई गाँव, कोई क़स्बा या फिर कोई शहर पुराना....
  रहने लगता है वहां कोई नया शहर
  दे दिया जाता है उसे
  कोई नया नाम... 
  मसलन, नोएडा, वैशाली, गुडगाँव, निठारी वगैरह वगैरह....

  चमचमाते कांच वाले अजीब किस्म के कारखाने
  आसमान छूती इमारतें
  आठ लाइनों वाले राजपथ
  टोल-टैक्स बूथ
  सैंडी और कैंडी से भरे कॉल सेंटर,
  इन सबके बीच छितराने लगती है ऑक्सीज़न
  और सभ्यता किसी ठंडी कब्र में छुप जाती है
  तेज़ रफ़्तार गाड़ियों
  जगमगाते शौपिंग माँल
  गमकते फ़ूड कोर्ट
  शोर मचाते डिस्को के बीच
  सांय-सांय गूंजती है
  एक ठंडी डरावनी चुप्पी .......
  ध्यान दें, ध्यान दें तो इस चुप्पी में पार्श्व संगीत की तरह बजती रहती है
  एक चीख
  जो उठती है किसी कॉल सेंटर के पास रात दो बजे,
  बन रही किसी इमारत की एक सौ बीसवीं मंजिल से,
  किसी एक्सप्रेस हाइवे के सूने से मोड़ से,
  या फिर, किसी एयर-कंडीशंड कार की पिछली सीट से.
  ये चीख अब बम्बई की भीड़ भारी लोकल ट्रेन
  पूना के किसी क्लब के स्वीमिंग पूल
  या दिल्ली की भीड़ भरी बस
  या फिर महरौली के किसी फ़ार्म हाउस से भी आती है......

  बाकी हमारे आपके घरों से
  चीख नहीं आती है,
  बस आती है एक घुटी सी आवाज़ ....
  बल्कि यूं कहें की गले में घों-घों और
  चुप्पी के बीच की सी आवाज़
  जिसमें फर्क आपको खुद ही करना होता है
  और समझना होता है आँख के नीचे
  उभर आये काले धब्बों
  डूबती हंसी और  
  घर में तारी मुर्दा खामोशी को...
  अगर आप गौर से सुनें तो शहरों और गांवों के ऊपर
  और क्षोभमंडल के बीच
  ऊपर टगी इस चीख में
  शामिल होती हैं गलियों और मोहल्लों से आती चीख भी
  जिनसे मिलकर बनता है
  चीख का मौन पार्श्व-संगीत.

  अगर आप देश की राजधानी दिल्ली में हैं तो
  शायद आपको सुनाई न दे
  या फिर शायद बड़ा जोर लगाना पड़े सुनने में
  कई और चीखें ......
  जो दूर, कहीं बहुत दूर से आती हैं 
  जिसके बिना पूरा नहीं होता चीख का यह ऑर्केस्ट्रा
  मौन का यह पार्श्व संगीत .....
  यह चीख आती है बिहार के धूल उड़ाते
  किसी दक्खिन टीले से
  या फिर बस्तर या उड़ीसा के आदिम गाँवों से.....
  एक सिसकी आती है पंजाब के एन आर आई घर से..

  अहिल्या के घर से उठी यह चीख
  कितने ही युगों गुज़रती ....
  कभी मद्धम, तो कभी द्रुत आरोह-अवरोह से करती है पार्श्व संगीत को और भी उदास....
  लोग बताते हैं की इस पार्श्व संगीत में बजता है
  दुनिया का सबसे बड़ा साज़
  जिसमे हर वर्ष जुड़ते हैं नब्बे हज़ार तार...
  लोग यह भी बताते हैं की जब कोई साज़
  बहुत दिन बज जाता है,
  तब,
  टूटने लगते हैं उसके तार...
  तब, टूटने लगते है उसके




  

Monday, December 17, 2012


मलाला, गजाला और बबली

    मलाला, गजाला और बबली..... इन तीनों बच्चियों के साथ जो कुछ हुआ, उसने  दिल-दिमाग को झकझोर कर रख दिया. क्या इन तीनों में कोई सम्बन्ध है? पिछले दिनों पाकिस्तानी बच्ची मलाला पर सिर्फ इस बात के लिए तालिबानी हमला हुआ कि वह पढ़ना चाहती थी और अपने ही जैसी तमाम लड़कियों को पढ़ाई की कीमत समझती थी, उन्हेंपधने के लिए उकसाती थी. (वो समझती है कि वह इक्कीसवीं सदी में जी रही है, मासूम बच्ची...!) उसके कुछ ही समय पहले तालिबानों ने पश्तो गायिका गजाला को सरे आम गोली से उड़ा दिया था. यूट्यूब पर उसे गाते सुना. उसकी आवाज में जादू था. वह एक बेहतरीन फनकार थी. और तीसरा हादसा...कुछ ही दिनों पहले मैं बबली के अन्तिम-संस्कार में शामिल हुई. बबली, मरने या मार दिये जाने से पहले मैंने उसे देखा भी नहीं था, उसका नाम भी नहीं सुना था. कृष्ण, मेरे घर जो बच्चा दूध देने आता है, उसकी बहन थी बबली. आठ साल पहले कम उम्र ही में वह ब्याह दी गई थी. नहीं, ब्याही कहाँ थी, रिश्तेदारी में दे दी गई थी.  अंटा-संटा यानी अदला-बदली की परंपरा के तहत. कितना आसान तरीका! अदला-बदली. वर ढूँढने, घर-परिवार, जायजाद देखने की ज़हमत भी नहीं उठानी पड़ी. एक खूंटे से दूसरे खूंटे बाँधनी ही तो थी. और एक दिन जल गयी बबली, मर गई इनवर्टर से जल कर! मरने-मरने का एक नया साधन. स्टोव या गैस  से बहुओं का जलना तो अक्सर सुना करते थे. पर इनवर्टर से मौत की दास्तान पहली बार सुनने को मिला. खैर, नब्बे प्रतिशत जली बबली मरते-मरते भी कह गई किसी ने नहीं जलाया मुझे... मै खुद ही इनवर्टर से जल गई....! बबली इनवर्टर से जलती रही और उसके ससुराल के भरे-पूरे परिवार में से किसी ने भी उसे नहीं बचाया...! दो दिन अस्पताल में जलने की पीड़ा बर्दाश्त करती, ससुराल, मायके और पुलिस वालों की साजिशों का मुकाबला करती आखिर उसे मुक्ति मिल गयी. गाँव की बूढ़ी औरतों ने बबली की माँ को दिलासा देते हुए यही कह था, रो न, आज तो उसे मुक्ति मिली है...कितनी शरीफ थी बेचारी. इब तो स्वर्ग पहुँच गई होगी. ठीक ही कह रहीं थीं वे. बबली नरक से निकल कर स्वर्ग में ही तो गई. वंश चलाने के लिए एक बेटा भी  छोड़ गई. पता नहीं क्या-क्या झेल रही थी. दस साल हो गये थे उसकी शादी हुए. यह कैसी शादी थी? बबली घरवालों की इज्ज़त बचाती रही. रोज़-रोज़ ऑनर-किलिंग का शिकार होती रही.
रोज़ ही तो मरती हैं बबलियाँ- रिपोर्टेड या अनरिपोर्टेड." गजाला जावेद को महज़ इसलिए मार दी गयी कि वह गाती थी. मलाला को इसलिये गोली मार दी गयी कि वह पढ़ना चाहती थी. बबली इसलिए इनवर्टर से जल गई क्योंकि वह सुकून से जीना चाहती थी.
जो वहशीपन और बलात्कार का शिकार हो रहीं हैं, वे भी तो हर दिन, हर पल जीते-जी मर ही रहीं हैं. उन सबका दोष क्या है? किसने हक दिया कि कोई जीते-जी उनकी जिन्दगी को नरक बना दे, उन्हें इतनी बेरहमी से और इतनी आसानी से मार दे? बबलियों का शादी-ब्याह कोई और तय करता है... उनका जीना-मरना कोई और तय करता है. फरमान जारी होता है कि लडकियाँ  पढाई न करें, उनकी शादी काम उम्र में ही कर दी जाय. कहीं खाप है तो कहीं तालिबान. लड़कियों के पहनावे या उन्मुक्त जीवन-शैली या उनका घर से बाहर निकाल कर पढाई और नौकरी करने को ही उनके साथ छेड़-छाड़ और बलात्कार का कारण बताया जाता है. किसी राजनीतिक दल को किसी बबली त्रासदी की से भला क्या लेना-देना.
बबली को सिर्फ बबली मान जाता है. समाज इन्हें जीता-जागता इन्सान मानना शुरू कर दे, तो कोई मलाला गोली का शिकार नहीं होगी, कोई बबली इन्वर्टर से नहीं जलेगी, फिर कोई वहशी इंसानियत को शर्मसार नही कर पायेगा...लेकिन यह सब इतना आसान तो नहीं.
सच तो यह है कि ये घटनाएँ एक दूसरे से गहराई से जुड़ी हुई हैं. तीनों के पीछे एक ही जैसे कारण रहे हैं.
मलाला पर गोली क्यों चलाई गई? भला पढ़ाई इतनी खतरनाक बात कब से हो गयी कि पढने और पढ़ाने का सपना देखने वाली इस नन्हीं सी बच्ची के खिलाफ तालिबानों ने अपनी बहादुरी का परिचय दिया? वास्तव में यह गोली उस विचार से निकाली थी जो औरतों को दबा कर रखने का हामी है. यह सोच उसी मर्दवादी, पितृसत्तात्मक सामाजिक और धार्मिक विचार का हिस्सा है जो औरतों को पढ़ने नहीं देती थी. एक वह भी दौर था जब पढने पर उनके कान में पिघला सीसा डाल दिया जाता. इसलिए कि औरत पढ़ लेगी और ज्ञान हासिल कर लेगी तो गाय की तरह खूंटे से बंधने के लिए तैयार नहीं होगी, चुपचाप एक पिंजरे से दूसरे पिंजरे में नहीं जाएगी. वह सोचेगी अपने बारे में, अपने भले-बुरे और अपनी जिन्दगी से जुड़े फैसलों के बारे में. वह घर की दहलीज लाँघ कर सामाज में अपना योगदान देना चाहेगी. वह हर तरह की बराबरी का अधिकार मांगने लगेगी. इसलिए उसे पढ़ाया नहीं जाता था और आज भी कट्टरपंथी उसे गुलाम बनाये रखने के लिए यह जरूरी समझते हैं कि उसे पढने न दिया जाय- चाहे अफगानिस्तान हो, पाकिस्तान हो या भारत, सभी दकियानूस और मर्दवादी कट्टरपंथी यही चाहते हैं.
गजाला पश्तो भाषा की एक लोक गायिका थी. उसकी लोकप्रियता तेजी से बढ़ रही थी. धार्मिक कट्टरपंथियों को यह बर्दाश्त नहीं हुआ. वे चाहते हैं की औरत पुरुषों के इशारों पर कठपुतली की तरह नाचे, लेकिन अपनी कला और प्रतिभा का प्रदर्शन न करे.  औरतों की आजादी उन्हें बर्दाश्त नहीं.
वे धर्म और परंपरा की आड़ में पितृसत्ता की बर्बरता को कायम रखना चाहते हैं और जब भी कोई लड़की या औरत इस सोच से आगे जाकर निजी पसंद, ख्वाहिशों, इच्छाओं और आजादी के बारे में सोचती है, तब उसे इतनी बुरी तरह डराने का प्रयास किया जाता है ऐसी कठोर सजा देने की कोशिश की जाती है कि  कोई दूसरी लड़की अपनी आजादी के बारे में सोचना बंद कर दें. और लड़कियाँ हैं कि हर कीमत पर अपनी आजादी बरक़रार रखना चाहती है- जान देकर भी.
जहाँ तक बबली की बात है, उसे तो हम हर घर में महसूस कर सकते हैं. हमारे समाज में मर्दवादी सोच के चलते लोग लड़की को बबली ही बनाए रखना चाहते हैं. जिस तरह लड़कियों को पाला जाता है, जिस तरह पुरुष-प्रधान विचारों की घुट्टी पिलाई जाती है, उसके बाद अधिकांश लड़कियाँ यह मान लेती हैं की शादी के बाद पिता के घर पर उनका किसी भी प्रकार का अधिकार नहीं रह जाता. इसलिए रोज़-रोज़ पिट कर भी वे  मायके वालों के सामने मुस्कुराती रहती हैं. वे जताती ही नहीं कि उन्हें कोई तकलीफ है. ये विचार उनके खून में इतनी घुलीमिली रहते हैं कि वे खुद ही जल जाती हैं, मर जाती हैं, फिर भी मायके वालों को अपनी तकलीफ नहीं बतातीं. यह एक बबली का सवाल नहीं है, रोज़ ही हमारे आसपास कोई बबली मरती रहती है, मर्दवादी सोच की बलि चढ़ती रहती है. दस साल तक किसी के साथ वैवाहिक जीवन जीने के बाद भी इसकी गारंटी नहीं होती की लड़की खुश है, सुरक्षित है. यह कैसी शादी होती है? यह कैसा समाज है? यह कैसी परम्पराएं हैं और यह कैसा भय है जो लड़की के दिलो-दिमाग में घर किये रहती है?
इसमें कोई संदेह नहीं कि आज असंख्य मलालाओं, गजालाओं और बबलियों के साथ जो कायराना और वहशी सलूक किये जा रहे हैं, उनके पीछे आज की औरत का आजादी से गहरा लगाव और उसे हर कीमत पर हासिल करने का जज्बा है. ये घटनाएँ इस बात का ऐलान हैं कि जोर-जुल्म, दहशत और तानाशाही के दम पर अब हमें कोई घर की चारदीवारी में कैद करके नहीं रख सकता. जागरूक महिलाओं के आगे यह चुनौती है कि व्यक्तिगत रूप से की जाने वाली इन बगावतों और अलग-अलग दिशाओं से उठ रही आवाजों को एक पुरजोर आँधी और मुकम्मिल बदलाव की और कैसे ले जायें.