Thursday, April 22, 2021

अनसुने और अज्ञात मार्गदर्शक




भारत में जिन मुद्दों से दलित औरतों की जिन्दगी में प्रभाव पड़ता है अकसर वह नारीवादी आन्दोलन की चर्चाओं में कम ही आ पाते हैं। लेकिन फिर भी ग्रामीण क्षेत्रों की छोटी जाति–बिरादरी की औरतें अपने हकों के लिए संघर्ष करती आई हैं। भारत में नारीवादी लैंगिक न्याय के लिए संघर्ष करती हैं– महिलाओं की गतिशीलता के अधिकार के लिए, लैंगिक हिंसा और भेदभाव के खिलाफ। लेकिन ये शहरी क्षेत्रों तक ही केन्द्रित है। उन संघर्षों ने महिलाओं के लिए प्रमुख जीत हासिल की है जो दोनों, प्रगतिशील कानूनी और सामाजिक मानदण्डों में परिवर्तन को सामने ला रहे हैं।
हालाँकि भारत में दलित महिलाओं को अपने हकों के लिए कई जमीनी संघर्षों का नेतृत्व किया, जबकि उन्होंने खुद को नारीवादियों के रूप में नहीं पहचाना होगा। यह संघर्ष 1970 के दशक में उत्तराखण्ड के चिपको आन्दोलन से लेकर केरल के श्रमिक हड़ताल तक के हैं। यह संघर्ष बेहद स्थानीय थे फिर भी उनका प्रभाव उनकी सोच से आगे निकल गया। उनमें से कुछ पर एक नजर डालते हैं–


श्रमिक हड़ताल
नर्सिंग जैसे महिलाप्रधान व्यवसायों में महिलाओं को आमतौर पर बहुत कम भुगतान किया जाता है। इन व्यवसायों को गंभीरता से नहीं लिया जाता है या एक ‘सेवा’ का नाम देकर भुगतान कम किया जाता है। यहाँ तक कि शारीरिक श्रम सहित अन्य व्यवसायों में, लिंग के आधार पर वेतन में अन्तर बना रहता है। केरल में चाय बागान श्रमिकों और नर्सों ने हाल ही में इस तरह के भेदभाव को खत्म करने में कामयाबी हासिल की। केरल के मुन्नार के चाय बागानों में चाय की पत्ती चुनने वाली अधिकांश महिला मजदूर दलित हैं, जो दशकों पहले तमिलनाडु से पलायन कर गई थीं। वे कठोर परिस्थितियों में प्रतिदिन 14 घंटे न्यूनतम दैनिक मजदूरी 232रु के लिए काम करती थी, जबकि राज्य में शारीरिक काम करने वाले मजदूरों के लिए औसत दैनिक वेतन 500रु से अधिक था। महिलाएँ बिना शौचालय वाले टिन शेड में रहती थीं और उनके बच्चे अकसर स्कूली पढ़ाई पूरी नहीं कर पाते थे।
2015 में, जब बागान प्रबन्धन ने श्रमिकों के वार्षिक बोनस को आधा कर दिया, तो कुछ महिला कार्यकर्ता मौन विरोध में मुन्नार की सड़कों पर बैठ गयी। कुछ ही दिनों में प्रदर्शनकारियों की संख्या लगभग 12,000 हो गई। समूह ने खुद को पोम्बिलाई ओरूमई नाम दिया। पुरुष प्रधान ट्रेड यूनियन में महिलाएँ बहुत कम बोला करती थीं, इसलिए विरोध प्रदर्शन के दौरान उन्होंने शोषणकारी ट्रेड यूनियनों और अपने ही घर के मर्दों को प्रदर्शन से दूर रखा।
एक महीने के अन्दर, राज्य सरकार को कदम उठाना पड़ा और प्रबन्धन को श्रमिकों की न्यूनतम मजदूरी को 301रु तक बढ़ाना पड़ा। ओरुमई के कुछ नेता स्थानीय निकाय तक के चुनाव जीत गए। यह भारत में सम्भवत: पहली बार था जब आम महिला श्रमिकों के एक समूह ने प्रबन्धन और स्थापित यूनियनों का मुकाबला करते हुए सफलता हासिल की।
इसी तरह केरल के निजी अस्पतालों में काम करने वाली नर्सों ने 2017 में उचित वेतन के लिए संघर्ष किया और जीत हासिल की। बेहद कम भुगतान पाने वाली नर्सों ने 2012 में संगठित हो विरोध प्रदर्शन किया, जिसके बाद उनका मासिक न्यूनतम मूल वेतन बढ़ा कर 9500रु कर दिया गया। लेकिन कई अस्पताल प्रबन्धकों ने इस राशि का भुगतान नहीं किया। दबाव और प्रबन्धन के खतरों के बावजूद 2017 में राज्य भर के अस्पतालों में नर्सों ने एक महीने तक लगातार हड़ताल की। राज्य सरकार ने तब नर्सों के संघ और प्रबन्धन के साथ बातचीत की। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा नियुक्त जगदीश प्रसाद समिति की सिफारिशों के अनुरूप नर्सों का न्यूनतम वेतन 20,000रु तक बढ़ा दिया गया।
बेंगलुरु में भी महिला श्रमिकों के बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन हुए हैं। अप्रैल 2016 में शहर में ठहराव आया, क्योंकि कपड़ा कारखाने की हजारों महिला मजदूरों ने अन्य श्रमिकों के साथ सड़कों पर अनायास कब्जा कर लिया। फैक्ट्रियों में शोषण और यौन उत्पीड़न का सामना करने वाली महिलाएँ केन्द्र सरकार की श्रमिकों के पीएफ खातों तक पहुँच को प्रतिबन्धित करने की योजना का विरोध कर रही थी। सरकार को इस विचार को तुरन्त त्यागने के लिए मजबूर होना पड़ा।


पर्यावरण संरक्षण के लिए विरोध
जब जल–जंगल जैसे प्राकृतिक संसाधन नष्ट हो जाते हैं तो हाशिये के समुदायों की महिलाएँ सबसे अधिक प्रभावित होती हैं। 1970 के दशक की शुरुआत में उत्तराखण्ड में महिलाओं ने पेड़ों की कटाई रोकने के लिए ‘चिपको आन्दोलन’ की शुरुआत की। सरकार की नीतियों और वाणिज्यिक हितों के कारण क्षेत्र के जंगल तेजी से घट रहे थे, जिसके परिणाम स्वरूप बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाएँ आर्इं। इसने गढ़वाली समुदाय की वन संसाधनों तक पहुँच सीमित कर दी। समुदाय की महिलाएँ जीवन यापन के लिए लघु वन्य–उपज इकट्ठा करती थीं। चिपको आन्दोलन की परिकल्पना सर्वोदय सदस्यों (विनोबा भावे के अनुयायियों) के एक समूह द्वारा की गई थी, लेकिन यह गढ़वाली महिलाएँ थीं जिन्होंने इसे एक आन्दोलन में बदल दिया। गौरा देवी व अन्य महिलाओं ने अपने गाँवों में महिलाओं को संगठित किया, उन्होंने उन पेड़ों को गले लगाया जिन्हें कोई भी काटने का प्रयास कर रहा था। अन्तत: राज्य सरकारों ने जंगलों में अस्थाई रूप से पेड़ों की कटाई पर प्रतिबन्ध लगा दिया।
चिपको के समान ही ‘झारखण्ड जंगल बचाओ आन्दोलन’ (जेजेबीए) है। आदिवासी समुदायों के नेतृत्व में यह राज्यव्यापी आन्दोलन सन 2000 से बढ़ रहा है। इस आन्दोलन का उद्देश्य जनजातीय समुदायों को जंगल में अधिकार दिलाने और इसे व्यवसायिक शोषण से मुक्त कराना है। यहाँ भी महिलाएँ सबसे अधिक प्रभावित हुर्इं और आन्दोलन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बनी रहीं। उनके सहज विरोध ने पुलिस और वन अधिकारियों को पीछे हटने और यहाँ तक कि पेड़ों की कटान की योजनाओं को छोड़ देने पर मजबूर किया। उदाहरण के लिए कर्मा बेड़ा गाँव में जब वन विभाग के अधिकारियों ने व्यावसायिक रूप से उपयोगी नीलगिरी के पेड़ लगाने की कोशिश की, तो जेजेबीए महिलाओं ने लाठी और दरान्ती के साथ उनका सामना किया। अधिकारी बाद में वहाँ कभी नहीं लौटे। झारखण्ड के जंगल अब जेजेबीए की निगरानी में पुनर्जीवित हो रहे हैं।
केरल के प्लाचीमाडा गाँव में, आदिवासी महिलाओं ने शक्तिशाली कोका–कोला कम्पनी के खिलाफ लड़ाई जीती। कम्पनी का कारखाना, गाँव से पांच लाख लीटर भूजल खींच रहा था और भूजल को गम्भीर रूप से प्रदूषित कर रहा था। इसने ग्रामीणों के स्वास्थ्य और उनकी फसलों को प्रभावित किया। महिलाओं को अपने दैनिक कृषि काम और लड़कियों को स्कूल छोड़ना पड़ा ताकि वे दिन में दो बार 5 किलोमीटर पैदल चलकर साफ पानी ला सकें। 50 वर्ष की कृषि मजदूर मयिलम्मा ने ‘कोका–कोला विरुद्ध समिति’ की स्थापना की, जिसने कारखाने के बाहर लगातार विरोध प्रदर्शन किया। समुदाय की महिलाओं ने भी कई प्रदर्शनों का नेतृत्व किया और गिरफ्तारियों का सामना किया। आखिरकार 2004 में कारखाना बन्द कर दिया गया, पर इसके 4 साल बाद ही इसका संचालन पुन: शुरू हो गया।


शराबबन्दी और घरेलू हिंसा के खिलाफ लड़ाई
90 के दशक की शुरुआत में आन्ध्र प्रदेश में ग्रामीण महिलाओं ने अपमानजनक शराबी पतियों से तंग आकर राज्यव्यापी शराब विरोधी आन्दोलन का नेतृत्व किया। इसकी शुरुआत तब हुई जब वर्धनिनी रोसम्मा नामक छात्रा अपनी पाठ्यपुस्तक की एक कहानी से प्रेरित हुई, जिसमें एक महिला एक शराब लॉबी के खिलाफ लड़ती है। रोसम्मा ने नेल्लोर जिले के अपने पैतृक गाँव डबगुंटा में महिलाओं को संगठित किया। समूह ने स्थानीय ताड़ी के ठेके पर झाड़ू और मिर्च पाउडर से हमला किया और इसे बन्द करने के लिए मजबूर कर दिया। इस ने राज्य भर की महिलाओं को आन्दोलन में शामिल होने के लिए प्रेरित किया। उनके विरोध में आन्ध्र प्रदेश सरकार को 1993 में देसी शराब पर प्रतिबन्ध लगाने और 1995 में शराबबन्दी लागू करने के लिए मजबूर किया, हालाँकि यह अस्थाई रूप से ही था।


उत्तर प्रदेश में एक महिला सतर्कता समूह है जो अब गुलाबी गैंग के नाम से जाना जाता है। 2003 में यह समूह सबसे दूरस्थ और सबसे पिछड़े इलाकों में से एक में शुरू हुआ था, जब अधेड़ सम्पत पाल देवी ने एक व्यक्ति को अपनी पत्नी को पीटने से रोकने की कोशिश की थी, उस व्यक्ति ने सम्पत को गालियाँ दी। अगले दिन सम्पत लाठियों के साथ महिलाओं के समूह को लेकर आई और उस आदमी की पिटाई कर दी। अब समूह में हजारों महिलाएँ हैं जिसमें से ज्यादातर निचली जातियों की हंै, जिनके पास न्याय की पहुँच नहीं है। उन्होंने गुलाबी रंग की साड़ियाँ और लहंगे पहने। यह समूह हिंसा की शिकार महिलाओं की सहायता करता है और उन्हें आजीविका कमाने में मदद करता है। इसके अलावा यह दहेज, बाल विवाह आदि को रोकने की दिशा में भी काम करता है। इसने भ्रष्ट सरकारी अधिकारियों के खिलाफ भी कार्यवाही की है।
आन्ध्र प्रदेश और कर्नाटक में भी शराबबन्दी के लिए संघर्ष जारी है, पोम्बिलाई ओरूमई आन्दोलन की नेताओं को मुख्यधारा के राजनीतिक दलों द्वारा बार–बार निशाना बनाया जाता है। लेकिन इन संघर्षों ने न केवल एक विशिष्ट माँग को पूरा किया बल्कि अपने समुदाय में महिलाओं की स्थिति को बदल दिया।
उदाहरण के लिए चिपको आन्दोलन और जेजेबीए, दोनों में महिलाएँ अपनी पारम्परिक भूमिका से आगे बढ़ीं। गढ़वाली महिलाओं का अपने ग्राम सभाओं में कोई प्रतिनिधित्व नहीं था, वास्तव में अपने ही समुदाय के लोगों ने ‘विकास’ के नाम पर चिपको आन्दोलन का विरोध किया। लेकिन अधिकांश महिलाओं ने विरोध से डर कर भागने की बजाय ग्राम सभाओं में अपने लिए प्रतिनिधित्व की माँग की। पोम्बिलाई ओरूमई महिलाओं का कहना है कि उनके पति उनके साथ अब दुर्व्यवहार नहीं करते हैं। 
बड़े स्तर पर इन आन्दोलनों ने मिसाल कायम की है और वैश्विक मीडिया का ध्यान भी अपनी ओर खींचा है। इन आन्दोलनों पर अकादमिक शोध भी किये गए है। कुछ आन्दोलनों को अन्यत्र भी दोहराया गया है। उदाहरण के लिए, चिपको आन्दोलन उप–हिमालय क्षेत्र के साथ–साथ पश्चिमी घाटों को बचाने के लिए कर्नाटक में अप्पिको आन्दोलन के नाम से हुआ। यहाँ तक कि जापान में भी इस तर्ज पर 2009 में एक आन्दोलन हुआ। भले ही इन संघर्षों को औपचारिक रूप से नारीवादी आन्दोलनों के रूप में पहचान नहीं मिली लेकिन इन्होंने देश–विदेश में महिलाओं के अधिकारों के पाठ्यक्रम को बदल दिया है।
––नव्या पी के (अनुवाद - शालिनी)


पर्यावरण और नारीवाद




जीवन, प्रकृति, पृथ्वी, पर्यावरण पारिस्थितिकी कोई भी एक नाम लो, स्त्रीत्व की गूँज सुनाई देती है। इसी तरह पालन, पोषण, प्यार, करुणा और सहानुभूति आदि मानवीय गुण भी स्त्रीत्व के बोधक होते हैं। शुरू से ही माना जाता रहा है कि पुरुषों की तुलना में औरतें प्रकृति के ज्यादा करीब होती हंै। जब भी पर्यावरण के क्षरण और प्राकृतिक संसाधनों के अनुचित और अन्यायपूर्ण दोहन की बात होती है तो सवाल यह उठता है कि कौन इससे सबसे ज्यादा प्रभावित होता है? इसका जवाब भी तुरन्त हाजिर हो जाता है– सदियों से दमित समुदाय, और जब भी दमित समुदाय की बात हो तो औरत सबसे पहले स्थान पर होती है। पर्यावरण विनाश और औरतों पर पुरुषों के प्रभुत्व दोनों की वजह भी एक सी ही हैं, वह है पितृसत्ता और पूँजीवाद।
दो सौ सालों के उपनिवेशवाद और पूँजीवाद के वर्चस्व के चलते ही हम आज इस हालत में पहुँचे हंै, इसी के कारण हम पर्यावरण सम्बन्धी तमाम समस्याएँ झेल रहे हैं। हालाँकि औद्यौगिकरण के चरम के साथ औरतों ने सामाजिक कल्याण, शिक्षा, स्वास्थ्य और समानता के लिए कई संस्थाओं और आन्दोलनों को जन्म दिया और उन्हें पनपाने में अपनी पूरी ऊर्जा खपाई है।
सन् 1970 में फ्रांस की फेमिनिस्ट फ्रेंकोइस द युबों ने सबसे पहले पर्यावरण और औरतों के परस्पर सम्बन्ध को एक नाम दिया– इको फेमिनिज्म। जिसने एक आन्दोलन का रूप लेकर सहज ही इस ओर लोगों का ध्यान आकर्षित किया।
पर्यावरण स्त्रीवाद यानि इको फेमिनिज्म के अनुसार स्त्री और पर्यावरण पारिस्थितिकी के बीच एक अटूट सम्बन्ध है क्योंकि दोनों ही पितृसत्ता और पूँजीवाद के शिकार हैं। 
समाज की रचना के क्रम में पितृसत्तात्मक मूल्यों के प्रभुत्व को स्थापित किया गया। इको फेमिनिज्म के अनुसार, संसार के सभी दमित समुदाय अगर संगठित होकर सामाजिक पदानुक्रम (हेरार्की) को तोड़ सकें तो एक नये समावेशी समाज का निर्माण हो सकता है। अफसोस तो यह है कि मानव जाति पर्यावरण को ठीक उसी तरह नियन्त्रित करना चाहती है जैसे पितृसत्ता स्त्री जाति को करती है, वैसे ही जैसे अमीर गरीबों पर और गोरी चमड़ी वाले लोग काले भूरे लोगों को हीन मान कर उनपर अपनी श्रेष्ठता का अभिमान जताते हैं।
पर्यावरण स्त्रीवाद के अनुसार समाज में औरतों के साथ जो व्यवहार किया जाता है, ठीक वैसा ही मनुष्य जाति प्रकृति के साथ करती है, यही नहीं, पाश्चात्य दर्शन और यहाँ तक कि विज्ञान ने भी औरतों को पुरुषों से कमतर आँकने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। सोचने का यह दमनकारी नजरिया पूर्णत: पूर्वाग्रह ग्रसित था। स्त्री और प्रकृति के ऊपर प्रभुत्व ने समाज में हेरार्की को स्थापित किया। मूल्यों का यह दोगलापन ही स्त्री और पर्यावरण की बुरी दशा का जिम्मेदार है। खासकर तीसरी दुनिया के देशों में जहाँ औरतें ही घर की मुख्य संग्राहक होती हैं, उन्हें र्इंधन और पानी के लिए तथा अन्य बुनियादी जरूरतों के लिए घोर श्रम करना पड़ता है, जो पर्यावरण के विनाश का सर्वाधिक दुष्प्रभाव झेलती हैं, जबकि वह घरेलू प्रबन्धन की कर्ता–धर्ता होने के कारण कृषि, जल, जंगल, जमीन और घरेलू अर्थशास्त्र के आपसी सम्बन्ध को अच्छी तरह समझती हैं। 
एक अध्ययन के हिसाब से किसी भी इलाके के पुरुषों की अपेक्षा वहाँ की औरतें वहाँ के क्षेत्रीय पेड़–पौधों की पहचान करने और उनका प्रचलित नाम बताने में ज्यादा सफल रही हैं। पहचान की यह क्षमता उन्हें उनके उत्तरदायित्वों के निर्वहन से मिली है। 
पश्चिमी और अमीर देशों में भी गरीब लोग रेडियोएक्टिव कचरे के जहरीले साये में जीने को मजबूर हैं। लिंगभेद, रंगभेद जातिभेद, वर्गभेद ने यहाँ तक कि प्रजातिभेद ने जाने–अंजाने मनुष्यता का गला घोंटने में कोई कसर नहीं छोड़ी है।
इको फेमिनिज्म जैसा कि उसके नाम से जाहिर होता है, फेमिनिस्टों की पर्यावरण के प्रति चिन्ता मात्र नहीं है, बल्कि यह एक व्यापक और गहरी चेतना से ओतप्रोत आन्दोलन है। जहाँ एक ओर यह पितृसत्तात्मक व्यवस्था के दायरे में मौजूद लिंग भेद को खत्म करने की और एक नयी व्यवस्था की वकालत करता है, वहीं दूसरी ओर न सिर्फ मनुष्य जाति बल्कि पृथ्वी पर मौजूद समस्त प्राणियों जीव–जन्तु और पेड़–पौधे के अस्तित्व की रक्षा के लिए निरन्तर संघर्ष की भी हिमायत करता है, अपने अलग–अलग विभिन्न गुणों क्षमताओं के कारण जिन भी प्रजातियों का लगातार दोहन और शोषण किया जाता है, उन्हें अस्तित्व के संकट से उबारा जाए तभी प्रकृति में सन्तुलन बना रहेगा और पृथ्वी पर आसन्न संकट टल सकेगा।
इसी तरह इस पितृसत्तात्मक व्यवस्था में जबतक नेतृत्व में औरतों की भागीदारी कम होगी और स्वतंत्र निर्णय लेने की क्षमता का विकास नहीं हो जाता तब तक समानता की बात करना बेमानी है।
समानता के लिए संघर्ष और पूरे दमित समुदाय को उसके अधिकारों के लिए जागृत करने के साथ–साथ समाज का मूल्यांकन करते हुए यह भी जानना जरूरी है कि आखिर हम ऐसे क्यों हैं?
क्या हम वास्तव में पर्यावरण की चिन्ता करते हैं? क्या हम इसकी रक्षा के लिए अपनी आदतों में बदलाव ला सकते हैं, या फिर सुविधा–भोगी बनकर मात्र नारे लगा कर ही अपना कर्तव्य पूरा हुआ मान लेते हैं?
क्या हम वास्तव में लिंग भेद जैसे कुविचार को घृणित और मनुष्यता के खिलाफ समझते हैं, या फिर आधुनिक न कहलाए जाने के डर से बस ऊपरी तौर पर इसका समर्थन करते हैं? 
क्या हम पृथ्वी पर मौजूद सभी जीव–जन्तु, पेड़–पौधों के जीने के अधिकार और अस्तिव बचाने की जद्दोजहद के प्रति थोड़ा सा भी संवेदनशील हैं? या फिर हम इस पृथ्वी को वीर–भोग्या–वसुन्धरा मानकर शक्तिशाली और स्वार्थी मनुष्यों के हाथ का खिलौना बनने देंगे? इस तरह के अनेक सवाल आज हमारे सामने खड़े हैं जिनका हल इको फेमिनिज्म के मतानुसार जीवन के प्रचलित मूल्यों में बदलाव से सम्भव है। 
आक्रामक तौर तरीकों, शक्ति के दुरुपयोग, दमन करने की प्रवृति जैसे नकारात्मक मूल्यों के स्थान पर अहिंसात्मक व्यवहार, परस्पर सहयोग, देखभाल, रख–रखाव और सतत विकास जैसे मूल्यों को समाज में स्थापित किया जाना चाहिए। जो भी व्यक्ति इन मूल्यों पर विश्वास रखता है, वह इकोफेमिनिस्ट है। इस तरह यह विचार पूर्णत: किसी भी तरह के भेद को अस्वीकार करता है, और दमित–शोषित तथा वंचितों के पक्ष में दृढ़ता पूर्वक अपनी एक स्पष्ट सोच रखता है।
 पर्यावरण नीतिविद क्रिस कुओमो के अनुसार दमित समुदाय एक–दूसरे के साथ कटिबद्ध होकर खड़ा रहे तो ये समस्या काफी हद तक सुलझाई जा सकती है। वह तो स्त्री के प्रकृति के करीब होने को एक सांस्कृतिक मिथ मानती हैं, और इसे सामाजिक पक्ष से जोड़ती हैं। उनके अनुसार समाज द्वारा प्रदत्त कार्य ही उन्हें प्रकृति के तौर तरीकों को समझने में और मनुष्य के प्रकृति से जुड़ाव को बेहतर तरीके से समझने में कारगर साबित हुआ है। स्त्रियाँ प्रकृति पर हमारी भौतिक निर्भरता और उसकी शक्ति को बखूबी समझती हैं। समाज ने उसके हिस्से जो काम उसे सौंपे हैं उन्हीं की वजह से एक खास किस्म की संवेदनशीलता और सहानुभूति उसके अन्दर संचारित हुई है, वह नैतिक ज्ञान उसे अपने स्त्री शरीर की वजह से नहीं बल्कि उसके स्त्री शरीर को दी गई जिम्मेदारियों की वजह से मिला है। इसका एक महत्वपूर्ण उदाहरण सन् 1973 में उत्तराखण्ड का चिपको आन्दोलन है, जब सुदूर पहाड़ की ग्रामीण स्त्रियों ने पेड़ों से चिपक कर कॉमर्शियल प्रयोग के लिए जंगल कटने से बचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। 
अमेरिका की नेटिव औरतों ने अपनी जमीन पर यूरेनियम के रेडियोएक्टिव कचरे को डम्प किए जाने का विरोध किया।
सन् 1977 में केन्या की महिलाओं ने वंगरी मथाई के नेतृत्व में लाखों पेड़ लगाकर मरुस्थलीकरण को रोकने के लिए संघर्ष किया था, जिसे ग्रीन बेल्ट मूवमेंट के नाम से जाना जाता है। 1980 में हार्लेम की औरतों ने बंजर खाली जगहों पर सामुदायिक बगीचे लगाकर एक ग्रीन मॉडल की शुरुआत की जो धीरे–धीरे अमेरिका के डेट्रॉयट शहर से अन्य स्थानों पर भी पहुँच गया, जिन्हें गार्डेनिंग एंजेल्स के नाम से जाना जाता है।
अलग–अलग देशों और संस्कृतियों की हजारों औरतों ने जल प्रदूषण, भूमि क्षरण, वनों की कटाई, और मरुस्थलीकरण के खिलाफ रियो द जेनेरियो के अर्थ समिट साल 1992 में भाग लेकर अपनी आवाज बुलन्द की।
हाल ही में ओडिशा की महिलाओं ने जल, जंगल और जमीन को बचाने की मुहिम चलाई है। 
स्वीडन की 18 वर्षीय लड़की ग्रेटा थनबर्ग का पर्यावरण प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन के खिलाफ संघर्ष बहुत उम्मीदें जगाने में कामयाब रहा है। 
 एक ओर तो पूरी दुनिया में बुनियादी स्तर (ग्रास रूट) पर पर्यावरण और स्त्रियों के जीवन को लेकर एक राजनैतिक समझ विकसित हुई है।  वहीं दूसरी ओर समाज में निरन्तर बढ़ती आक्रामकता, धार्मिक कट्टरता, दूसरों से घृणा, अनियन्त्रित उपभोग की प्रवृति, तथा प्रदर्शनप्रियता के कारण समाज के नैतिक मूल्यों का भी बुरी तरह ह्रास हुआ है, जिसके कारण स्त्री जाति पर क्रूरता और बलात्कार की घटनाओं में भयंकर वृद्धि हुई है।
कुल मिलाकर कहा जाए तो हम जिस संकट के दौर से गुजर रहे हैं, उससे मुक्ति पाने के लिए और भी ज्यादा प्रयासों की सख्त जरूरत है। ऐसे में इको फेमिनिज्म की प्रासंगिकता और भी बढ़ जाती है।
आज जब हम क्लाइमेट एमरजेंसी का सामना कर रहे हैं, हमारी धरती और उसके बाशिन्दों के अस्तित्व पर खतरा मंडरा रहा है, ऐसी परिस्थिति में समस्त दमित समुदाय को एकजुट होकर इस धरती को बचाने में अपना योगदान देना ही होगा वरना बहुत देर हो जायेगी।
-उषा नौडियाल

एक मजदूर महिला की कहानी उसी की जुबानी



एक मजदूर महिला की कहानी उसी की जुबानी
घर से जब निकली तो देखा कि भट्टे पर काम करने वाली एक महिला सामने खड़ी है। गोद में एक बच्चा किलक रहा है। लॉकडाउन के दौरान वह हमारे मुहल्ले में काफी दूर से पैदल चलकर राशन माँगने आयी। उससे बातचीत करके पता चला कि उसका नाम झुनिया है और वह पेट से है। यह देखकर बड़ा दुख हुआ कि जिस औरत को आराम की जरूरत है, उसे राशन के लिए दर–दर भटकना पड़ रहा है। कैसी विपदा की घड़ी है? जब वह एक नयी जिन्दगी के सृजन का काम कर रही है, तो उसे माँगने की जरूरत क्यों आन पड़ी? उसने कहा कि आज तक किसी के सामने हाथ नहीं फैलाया बहन। खुद मेहनत से कमाकर घर चलाती हूँ। लोगों से माँगते हुए अच्छा तो नहीं लग रहा है। लेकिन क्या करूँ? पहले अन्दर से अच्छा नहीं लग रहा था और हिम्मत भी नहीं हो रही थी, लेकिन जब लगा कि अब गुजारा नहीं हो सकेगा तो मैं घर से निकल आयी। 
उसने कुछ याद करते हुए फिर कहना शुरू किया कि जानती हैं दीदी, सबसे पहले इस कालोनी में मैं क्यों आयी हूँ क्योंकि यह कालोनी मुझे अपनी सी लगती है। यहाँ मैंने कई सालों तक मजदूरी की है। पचासों घरों को बनाने में र्इंट–गारा पकड़ाया। जिस घर में आप रह रही हैं। इसमें भी मैं मजदूरी कर चुकी हूँ। यहाँ पर ही मेरे दोनों बड़े बच्चे धूल में खेलते थे और मैं काम करती थी। जब छोटे बच्चे को भूख लगती तो अपना दूध पिलाती और जब रोने लगता तो पीठ पर बाँधकर काम करने लगती। दीदी, मेरी एक बेटी भी है। बड़े वाले बेटे से दो साल बड़ी। उस समय जब मैं काम करती, वह अपने छोटे भाई की रखवाली करती और उसे खिलाती। उसका बचपन अपने भाई को खिलाने में ही गुजर गया। खुद खेलने की उम्र में अपने भाई को खिलाती रही। वह स्कूल का मुँह तक नहीं देख पायी। अगर वह स्कूल जाती और छोटे को नहीं सम्हालती तो मैं काम कैसे कर पाती?
उसे टोककर मैंने पूछा, चलो ठीक है, लेकिन बुरे वक्त के लिए पैसे भी तो बचाये होंगे, उसे खर्च क्यों नहीं करती?
उसने जबाब दिया कि दीदी, हम जगह–जगह जाकर बिल्डिंग बनाते हैं। हमें इसी शहर में काम करते हुए दस साल हो गये। हमने कई मकान बनाये, लेकिन अपना एक कमरा तक नहीं बना पाये। हम एक हसरत मन में लेकर आये थे कि खूब मेहनत से काम करके अपना एक कमरा बना लें। सिर छिपाने के लिए एक छत हो। लेकिन दीदी आपसे क्या छुपाना। हम सच कह रहे हैं कि इन दस सालों में दस हजार भी नहीं बचा पाये। परिवार में कोई न कोई बीमार हो ही जाता है। घर पर बूढ़े सास–ससुर को कुछ न कुछ रुपये भेजने पड़ते हैं। उनकी दवा और खाने का खर्चा ज्यादा तो हम नहीं कर पाते, बस जिन्दा रह सके इतना हो पाता है। उन्होंने भी अपनी पूरी जिन्दगी मजदूरी करते निकाल दी और अपने लिए एक कमरा भी नहीं बना पाये। कुछ बचा नहीं पाये। यही हमारी जिन्दगी है। दीदी, आपसे क्या छुपाना।
उसने आगे कहा कि दीदी लॉकडाउन के कारण काम भी बन्द है। थोड़े पैसे थे, वे भी खर्च हो गये। जब बच्चों की भूख बर्दाश्त नहीं हुई तो माँगने चली आयी।
इसके बाद मैंने उसकी कुछ मदद की। लेकिन मेरे मन में यह सवाल बार–बार आता रहा कि उस औरत ने मेरठ के कई नामी स्कूल–कालेजों कालोनियों की बिल्डिंग बनाने में काम किया। बच्चों को कमर पर बाँधकर या उन्हें धूल–धूप में छोड़कर अपनी जवानी के अनमोल क्षण खपा दिये। दूर–दूर से बच्चे आकर इन कालेजों में पढ़ते हैं। इन्जीनियर, डॉक्टर, नर्स, वकील आदि का सपना बुनते हैं, लेकिन यह औरत और इसके बच्चे मजदूर ही रहेंगे। बच्चे अनपढ़ ही रह जायेंगे। बड़ी–बड़ी इमारतों में रहने वाले लोग इन मजदूरों को असभ्य कहते हैं क्योंकि ये झुग्गियों में रहते हैं। क्या कभी वह दिन आयेगा जब इनके बच्चे भी पढ़ पायेंगे? इन्हें इनका हक कब मिलेगा?
-सुनीता शर्मा

Tuesday, April 6, 2021

महिलाएँ राजनीतिक चर्चा क्यों न करें



 
 हमारे समाज में बहुत से लोग अकसर कहते हैं कि, ‘राजनीति एक खराब चीज है और हम राजनीति से दूर रहते हैं’, लेकिन यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण सोच है। राजनीति किसी भी समाज का एक अविभाज्य अंग होता है। हम राजनीति करें या न करें, इसका हमारे जीवन और हमारे भविष्य पर पूरा असर पड़ता है। हमारे समाज में एक कहावत है, “माँ भी बच्चे को तभी दूध पिलाती है, जब बच्चा रोता है”। इसी कहावत की तर्ज पर हम कह सकते हैं कि महिलाएँ जब तक अपने लिए खुद अपनी आवाज मुखर नहीं करेंगी, तब तक उन्हें भी इस समाज में अपने लिए कुछ नहीं मिलेगा। हमारे देश की कार्यपालिका, न्यायपालिका, विधायिका किस तरीके से काम करती हैं और किसके पक्ष में काम करती हंै, यह सब राजनीति से तय होता है, जाहिर है कि जो भी राजनीति करेगा, नीतियाँ भी उसी के पक्ष में बनेंगी। वे लोग अपने ही पक्ष में सुविधाएँ निर्मित करेंगे। इसलिए महिलाओं को भी अपनी समस्याओं की गहराई को समझते हुए राजनीति में बढ़–चढ़कर हिस्सेदारी करनी चाहिए, हालाँकि उसके लिए एक लम्बा संघर्ष करना पड़ेगा तभी हम लोग अपना हक–हकूक पा सकते हैं। 
हम लोग अकसर देखते हैं कि हर इनसान के पास चाहे वह किसी भी उम्र, लिंग, क्षेत्र, भाषा का हो, एक दूसरे से गप्पे मारने के लिए रुचि के अनुसार ढेर सारे किस्से–कहानियाँ और राजनीतिक–सामाजिक मुद्दे होते हैं। सभी लोग गपशप करते हुए अपने बाकी के काम भी निपटा रहे होते हैं। जिन्हें फिल्में देखना, गाने सुनना, कविता लिखना, कहानी पढ़ना, लिखना, जिम जाना, पूजा पाठ इत्यादि जो भी पसन्द होता है, वे उसी तरीके की बातें करते हैं। अक्सर देखने को मिलता है कि महिलाओं के बातचीत के मुद्दे, पुरुषों की बातचीत के मुद्दों से कुछ अलग होते हैं। जिसकी जिन्दगी जीने का जितना बड़ा दायरा होता है उसकी बातों में भी वह झलक रहा होता है। आम घरों में देखने को मिलता है कि घर के पुरुष सुबह उठकर चाय की चुस्की के साथ अखबार पढ़ते हैं फिर अपनी पसन्द की खबर के बारे में घर से लेकर दफ्तर तक राजनीतिक मुद्दों पर बातें करते हुए मिल जाते हैं। यहाँ तक कि वे रास्ते में भी अनजान लोगों से किसी ना किसी तरह की राजनीतिक बातें और बहसबाजी करते हुए आसानी से देखे जा सकते हैं। 
पुरुष किसी भी वर्ग, जाति या धर्म के हों, उनका कथन सही हो या गलत फिर भी वह राजनीतिक बातचीत में भागीदारी लेते हैं और किसी न किसी विचारधारा पर अपनी राय देने से पीछे नहीं हटते हैं। पुरुषों की बातचीत के मुद्दे में अधिकतर देश दुनिया, शेयर बाजार, चुनावी हार–जीत, अर्थव्यवस्था की सरगर्मी, क्रिकेट–फुटबॉल के टूर्नामेंट, महिलाओं पर लैंगिक भेदभाव पूर्ण टिप्पणियाँ, सिनेमा, अश्लील किस्से, धार्मिक चर्चाएँ और जमीन–जायदाद खरीदने–बेचने के विषय ज्यादा होते हंै। कुल मिलाकर देखा जाये तो पुरुषों की बातचीत के मुद्दे अमूमन घर और बच्चों के कामों से बाहर के होते हैं और उनकी बातचीत के मुद्दों में देश–दुनिया के राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक मुद्दे शामिल होते हैं। 
दूसरी तरफ, अगर महिलाओं की बातचीत के मुद्दों पर नजर डाली जाये तो हमें देखने को मिलेगा कि जिस महिला की जिन्दगी जीने का दायरा जितना छोटा होता है, उसकी बातचीत का भी दायरा बहुत ही सीमित होता है। आमतौर पर महिलाओं की बातचीत के मुद्दों में साफ–सफाई, फैशन, कपड़े, मेकअप, खरीदारी, बच्चों से सम्बन्धित बातचीत, आस–पड़ोस के लोगों के बारे में चर्चा, टेलीविजन या सीरियल के किस्से, घरेलू झगड़े या तारीफ, व्रत–त्यौहार की तैयारी ही होते हैं जबकि राजनीतिक और खेल सम्बन्धी बातें बहुत ही कम होती हैं। यहाँ तक कि महिलाएँ उसी राजनीतिक पार्टी या विचारधारा का समर्थन कर रही होती हंै, जिसका समर्थन उस घर के पुरुष कर रहे होते हैं। हमारे समाज में छेड़छाड़ और बलात्कार जैसे जघन्य अपराध इतनी अधिक संख्या में हो रहे हैं कि महिलाएँ ऐसे किस्सों को भी अपनी बातचीत में शामिल रखती हैं और उनसे बहुत ज्यादा असुरक्षित  भी महसूस करती हैं, लेकिन फिर भी वे इन अपराधों की जड़ तक नहीं सोच पाती हैं। सीधे शब्दों में कहा जाये तो अधिकांश महिलाओं की जिन्दगी में देश–दुनिया से जुड़े बड़े सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक मुद्दे शामिल ही नहीं होते हैं। 
हालाँकि आज महिलाएँ सामाजिक जीवन के हर क्षेत्र में आगे बढ़ रही हैं, लेकिन अगर आँकड़ों पर नजर डाली जाये तो आज भी बहुत ही कम महिलाएँ हैं जो राजनीति में, खेल में या सरकारी या निजी क्षेत्र के किसी बड़े पदों में हिस्सेदारी कर रही हैं। यही कारण है कि महिलाएँ आज भी बहुत से क्षेत्रों में पुरुषों से पिछड़ी हुई हैं और उन्हें अपनी बराबरी के लिए दिन–रात और हर कदम पर अपनी आजादी और सुरक्षा के लिए संघर्ष करना पड़ता है। 
महिलाओं की राजनीतिक मुद्दों में कम रुचि रखने के मुख्य कारण हैं–– कम शिक्षित होना, घरेलू काम में उलझे रहना, घरेलू मानसिकता का बन जाना, परम्परावादी जीवन शैली अपनाना, मीडिया द्वारा महिलाओं को माल के रूप में पेश करना,  सुन्दरता, शालीनता, आज्ञाकारी, ममता आदि गुणों को महिमामण्डित करना। जो महिलाएँ मुखर होकर अपनी समस्याओं को समाज के आगे रखती हैं और जो अपनी जिन्दगी अपनी मनमर्जी से जीती हैं, उन महिलाओं को विभिन्न तरीके से नीचा दिखाना और उनका चरित्र हनन शुरू कर दिया जाता है। यहाँ तक कि उन्हें कुलटा, वेश्या, घरतोडू जैसे नकारात्मक विशेषण दे दिये जाते हैं। 
दूसरी तरफ जो औरतें चुपचाप सर झुकाकर पुरुषों के हर सही–गलत फैसले का समर्थन करती हैं, उनको आदर्श स्त्री के रूप में समाज में स्थापित कर दिया जाता है। इसी के चलते महिलाओं ने खुद को उसी देवी स्वरूप आदर्श स्त्री के रूप में ढालने के लिए पुरुषों के आगे समर्पित कर दिया। हमारे पुरुष प्रधान समाज ने महिलाओं को हमेशा ही घरेलू कामों के सीमित घेरे के अन्दर ही उलझा करके रखा। उन्हें किसी भी बड़े सामाजिक या आर्थिक मसलों पर आगे बढ़ने ही नहीं दिया। पुरुषों ने हमेशा ही जमीन जायदाद, सम्पत्ति और यहाँ तक की महिलाओं के जीवन और उनके शरीर के ऊपर भी अपना ही पूरा अधिकार रखा। सदियों से महिलाओं के ऊपर पुरुषों ने विभिन्न नीति–नियम, कानून बनाकर तमाम तरीके की बंदिशें लगायीं और उनकी बेड़ियों को और मजबूत किया। 
हमें यह गौर करना चाहिए कि जितने भी वेद, पुराण, बाइबिल, कुरान, हदीस,  मनुस्मृति या अन्य धार्मिक ग्रंथ लिखे गये हैं उन सभी के लेखक पुरुष रहे हैं और उन पुरुषों ने अपनी सहूलियत के लिए स्त्रियों के बारे में बहुत सारे नीति–नियम उन किताबों में लिखे। इनके मुताबिक महिलाओं को हमेशा ही एक खास दायरे में बँ/ो होने को ही उनकी अच्छाई बताया गया है।  महिलाओं का राजनीति या शासन करना तो दूर की बात, उन्हें पढ़ने–लिखने से भी दूर रखने के पूरे प्रयास किये गये थे, ताकि वह चुपचाप पुरुषों द्वारा उनके ऊपर किए जा रहे शासन को गुलामों की तरह सहन करती रहे। इन सब चीजों ने धीरे–धीरे महिलाओं को और ज्यादा गर्त में डालने का काम किया। इसे ही महिलाओं द्वारा अपनी नियति मान लिया गया और उन्होंने खुद को राजनीति और सामाजिक दायरे से दूर कर लिया। 
आज 17 वीं लोकसभा में अब तक की सबसे ज्यादा 78 महिला सांसद हैं जो पूरे सांसदों की 14 प्रतिशत हैं। लेकिन यह संख्या महिलाओं की आबादी में हिस्सेदारी के हिसाब से बहुत कम है। बाकी क्षेत्रों में हालत और भी खराब है। राजनीति में शामिल महिलाएँ बाकी महिलाओं की सुरक्षा या बराबरी को लेकर कुछ खास भूमिका नहीं निभा रही हैं, बल्कि वह भी अचेतन रूप से इसी पुरुषवादी सत्ता का पोषण कर रही हैं। 
दुनिया भर में महिलाओं ने अपने अधिकारों को पाने के लिए आन्दोलन किये। सावित्रीबाई फुले ने महिलाओं की पढ़ाई–लिखाई के लिए इस पुरुष प्रधान समाज से एक बड़ा सामाजिक जोखिम लिया था तब जाकर आज हम पढ़ और लिख पा रही हैं। यहाँ तक कि महिलाओं का अपने शरीर को लेकर भी कोई अधिकार नहीं था। आज जो गर्भनिरोधक दवाएँ बाजार में उपलब्ध हैं, उसके लिए भी महिलाओं ने यूरोप में एक बड़ा आन्दोलन किया था तब जाकर के उन्हें यह अधिकार मिला कि वह अपनी जरूरत और इच्छा के मुताबिक बच्चे पैदा कर सकें। 
19वीं सदी में महिलाओं द्वारा चलाए जा रहे समाज सुधार आन्दोलन में 1890 के दौरान महाराष्ट्र की आनन्दीबेन और काशीबाई छाता और जूते पहन कर के जब निकली थी, तो उन पर लोगों द्वारा पत्थर फेंके गये थे यह कहकर कि, “यह पुरुषों के प्रतीक चिन्ह हैं।” ताराबाई शिन्दे ने जब ‘स्त्री पुरुष तुलना’ किताब लिखी थी और यह कहा था कि स्त्रियों और पुरुषों में कोई ज्यादा भेद नहीं है और वह एक समान हैं, तो उस पर भी समाज में बहुत तीखी बहस शुरू हुई थी। 
महिलाओं ने भारत के स्वतंत्रता संग्राम के समय भी स्वतंत्रता आन्दोलन में खुलकर हजारों लाखों की संख्या में अपनी राजनीतिक भूमिका सुनिश्चित की थी। लेकिन उसमें भी महिलाओं ने पितृसत्ता से आजादी के लिए और अपने लिए बराबरी को लेकर कोई भी बड़ा देशव्यापी सक्रिय आन्दोलन नहीं चलाया था। उसके बावजूद भी महिलाओं ने  बराबरी, स्वतंत्रता और सुरक्षा के लिए जब भी आवाज उठाई है और घरों से बाहर निकल कर के अपने हक माँगे हैं तो उन्हें उसमें कुछ हद तक जीत भी हासिल हुई और कई बार विरोध का सामना भी करना पड़ा। 
महिलाओं को 1956 में हिन्दू कोड बिल लागू करवाने के लिए भी आन्दोलन करना पड़ा था, जिसका बहुत से पुरुषों ने विरोध भी किया था, लेकिन उसके बावजूद भी अन्त में महिलाओं की ही जीत हुई। 
मुस्लिम महिलाओं ने भी जिन्हें हमेशा ही परदे में रहने और पराए मर्दों से दूर रहने की विभिन्न मौलवियों द्वारा फतवे दिये जाते थे। वह भी आज देश भर में हजारों जगह अपने हक के लिए बाहर निकल आती हैं और भारतीय संविधान और राजनीति को समझने की पुरजोर कोशिश कर रही हैं। महिलाओं को जो अधिकार किसी भी धार्मिक किताब ने नहीं दिये, वे अधिकार उन्हें संविधान ने दिये हैं, यह बात आज बहुत सी महिलाओं को समझ में आ चुकी है। महिलाएँ आज बहुत से आन्दोलनों की अगुवाई कर रही हैं, चाहे वह स्कूल–कॉलेज, गली, मोहल्ले हो या संसद में। आन्दोलन चाहे स्वतंत्रता संग्राम का रहा हो या आज की वर्तमान परिस्थिति में नागरिकता संशोधन बिल को लेकर उन्हें पुरुषों ने अपने खुद के स्वार्थ के लिए भले समर्थन दिया हो, लेकिन फिर भी महिलाएँ हर जगह की तरह राजनीति में भी आगे आ रही हैं। महिलाओं की संख्या अभी भी आधी आबादी के हिसाब से बहुत ही कम है, फिर भी वह तरह–तरह के सामाजिक मुक्ति आन्दोलनों में भाग लेकर खुद की मुक्ति का भी रास्ता तलाश कर रही हैं।
–– स्वाति सरिता