Wednesday, January 25, 2012

बनावटी रूप --मार्ग पियर्सी

लुभावाने गमले में
बोनसाई पौधा,
किसी पर्वत के निकट
अस्सी फुट ऊँचा पेड़ होता
अगर ठूंठ ना हो जाता बिजली गिरने से.
मगर माली ने
बड़े जतन से छांटा इसे.
नौ इंच लंबा है यह.
हर रोज जब छांटता है टहनी
माली गुनगुनाता है,
यही है तुम्हारा स्वाभाव
छोटा और कोमल होना,
घरेलु और दुर्बल,
कितने खुशकिस्मत, नन्हे पेड़,
किमयस्सर है तुम्हारे लिए ऐसा गमला.
शुरू-शुरू में ही बाधित करना
शुरू करना होता है
जीवित प्राणी का विकास.
बाधित पैर,
विकलांग मस्तिष्क,
घुंघराले बाल,
कोमल प्यारे हाथ.

Monday, January 16, 2012

स्त्री और मीडिया

स्त्री की स्तिथि मीडिया में हम रोज बरोज़ देखते हैं.अखबार,पत्र पत्रिकाएं, फिल्म,कंप्यूटर हर कहीं स्त्री विरोधी मूल्य और विचार दिखाई देते हैं---अक्सर हमें इस तरह के शीर्षक और प्रसंग देखने -सुनने को मिलते हैं--

  • पुलिस ने रंगरलियाँ मनाते पकड़ा 
  • लड़की भाग गई या कोई लड़की को भगा ले गया 
  • भगाई हुई लड़की बरामद
  •  मजनू गिरफ्त में 
  • अवैध संबंधों के चलते बहन /बेटी को मौत के घाट उतारा 
  • इज्ज़त के नाम पर ह्त्या /आत्महत्या
  • पंचायत/शरीयत ने दंड दिया 
  • निर्धन लड़कियों का सामूहिक विवाह कराया गया
इन प्रसंगों की पूरक छवियाँ भी मीडिया में भरी होती हैं --नंगी औरतें, असहाय औरतें ,लड़ाकन औरतें, सस्ती औरतें, कलमुही औरतें आदि आदि आदि........
कुल मिलाकर यही तस्वीर मजबूत होती है कि लड़की एक वस्तु है,एक पवित्र जायजाद है,एक देह,एक बोझ ,मर्ज़ी से पटाई जा सकती है,पूरी तरह पुरुष पर निर्भर है,संपत्ति में उसका हक नहीं है, विवाह करके किसी के संरक्षण में चले जाना ही जैसे उसकी नियति हो .
बिना चेतना और संगठन के क्या यह स्तिथि बदल सकती है ?
लड़कियों का इन्कलाब पुस्तिका से.

Friday, January 13, 2012

गलत हो गया तो? -- मणिमाला

वे कहते थे--
बोला न करो 
कुछ गलत बोल गईं तो
लेने के देने पड़ेंगे .....
     वे कहते थे--
     चला न करो 
     अपनी मर्ज़ी से 
     कहीं गलत चल पड़ीं तो 
     लेने के देने पड़ेंगे ......
वे कहते थे--
जवाब तलब न  करो 
कहीं  गलत जवाब दे बैठीं तो
लेने के देने पड़ेंगे......
     मैंने कहा--
     आज मैं चूल्हा नहीं जलाती 
     नमक गलत पड़ गया तो
     हल्दी ज़्यादा पड़ गई तो
     चावल कच्चे रह गए तो 
मैंने कहा --
आज मैं कपड़े नहीं धोती 
कपड़े मैले रह गए तो!
आज मै घर साफ़ नहीं करती 
सफाई ठीक नहीं हुई तो!
लेने के देने पड़ेंगे.......  

Friday, January 6, 2012

मदन कश्यप की कविता -- बड़ी होती बेटी

अभी पिछले फागुन में
उसकी आंखों में कोई रंग न था
पिछले सावन में
उसके गीतों में करुणा न थी
अचानक बड़ी हो गयी है बेटी
सेमल के पेड़ की तरह
हहा कर बड़ी हो गयी है
देखते ही देखते।

जब वह जन्मी थी
तब कितना पानी होता था
कुआं तालाब में
नदी तो हरदम लबालब भरी रहती थी
भादों में कैसी झड़ी लगती थी
वैसी ही एक रात में पैदा हुई थी
ऐसी झपासी थी कि एक पल के लिए भी
लड़ी नहीं टूट रही थी

अब बड़ी हुई बेटी
तब तक सूख चुके हैं सारे तालाब
गहरे तल में चला गया है कुएं का पानी
नदी हो गयी है बेगानी
कांस और सरकंडों के जंगल में
कहीं कहीं बहती दिखती हैं पतली पतली धाराएं।

पलकें झुका कर
सपनों को छोटा करो मेरी बेटी
नींद को छोटा करो
देर से सूतो
पर देर तक न सूतो
होठों से बाहर न आये हंसी
आंखों तक पहुंच न पाये कोई खुशी
कलेजे में दबा रहे दुःख
भूख और विचारों को मारना सीखो
अपने को अपने ही भीतर गाड़ना सीखो

कोमल कोमल शब्दों में
जारी होती रहीं क्रूर हिदायतें
फिर भी बड़ी हो गयी बेटी
बड़े हो गये उसके सपने!


बड़ी हो रही है बेटी
बड़ा हो रहा है उसका एकांत

वह चाहती है अब भी
चिड़ियों से बतियाना
फूलों से उलझना
पेड़ों से पीठ टिका कर सुस्ताना
पर सब कुछ बदल चुका है मानो

कम होने लगी है
चिड़ियों के कलरव की मिठास
चुभने लगे हैं
फूलों के तेज रंग
डराने लगी हैं
दरख्तों की काली छायाएं

बड़ी हो रही है बेटी
बड़े हो रहे हैं भेड़िए
बड़े हो रहे है सियार

मां की करुणा के भीतर
फूट रही है बेचैनी
पिता की चट्टानी छाती में
दिखने लगे हैं दरकने के निशान
बड़ी हो रही है बेटी!


बाबा बाबा
मुझे मकई के झौंरे की तरह
मरुए में लटका दो

बाबा बाबा
मुझे लाल चावल की तरह
कोठी में लुका दो

बाबा बाबा
मुझे माई के ढोलने की तरह
कठही संदूक में छुपा दो

मकई के दानों को बचाता है छिलकोइया
चावल को कन और भूसी
ढोलने को बचाता है रेशम का तागा
तुझे कौन बचायेगा मेरी बेटी!

(तद्भव से साभार)

परवीन शाकिर की गजल










बारिश हुई तो फूलों के तन चाक हो गए 
मौसम के हाथ भीग के सफ्फाक हो गए 
  बादल को क्या खबर कि बारिश की चाह में
  कितने बुलंद-ओ-बाला शजर खाक हो गए 
जुगनू को दिन के वक्त पकड़ने की जिद करें 
बच्चे हमारे अहद के चालाक हो गए 
  लहरा रही है बर्फ की चादर हटा के घास
  सूरज की शह पे तिनके भी बेबाक हो गए 
जब भी गरीब-ए-शहर से कुछ गुफ्तगू हुई 
लहजे हवा-ए-शाम के नमनाक हो गए 
  साहिल पे जितने आबगुजीदा थे सब के सब 
  दरिया के रुख बदलते ही तैराक हो गए 

Tuesday, January 3, 2012

माइआ अंज़ालो की कविता: मैं हूँ कि उठती जाती हूँ.


सुप्रसिद्ध अमरिकी कवियत्री माइआ अंज़ालो (Maya Angelou) की इस बेहतरीन कविता के अनुवाद में मनोज पटेल ने बहुत सिर धुना है. वजह है, इस कविता का अंग्रेजी शीर्षक: And Still I rise. समूची कविता में ‘Still I rise’ इतनी इतनी बार दुहराया गया है कि यह बहुलार्थी हो गया है. परंतु अनुवाद के दौरान हमें कोई ऐसा हिन्दी शब्द नहीं मिला जो ‘Still I rise’ में प्रयुक्त ‘rise’ के सटीक बैठे. इस तरह महीनों पहले हुआ इस कविता का अनुवाद कहीं किनारे लग गया.

फिर हमारी मदद को बेंजीन के सूत्र के आविष्कार की घटना ही आई. कहा जाता है कि केकुले( जर्मन वैज्ञानिक) कई सालों तक बेंजीन का सूत्र ढूढ़ते रहे और असफल रहे. फिर एक रात उन्हे स्वप्न आया कि एक सांप उनके दरवाजे से लटका है और एक झटके में अपनी पूंछ को गोल घुमा कर अपने मुँह में दबा लेता है. इसके बाद के किस्से से तो जितना आप परिचित है उतना ही हम भी. और उतना ही मेरा मित्र ‘वीकिपीडिया’ भी.

ठीक इसी तरह एक दिन मनोज जी ने बताया कि उन्होने बार बार दुहराये गये ‘rise’ शब्द को क्रमिक विकास में दर्शाते हुए हर बार Still I rise के लिये नया ध्वन्यार्थ लिये शब्द का प्रयोग किया है. इस तरह यह अनूठी कविता आपके सामने है.

मैं हूँ कि उठती जाती हूँ.


तुम दर्ज कर सकते हो मेरा नाम इतिहास में
अपने तीखे और विकृत झूठों के साथ
कुचल सकते हो मुझे गन्दगी में
लेकिन फिर भी धूल की तरह
मैं उड़ती जाउंगी.

क्या मेरी बेबाकी परेशान करती है तुम्हें ?
क्यों घिरे बैठे हो उदासी में ?
क्योंकि मैं यूँ इतराती चलती हूँ
गोया कोई तेल का कुआं उलीच रहा हो तेल
मेरी बैठक में.

जैसे उगते हैं चाँद और सूरज
जैसे निश्चितता से उठती हैं लहरें
जैसे उम्मीदें उछलती हैं ऊपर
उठती जाउंगी मैं भी.

क्या टूटी हुई देखना चाहते थे तुम मुझे ?
झुका सर और नीची निगाहें किए ?
आंसुओं की तरह नीचे गिरते कंधे
अपने भावपूर्ण रुदन से कमजोर.

क्या मेरी अकड़ से ठेस पहुँचती है तुम्हें ?
क्या तुम पर बहुत भारी नहीं गुजरता
कि यूँ कहकहे लगाती हूँ मैं
गोया मेरे घर के पिछवाड़े सोने की खदान में हो रही हो खुदाई

तुम शब्दों के बाण चला सकते हो मुझ पर
चीर सकते हो मुझे अपनी निगाहों से
अपनी नफरत से कर सकते हो क़त्ल
फिर भी हवा की तरह
मैं उड़ती जाउंगी.

क्या मेरी कामुकता परेशान करती है तुम्हें ?
क्या तुम्हें ताज्जुब होता है कि
मैं यूँ नाचती फिरती हूँ
गोया हीरे जड़े हों मेरी जांघों के संधि-स्थल पर ?

इतिहास के शर्म के छप्परों से
मैं उड़ती हूँ
दर्द में जड़ जमाए अतीत से
मैं उगती हूँ

एक सियाह समंदर हूँ मैं उछालें मारता और विस्तीर्ण
जज़्ब करता लहरों के उठने और गिरने को

डर और आतंक की रातों को पीछे छोड़ते
मैं उड़ती हूँ
आश्चर्यजनक रूप से साफ़ एक सुबह में
मैं उगती हूँ

उन तोहफों के साथ जो मेरे पुरखों ने मुझे सौंपा था
मैं उठती हूँ

मैं ही हूँ सपना और उम्मीद गुलामों की
मैं उड़ती हूँ
मैं उगती हूँ
और मैं ही उठती हूँ.


Still I Rise by Maya Angelou




You may write me down in history

With your bitter, twisted lies,
You may trod me in the very dirt
But still, like dust, I'll rise.



Does my sassiness upset you?

Why are you beset with gloom?
'Cause I walk like I've got oil wells
Pumping in my living room.



Just like moons and like suns,

With the certainty of tides,
Just like hopes springing high,
Still I'll rise.



Did you want to see me broken?

Bowed head and lowered eyes?
Shoulders falling down like teardrops.
Weakened by my soulful cries.



Does my haughtiness offend you?

Don't you take it awful hard
'Cause I laugh like I've got gold mines
Diggin' in my own back yard.



You may shoot me with your words,

You may cut me with your eyes,
You may kill me with your hatefulness,
But still, like air, I'll rise.



Does my sexiness upset you?

Does it come as a surprise
That I dance like I've got diamonds
At the meeting of my thighs?



Out of the huts of history's shame

I rise
Up from a past that's rooted in pain
I rise
I'm a black ocean, leaping and wide,
Welling and swelling I bear in the tide.
Leaving behind nights of terror and fear
I rise
Into a daybreak that's wondrously clear
I rise
Bringing the gifts that my ancestors gave,
I am the dream and the hope of the slave.
I rise
I rise
I rise.

मैं बहुत दिनों से --मुक्तिबोध


मैं बहुत दिनों से बहुत दिनों से
बहुत-बहुत सी बातें तुमसे चाह रहा था कहना
और कि साथ यों साथ-साथ
फिर बहना बहना बहना
मेघों की आवाज़ों से
कुहरे की भाषाओं से
रंगों के उद्भासों से ज्यों नभ का कोना-कोना
है बोल रहा धरती से
जी खोल रहा धरती से
त्यों चाह रहा कहना
उपमा संकेतों से
रूपक से, मौन प्रतीकों से

मैं बहुत दिनों से बहुत-बहुत-सी बातें
तुमसे चाह रहा था कहना!
जैसे मैदानों को आसमान,
कुहरे की मेघों की भाषा त्याग
बिचारा आसमान कुछ
रूप बदलकर रंग बदलकर कहे।