Thursday, April 22, 2021

अनसुने और अज्ञात मार्गदर्शक




भारत में जिन मुद्दों से दलित औरतों की जिन्दगी में प्रभाव पड़ता है अकसर वह नारीवादी आन्दोलन की चर्चाओं में कम ही आ पाते हैं। लेकिन फिर भी ग्रामीण क्षेत्रों की छोटी जाति–बिरादरी की औरतें अपने हकों के लिए संघर्ष करती आई हैं। भारत में नारीवादी लैंगिक न्याय के लिए संघर्ष करती हैं– महिलाओं की गतिशीलता के अधिकार के लिए, लैंगिक हिंसा और भेदभाव के खिलाफ। लेकिन ये शहरी क्षेत्रों तक ही केन्द्रित है। उन संघर्षों ने महिलाओं के लिए प्रमुख जीत हासिल की है जो दोनों, प्रगतिशील कानूनी और सामाजिक मानदण्डों में परिवर्तन को सामने ला रहे हैं।
हालाँकि भारत में दलित महिलाओं को अपने हकों के लिए कई जमीनी संघर्षों का नेतृत्व किया, जबकि उन्होंने खुद को नारीवादियों के रूप में नहीं पहचाना होगा। यह संघर्ष 1970 के दशक में उत्तराखण्ड के चिपको आन्दोलन से लेकर केरल के श्रमिक हड़ताल तक के हैं। यह संघर्ष बेहद स्थानीय थे फिर भी उनका प्रभाव उनकी सोच से आगे निकल गया। उनमें से कुछ पर एक नजर डालते हैं–


श्रमिक हड़ताल
नर्सिंग जैसे महिलाप्रधान व्यवसायों में महिलाओं को आमतौर पर बहुत कम भुगतान किया जाता है। इन व्यवसायों को गंभीरता से नहीं लिया जाता है या एक ‘सेवा’ का नाम देकर भुगतान कम किया जाता है। यहाँ तक कि शारीरिक श्रम सहित अन्य व्यवसायों में, लिंग के आधार पर वेतन में अन्तर बना रहता है। केरल में चाय बागान श्रमिकों और नर्सों ने हाल ही में इस तरह के भेदभाव को खत्म करने में कामयाबी हासिल की। केरल के मुन्नार के चाय बागानों में चाय की पत्ती चुनने वाली अधिकांश महिला मजदूर दलित हैं, जो दशकों पहले तमिलनाडु से पलायन कर गई थीं। वे कठोर परिस्थितियों में प्रतिदिन 14 घंटे न्यूनतम दैनिक मजदूरी 232रु के लिए काम करती थी, जबकि राज्य में शारीरिक काम करने वाले मजदूरों के लिए औसत दैनिक वेतन 500रु से अधिक था। महिलाएँ बिना शौचालय वाले टिन शेड में रहती थीं और उनके बच्चे अकसर स्कूली पढ़ाई पूरी नहीं कर पाते थे।
2015 में, जब बागान प्रबन्धन ने श्रमिकों के वार्षिक बोनस को आधा कर दिया, तो कुछ महिला कार्यकर्ता मौन विरोध में मुन्नार की सड़कों पर बैठ गयी। कुछ ही दिनों में प्रदर्शनकारियों की संख्या लगभग 12,000 हो गई। समूह ने खुद को पोम्बिलाई ओरूमई नाम दिया। पुरुष प्रधान ट्रेड यूनियन में महिलाएँ बहुत कम बोला करती थीं, इसलिए विरोध प्रदर्शन के दौरान उन्होंने शोषणकारी ट्रेड यूनियनों और अपने ही घर के मर्दों को प्रदर्शन से दूर रखा।
एक महीने के अन्दर, राज्य सरकार को कदम उठाना पड़ा और प्रबन्धन को श्रमिकों की न्यूनतम मजदूरी को 301रु तक बढ़ाना पड़ा। ओरुमई के कुछ नेता स्थानीय निकाय तक के चुनाव जीत गए। यह भारत में सम्भवत: पहली बार था जब आम महिला श्रमिकों के एक समूह ने प्रबन्धन और स्थापित यूनियनों का मुकाबला करते हुए सफलता हासिल की।
इसी तरह केरल के निजी अस्पतालों में काम करने वाली नर्सों ने 2017 में उचित वेतन के लिए संघर्ष किया और जीत हासिल की। बेहद कम भुगतान पाने वाली नर्सों ने 2012 में संगठित हो विरोध प्रदर्शन किया, जिसके बाद उनका मासिक न्यूनतम मूल वेतन बढ़ा कर 9500रु कर दिया गया। लेकिन कई अस्पताल प्रबन्धकों ने इस राशि का भुगतान नहीं किया। दबाव और प्रबन्धन के खतरों के बावजूद 2017 में राज्य भर के अस्पतालों में नर्सों ने एक महीने तक लगातार हड़ताल की। राज्य सरकार ने तब नर्सों के संघ और प्रबन्धन के साथ बातचीत की। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा नियुक्त जगदीश प्रसाद समिति की सिफारिशों के अनुरूप नर्सों का न्यूनतम वेतन 20,000रु तक बढ़ा दिया गया।
बेंगलुरु में भी महिला श्रमिकों के बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन हुए हैं। अप्रैल 2016 में शहर में ठहराव आया, क्योंकि कपड़ा कारखाने की हजारों महिला मजदूरों ने अन्य श्रमिकों के साथ सड़कों पर अनायास कब्जा कर लिया। फैक्ट्रियों में शोषण और यौन उत्पीड़न का सामना करने वाली महिलाएँ केन्द्र सरकार की श्रमिकों के पीएफ खातों तक पहुँच को प्रतिबन्धित करने की योजना का विरोध कर रही थी। सरकार को इस विचार को तुरन्त त्यागने के लिए मजबूर होना पड़ा।


पर्यावरण संरक्षण के लिए विरोध
जब जल–जंगल जैसे प्राकृतिक संसाधन नष्ट हो जाते हैं तो हाशिये के समुदायों की महिलाएँ सबसे अधिक प्रभावित होती हैं। 1970 के दशक की शुरुआत में उत्तराखण्ड में महिलाओं ने पेड़ों की कटाई रोकने के लिए ‘चिपको आन्दोलन’ की शुरुआत की। सरकार की नीतियों और वाणिज्यिक हितों के कारण क्षेत्र के जंगल तेजी से घट रहे थे, जिसके परिणाम स्वरूप बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाएँ आर्इं। इसने गढ़वाली समुदाय की वन संसाधनों तक पहुँच सीमित कर दी। समुदाय की महिलाएँ जीवन यापन के लिए लघु वन्य–उपज इकट्ठा करती थीं। चिपको आन्दोलन की परिकल्पना सर्वोदय सदस्यों (विनोबा भावे के अनुयायियों) के एक समूह द्वारा की गई थी, लेकिन यह गढ़वाली महिलाएँ थीं जिन्होंने इसे एक आन्दोलन में बदल दिया। गौरा देवी व अन्य महिलाओं ने अपने गाँवों में महिलाओं को संगठित किया, उन्होंने उन पेड़ों को गले लगाया जिन्हें कोई भी काटने का प्रयास कर रहा था। अन्तत: राज्य सरकारों ने जंगलों में अस्थाई रूप से पेड़ों की कटाई पर प्रतिबन्ध लगा दिया।
चिपको के समान ही ‘झारखण्ड जंगल बचाओ आन्दोलन’ (जेजेबीए) है। आदिवासी समुदायों के नेतृत्व में यह राज्यव्यापी आन्दोलन सन 2000 से बढ़ रहा है। इस आन्दोलन का उद्देश्य जनजातीय समुदायों को जंगल में अधिकार दिलाने और इसे व्यवसायिक शोषण से मुक्त कराना है। यहाँ भी महिलाएँ सबसे अधिक प्रभावित हुर्इं और आन्दोलन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बनी रहीं। उनके सहज विरोध ने पुलिस और वन अधिकारियों को पीछे हटने और यहाँ तक कि पेड़ों की कटान की योजनाओं को छोड़ देने पर मजबूर किया। उदाहरण के लिए कर्मा बेड़ा गाँव में जब वन विभाग के अधिकारियों ने व्यावसायिक रूप से उपयोगी नीलगिरी के पेड़ लगाने की कोशिश की, तो जेजेबीए महिलाओं ने लाठी और दरान्ती के साथ उनका सामना किया। अधिकारी बाद में वहाँ कभी नहीं लौटे। झारखण्ड के जंगल अब जेजेबीए की निगरानी में पुनर्जीवित हो रहे हैं।
केरल के प्लाचीमाडा गाँव में, आदिवासी महिलाओं ने शक्तिशाली कोका–कोला कम्पनी के खिलाफ लड़ाई जीती। कम्पनी का कारखाना, गाँव से पांच लाख लीटर भूजल खींच रहा था और भूजल को गम्भीर रूप से प्रदूषित कर रहा था। इसने ग्रामीणों के स्वास्थ्य और उनकी फसलों को प्रभावित किया। महिलाओं को अपने दैनिक कृषि काम और लड़कियों को स्कूल छोड़ना पड़ा ताकि वे दिन में दो बार 5 किलोमीटर पैदल चलकर साफ पानी ला सकें। 50 वर्ष की कृषि मजदूर मयिलम्मा ने ‘कोका–कोला विरुद्ध समिति’ की स्थापना की, जिसने कारखाने के बाहर लगातार विरोध प्रदर्शन किया। समुदाय की महिलाओं ने भी कई प्रदर्शनों का नेतृत्व किया और गिरफ्तारियों का सामना किया। आखिरकार 2004 में कारखाना बन्द कर दिया गया, पर इसके 4 साल बाद ही इसका संचालन पुन: शुरू हो गया।


शराबबन्दी और घरेलू हिंसा के खिलाफ लड़ाई
90 के दशक की शुरुआत में आन्ध्र प्रदेश में ग्रामीण महिलाओं ने अपमानजनक शराबी पतियों से तंग आकर राज्यव्यापी शराब विरोधी आन्दोलन का नेतृत्व किया। इसकी शुरुआत तब हुई जब वर्धनिनी रोसम्मा नामक छात्रा अपनी पाठ्यपुस्तक की एक कहानी से प्रेरित हुई, जिसमें एक महिला एक शराब लॉबी के खिलाफ लड़ती है। रोसम्मा ने नेल्लोर जिले के अपने पैतृक गाँव डबगुंटा में महिलाओं को संगठित किया। समूह ने स्थानीय ताड़ी के ठेके पर झाड़ू और मिर्च पाउडर से हमला किया और इसे बन्द करने के लिए मजबूर कर दिया। इस ने राज्य भर की महिलाओं को आन्दोलन में शामिल होने के लिए प्रेरित किया। उनके विरोध में आन्ध्र प्रदेश सरकार को 1993 में देसी शराब पर प्रतिबन्ध लगाने और 1995 में शराबबन्दी लागू करने के लिए मजबूर किया, हालाँकि यह अस्थाई रूप से ही था।


उत्तर प्रदेश में एक महिला सतर्कता समूह है जो अब गुलाबी गैंग के नाम से जाना जाता है। 2003 में यह समूह सबसे दूरस्थ और सबसे पिछड़े इलाकों में से एक में शुरू हुआ था, जब अधेड़ सम्पत पाल देवी ने एक व्यक्ति को अपनी पत्नी को पीटने से रोकने की कोशिश की थी, उस व्यक्ति ने सम्पत को गालियाँ दी। अगले दिन सम्पत लाठियों के साथ महिलाओं के समूह को लेकर आई और उस आदमी की पिटाई कर दी। अब समूह में हजारों महिलाएँ हैं जिसमें से ज्यादातर निचली जातियों की हंै, जिनके पास न्याय की पहुँच नहीं है। उन्होंने गुलाबी रंग की साड़ियाँ और लहंगे पहने। यह समूह हिंसा की शिकार महिलाओं की सहायता करता है और उन्हें आजीविका कमाने में मदद करता है। इसके अलावा यह दहेज, बाल विवाह आदि को रोकने की दिशा में भी काम करता है। इसने भ्रष्ट सरकारी अधिकारियों के खिलाफ भी कार्यवाही की है।
आन्ध्र प्रदेश और कर्नाटक में भी शराबबन्दी के लिए संघर्ष जारी है, पोम्बिलाई ओरूमई आन्दोलन की नेताओं को मुख्यधारा के राजनीतिक दलों द्वारा बार–बार निशाना बनाया जाता है। लेकिन इन संघर्षों ने न केवल एक विशिष्ट माँग को पूरा किया बल्कि अपने समुदाय में महिलाओं की स्थिति को बदल दिया।
उदाहरण के लिए चिपको आन्दोलन और जेजेबीए, दोनों में महिलाएँ अपनी पारम्परिक भूमिका से आगे बढ़ीं। गढ़वाली महिलाओं का अपने ग्राम सभाओं में कोई प्रतिनिधित्व नहीं था, वास्तव में अपने ही समुदाय के लोगों ने ‘विकास’ के नाम पर चिपको आन्दोलन का विरोध किया। लेकिन अधिकांश महिलाओं ने विरोध से डर कर भागने की बजाय ग्राम सभाओं में अपने लिए प्रतिनिधित्व की माँग की। पोम्बिलाई ओरूमई महिलाओं का कहना है कि उनके पति उनके साथ अब दुर्व्यवहार नहीं करते हैं। 
बड़े स्तर पर इन आन्दोलनों ने मिसाल कायम की है और वैश्विक मीडिया का ध्यान भी अपनी ओर खींचा है। इन आन्दोलनों पर अकादमिक शोध भी किये गए है। कुछ आन्दोलनों को अन्यत्र भी दोहराया गया है। उदाहरण के लिए, चिपको आन्दोलन उप–हिमालय क्षेत्र के साथ–साथ पश्चिमी घाटों को बचाने के लिए कर्नाटक में अप्पिको आन्दोलन के नाम से हुआ। यहाँ तक कि जापान में भी इस तर्ज पर 2009 में एक आन्दोलन हुआ। भले ही इन संघर्षों को औपचारिक रूप से नारीवादी आन्दोलनों के रूप में पहचान नहीं मिली लेकिन इन्होंने देश–विदेश में महिलाओं के अधिकारों के पाठ्यक्रम को बदल दिया है।
––नव्या पी के (अनुवाद - शालिनी)


1 comment: