Tuesday, March 23, 2021

मैं वह अजन्मी बच्ची हूँ



 
तनिष्क का मुस्लिम सास और हिन्दू बहु का विज्ञापन उतना ही दिलचस्प और खूबसूरत है जितने इसके बाकि विज्ञापन हैं। इसे वापस लेने का मतलब है कि यह एक अजीबो–गरीब कल्पना थी और इस तरह के रिश्ते असल में मौजूद नहीं होते। लेकिन ऐसा केवल वे दिखाते हैं। मैं इसकी एक जीती जागती मिसाल हूँ। मैं उस विज्ञापन की वही अजन्मी बच्ची हूँ।
मेरे माता–पिता जब 1971 में मिले तो उन्होंने “लव जिहाद” जैसा कोई भी शब्द नहीं सुना था। वे दोनों महाराष्ट्र के समाजवादी छात्र संगठन, युवक क्रान्ति दल से जुड़े थे, जो श्रम की लूट, जातीय उत्पीड़न, आदिवासी आबादी को हाशिये पर धकेलने जैसे मुद्दों को उठाते थे। जब मेरी माँ संगठन में आयीं तो वह 18 साल की हँसमुख, गोरी और हरी आखों वाली गोल–मटोल लड़की थी। उनके आस–पास के ज्यादातर मर्द उम्र में उनसे बड़े और अलग–अलग पृष्ठभूमि वाले, जैसे देहाती, गरीब, दलित, मुस्लिम थे। कई को तो उनसे देखते ही प्यार हो गया और उनसे शादी करने की इच्छा होने लगी। वास्तव में, माँ के लिए प्रस्ताव नाना के पास एक शान्त लड़के की तरफ से आया जो उनके परिवार की पृष्ठभूमि के लिए डरावना था। वह नलिनी पण्डित की बेटी थी जो एक मशहूर मार्क्सवादी–गाँधीवादी विद्वान् थे और यह पण्डित परिवार बहुत अमीर और जाना–माना था। इनके पास दादर में एक बहुत बड़ी कोठी, गाड़ी, और टेलीफोन जैसी चीजें भी थी।
जब उन्होंने अपने चिपलून के एक कोंकणी मुस्लिम साथी से शादी करने का फैसला किया तब दोनों ही तरफ धर्मान्धता थी। उनकी जान–पहचान वाली बूढ़ी औरतें उन्हें दादर की सड़को पर रोकती और पूछती, “तुम एक मुस्लिम से शादी करोगी? जरा सावधान रहना हाँ, उनके यहाँ तीन तलाक वाला सिस्टम है।” बाबा के बड़े भाई ने उनसे पूछा “अरे तुम एक हिन्दू लड़की से शादी क्यों करना चाहते हो।” बड़े भाई और कोई नहीं बल्कि हमीद दलवई थे, मुस्लिम सुधारवादी चैंक गये। उन्होंने सोचा की समाजवादी–गाँधीवादी शादी का तरीका भाड़ में जाये, हमें इस शादी का एक बड़ा जश्न मनाना चाहिए, ताकि सबको पता चले कि ये दोनों शादी कर रहे हैं। उन्होंने शादी के ढेर सारे कार्ड छपवाये और उन सभी को देते जो उनसे मिलते।
दादी की कहानियों के मुताबिक शादी में आये लोगों की कोई गिनती नहीं थी। हॉल भले ही छोटा था मगर हंगामाखेज था। लोग कोकम शर्बत के तीन हजार गिलास डकार गये। मेरे माता–पिता इतने लोगों की तरफ मुस्कुरायेऔर इतनों से हाथ मिलाये कि कुछ वक्त बाद उनके हाथ और गाल दुखने लगे। मेरी माँ के दोस्तों ने उनसे कहा “बाप रे, तुम्हारी शादी में इतनी जबरदस्त गलतफहमी है, हम खुशनसीब हैं कि वहाँ से सही–सलामत लौट आये।” शादी का जश्न मिर्जाली गाँव में भी मनाया गया, जहाँ दलवई परिवार ने पण्डित परिवार के लोगों और उनके दोस्तों के लिए बिरयानी तैयार की जो मुम्बई से गाड़ियों में आये थे।
यहाँ तनिष्क स्टाइल से कोई सोने के गहने ससुराल की तरफ से नहीं थे। हालाँकि, मेरी माँ जब पहली बार गाँव गयीं तो उन्हें चाँदी के झुमके मिले। “मगर चाँदी के तो कटोरियाँ और थाली बनते हैं”, उन्होंने मन ही मन में सोचा, सारस्वतों के दिवाली भोग को याद करते हुए। वर्गीय अन्तर इतना ज्यादा था! मगर वह एक समाजवादी आदर्श “क्षमता के हिसाब से दो, जरूरत के हिसाब से लो” के आधार पर नये परिवार गढ़ने में सफल रही। वह अपने मुम्बई कॉलेज से लेक्चरर के काम के जो पैसे मिलते थे, गाँव में अपने गरीब भाई–बन्धुओं को दे देती थी, क्योंकि मेरे पापा होल–टाइमर होने के चलते दिन–रात मजदूरों के जुलूस और आदिवासियों के साथ बातचीत में व्यस्त रहते थे। किसी की पढ़ाई के लिये पैसे भेजती थी, किसी को इलाज के लिए मुम्बई में अपने फ्लैट में बुला लेती थी या किसी की शादी की खरीदारी के लिए। वह उस कुनबे की सरदारनी थी।
तनिष्क ट्रोल्स को यह समझ में नहीं आता है कि एक चमकती आँखों वाली बहू मुस्लिम परिवार में इस तरह शामिल हुई जो सिर्फ महिलाएँ ही कर सकती हैं। यह लव जिहाद नहीं है, यह मुसलमानों की घर–वापसी है। लेकिन ट्रोल न केवल मुस्लिम विरोधी हैं बल्कि महिला विरोधी भी हैं। उन्हें लड़की “देने” में हार नजर आती है। उनको यह दिखा ही नहीं कि इस विज्ञापन में मुस्लिम परिवार हिन्दू त्योहार मना रहा है। मेरा परिवार ईद और दिवाली दोनों तरफ के रिश्तेदारों के साथ मिलकर मनाता है। खाना, रंगों से खेलना और रंग–बिरंगे कपडे़ पहनना सबको पसन्द है। इसमें नापसन्द करने वाली कौन सी बात है?
मेरी माँ अब भी हिन्दू हैं, जैसे मेरे पिता मुस्लिम हैं। दोनों में से कोई धार्मिक अनुष्ठानों का पालन नहीं करते हैं, लेकिन सांस्कृतिक उत्सव का आनन्द जरूर लेते हैं। शुरू के दिनों में, बुजुर्ग रिश्तेदारों ने मेरी माँ को सुझाव दिया कि उन्हें इस्लाम अपना लेना चाहिए, तभी उन्हें जन्नत मिलेगी। वह हँसती और कहतीं, “लेकिन मैं एक भौतिकवादी हूँ। मुझे बताएँ कि मुझे इस जीवन में, कहाँ और कैसे फायदा होगा।” वास्तव में उन्होंने शादी के कुछ महीने बाद अपनी पहचान को जाहिर करने के लिए एक बड़ी लाल बिन्दी पहनना शुरू कर दिया। बिन्दी और साड़ी ने उन्हें गंभीर और पेशेवर दिखने में भी मदद की, क्योंकि उन्होंने अर्थशास्त्र पढ़ाना शुरू कर दिया था और वह अपने छात्रों की तरह जवान दिखती थी। उन्होंने अपनी क्रान्तिकारी लड़ाई जारी रखी और हमारी परवरिश में एक वैकल्पिक मूल्य का इस्तेमाल किया।
उन्हें इस बात की परेशानी थी कि उनके बच्चे कैसे बढ़ते साम्प्रदायिक माहौल का सामना करेंगे। उन्होंने हमें रूसी किताबें और अन्य अन्तर्धमीय परिवारों और दोस्तों के माध्यम से एक सुरक्षित दुनिया देने के लिए कड़ी मेहनत की। फिर भी वे हमें दंगे, दुश्मनी और असुरक्षा से बचा नहीं सके। हमने विदेश यात्रा की, भले लोगों से जान–पहचान हुई, पढ़ाई और किताबों का मजा लिया और अपने परिवार की विविधता को आगे बढ़ाया।
मेरे भाई ने हैनान प्रांत की एक चीनी से शादी की और मैंने तेलंगाना रेड्डी के साथ जिन्दगी साझा करने का फैसला लिया। मैंने नागालैंड की एक बेटी मोन को भी गोद लिया। अब जब सभी बच्चे एक सार्वजनिक पार्क में एक साथ खेलते हैं,  एक अर्द्ध–चीनी लड़का, मराठी–तेलुगु लड़की और छोटी सी नागा योद्धा, आस–पास के लोग हैरत के साथ हमें देखते हैं। यह परिवार एक ही साथ अंग्रेजी, हिन्दी, मराठी, तेलुगु, मन्दारिन और कोंकणी में बात करता है।
और जब पूरी तरह एकांगी सोच वाले “सामान्य” लोग आकर हमसे पूछते हैं “लेकिन कैसे?” या “वाकई–––?” तो हम सिर्फ मुस्कुरा देते हैं। हमारा जीवन ट्रोल करने वालों का जवाब है। हम मौजूद हैं। अन्तर्धर्मीय परिवार न केवल जिन्दा है बल्कि पनपता भी है। और आप सब इसके आगे फीका पड़ जाते हैं।
–– समीना दलवई
(‘द इंडियन एक्सप्रेस’ से साभार, अनुवाद– उत्सा प्रवीण)

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