Tuesday, December 26, 2023

फिल्म और टीवी जगत की महिलाएँ

 


आज के इस दौर में किताबों, अखबारों और पत्रिकाओं की जगह मोबाइल और टीवी ने ले ली है। जहाँ पहले एक छोटी–से–छोटी बात को देश–विदेश तक पहुँचने में कई दिन लगते थे, वहीं आज हम अपनी बैठक के सोफे पर बैठकर सारी तस्वीरें और जानकारी मिनटों में पा लेते हैं। हम मिनटों में सारी दुनिया से जुड़ जाते हैं। मोबाइल और टीवी में दिखाये जाने वाले अधिकांश कार्यक्रम, धारावाहिक और दूसरी चीजें समाज के अलग–अलग वर्गों पर अलग–अलग तरह की छाप छोड़ते हैं। चिंता की बात यह है कि इनमें से ज्यादातर, सच्चाई से कोंसो दूर, एक नकली दुनिया को परोसते रहते हैं।

पुरुष टीवी पर ज्यादातर समाचार और खेलकूद से जुड़े कार्यक्रम देखते हैं वहीं औरतें ज्यादातर नाटक या फिल्में देखना पसन्द करती हैं, जो 90 प्रतिशत महिलाओं के जीवन से बिल्कुल उलट होते हैं। धारावाहिकों में दिखायी जाने वाली औरतें ज्यादातर गहनों से लदी होती हैं और उनके पास एक दूसरे के खिलाफ साजिश रचने के अलावा कोई दूसरा काम नहीं होता। आम महिलाएँ खुशफहमी में होती हैं कि यह एक खूबसूरत दुनिया है जिसमें वह फिल्म और नाटकों की महिलाओं को जीते देखती हैं।

यह धारावाहिक उनके अन्दर की एकता को खत्म करने में बहुत बड़ी भूमिका निभाते हैं, जिसे वे बोलने और सोचने–समझने की आजादी समझती हैं। लेकिन असल में औरतों के ऊपर थोपे जाने वाली पितृसत्ता के दो मुख्य चेहरे हैं। एक वह जो बहुत साफ है, जिसे हम आसानी से देख और समझ सकते हैं। जिसका हम खुलेआम विरोध करते हैं, जिसकी हरकतें हमारे सामने साफ होती हैं, जैसे मारपीट, खानपान में भेदभाव, यौन उत्पीड़न आदि। पितृसता के इस रूप को हम सामन्ती पितृसत्ता का नाम दे सकते हैं। वहीं दूसरी ओर पितृसत्ता का दूसरा रूप पूँजीवादी पितृसत्ता है जो देखने में बहुत रंगबिरंगा, खूबसूरत और आकर्षक लगता है। जिसकी बेड़ियों को हम लड़कियाँ आजादी का एक रूप समझने लगती हैं। पूँजीवादी पितृसत्ता सामन्ती पितृसत्ता से कहीं ज्यादा खतरनाक है और समाज में गहराई तक अपनी जड़ जमाये हुए है। यह महिलाओं की वह मित्र जो उनके पीछे उन्हीं की पीठ में बहुत प्यार और खूबसूरती के साथ पूँजीवाद का खंजर घोंप रही है।

टीवी पर आने वाले महिला विरोधी धारावाहिक, फिल्में और विज्ञापन इसी पूँजीवादी पितृसत्ता को मजबूती देते हैं। देश–विदेश में चलने वाला हर विज्ञापन महिलाओं को पूँजीवादी पितृसत्ता के बेड़ियों में बांधकर आजाद और स्वतन्त्र दिखाता है। 2016 के रिन साबुन के एक विज्ञापन में एक औरत जो कि डॉक्टर है, वह जब अपनी ससुराल में घर का सारा काम निबटाये बिना अपनी नौकरी पर चली जाती है और इस कारण उसकी सास उसे ताने मारती है और उससे नाराज होती है तब इस दिक्कत से बचने के लिए उसकी एक सहेली उसे रिन साबुन का इस्तेमाल करने को कहती है, जिससे वह नौकरी के साथ–साथ घर का काम भी निपटा सके और अपने घरवालों को खुश भी रख सके। इसी तरह के विज्ञापन हमारे चारों ओर भरे पड़े हैं। अगर बात करें सौन्दर्य प्रसाशनों के विज्ञापनों की तो वह धारावाहिक और फिल्मों से भी कहीं ज्यादा खतरनाक हैं। उन विज्ञापनों के स्लोगन औरतों की व्यवहारिकता और एकता को तोड़ने में जुटे हुए हैं और यह अपने इस काम में बहुत हद तक कामयाब भी हो चुके हैं।

विज्ञापन जो अपना सामान बेचने के लिए औरतों का गलत इस्तेमाल कर रहे हैं और असल नारीवाद के बजाय नारीवाद का एक उल्टा और गलत चेहरा पेश करते हैं जिसे औरतें आसानी से और खुशी–खुशी अपने व्यवहार में उतारती हैं। लेकिन यह सिलसिला यहीं नहीं रुकता। इन धारावाहिकों, फिल्मों और विज्ञापनों में औरतों के अस्तित्व के सवाल को छोड़कर अस्मिता के सवाल को मुख्यता दी जा रही है। टीवी जगत के फैलाये गये झूठे नारीवाद ने नारी मुक्ति आन्दोलन के सवालों में उन 80 प्रतिशत महिलाओं के अस्तित्व के सवाल को पीछे छोड़ दिया है जो 20 रूपये प्रतिदिन पर अपना गुजारा करती हैं। इसके बजाय दिल्ली की सड़कों पर शॉर्ट्स पहनकर, सिगरेट और बीयर पीने के सवाल और संघर्ष को महिलाओं की मुक्ति का मुख्य सवाल बना दिया है। इन विज्ञापनों और धारावाहिकों ने औरतों में इतना “मैं” भर दिया है कि वे इस “मैं” को साबित करने के चक्कर में “हम” शब्द का अर्थ भूलती जा रही हैं। उनके अन्दर की एकता और व्यवहारिकता कमजोर हो चुकी है।

इसी कारण आज कोई ऐसा बड़ा महिला संगठन नजर नहीं आता है जो महिलाओं के असल मुद्दों को सामने ला सके और उनके लिए लड़ सके। आज अगर हम एक मजबूत संगठन बनाना चाहते हैं तो हमें अपनी आजादी और समानता के असल मुद्दों को प्रमुखता देनी पड़ेगी और अपने अन्दर से ‘मैं’ शब्द को निकालकर ‘हम’ शब्द को अपनाना होगा। तभी हम अपने असल दुश्मन को पहचान पाएँगे और हमारे मोर्चे को इसका असल मुकाम हासिल होगा।

–– उत्सा प्रवीण

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