Wednesday, September 11, 2019

दर्द और पूर्वाग्रह पुस्तक पर दो बातें


--विक्रम प्रताप

(सितम्बर 2019 में एलेन एंड अनविन प्रकाशन से गैब्रिएल जैक्सन की किताब ‘दर्द और पूर्वाग्रह’ (पैन एंड प्रीजुडिस) छपी. गार्डियन ऑनलाइन अखबार में इसके बारे में पढकर मैं स्तब्ध रह गया. इस किताब में महिलाओं की उन बीमारियों और उनके सामाजिक-चिकित्सा सम्बन्धी कारणों का जिक्र है, जिनके बारे में हमारे समाज में बात करने की अनुमति नहीं है. लिहाजा मैं इस किताब के बारे में कुछ लाइनें लिखने से खुद को रोक न सका.)


‘दर्द और पूर्वाग्रह’ किताब की लेखिका गैब्रिएल जैक्सन जब 23 साल की थी, तभी उन्हें पता चला कि वह एण्डोमेट्रिओसिस नामक गर्भाशय की गम्भीर बीमारी से पीड़ित हैं. इतनी छोटी उम्र में वह नहीं जानती थी कि वह अपने प्रसूति रोग विशेषज्ञ (गाइनकोलोजिस्ट) से क्या बात करें और सही जानकारी कैसे हासिल करें. वह समझती रही कि उनकी डॉक्टर उनके रोग और इलाज के बारे में सबकुछ जानती है, यही उनकी सबसे बड़ी भूल थी.
उन्होंने दस साल से अधिक समय तक कमजोरी, दर्द और दोयम दर्जे का अपमान झेला. उसके बाद, जब चीजें सहनशीलता की हद से गुजर गयीं, तब उन्होंने सवाल करने का फैसला किया. काश, यह काम उन्होंने पहले कर लिया होता, तो शायद उन जैसी महिलाओं को ऐसी परिस्थतियों से गुजरना न पड़ता. खैर, देर आये दुरुस्त आये. उन्होंने ‘दर्द और पूर्वाग्रह’ किताब के माध्यम से दुनिया के सामने कई सवाल उठाये हैं. मसलन, ऐसा कैसे हो सकता है कि जिस बीमारी की पहचान एक शताब्दी पहले कर ली गयी थी, उसके बारे में पूरी जानकारी आज तक नदारद है. वह बताती हैं कि अपनी बीमारी को लेकर वह किसी वहम में नहीं हैं, बल्कि इसके चलते उन्होंने बहुत कष्ट झेले हैं. आश्चर्य तो इस बात का है कि एक शताब्दी पहले इस रोग के निदान के बावजूद, आज भी चिकित्सा विज्ञान एण्डोमेट्रिओसिस के असली कारणों का पता नहीं लगा पाया है. यह बीमारी शरीर के अंदर कैसे फैलती है और इसे जड़ से कैसे खत्म किया जा सकता है? इसे लेकर आज भी हम अनजान हैं. ऐसा क्यों है? डॉक्टर पीड़ित महिलाओं को सालोंसाल दवा खिलाते रहते हैं. महिलाएँ दर्द सहती रहती हैं. खुद में घुटती रहती हैं.
हर महीने अंडाशय एक अंडा छोड़ता है। निषेचन के समय एंडोमेट्रियम नामक कोशिकायें गर्भाशय के साथ पंक्तिबद्ध हो जाती हैं। एंडोमेट्रियम कोशिकायें गलकर मासिक धर्म के रूप में बाहर आ जाती हैं। हालाँकि, इन कोशिकाओं का असामान्य रूप से बढ़ना संभव है। इन्हीं अनियमितताओं से जुडी बीमारी एण्डोमेट्रिओसिस है। मुंबई के हिंदुजा हेल्थकेयर मल्टीस्पेशलिटी अस्पताल में स्त्री और प्रसूति रोग विशेषज्ञ डॉ राजीव पंजाबी ने बताया कि कोई भी नहीं जानता कि ये एंडोमेट्रियल कोशिकाएं क्यों बढ़ती हैं? ये कोशिकाएं हार्मोन में बदलाओं से प्रभावित होती हैं। यही कारण है कि मासिक धर्म चक्र के साथ ही बीमारी के लक्षण बढ़ जाते हैं। इसके चलते अधिक दर्द, बांझपन, बहुत भारी मासिक धर्म और ऊतकों के झुलस जाने जैसी समस्या हो सकती है। जबकि कोई भी वास्तव में यह नहीं कह सकता कि ऐसा क्यों होता है? इसके बारे में कई सिद्धांत हैं। लेकिन इनमें से कोई भी सिद्धांत सही और सटीक जानकारी नहीं देता।
एण्डोमेट्रिओसिस बीमारी के मामले में आस्ट्रेलिया की यह लेखिका अकेली नहीं है. यह बीमारी न केवल आस्ट्रेलिया जैसे विकसित देशों की महिलाओं को अपना शिकार बनाता आ रहा है, बल्कि भारत जैसे विकासशील देशों में यह और भयावह हो गयी है. भारत की एण्डोमेट्रिओसिस सोसाइटी नाम की संस्था के अनुमान के अनुसार, देश भर में कुल 2.5 करोड़ महिलाएँ इस बीमारी से पीड़ित हैं. इस बीमारी से पीड़ित एक महिला ने अपने दर्द को बयान करते हुए लिखा कि मैं अपने जिस्म के पिंजरे में कैद हूँ. माहवारी से जुडी वर्जनाओं के चलते महिलाएँ इस बीमारी के बारे में खुलकर बोल नहीं पाती. देखा जाए तो महिला चाहे किसी देश की हो, सभी को ऐसी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है. सच है कि सभी दुनिया की महिलाओं की दिक्कते एक जैसी हैं.
लेखिका गैब्रिएल जैक्सन लिखती हैं कि जैसे ही मैंने इस समस्या के बारे में जानकारी हासिल करने की कोशिश की, मुझे पता चला कि जितना मैं सोचती थी, समस्या उससे कहीं अधिक गम्भीर है. पुरुषों की तुलना में महिलाओं को इलाज के लिए अधिक इन्तजार करना पड़ता है. उन्हें कैंसर या हार्ट अटैक है या नहीं, इसके निदान के लिए भी लम्बा इन्तजार करना पड़ता है. तब तक ये बीमारियाँ कई महिलाओं को अपना शिकार बना चुकी होती हैं. सबसे दुखद है कि इन सबके दौरान महिलाएँ लगातार असहनीय दर्द में तडपती रहती हैं और वे यह स्वीकार नहीं कर पाती कि उन्हें इस तरह जीना नहीं चाहिए. बल्कि वे इसी को अपनी नियति मान लेती हैं.
गैब्रिएल जैक्सन सवाल पूछती हैं कि डॉक्टर हम पर क्यों विशवास करें? जवाब सीधा सा है. वे हमारे बारे में बहुत कम जानते हैं. जिस तरह के लक्षण एण्डोमेट्रिओसिस के दौरान दिखाई देते हैं, ऐसे लक्षण 10 अन्य बीमारियों में भी प्रकट होते हैं. इन बीमारियों से केवल अमरीका में 5 करोड़ औरतें पीड़ित हैं. इन बीमारियों से पीड़ित महिलाओं को बताया जाता है कि उन्हें कुछ नहीं हुआ है, वे मानसिक भ्रम की शिकार हैं. वे अपने स्वास्थ्य के बारे में जरूरत से ज्यादा चिंतित हो रही हैं. अगर इन बीमारियों का निदान शुरूआती अवस्था में हो जाए, तो इनका इलाज सम्भव है. लेकिन समाज में प्रचलित इस गलत मान्यता का क्या इलाज है कि महिलाएँ अपनी बीमारी को लेकर शंकालु और वहमी होती हैं?
वह सवाल करती हैं कि डॉक्टर अश्वेत लोगों या महिलाओं का इलाज अच्छी तरह क्यों नहीं करते, जबकि वे गोरे पुरुषों के इलाज में अधिक रूचि दिखाते हैं? डॉ जेने ऑस्टिन क्लेटन महिलाओं के स्वास्थ्य पर शोध करने वाली एक अमरीकी संस्था की निदेशक हैं. वह बताती हैं कि "हम वास्तव में पुरुष जीव विज्ञान की तुलना में महिला जीव विज्ञान के हर पहलू के बारे में कम जानते हैं।" आखिर ऐसा क्यों है? 
वास्तव में बात सैकड़ों साल पहले की है, जब आधुनिक चिकित्सा विज्ञान की शुरुआत हो रही थी. उस समय महिलाओं को पुरुषों से कमतर माना जाता था. शोध करने वाले वैज्ञानिक और डॉक्टर भी भेदभाव बरतने वाली ऐसी मानसिकता से ग्रस्त थे. पुरुषों को भ्रष्ट करने वाली अनैतिक ताकत के रूप में महिला कोख को दर्शाया जाता था. सभी बुराइयों की जड़ महिला की कोख है. आँखों पर जैसे एक पट्टी बाँध दी गयी हो. सच्चाई सामने हो लेकिन दिख कुछ और रहा था. महिला बच्चे को जन्म देकर इंसानियत को आगे बढ़ाती है. लेकिन इसी को अनैतिकता का पर्याय बना दिया गया और मान लिया गया कि भगवान बच्चे पैदा करता है और इसके लिए उसने महिला शरीर को चुना है ताकि दर्द के रूप में उसे दंडित करके उसके गुनाहों की सजा दी जा सके. प्लेटो जैसा विद्वान भी ऐसी महिला विरोधी बातों से खुद को न बचा सका. उसने गर्भ को एक भयावह जानवर के रूप में चित्रित किया जो महिला के शरीर में भटक रहा था और उसकी जीवन शक्ति को चूस रहा था। 
आधुनिक चिकित्सा विज्ञान ने अपना ध्यान तंत्रिका तंत्र पर केन्द्रित किया और आरोप लगाया कि इन सब के लिए “कमजोर तंत्रिका” जिम्मेदार है. लेकिन बीसवीं सदी की शुरुआत में जब अंतःस्त्रावी प्रणाली की खोज हुई, तो हारमोन के ऊपर दोष मढ़ दिया गया. महिलाओं में उत्सर्जित होने वाले विशेष तरह के हरमोन भेदभाव को सही ठहराने का आधार बन गये. आधुनिक चिकित्सा विज्ञान पर भी महिला विरोधी सोच की छाप पड़ गयी क्योंकि इसका जन्म महिला विरोधी पितृसत्तात्मक समाज से ही हुआ है. जीव विज्ञान के सभी तौर तरीकों का इस्तेमाल करके यह सिद्ध करने की कोशिश की गयी कि पुरुषों की तुलना में महिलायें कमतर होती हैं. कहा गया कि बच्चा पैदा करने की पूरी प्रक्रिया यानी मासिक धर्म, गर्भधारण, दुग्धपान और रजोनिवृत्ति तक की प्रक्रिया महिलाओं की बहुत बड़ी ऊर्जा को सोख लेती है, इसके चलते वे समाज-राजनीति जैसे दूसरे क्षेत्रों में पुरुषों से मुकाबला नहीं कर सकतीं. इसलिए इन सभी चिंताओं को छोडकर उन्हें पत्नी और माँ का कर्तव्य पूरी निष्ठा के साथ निभाना चाहिए. आज दुनिया भर में ऐसे इनसानों की संख्या सबसे अधिक है, जो भेदभाव बरतने वाली इन अन्यायपूर्ण बातों पर विशवास करते हैं. यह दुखद है और इससे भी अधिक दुखद यह है कि इन बातों पर विश्वास करने वालों में महिलाएँ भी बड़ी संख्या में हैं.
समाज में जिन चीजों को महिला समस्या का इलाज माना जाता है, वह महिलाओं के लिए कठोर दण्ड के समान होता है. इसके लिए बड़े हिंसक कदम उठाये जाते हैं जैसे-- खतना कर देना, गर्भाशय और अंडाशय को निकाल देना, दुग्धपान के लिए मजबूर करना और जबरन काम से छुट्टी पर भेज देना. बांझपन के इलाज के लिए घिनौनी जोंक चिकित्सा का सहारा लिया जाता है. स्वास्थ्य ठीक करने के नाम पर उन्हें मानसिक रूप से प्रताड़ित किया जाता है. इन इलाजों में से कोई भी वैज्ञानिक रूप से सत्यापित नहीं है. चिकित्सा विज्ञान में महिलाओं के शरीर का बहुत कम अध्ययन किया जाता है. पाठ्य-पुस्तकों में जिसका जिक्र इनसान के शरीर के तौर पर किया जाता है, वह अक्सर किसी गोरे पुरुष का शरीर होता है. इससे अलग वैज्ञानिक खोज के लिए किसी भी इनसान के शरीर में रूचि नहीं ली गयी और उसे वैज्ञानिक खोज के लायक नहीं माना गया.
नब्बे के दशक तक महिलाओं पर कोई भी क्लिनिकल परिक्षण नहीं किया जा सकता था. आज दर्द के पुराने मरीजों में 70 प्रतिशत महिलाएँ हैं लेकिन दर्द निवारक दवाओं का 80 प्रतिशत परिक्षण केवल पुरुषों पर किया जाता है. शोधकर्मी लोग महिलाओं के प्रति अपने पूर्वाग्रह को यह कहकर छुपाते हैं कि वे परिक्षण के दौरान किसी महिला को नुक्सान नहीं पहुँचाना चाहते हैं. लेखिका सवाल करती हैं कि अगर ऐसा है तो क्या यह जरूरी नहीं कि दवा बेचने से पहले इस बात का पता लगाया जाए कि फलाँ दवा महिला को नुक्सान तो नहीं पहुंचा रही है. 2018 का एक अध्ययन दिखाता है कि बुनियादी, प्रीक्लीनिकल और क्लीनिकल शोध में गम्भीर पुरुषवादी पूर्वाग्रह काम करता है. हालात और भी बुरे हैं क्योंकि मेडिकल के छात्रों को इस पूर्वाग्रह के बारे में नहीं पढ़ाया जाता. शोधकार्यों तक महिलाओं की पहुँच न के बराबर है. यह इस कारण नहीं है कि वे इस काम में सक्षम नहीं है, बल्कि समाज ने उन्हें इसका मौक़ा ही नहीं दिया.
आज जरूरत इस बात की है कि महिलाओं को बच्चा पैदा करने की मशीन की जगह एक इनसान माना जाए. उन्हें न केवल समाज में बल्कि चिकित्सा विज्ञान में भी बराबरी का हक दिया जाए. अगर महिलाएँ चिकित्सा विज्ञान और उससे जुड़े क्षेत्र में नहीं जा पाएँगी और महिला विरोधी मानसिकता से हर स्तर पर संघर्ष नहीं किया जाता, तो महिलाओं की बीमारियों का उचित इलाज असम्भव है. ऐसी हालत में वे आगे भी दर्द से तडपती रहेंगी और घुटघुट कर मरती रहेंगी.

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