लगभग एक साल हो गया जब मन्दी ने डरावनी दस्तक देनी शुरू की और अब तो उसने देश की समूची अर्थव्यवस्था को अपने दैत्याकार पंजों में जकड़ लिया है। अर्थव्यवस्था का कोई भी क्षेत्र उससे बच नहीं पाया है। ज्वालामुखी के फूटने से निकला लावा जैसे तेजी से आगे बढ़ता है और अपने सामने पड़ने वाली हर वस्तु को अपनी गिरफ्त में लेकर उसे तबाह कर देता है, ठीक उसी तरह अनेकानेक कारणों से उपजी मन्दी जीवन के हर क्षेत्र, समाज के हर समुदाय और वर्ग को तेजी से अपनी चपेट में लेती जा रही है।
मन्दी अब किसी से छिपी नहीं है, वह अदृश्य नहीं रह गयी है। चीख–चीख कर हर जगह वह अपनी मौजूदगी की सूचना दे रही है। सरकार के सलाहकार, अर्थशास्त्री और मंत्रीगण इसे स्वीकार कर रहे हैं। आँकड़े छुपाने का खेल भी अब खत्म हो गया है। अनपढ़ आदमी से लेकर बच्चों तक को अब मन्दी के बारे में पता है। वह उसे टीवी या अखबार में ही नहीं पढ़ सुन रहे, बल्कि अपने निजी जीवन में बहुत करीब से महसूस कर रहे हैं। ऑटोमोबाइल, टेक्सटाइल, खनन, थोक और खुदरा बाजार, कोई भी तो क्षेत्र इससे अछूता नहीं रहा।
मन्दी किसे कहते हैं ? यह क्यों आती है ? मन्दी वास्तव में पूँजीवादी अर्थव्यवस्था के साथ अनिवार्य रूप से जुड़ी एक ऐसी स्थिति है जब बाजार में सामान उपलब्ध तो होता है लेकिन बिकता नहीं है या बिकना कम हो जाता है। इसका कारण यह होता है कि समाज के अधिकांश लोगों के पास खरीदने की ताकत नहीं रह जाती। पर ऐसा क्यों हो जाता है ? इसकी वजह होती है कि पूँजीपति लोगों को व्यक्ति के श्रम की उपज की तुलना में बहुत ही कम मजदूरी देता है और भारी संख्या में लोगों की रोजी–रोटी छीन कर हाशिये पर पहँुचा देता है। जब सामान नहीं बिकता है तो पूँजीपति हजारों लोगों को नौकरियों से निकाल देता है और इस तरह बाजार में भरे सामान को खरीदने वालों की संख्या और भी कम हो जाती है। ऊपर से मुनाफा घटने पर फैक्टरियों में या तो उत्पादन कम कर दिया जाता है, मजदूरों की छँटनी कर दी जाती है या फैक्ट्री ही बन्द कर दी जाती है। फैक्टरियों से पैदा हुई मन्दी धीरे–धीरे अर्थव्यवस्था के हर क्षेत्र में फैल जाती है और हालात को और भी गम्भीर बना देती है। ऐसी ही स्थिति आजकल हिन्दुस्तान में है।
इस मन्दी के प्रभावों के अलग–अलग आयामों पर मंत्रिगण से लेकर, राजनेताओं, अर्थशास्त्रियों, समाजशास्त्रियों द्वारा नित नयी चर्चाएँ की जा रही हैं। परन्तु जैसे रोज–रोज के कार्य–व्यापारों में महिलाओं के वजूद और समाज में उनकी भूमिका को कोई विशेष महत्त्व नहीं दिया जाता, उसी तरह मन्दी के महिलाओं पर प्रभावों की कोई विशेष चर्चा नहीं है। जिस तरह साम्प्रदायिक दंगों का महिलाओं समेत कमजोर समुदायों पर सबसे बुरा असर पड़ता है उसी तरह मन्दी की मार भी सबसे अधिक इन्हीं पर पड़ रही है। पितृसत्तात्मक समाज में सहज ही यह मान लिया जाता है कि मन्दी तो अर्थव्यवस्था में आती है। फिर महिलाओं का उससे क्या लेना–देना––– ? लोग भूल जाते हैं कि महिलाओं ने पिछले कुछ दशकों में अर्थव्यवस्था के हर क्षेत्र में अपनी उपस्थिति दर्ज की है। वे इंजीनियर हैं, डॉक्टर हैं, नर्स, अध्यापिका, जैसे परम्परागत सरकारी और निजी क्षेत्र में तो हैं ही, भारी संख्या में असंगठित क्षेत्र और 1990 के बाद उदारीकरण के दौर में कॉल सेन्टर से लेकर फैशन डिजाइनिंग, आईटी सेक्टर जैसे तमाम क्षेत्रों में काम कर रही हैं जहाँ उन्हें पहले से ही उनके रोजगार की कोई सुरक्षा नहीं मिलती। ऐसे में मन्दी शुरू होते ही बड़े पैमाने पर नौकरियों से की जा रही छँटनी की मार से वे भला कैसे बच जायेंगी ?
मन्दी की सबसे पहली धमक ऑटोमोबाइल इण्डस्ट्री में महसूस की गयी। भारी मात्रा में छँटनी की खबर भी इसी क्षेत्र में सुनने को मिली। पिछले कुछ वर्षों में विभिन्न कार और स्कूटर कम्पनियों ने उत्पादन से इतर के काम, जैसे सेल्समैनशिप, वाहन इंश्योरेंस और फाइनांस जैसी अन्य सेवाओं के द्वार महिलाओं के लिए खोलना शुरू किया। टाटा मोटर्स ने 31 जुलाई, 2018 को दावा किया कि उनके ऑटोमोबाइल सेवा क्षेत्र में 4 प्रतिशत महिला कर्मचारी सेवारत थीं, जबकि महिन्द्रा एण्ड महिन्द्रा ने कहा कि उनके वहाँ 7–5 प्रतिशत महिला श्रमिक थीं। मोटरसाइकिल निर्माता, रॉयल एनफील्ड्स ने कहा कि पिछले तीन साल में उसने महिला कर्मचारियों की संख्या 10 प्रतिशत कर दी और लैंगिक समानता का लक्ष्य रखकर वह जल्दी ही कुल श्रम–शक्ति का 30 प्रतिशत कर देगा। इसी तरह अन्य कम्पनियों ने महिला कर्मचारियों की संख्या बढ़ाने वाले बड़े–बड़े दावे किये और अपना मानवीय चेहरा दिखाने की कोशिश की। लेकिन कुछ ही महीनों में मन्दी ने सारे दावों की पोल खोल दी। मन्दी शुरू होने के बाद भारत के 271 शहरों में 286 से अधिक डीलरशिप जुलाई 2019 तक 18 महीनों में बन्द हो गयी जिसके कारण महिलाओं सहित 200,000 से अधिक लोगों ने अपनी नौकरी खो दी। हालाँकि फेडरेशन ऑफ ऑटोमोबाइल डीलर्स एसोसिएशन के पास सेल्समैनशिप में छँटनी के कारण पीड़ित महिलाओं की संख्या पर कोई ठोस आँकड़ा नहीं है, लेकिन इसमें कोई सन्देह नहीं है कि बिक्री में 10 प्रतिशत महिला कर्मचारियों की संख्या को देखते हुए यह संख्या 20,000 से अधिक होगी। अगस्त 2019 तक अकेले ऑटोमोबाइल निर्माण क्षेत्र में 350,000 नौकरियाँ चली गयीं। यह आँकड़े तमिलनाडु, महाराष्ट्र और हरियाणा के हैं जो ऑटोमोबाइल उद्योग के हब हैं। क्या इसका असर उन हजारों महिला श्रमिकों पर नहीं पड़ा होगा जिन्होंने सेल्समैनशिप का प्रशिक्षण लिया और हाल के वर्षों में ही काम करना शुरू किया ?
भारत में महिलाओं के लिए तमाम पारिवारिक दबावों के बीच एक सुरक्षित, नियमित या कांट्रेक्ट की नौकरी प्राप्त करना वास्तव में टेढ़ी खीर है। ऐसे में नौकरी खो बैठने वाली महिला के लिए जीवन बहुत ही कठिन हो जाता है। ऐसे समय में जब अर्थव्यवस्था की नाव डूब रही हो, उसके लिए कोई और काम मिलना लगभग असम्भव ही हो जाता है या यूँ कहें कि मन्दी खत्म होने तक इन्तजार करने के अलावा कोई चारा नहीं रहता।
यही हाल मन्दीग्रस्त हर क्षेत्र की महिलाओं का है। यद्यपि अधिकांश परिवारों में महिला की आय को द्वितीयक आय ही माना जाता है यानी पुरुष की आय में मात्र सहयोगी आय। लेकिन विनिर्माण उद्योग में काम करनी वाली अधिकांश महिलाएँ अपने परिवारों में प्रमुख या समान कमाई करने वाली होती हैं, जहाँ वे अपनी आय के साथ परिवार की कई जरूरतों को पूरा करती हैं। नौकरी छूट जाने से, ये महिलाएँ न केवल आर्थिक रूप से पीड़ित हुई हैं, बल्कि अपने परिवारों के भीतर अपनी स्थिति और प्रमुख घरेलू फैसलों को प्रभावित करने की अपनी हैसियत भी खो बैठी है।
नौकरी जाते ही महिलाओं के लिए खुद पर पैसा खर्च करना कठिन हो जाता है और इस तरह महिला–केन्द्रित उद्योग भी प्रभावित होते हैं, विशेष रूप से उन क्षेत्रों में जो बड़े पैमाने पर बाजार में सौन्दर्य प्रसाधन, ब्यूटी पार्लर जैसे व्यक्तिगत देखभाल के केन्द्र, बुटीक, महिलाओं की स्वच्छता, स्वास्थ्य सेवा, सिले–सिलाए वस्त्र, फैशन डिजाइनिंग आदि। ये क्षेत्र मुख्यत: महिलाओं द्वारा ही चलाये जाते हैं तो इनसे जुड़ी महिलाएँ भी बुरी तरह प्रभावित होती हैं।
इन सबके अलावा, जब ऐसे परिवारों में जहाँ सिर्फ पुरुष ही मजदूरी करता है और वह जब अपनी नियमित नौकरी खो बैठता है, तो उन परिवारों की महिलाओं पर कोई काम ढूँढने के लिए दबाव पड़ता है। लेकिन बाहर तो मन्दी छाई हुई है, उनके लिए भी काम नहीं होता और इस तरह वे भी बेरोजगार महिलाओं की पंक्ति में खुद को खड़ा पाती हैं।
ऐसी हालत में किसी कौशल के अभाव में ये महिलाएँ बेहद असुरक्षित असंगठित क्षेत्र में जाने या घरेलू नौकरानी, सेल्सगर्ल आदि ही बनने को अभिशप्त हैं जहाँ वे सरकार द्वारा चलायी जाने वाली स्वास्थ्य इत्यादि से सम्बन्धित सीमित सामाजिक योजनाओं के लाभ से भी वंचित हो जाती हैं। देखा जा रहा है कि बड़ी संख्या में महिलाएँ नियमित अर्थव्यवस्था से रातों–रात गायब हो रही हैं, ऐसे हालात यौन शोषण और यौन हिंसा को न केवल खतरनाक स्तर तक पहुँचा देते हैं बल्कि लैंगिक समानता के लक्ष्य को भी गहरा धक्का पहुँचाते है।
चूँकि नौकरी से निकाले गये करोड़ों लोगों की जेब में पैसा नहीं है, ऐसे में मुहल्लों, कस्बों या शहरों में छोटी–छोटी दुकान चलाने वाली, सब्जी बेचने वाली, यहाँ तक कि चाय का खोखा चलाने वाली महिलाओं की बिक्री भी आधी से कम हो गयी और उनके लिए घर चलाना मुश्किल हो गया है। ऊपर से महँगाई सुरसा की तरह मुँह बाये खड़ी है और व्यक्ति की आय को लीलती जा रही है। घरों और रसोई का प्रबन्ध करने वाली महिलाएँ जरूरी आहार और बच्चों की स्कूली जरूरतों में कटौती करने को मजबूर हैं। कठिन समय में सबसे पहली कटौती महिला अपने और अपनी बेटी के भोजन और बीमारी के खर्चों में ही करती है।
बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश, झारखण्ड जैसे प्रदेशों से काम की तलाश में पंजाब, गुजरात, महाराष्ट्र, फरीदाबाद, दिल्ली जैसे औद्योगिक इलाकों में आये परिवार छोटी–बड़ी हजारों फैक्टरियाँ बन्द हो जाने के कारण वापस अपने घरों को लौट रहे हैं। वास्तव में विस्थापित होने, स्थायी असुरक्षा के साथ अस्थायी रूप से कहीं बसने और फिर उजड़ने की मार भी सबसे अधिक महिलाओं के हिस्से ही आती है।
जहाँ तक गाँवों की बात है, आँकड़ों के मुताबिक, साल 2004–05 की तुलना में ग्रामीण महिलाओं की भागीदारी दर 49–4 फीसदी से घटकर 2011–12 में 35–8 फीसदी पर आ गयी और 2017–18 में यह घटकर 24–6 फीसदी पर पहुँच गयी है। साल 2004–05 से अब तक पाँच करोड़ से अधिक ग्रामीण महिलाएँ राष्ट्रीय बाजार की नौकरियाँ छोड़ चुकी हैं। ये आँकड़े एनएसएसओ की पीरियॉडिक लेबर फोर्स सर्वे (पीएलएफएस) 2017–18 की रिपोर्ट पर आधारित हैं।
‘डाउन–टू–अर्थ’ वेब पत्रिका के रिचर्ड महापात्र ने अपनी एक रिपोर्ट में बताया है कि मन्दी के बीच कृषि क्षेत्र की मजदूरी की औसत वृद्धि दर 2016–17 और 2018–19 के बीच लगभग आधी रह गयी और महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) के तहत 2017–18 में औसत 45–8 कार्य दिनों की तुलना में 2018–19 में प्रति घर केवल औसत 38 दिनों का काम मिला। भयानक मन्दी और महँगाई के दौर में एक वर्ष में मात्र 38 दिन काम पाकर कोई परिवार और उसकी स्त्री कैसे खर्च चलाती है और किस स्तर का मानसिक तनाव झेलती है यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। जब गाँवों में आशा की कोई किरण नहीं दिखाई देती है तो इन परिस्थितियों में लड़कियों और महिलाओं को नौकरी के वादे के साथ शहरों और पड़ोसी देशों में तस्करी और वेश्यावृत्ति में धकेले जाने की सम्भावना बढ़ जाती हैय भयानक गरीबी में धकेल दी गयी ऐसी महिलाओं या लड़कियों का, यहाँ तक कि उनके माँ–बाप का इसके दलालों के झाँसे में आ जाना, कोई नयी बात नहीं है। 2009–10 में दक्षिण–पूर्व एशिया में आयी भयंकर मन्दी पर प्रोग्राम ऑन वूमेन्स इकोनोमिक, सोशल एण्ड कल्चरल राइट्स (यूएन वूमेन) की 2010 की एक रिपोर्ट के अनुसार उस दौर में भारत सहित उन देशों में महिलाओं के खिलाफ अपराध, दुर्व्यवहार और हिंसा की दर में बेतहाशा वृद्धि हुई। आज की मन्दी तो 2009–10 की मन्दी से कहीं अधिक भयानक और चैतरफा है। ऐसे में इस तरह की प्रवृत्तियों की पुनरावृत्ति से भला कैसे इनकार किया जा सकता ?
मन्दी के कारण हुई छँटनी, कर्ज न चुका पाने या धंधा चैपट होने से जिन परिवारों के मर्द आत्महत्या कर, अपने परिवारों की महिलाओं को बच्चों समेत अकेला छोड़ कर चले जाते हैं वे भयानक आर्थिक दबाव तो महसूस करती ही हैं, अकेला हो जाने कारण उनके कभी भी और कहीं भी यौन हिंसा की शिकार होने की सम्भावना दोगुनी हो जाती है।
सच तो यह है कि नारी जीवन की पीड़ा के जितने आयाम हैं, मन्दी के उन पर प्रभाव के आयाम भी उससे कम नहीं हैं। उन सबको यहाँ समेटना सम्भव नहीं है। दु:ख की बात यह है कि पितृसत्तात्मक समाज उस पर विशेष गौर नहीं करता। हमें इन बातों और तकलीफों को साझा करना होगा ताकि लोग इन अदृश्य संकटों को समझ सकें। महिलाओं को भी उन सारे संघर्षों और आन्दोलनों का बराबरी का हिस्सेदार बनना होगा जो उन सारी वजहों को सामाप्त करने के लिए लड़े जा रहे हैं जो मन्दी का कारण हैं।
–– आशु वर्मा
सुंदर लेख
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