Wednesday, December 13, 2023

साम्प्रदायिकता से प्रेरित समान नागरिक संहिता का प्रस्ताव और जनवादी महिलाओं का दृष्टिकोण

 


चैतन्य महिला समाख्या

(आंध्रप्रदेश में स्थित औरतों के संगठनों के एक फेडेरेशन के स्थापना सम्मेलन में गुंटूर, सितम्बर 24–25, 1995 को दिया गया उद्घाटन भाषण।)

–– रजनी एक्स देसाई

(आज जब भाजपा द्वारा दोबारा इस मुद्दे को हवा दी जा रही है तो इस आलेख की प्रासंगिकता बढ़ गयी है)

साथियो,

चूंकि आज हम लोग यहाँ आंध्र प्रदेश के महिला संगठनों का एक फेडरेशन बनाने के लिए एकत्र हुए हैं– यह समय आपको बधाई देने तथा आगे आने वाले वर्षों में औरतों के सामर्थ्य की सच्ची जनवादी ताकतों और आशावादी गतिविधियों के लिए शुभकामनाएँ देने का है। इस कार्य की सफलता और प्रगति इस बात पर निर्भर है कि तमाम बातों के साथ–साथ शासक वर्ग के प्रतिनिधियों, चाहे वे राजनीतिक पार्टियाँ हो, सामाजिक संगठन अथवा ऐजेन्सियाँ हों या धार्मिक व्यक्ति, उनके द्वारा उठाया जाने वाले महिलाओं के मुद्दों के तरीके के बारे में हम कितने सचेत रहते हैं। हमें इन लोगों के क्रिया–कलापों के बारे में सचेत रहने की जरूरत क्यों है? क्योंकि शासक वर्ग के रूप में हमारे ऊपर शासन करने के लिए– उन्हें शक्तिशाली जनवादी महिलाओं की ताकत को दबाना जरूरी है। ये दमन वे दो तरीकों से करते हैं– हमारे सम्मानजनक अस्तित्व के लिए हमारे संघर्ष को सीधे तौर पर अपने गुण्डों, पुलिस, न्यायालयों व जेलों द्वारा प्रत्यक्ष दमन करके। इसके अलावा वे हमेशा हमारे सामने झूठी उम्मीदों व आश्वासनों को रखकर हमें धर्म, जाति, क्षेत्र तथा लिंग के आधार पर बाँट कर हमारे संघर्ष को भटकाने की कोशिश करते हैं।

शासक वर्ग की कुटिल चालों का शिकार न बनने के लिए हमें इस मुद्दे को इसके वास्तविक भौतिक परिप्रेक्ष्य में देखना चाहिए और इसे एक व्यापक सामाजिक व राजनैतिक सम्बन्धों के हिस्से के रूप में देखना चाहिए न कि वैसे जैसे व्यवस्था–पोषक नारीवादी करते हैं। आज एक समान नागरिक–संहिता के मुद्दे पर हमारी राय इस बात का उदाहरण है कि हमारा दृष्टिकोण एकीकृत है कि नहीं।

शासक वर्गीय पार्टियाँ, मुख्य रूप से बीजेपी कई सालों बाद एक बार फिर समान (एकीकृत) नागरिक संहिता के सवाल को उठा रही है। वे हमें यह बताती हंै कि ऐसा वे औरतों के हितों के मद्देनजर कर रही हैं। भाजपा इसे चुनाव के लिए एक मुद्दा बनाने जा रही है।

यह मुद्दा एक बार फिर सुप्रीम कोर्ट के एक जज के विवादास्पद बयान के जरिये उठ खड़ा हुआ है। चूंकि कुछ हिन्दू पुरुष दूसरी शादी करने के लिए अपनी पहली पत्नी से तलाक लिए बगैर इस्लाम धर्म अपना लेते हैं, ताकि वे इस्लाम द्वारा दिये गये कुछ प्रावधानों का फायदा उठा सकें, इसलिए एक खास मामले में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया कि ऐसे पुरुषों को अपनी पहली शादी के मामले में निपटारा उसी कानून के अन्तर्गत करना होगा, जिसके तहत उनका पहले विवाह हुआ था। लेकिन यह कोई बखेड़ा करने वाला बिन्दु नहीं था। माननीय जज कुलदीप सिंह ने और आगे बढ़कर भारत के मुसलमानों के बारे में अशोभनीय तथा भड़काऊ बयान दिया। उनके अनुसार, “बँटवारे के बाद जिन लोगों ने भारत में ही रहने का निर्णय लिया था ये भली प्रकार जानते थे कि भारतीय नेता दो अथवा तीन राष्ट्रों के सिद्धान्त को नहीं मानते हैं। और भारतीय गणराज्य में केवल एक राष्ट्र होगा– भारतीय राष्ट्र और कोई भी समुदाय धार्मिक आधार पर एक अलग इकाई बनने की माँग नहीं करेगा– हिन्दुओं, सिखों, बौद्ध धर्म अनुयायियों और जैनियों ने राष्ट्रीय अखण्डता तथा एकता के लिए अपनी भावनाओं का परित्याग किया है, पर कुछ समुदायों ने ऐसा नहीं किया है–––”। (इसकी अनुगूंज 1985 में शाहबानों के केस में प्रतिध्वनित हुई, जिसमें चन्द्रचूड़ ने दावे के साथ कहा कि “एक आम नागरिक संहिता ही राष्ट्रीय अखण्डता के मामलों में मदद कर सकती है और ऐसा कानून के प्रति उन विभिन्न निष्ठाओं को खत्म करके किया जा सकता है, जिनकी विचारधाराएँ विरोधाभासी हैं।”)

यह पुन: याद करने की बात है कि महिलाओं के अधिकारों को सीमित करने के लिए इस्लामिक कानूनों के चन्द प्रावधानों का कुछ हिन्दू पुरुषों लोगों द्वारा गलत तरीके से इस्तेमाल किया गया। इस सवाल को पूरी तरह दरकिनार करते हुए, कुलदीप सिंह ने हिन्दुओं की बहुविवाह प्रवृत्ति के लिए मुसलमानों को ही जिम्मेदार ठहराया है, और आगे यह कहा कि मुसलमान इस देश के प्रति वफादार नहीं है और उन्होंने यह सुझाव दिया कि गैर वफादारी तथा अलगाववादी सोच को दूर करने के लिए एक आम नागरिक संहिता की आवश्यकता है। (प्रसंगवश इस जज द्वारा दिया गया बयान इस प्रकार गलत है कि हिन्दुओं, बौद्धों, जैनों तथा सिखों ने ‘राष्ट्रीय एकता व अखण्डता’ के हित में अपने व्यक्तिगत कानून त्याग दिए हैं, इसके बजाय वास्तविक तथ्य यह है कि ये समुदाय अभी भी प्रतिक्रियावादी प्रावधानों वाले एक अलग व्यक्तिगत कानून के अन्तर्गत आते हैं। इस प्रकार महिलाओं के अधिकारों को दरकिनार कर इस मुद्दे को साम्प्रदायिक रूप दे दिया गया। यही वह बिन्दु था, जिस पर जज ने एक समान नागरिक संहिता(यूसीसी) पर अपनी रिपोर्ट देने के माध्यम से इस विषय पर सरकार को सलाह दी।

इसके बाद, भाजपा, संघ परिवार तथा उसके चापलूसों ने उसी तरह से अपने साम्प्रदायिक मंसूबे को और आगे बढ़ाते हुए लाठी भाँजना शुरू कर दिया। यहाँ पर समान नागरिक संहिता की जरूरत को मुस्लिम कानून के पिछड़ेपन की रोशनी में प्रस्तुत किया  गया है। लेकिन इस प्रक्रिया में इस तथ्य की अनदेखी कर दी जाती है कि पिछड़ेपन के तमाम लक्षण हिन्दुओं के पर्सनल लॉ में भी मौजूद हैं। उदाहरण  के लिए ‘हिन्दू एडाप्शन एण्ड मेंटेनन्स एक्ट 1956’ के तहत एक औरत अपनी और अपने पति की संयुक्त आय में से ज्यादा से ज्यादा एक तिहाई हिस्से का दावा ही कर सकती है। धारा 125 के तहत जो कि अधिकांश औरतों द्वारा भरण–पोषण के संघर्ष हेतु इस्तेमाल किया जाता है– उसमें औरत को दी जाने वाली अधिकतम राशि मात्र 500 रुपये तय है। कोई भी हिन्दू औरत संयुक्त परिवार की मुखिया नहीं हो सकती है और न ही पैतृक सम्पत्ति की उत्तराधिकारी बन सकती है।

हिन्दू उत्तराधिकार कानून, हिन्दू पत्नियों और बेटियों को पारिवारिक उत्तराधिकार से पूर्णत: वंचित करता है, जबकि इसके विपरीत, मुस्लिम कानून के तहत एक मुसलमान पति अपनी सम्पत्ति के एक तिहाई हिस्से को पत्नी तथा बेटी के नाम पर करता है तथा शेष भाग को कानूनी ढंग से इस्तेमाल करता है। लता मित्तल एक ऐसी चर्चित व्यक्तित्व हैं, जो हिन्दू परिवारों में हिन्दू औरत के हक के लिए लड़ीं, आज बदहाल स्थिति में किसी आश्रम में अपना जीवन बिता रही हैं।

हिन्दू पर्सनल लॉ की इन विशेषताओं के इतर अल्पसंख्यक समुदायों के लिए और भी बड़े कारण हैं कि ये समान नागरिक संहिता का विरोध करें। अल्पसंख्यक समुदायों पर एक संहिता लादने का भाजपा का हठ वास्तव में इनके प्रति नफरत से ही प्रेरित हैं।

अल्पसंख्यक समुदाय इसे एक और नजरिये से देखते हैं, जिसके जरिये बहुसंख्यक साम्प्रदायिक ताकतें उनके विरुद्ध हिंसा और अपमान का माहौल बनाना चाहती हैं। यह सब कुछ नि:सन्देह राष्ट्रीय एकीकरण के नाम पर हो रहा है। बाबरी मस्जिद को भी यही कारण देकर ध्वस्त किया गया था। हालिया वर्षाे में हिन्दू कट्टरपंथियों ने ही मुस्लिम महिलाओं पर गम्भीर अत्याचार किये हैं। इसलिए यह स्वाभाविक ही है कि हिन्दुत्ववादियों के अचानक उमड़े इस ‘लगाव’ को मुसलमान जनता संदेह की नजर से देखती है। मुस्लिम समुदायों की मुस्लिम महिलाओं की दुर्दशा के प्रति जायज परेशानी का चतुरतापूर्ण इस्तेमाल करके कट्टरपंथी मुस्लिम ताकतें तथा कांग्रेस जैसी शासक वर्ग की पार्टियाँ इस समुदाय के पर्सनल लॉ में कोई भी सुधार किये जाने का विरोध करती हैं। इस प्रकार से हिन्दुत्ववादी यह कटाक्ष करने से बाज नहीं आते जो कहते हैं, “देखो कैसे हैं ये मुसलमान”।

वास्तव में वर्तमान में लागू सभी पर्सनल लॉ पिछड़े तथा महिला–विरोधी हैं। समस्या यह नहीं है कि प्रत्येक समुदाय का अपना अलग पर्सनल लॉ है। जोर इस बात पर होना चाहिए कि सामाजिक प्रगति के हित में तथा महिलाओं के अधिकारों के मद्देनजर पिछड़ेपन को उखाड़ फेंकने पर जोर देना जरूरी है।

पर्सनल लॉ शादी, तलाक, बच्चों के संरक्षण, गोद लेने और उत्तराधिकार की परिस्थितियों में कानून तय करता है। हमारी समझ से पर्सनल लॉ यह निर्धारित करता है कि किसी परिवार के बदलते हालात के विभिन्न मोड़ों पर परिवार के भीतर ही सम्पत्ति का बँटवारा कैसे होगा। कहने की जरूरत नहीं कि यह समाज का एक चरित्र है (जो अपने वर्गीय बनावट तथा अपने शोषणकारी तरीकों के कारण) और इसलिए राज्य का चरित्र है (जो अपने अन्तिम विश्लेषण में कानूनी तथा दमनकारी मशीनरी से वर्गों व सामाजिक संरचना को सुनिश्चित करता है) में  इस पर्सनल लॉ की निगरानी करने की गांरटी देता है।

इस प्रकार पर्सनल लॉ परिवार, निजी सम्पत्ति तथा राज्य की विशिष्ट व्यवस्था के ढाँचे के भीतर काम करता है। कहने का मतलब यह है कि ऐसी प्रतिक्रियावादी राजसत्ता किसी भी प्रकार के प्रगतिशील पर्सनल लॉ की गारण्टी नहीं कर सकती है। राज्य महज इतना कर सकता है कि वह विभिन्न समुदायों के बीच उनके पर्सनल लॉ के जरिए फूट डाल दे। अंग्रेजों ने ऐसा ही किया था–– उन्होंने उन्नीसवीं सदी के बाद कानून और व्यवस्था तथा परिवार के बाहर निबटाये जाने वाले सम्पत्तिगत मसलों पर एक सामान्य नागरिक संहिता लागू कर दी। परन्तु उन्होंने पर्सनल लॉ का अधिकांश हिस्सा धार्मिक समुदायों के लिए रखा–– यानि अलग–अलग सामन्तवादी धार्मिक संस्थाओं के जिम्मे छोड़ दिया। इस प्रकार अंग्रेजों ने इन समुदायों को और अधिक पिछड़ा और छिन्न–भिन्न कर दिया, जिनमें धर्म निरपेक्षता विरोधी शक्तियों का भी संकीर्णता भरा हस्तक्षेप होता है। इस प्रकार पिछड़े व बिखराव के शिकार पर्सनल लॉ एक जनवादी विकल्प न होकर औपनिवेशिक राज्य नीति का एक सचेत तत्व है। साम्प्रदायिकता आज की शासक वर्गीय नीति तथा इसी प्रकार राज्य की नीति बन गयी।

स्वाभाविक रूप से, हम महिलाओं को जो कि कामगार आबादी का आधा हिस्सा बनती हैं, एक सच्चे अर्थों में प्रगतिशील, समान रूप से विकसित तथा जनवादी तरीके से स्थापित नागरिक संहिता की आवश्यकता है, जो सभी प्रतिक्रियावादी परम्पराओं को समूल नष्ट करके महिलाओं को पुरुषों के समक्ष बराबरी से खड़ा कर सके।

लेकिन हमारी इस आकांक्षा का तब तक कोई महत्व नहीं है, जब तक कि पुरुषों की बहुसंख्यक आबादी को वास्तविक अर्थों में आर्थिक व भौतिक अधिकार न मिल जाये। ऐसे पुरुष की बराबरी का मायने क्या हो सकता है जब खुद ही पुरुष भूखे, बेरोजगार और जीवन की किसी भी सुरक्षा से वंचित हैं और यहाँ तक कि उन्हें जघन्य साम्प्रदायिक–नरसंहार का शिकार बनाया जाता है।

ऐसे में यदि ऐसी कोई संहिता संविधान के ऊपर कृत्रिम ढंग से थोप भी दी जाये तो उसका हमारी जिन्दगियों पर बेहद मामूली प्रभाव पड़ेगा। आज अदालतें आश्चर्यजनक रूप से महँगी हैं, अफसरशाही के पीठ पर सवार हैं तथा समय खपाने वाली हो गयी हैं। जज खुद पुरुष–प्रधान मानसिकता के शिकार हैं और बाकी सारी संस्थाएँ खुद में प्रतिक्रियावादी हैं, फिर ऐसे में यदि कुछ महिलाएँ जो आदर्श कानूनी दाँव–पेंचों से परिचित हो भी जायें (जैसी कि वे अभी नहीं हैं) तो भी उनमें से अधिकांश महिलाएँ अदालतों तक नहीं पहुँच पायेंगी (जैसा कि वे आज भी हैं)। कानून को कौन लागू करेगा? ये अफसरशाही या फिर ये कानूनी मशीनरी?

हमें परिकल्पनाओं की जरूरत नहीं है। तथ्य यह बताते हैं कि यहाँ तक कानून कि मौजूदा ‘प्रगतिशील’ विशेषताएँ लागू नहीं हो पाती हैं, जब कोई ताकतवर प्रतिक्रियावादी सामाजिक संस्था ऐसा चाहती है। भारत के मानवीय (नृ–विज्ञान) सर्वेक्षण विभाग ने एक बार फिर इस बात को सही ठहराया है, जिसे पिछली जनगणना के आँकड़ों ने चिन्हित किया था–– हिन्दू पुरुषों में बहुविवाह की प्रवृत्ति मुसलमानों से अपेक्षाकृत अधिक है। विधवा पुनर्विवाह को 1856 में कानूनी रूप दिया गया, विशिष्ट विवाह अधिनियम को अन्तर सामुदायिक, अन्तरजातीय विवाह करने की मंजूरी देने के लिए 1872 में स्वीकृति मिली और कन्या भ्रूण हत्या को 1870 में अपराध का दर्जा मिला। इसके बावजूद विधवा पुनर्विवाह और अन्तरजातीय शादियाँ भारत के अधिकांश भागों में बहुत ही कम प्रचलन में हैं तथा कन्या भ्रूण हत्या तो एक बड़े पैमाने पर मौजूद है।



सामाजिक आचार संहिता के प्रगतिशील मानदण्डों को कौन लागू कर सकता है?

यह हमें तीसरे बिन्दु पर ले आता है। हम सामाजिक रिवाजों के उत्तरोत्तर प्रगतिशील मानदण्डों को तब तक लागू नहीं कर सकते, चाहे संविधान कुछ भी कहता हो? जब तक हमारे अपने जन–संगठन और खास तौर पर मेहनतकश औरतों के संगठन, हमारे अपने सामूहिक प्राधिकार का जरिया न बन जाएँ, जैसा कि हम जानते हैं, यह केवल वर्ग संघर्ष के जरिये ही हो सकता है। और वास्तव में आम जनता के कई बड़े आन्दोलन हमें यह सिखाते हैं कि कैसे ऐसा सामूहिक प्राधिकार व्यवहार में स्थापित हो सकता है। सच्चाई यह है कि धर्म निरपेक्ष संघर्षाे की सफलता के लिए औरतों का सामाजिक रूप से स्वतन्त्र होना जरूरी है। और औरतों की यह स्वतन्त्रता तथा समानता केवल तभी उत्तोरोत्तर सुनिश्चित हो सकती है जब संगठित संघर्ष के जरिये हमारे जन संगठनों को ऐसा सामूहिक प्राधिकार हासिल हो।

नि:संदेह, सामाजिक रिवाजों के प्रगतिशील मानदण्डों को समग्रता में संस्थाबद्ध करने के लिए जनता की राज्य सत्ता स्थापित होने तक इन्तजार करना पड़ सकता है क्योंकि वही जनता के सामूहिक अधिकार का सर्वाेच्च रूप होगा। लेकिन ऐसे मानदण्डों का विकास और व्यवहार अभी से शुरू करना होगा, क्योंकि हम भी अपने संगठित संघर्ष के दौरान यह सीखते हैं कि महिलाओं को संघर्ष में समान हैसियत पाने के लिए किन तरीकों से स्वतन्त्र करना जरूरी होता है। हमें यह सीखना होगा कि महिलाओं के भीतर आत्म सम्मान की भावना पैदा करने के लिए कौन से व्यवहार लागू करने पड़ेंगे। यह भी सीखना होगा कि उनके भीतर रचनात्मकता तथा जुझारू क्षमता को कैसे बंधनमुक्त किया जायेय यह भी सीखना जरूरी है कि महिलाओं व पुरुषों के भीतर अपने जन–संगठनों के लिए सुनियोजित सुसंगठित प्राधिकार किस प्रकार प्राप्त किया जा सकता है। यह एक ऐसे प्रगतिशील मानदण्डों का समुच्चय होगा, जिसमें लगातार समीक्षा और सुधार की दरकार होगी, हालाँकि यह किसी खास समाज में जनता के जन संगठनों के पहुँचने की सीमा से तय होगा।

दूसरे शब्दों में, यह प्राधिकार नौकरशाही ढंग से थोपा गया न होकर कार्यशील जनवादी जनसंगठनों का प्राधिकार होगा, जो ऐसी आचार प्रणाली को जनवादी ढंग से स्थापित करेंगे। चूँकि हमारे जनसंगठनों का लक्ष्य अपनी अन्तर्वस्तु में धर्मनिरपेक्ष है, इसलिए बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक दोनों के ही द्वारा एक आम सहमति वाले नियमों के समूह की आचार संहिता को लागू किया जायेगा जो वस्तुगत रूप से महिलाओं को स्वतन्त्र करेंगे। इस प्रकार किसी एक समुदाय द्वारा दूसरे पर मनोगत रूप से अपने नियमों को थोपने की समस्या का हल हो जायेगा।

हमारे देश के विभिन्न समुदायों के बीच के सम्बन्धों का सवाल तथा महिलाओं के अधिकारों का सवाल दोनों ही जनवादी सवाल हैं। इन सवालों को जनवादी आन्दोलनों (जिसमें महिलाओं का आन्दोलन भी शामिल होगा) द्वारा बहसों तथा साझा संघर्षाे द्वारा हल किया जा सकता है। प्रतिक्रियावादी और उलझाव भरे विचारों वाली वर्गीय पार्टियाँ, जो शोषण को जारी रखना चाहती हैं, इस कार्यभार को सकारात्मक ढंग से छू भी नहीं सकती हैं।

   महिला पक्षधर ताकत होने के नाते हमारे नारे इस प्रकार होने चाहिए––

हिन्दू कट्टरपंथियों द्वारा प्रायोजित समान आचार संहिता का पुरजोर विरोध करो।

महिलाओं के अधिकारों (पर्सनल लॉ समेत) को विस्तारित करने के लिए महिलाओं के संघर्षों का सहयोग करो।

महिला संगठनों समेत आम जनता के संगठन बनाओ, जो एक सामूहिक प्रतिनिधित्व का केन्द्र हो और जिनके जरिये सभी समुदायों की मेहनतकश महिलाएँ अपने अधिकारों को हासिल कर उनकी हिफाजत कर सकें।

भारतीय समाज के न्याय और समता पर आधारित पुनर्निर्माण के हिस्से के तौर पर महिलाओं की चैतरफा बराबरी की हैसियत को स्थापित करने के लिए सभी समुदायों के आम मेहनतकश पुरुषों के साथ एकता–संघर्ष–एकता के तौर तरीके को अपनाओ।

साथियो, मैं आपके निमंत्रण का धन्यवाद अदा करना चाहती हूँ। मैं उम्मीद करती हूँ कि भारतीय समाज के समतामूलक पुनर्निमाण के इस महान कार्यभार को पूरा करने के लिए नये रास्ते की तलाश में महिलाओं की यह जनवादी शक्ति अपना पूरा जोर लगा कर संघर्ष करेगी।

अनुवाद : जया पाण्डे

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