जब हम मार्च करती हुई आती हैं,
मार्च करती हुई, दिन के सौन्दर्य में
दस लाख अँधेरी रसोइयाँ, हजार धूसर मिलें
उजाले से जगमगा जाती हैं,
मानो अचानक सूरज निकल आया हो
लोग हमें अपने लिए गाते सुनते हैं--
“रोटी और गुलाब! रोटी और गुलाब!”
जब हम मार्च करती हुई आती हैं,
मार्च करती हुई, हम पुरुषों के लिए भी लड़ती हैं
क्योंकि वे उन महिलाओं के बच्चे हैं
जिनका ऋण उतारना है
जन्म से मृत्यु तक
हमारा जीवन पसीने से तर होकर बर्बाद नहीं होगा
जिस्म की तरह दिल भी भूख से मर रहा है
हम रोटी चाहते हैं, और गुलाब भी
जब हम मार्च करती हुई आती हैं,
मार्च करती हुई, अनगिनत औरतें मर गयीं
रोटी के लिए उनकी उस चाह की खातिर
हम गाकर रोती हुई मार्च करती हैं
उनकी परिश्रमी आत्माएँ जानती थीं
छोटी-छोटी कला, प्रेम और सौंदर्य को
हाँ, रोटी ही है जिसके लिए हम लड़ती हैं
लेकिन हम गुलाब के लिए भी लड़ती हैं
जब हम मार्च करती हुई आती हैं,
मार्च करती हुई, हम महान दिनों को लाती हैं
महिलाओं का उठ खडा होना,
पूरी इंसानियत का अंगडाई लेना है
वैसी बेगारी और निकम्मापन अब और नहीं
जहाँ दस लोग खटते हैं और एक मजा लूटता है
जीवन की गरिमा वाले महान दिनों के लिए
रोटी और गुलाब! रोटी और गुलाब!
1911 में जेम्स ओपेनहाइम की यह कविता अमेरिकी पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। यह कविता महिला अधिकारों के लिए चलाए गये आन्दोलन की याद दिलाती है। 1912 में लॉरेंस टेक्सटाइल मिल की हड़ताल के दौरान, वेतन में कमी के विरोध में मिल की महिला कार्यकर्ताओं ने इस कविता को अपने बैनर पर अंकित कर दिया था, "हम रोटी चाहते हैं, और गुलाब भी"।
अनुवाद – विक्रम प्रताप
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