Thursday, April 22, 2021

पर्यावरण और नारीवाद




जीवन, प्रकृति, पृथ्वी, पर्यावरण पारिस्थितिकी कोई भी एक नाम लो, स्त्रीत्व की गूँज सुनाई देती है। इसी तरह पालन, पोषण, प्यार, करुणा और सहानुभूति आदि मानवीय गुण भी स्त्रीत्व के बोधक होते हैं। शुरू से ही माना जाता रहा है कि पुरुषों की तुलना में औरतें प्रकृति के ज्यादा करीब होती हंै। जब भी पर्यावरण के क्षरण और प्राकृतिक संसाधनों के अनुचित और अन्यायपूर्ण दोहन की बात होती है तो सवाल यह उठता है कि कौन इससे सबसे ज्यादा प्रभावित होता है? इसका जवाब भी तुरन्त हाजिर हो जाता है– सदियों से दमित समुदाय, और जब भी दमित समुदाय की बात हो तो औरत सबसे पहले स्थान पर होती है। पर्यावरण विनाश और औरतों पर पुरुषों के प्रभुत्व दोनों की वजह भी एक सी ही हैं, वह है पितृसत्ता और पूँजीवाद।
दो सौ सालों के उपनिवेशवाद और पूँजीवाद के वर्चस्व के चलते ही हम आज इस हालत में पहुँचे हंै, इसी के कारण हम पर्यावरण सम्बन्धी तमाम समस्याएँ झेल रहे हैं। हालाँकि औद्यौगिकरण के चरम के साथ औरतों ने सामाजिक कल्याण, शिक्षा, स्वास्थ्य और समानता के लिए कई संस्थाओं और आन्दोलनों को जन्म दिया और उन्हें पनपाने में अपनी पूरी ऊर्जा खपाई है।
सन् 1970 में फ्रांस की फेमिनिस्ट फ्रेंकोइस द युबों ने सबसे पहले पर्यावरण और औरतों के परस्पर सम्बन्ध को एक नाम दिया– इको फेमिनिज्म। जिसने एक आन्दोलन का रूप लेकर सहज ही इस ओर लोगों का ध्यान आकर्षित किया।
पर्यावरण स्त्रीवाद यानि इको फेमिनिज्म के अनुसार स्त्री और पर्यावरण पारिस्थितिकी के बीच एक अटूट सम्बन्ध है क्योंकि दोनों ही पितृसत्ता और पूँजीवाद के शिकार हैं। 
समाज की रचना के क्रम में पितृसत्तात्मक मूल्यों के प्रभुत्व को स्थापित किया गया। इको फेमिनिज्म के अनुसार, संसार के सभी दमित समुदाय अगर संगठित होकर सामाजिक पदानुक्रम (हेरार्की) को तोड़ सकें तो एक नये समावेशी समाज का निर्माण हो सकता है। अफसोस तो यह है कि मानव जाति पर्यावरण को ठीक उसी तरह नियन्त्रित करना चाहती है जैसे पितृसत्ता स्त्री जाति को करती है, वैसे ही जैसे अमीर गरीबों पर और गोरी चमड़ी वाले लोग काले भूरे लोगों को हीन मान कर उनपर अपनी श्रेष्ठता का अभिमान जताते हैं।
पर्यावरण स्त्रीवाद के अनुसार समाज में औरतों के साथ जो व्यवहार किया जाता है, ठीक वैसा ही मनुष्य जाति प्रकृति के साथ करती है, यही नहीं, पाश्चात्य दर्शन और यहाँ तक कि विज्ञान ने भी औरतों को पुरुषों से कमतर आँकने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। सोचने का यह दमनकारी नजरिया पूर्णत: पूर्वाग्रह ग्रसित था। स्त्री और प्रकृति के ऊपर प्रभुत्व ने समाज में हेरार्की को स्थापित किया। मूल्यों का यह दोगलापन ही स्त्री और पर्यावरण की बुरी दशा का जिम्मेदार है। खासकर तीसरी दुनिया के देशों में जहाँ औरतें ही घर की मुख्य संग्राहक होती हैं, उन्हें र्इंधन और पानी के लिए तथा अन्य बुनियादी जरूरतों के लिए घोर श्रम करना पड़ता है, जो पर्यावरण के विनाश का सर्वाधिक दुष्प्रभाव झेलती हैं, जबकि वह घरेलू प्रबन्धन की कर्ता–धर्ता होने के कारण कृषि, जल, जंगल, जमीन और घरेलू अर्थशास्त्र के आपसी सम्बन्ध को अच्छी तरह समझती हैं। 
एक अध्ययन के हिसाब से किसी भी इलाके के पुरुषों की अपेक्षा वहाँ की औरतें वहाँ के क्षेत्रीय पेड़–पौधों की पहचान करने और उनका प्रचलित नाम बताने में ज्यादा सफल रही हैं। पहचान की यह क्षमता उन्हें उनके उत्तरदायित्वों के निर्वहन से मिली है। 
पश्चिमी और अमीर देशों में भी गरीब लोग रेडियोएक्टिव कचरे के जहरीले साये में जीने को मजबूर हैं। लिंगभेद, रंगभेद जातिभेद, वर्गभेद ने यहाँ तक कि प्रजातिभेद ने जाने–अंजाने मनुष्यता का गला घोंटने में कोई कसर नहीं छोड़ी है।
इको फेमिनिज्म जैसा कि उसके नाम से जाहिर होता है, फेमिनिस्टों की पर्यावरण के प्रति चिन्ता मात्र नहीं है, बल्कि यह एक व्यापक और गहरी चेतना से ओतप्रोत आन्दोलन है। जहाँ एक ओर यह पितृसत्तात्मक व्यवस्था के दायरे में मौजूद लिंग भेद को खत्म करने की और एक नयी व्यवस्था की वकालत करता है, वहीं दूसरी ओर न सिर्फ मनुष्य जाति बल्कि पृथ्वी पर मौजूद समस्त प्राणियों जीव–जन्तु और पेड़–पौधे के अस्तित्व की रक्षा के लिए निरन्तर संघर्ष की भी हिमायत करता है, अपने अलग–अलग विभिन्न गुणों क्षमताओं के कारण जिन भी प्रजातियों का लगातार दोहन और शोषण किया जाता है, उन्हें अस्तित्व के संकट से उबारा जाए तभी प्रकृति में सन्तुलन बना रहेगा और पृथ्वी पर आसन्न संकट टल सकेगा।
इसी तरह इस पितृसत्तात्मक व्यवस्था में जबतक नेतृत्व में औरतों की भागीदारी कम होगी और स्वतंत्र निर्णय लेने की क्षमता का विकास नहीं हो जाता तब तक समानता की बात करना बेमानी है।
समानता के लिए संघर्ष और पूरे दमित समुदाय को उसके अधिकारों के लिए जागृत करने के साथ–साथ समाज का मूल्यांकन करते हुए यह भी जानना जरूरी है कि आखिर हम ऐसे क्यों हैं?
क्या हम वास्तव में पर्यावरण की चिन्ता करते हैं? क्या हम इसकी रक्षा के लिए अपनी आदतों में बदलाव ला सकते हैं, या फिर सुविधा–भोगी बनकर मात्र नारे लगा कर ही अपना कर्तव्य पूरा हुआ मान लेते हैं?
क्या हम वास्तव में लिंग भेद जैसे कुविचार को घृणित और मनुष्यता के खिलाफ समझते हैं, या फिर आधुनिक न कहलाए जाने के डर से बस ऊपरी तौर पर इसका समर्थन करते हैं? 
क्या हम पृथ्वी पर मौजूद सभी जीव–जन्तु, पेड़–पौधों के जीने के अधिकार और अस्तिव बचाने की जद्दोजहद के प्रति थोड़ा सा भी संवेदनशील हैं? या फिर हम इस पृथ्वी को वीर–भोग्या–वसुन्धरा मानकर शक्तिशाली और स्वार्थी मनुष्यों के हाथ का खिलौना बनने देंगे? इस तरह के अनेक सवाल आज हमारे सामने खड़े हैं जिनका हल इको फेमिनिज्म के मतानुसार जीवन के प्रचलित मूल्यों में बदलाव से सम्भव है। 
आक्रामक तौर तरीकों, शक्ति के दुरुपयोग, दमन करने की प्रवृति जैसे नकारात्मक मूल्यों के स्थान पर अहिंसात्मक व्यवहार, परस्पर सहयोग, देखभाल, रख–रखाव और सतत विकास जैसे मूल्यों को समाज में स्थापित किया जाना चाहिए। जो भी व्यक्ति इन मूल्यों पर विश्वास रखता है, वह इकोफेमिनिस्ट है। इस तरह यह विचार पूर्णत: किसी भी तरह के भेद को अस्वीकार करता है, और दमित–शोषित तथा वंचितों के पक्ष में दृढ़ता पूर्वक अपनी एक स्पष्ट सोच रखता है।
 पर्यावरण नीतिविद क्रिस कुओमो के अनुसार दमित समुदाय एक–दूसरे के साथ कटिबद्ध होकर खड़ा रहे तो ये समस्या काफी हद तक सुलझाई जा सकती है। वह तो स्त्री के प्रकृति के करीब होने को एक सांस्कृतिक मिथ मानती हैं, और इसे सामाजिक पक्ष से जोड़ती हैं। उनके अनुसार समाज द्वारा प्रदत्त कार्य ही उन्हें प्रकृति के तौर तरीकों को समझने में और मनुष्य के प्रकृति से जुड़ाव को बेहतर तरीके से समझने में कारगर साबित हुआ है। स्त्रियाँ प्रकृति पर हमारी भौतिक निर्भरता और उसकी शक्ति को बखूबी समझती हैं। समाज ने उसके हिस्से जो काम उसे सौंपे हैं उन्हीं की वजह से एक खास किस्म की संवेदनशीलता और सहानुभूति उसके अन्दर संचारित हुई है, वह नैतिक ज्ञान उसे अपने स्त्री शरीर की वजह से नहीं बल्कि उसके स्त्री शरीर को दी गई जिम्मेदारियों की वजह से मिला है। इसका एक महत्वपूर्ण उदाहरण सन् 1973 में उत्तराखण्ड का चिपको आन्दोलन है, जब सुदूर पहाड़ की ग्रामीण स्त्रियों ने पेड़ों से चिपक कर कॉमर्शियल प्रयोग के लिए जंगल कटने से बचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। 
अमेरिका की नेटिव औरतों ने अपनी जमीन पर यूरेनियम के रेडियोएक्टिव कचरे को डम्प किए जाने का विरोध किया।
सन् 1977 में केन्या की महिलाओं ने वंगरी मथाई के नेतृत्व में लाखों पेड़ लगाकर मरुस्थलीकरण को रोकने के लिए संघर्ष किया था, जिसे ग्रीन बेल्ट मूवमेंट के नाम से जाना जाता है। 1980 में हार्लेम की औरतों ने बंजर खाली जगहों पर सामुदायिक बगीचे लगाकर एक ग्रीन मॉडल की शुरुआत की जो धीरे–धीरे अमेरिका के डेट्रॉयट शहर से अन्य स्थानों पर भी पहुँच गया, जिन्हें गार्डेनिंग एंजेल्स के नाम से जाना जाता है।
अलग–अलग देशों और संस्कृतियों की हजारों औरतों ने जल प्रदूषण, भूमि क्षरण, वनों की कटाई, और मरुस्थलीकरण के खिलाफ रियो द जेनेरियो के अर्थ समिट साल 1992 में भाग लेकर अपनी आवाज बुलन्द की।
हाल ही में ओडिशा की महिलाओं ने जल, जंगल और जमीन को बचाने की मुहिम चलाई है। 
स्वीडन की 18 वर्षीय लड़की ग्रेटा थनबर्ग का पर्यावरण प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन के खिलाफ संघर्ष बहुत उम्मीदें जगाने में कामयाब रहा है। 
 एक ओर तो पूरी दुनिया में बुनियादी स्तर (ग्रास रूट) पर पर्यावरण और स्त्रियों के जीवन को लेकर एक राजनैतिक समझ विकसित हुई है।  वहीं दूसरी ओर समाज में निरन्तर बढ़ती आक्रामकता, धार्मिक कट्टरता, दूसरों से घृणा, अनियन्त्रित उपभोग की प्रवृति, तथा प्रदर्शनप्रियता के कारण समाज के नैतिक मूल्यों का भी बुरी तरह ह्रास हुआ है, जिसके कारण स्त्री जाति पर क्रूरता और बलात्कार की घटनाओं में भयंकर वृद्धि हुई है।
कुल मिलाकर कहा जाए तो हम जिस संकट के दौर से गुजर रहे हैं, उससे मुक्ति पाने के लिए और भी ज्यादा प्रयासों की सख्त जरूरत है। ऐसे में इको फेमिनिज्म की प्रासंगिकता और भी बढ़ जाती है।
आज जब हम क्लाइमेट एमरजेंसी का सामना कर रहे हैं, हमारी धरती और उसके बाशिन्दों के अस्तित्व पर खतरा मंडरा रहा है, ऐसी परिस्थिति में समस्त दमित समुदाय को एकजुट होकर इस धरती को बचाने में अपना योगदान देना ही होगा वरना बहुत देर हो जायेगी।
-उषा नौडियाल

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