Thursday, March 7, 2013

8 मार्च, अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस पर एक पर्चा



(यह पर्चा हमारी सहेलियों ने भेजा है जो महिलाओं के बीच चेतना और जागरूकता लाने के लिए सक्रिय हैं.)

अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस पर आयोजित विचार गोष्ठी और सांस्कृतिक कार्यक्रम में शामिल हों!

बहनो,


8 मार्च औरतों के सामूहिक संघर्ष की एक शानदार यादगार है । आज से ठीक 103 साल पहले 1910 में कोपेनहेगन में हुए अन्तराष्ट्रीय महिला सम्मेलन में क्लारा जेटकिन ने इस महान दिन को अन्तरराष्ट्रीय दिवस के रूप में मनाने का प्रस्ताव रखा था । 8 मार्च, 1857 को न्यूयार्क की कपड़ा फैक्ट्री में महिला मजदूरों ने संगठित संघर्ष की शानदार मिशाल पेश की थी । इस ऐतिहासिक संघर्ष में कामगार महिलाओं की माँगें थीं– काम के घंटे घटाकर 10 घंटे किये जायें, काम की स्थितियाँ सुरक्षित हों तथा लिंगभेद, नस्लभेद, संपत्ति या शैक्षिक योग्यताओं को आधार  बनाये बिना ‘सार्विक मताधिकार’ की बहाली हो । संघर्ष की उसी परम्परा को याद करते हुए 17 देशों से आयी लगभग 100 महिला प्रतिनिधियों ने सर्वसहमति से यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया ।

इन महिला मजदूरों के संघर्ष से प्रेरणा लेकर दुनिया भर में औरतों ने राजनीतिक व कानूनी अधिकार हासिल करने के लिये खुद को संगठित करने की कोशिशें तेज की । इसके लिए महिलाओं ने असंख्य कुर्बानियाँ दीं । समाज की जकड़बंदियों से जूझते हुए जीवन के हर क्षेत्र में अपनी जगह बनायी और हमारे लिए आगे बढ़ने का रास्ता तैयार किया ।

लेकिन आज इस दिन के गरिमामय इतिहास को लगातार धूमिल किया जा रहा है । जो लड़ाई औरतों के अस्तित्व के संघर्ष के रूप में शुरू हुई थी उसे मात्र एक त्यौहार बना दिया गया है । महिला दिवस के स्वरूप को पूरी तरह बदल दिया गया है । आज इस मौके पर ब्यूटी पार्लर सस्ते दामों पर महिलाओं को खूबसूरत बनाने पर तुल जाते हैं, शॉपिंग मॉलों में तरह–तरह की छूट का प्रलोभन दिया जाता है, क्रीम पाउडर, लाली लिपस्टिक सभी जगह भारी छूट के टैग लगे दिखते हैं । सरकारी गैर–सरकारी संस्थाएँ इस दिन को महज मौज–मस्ती, सैर–सपाटे तक सीमित कर देती हैं । मैट्रो और बसों में इस दिन महिलाओं के लिए यात्रा नि%शुल्क कर दी जाती है । किसी न किसी सरकारी योजना के बोर्ड सड़कों पर लगे दिख जाते हैं । महिला सुरक्षा और महिला सशक्तिकरण के नारे बुलंद किये जाते हैं । फैशनेबुल महिला संगठनों द्वारा सबसे अच्छी गृहणी, सबसे अच्छी माँ जैसी प्रतियोगिताएँ आयोजित की जाती हैं । टीवी चैनलों और पत्र–पत्रिकाओं में कॉरपोरेट महिलाओं के साक्षात्कार छापे–दिखाये जाते हैं । महिला विशेषांक के रूप में घर व परिवार को सुखी बनाने, पति को खुश रखने, कपड़ा सिलने, स्वेटर बुनने या अच्छा खाना बनाने के नुस्खे प्रकाशित किये जाते हैं । भारतीय महिला का गुणगान करते हुए उन्हें सीता, सावित्री, सती के रूप में प्रतिष्ठित करके इस दिन को गुजार दिया जाता है ।

इन आयोजनों में आम महिलाएँ, उनकी समस्याएँ और उनकी जरूरतें गायब रहती हैं । आज महिलाओं की शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और समाजिक सुरक्षा में लगातार कटौती की जा रही है । दहेज हत्या, भ्रूण हत्या, घरेलू हिंसा, यौन हिंसा तथा सम्मान के लिए हत्या जैसी समस्याएँ और भी वीभत्स रूप लेती जा रही हैं । पुरुषवादी समाज में हर पल औरत को उसकी हद समझायी जाती है, प्रेम करने पर सूली पर चढ़ा दिया जाता है।

भारतीय आयुर्विज्ञान संघ (आईएमए) की एक रिपोर्ट के अनुसार देश में हर साल एक लाख महिलाएँ बच्चा पैदा करने के दौरान अपनी जान गँवा देती हैं । खून की कमी की शिकार इन महिलाओं का इलाज दो रुपये की दवा से सम्भव है, लेकिन जागरुकता की कमी के कारण हर रोज 300 महिलाओं की जान चली जाती है । लड़कियों की खरीद–फरोख्त और वेश्यावृत्ति में ढकेलने का बाजार दिन दूनी रात चैगुनी तरक्की कर रहा है । ऐसे में महिला दिवस को और समूचे महिला समुदाय की समस्या को नजरन्दाज करते हुए केवल गिनी–चुनी महिलाओं की सफलता को उछालना तथा इसे रंगारंग कार्यक्रमों और मौज–मस्ती के दिन में बदल देना महिला
संघर्षों की शानदार विरासत का मजाक उड़ाना नहीं, तो भला और क्या है ?

बहनो, यदि आज हम में से कुछ महिलाएँ पढ़ रही हैं, नौकरी कर रही हैं, अपनी समस्याओं का हल ढूँढते हुए आगे बढ़ रही हैं, तो यह हमारी पूर्वज बहनों के लम्बे संघर्षों और कुर्बानियों का ही परिणाम है । आज महिलाएँ पुराने तरीके से जीने से इंकार कर रही हैं । लेकिन यह जरूरी है कि हमारी आँखों में नारी मुक्ति का सपना हो । हमारा मानना है कि नारी मुक्ति का अर्थ है– औरत को एक इंसान के रूप में जीने का हक हो, सामाजिक–आर्थिक जीवन में उसकी बढ़–चढ़ कर भागीदारी सुनिश्चित हो, वह सामाजिक भेदभाव का शिकार न हो, बेसिर–पैर के रीति–रिवाज उस पर न लादे जाएँ, समाज में उसे अपनी पहचान के अवसर मिलें, जीवन के हर क्षेत्र में उसेबराबरी का हक हो ।

इसका मतलब यह बिलकुल नहीं है कि हम पुरुषों के विरोधी हैं और न ही हम परिवार को तोड़ देना चाहते हैं । समानता का अर्थ सिर्फ इतना है कि औरतों को कानूनी, राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, पारिवारिक क्षेत्र में बराबरी का हक हो । बहनो, हमारी तमाम समस्याओं का एक ही हल है । आओ, हम खुद मिलकर अपने बारे में सोचें । कुछ न कहने और सब कुछ सहन करते जाने का ही नतीजा है कि हमें दूसरों के हाथ का खिलौना बना दिया गया है । ऐसे में आगे बढ़ी हुई महिलाओं का यह दायित्व बन जाता है कि वे केवल व्यक्तिगत स्तर पर अपनी बेहतरी का प्रयास न करके सामूहिक स्तर पर भी संघर्ष को आगे बढ़ायें । हमें मिलकर सही–गलत का फैसला खुद करना होगा । समाज में व्याप्त पुरुषवादी मानसिकता से लड़ते हुए हमें नारी मुक्ति
की लड़ाई में भाग लेना होगा ।

यह सच है कि महिलाएँ अपनी प्रतिकूल परिस्थितियों में भी मुक्ति की राह पर चल पड़ी हैं, लेकिन संगठित समाज की चुनौतियों से अकेले–अकेले नहीं लड़ा जा सकता इसीलिए हमें एकजुट होकर अपनी मुक्ति के रास्ते पर कदम आगे बढ़ाने की जरूरत है । नारी चेतना पुस्तकालय इसी प्रयास में एक शुरूआत भर है । हम उन सभी महिलाओं का आह्वान करती हैं, जिन्हें जैसे–तैसे, घिसट–घिसट कर जिन्दगी गुजारना पसंद नहीं । चेतना और संगठन के बल पर ही हम अपनी हालात बदल सकती हैं ।

नारी चेतना पुस्तकालय
शाहदरा






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