कम्प्यूटर पर क्लिक करते ही
उग आते हैं किसी बड़े आर्किटेक्ट के
ग्राफिक्स
काले स्क्रीन पर संतरी-हरी-नीली-पीली
मुर्दा रेखाओं के साथ खड़े हो जाते
हैं अपार्टमेन्ट
बेडरूम, डिजाइनर टॉयलेट
और मोडयुलर किचेन के साथ
ठीक उसी समय
वहीँ-कहीं छीन जाता है कोई गाँव, कोई
क़स्बा या फिर कोई शहर पुराना....
रहने लगता है वहां कोई नया शहर
दे दिया जाता है उसे
कोई नया नाम...
मसलन, नोएडा, वैशाली, गुडगाँव,
निठारी वगैरह वगैरह....
चमचमाते कांच वाले अजीब किस्म के “कारखाने”
आसमान छूती इमारतें
आठ लाइनों वाले राजपथ
टोल-टैक्स बूथ
सैंडी और कैंडी से भरे कॉल सेंटर,
इन सबके बीच छितराने लगती है ऑक्सीज़न
और सभ्यता किसी ठंडी कब्र में छुप
जाती है
तेज़ रफ़्तार गाड़ियों
जगमगाते शौपिंग माँल
गमकते फ़ूड कोर्ट
शोर मचाते डिस्को के बीच
सांय-सांय गूंजती है
एक ठंडी डरावनी चुप्पी .......
ध्यान दें, ध्यान दें तो इस चुप्पी
में पार्श्व संगीत की तरह बजती रहती है
एक चीख
जो उठती है किसी कॉल सेंटर के पास
रात दो बजे,
बन रही किसी इमारत की एक सौ बीसवीं
मंजिल से,
किसी एक्सप्रेस हाइवे के सूने से मोड़
से,
या फिर, किसी एयर-कंडीशंड कार की
पिछली सीट से.
ये चीख अब बम्बई की भीड़ भारी लोकल
ट्रेन
पूना के किसी क्लब के स्वीमिंग पूल
या दिल्ली की भीड़ भरी बस
या फिर महरौली के किसी फ़ार्म हाउस से भी आती
है......
बाकी हमारे –आपके घरों से
चीख नहीं आती है,
बस आती है एक घुटी सी आवाज़ ....
बल्कि यूं कहें की गले में घों-घों और
चुप्पी के बीच की सी आवाज़
जिसमें फर्क आपको खुद ही करना होता है
और समझना होता है आँख के नीचे
उभर आये काले धब्बों
डूबती हंसी और
घर में तारी मुर्दा खामोशी को...
अगर आप गौर से सुनें तो शहरों और गांवों के ऊपर
और क्षोभमंडल के बीच
ऊपर टगी इस चीख में
शामिल होती हैं गलियों और मोहल्लों से आती चीख
भी
जिनसे मिलकर बनता है
चीख का मौन पार्श्व-संगीत.
अगर आप देश की राजधानी दिल्ली में हैं तो
शायद आपको सुनाई न दे
या फिर शायद बड़ा जोर लगाना पड़े सुनने में
कई और चीखें ......
जो दूर, कहीं बहुत दूर से आती हैं
जिसके बिना पूरा नहीं होता चीख का यह
ऑर्केस्ट्रा
मौन का यह पार्श्व संगीत .....
यह चीख आती है बिहार के धूल उड़ाते
किसी दक्खिन टीले से
या फिर बस्तर या उड़ीसा के आदिम गाँवों से.....
एक सिसकी आती है पंजाब के एन आर आई घर से..
अहिल्या के घर से उठी यह चीख
कितने ही युगों गुज़रती ....
कभी मद्धम, तो कभी द्रुत आरोह-अवरोह से करती है
पार्श्व संगीत को और भी उदास....
लोग कहते हैं की इस पार्श्व संगीत में बजता है
दुनिया का सबसे बड़ा साज़
जिसमे हर वर्ष जुड़ते हैं नब्बे हज़ार तार...
लोग यह भी कहते हैं की जब कोई साज़
बहुत दिन बज जाता है,
तब,
टूटने लगते हैं उसके तार...
तब, टूटने लगते है उसके....
हृदयस्पर्शी...मार्मिक अभिव्यक्ति...
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