Friday, March 8, 2013

समाज को लड़कियों के रहने लायक बनाओ


एक लडकी मर गयी..!
तो क्या हुआ...?
रोज़ लड़कियां मरती हैं. ..!!
नहीं, हम उस लडकी की बात कर रहें हैं जो 16 दिसम्बर की रात को हैवानियत का शिकार हुयी. यह वह लड़की थी जिसे देश की राजधानी दिल्ली में छ: वहशी लोगों के द्वारा रौंद डाला गया.
आप सब पिछले 12-14 दिनों से सुन पढ़ रहे होंगे कि एक लड़की पहले दिल्ली और फिर सिंगापुर के एक अस्पताल में ज़िन्दगी और मौत के बीच झूल रही थी और आखिरकार 28-29 दिसम्बर की रात को उसने दम तोड़ दिया. मीडिया के माध्यम से हम इस लड़की को दामिनी के नाम से जानते है. जो कुछ दामिनी ने झेला उसके समक्ष बलात्कार शब्द बहुत छोटा पड़ जाता है.
  दामिनी पहली लड़की नहीं थी, और दामिनी आखिरी लड़की भी नहीं है. न जाने
कितनी दामानियाँ रोज़ लुटती-पिटती दम तोड़ देती हैं.
  पिछले कुछ दिनों से दिल्ली में उथल-पुथल मची हुई है. 16 दिसंबर को तेईस वर्षीय पारा-मेडिकल छात्रा के साथ हुए जघन्य सामूहिक बलात्कार के बाद सिर्फ दिल्ली में ही नहीं, कलकत्ता, बम्बई, बंगलौर या फिर छोटे-बड़े बहुत सारे शहरों में लोगों का गुस्सा फूट पड़ा. इसकी तुलना कुछ हद तक 1970 के दशक में ‘मथुरा बलात्कार कांड’ के बाद पूरे देश में फैली महिला आन्दोलन की लहर से की जा सकती है, जिसने हमारे देश में नारी मुक्ति आन्दोलन को नयी ऊँचाई तक पहुँचाने में अहम भूमिका निभाई थी. लेकिन ऐसा पहली बार हुआ कि महिलाओं से जुड़े किसी मुद्दे पर पहली बार लोग इतने मुखर रूप में  राजधानी की सड़कों पर उतर आये. नौजवान लड़के-लड़कियों ने पुलिस की लाठियों, आंसू गैस के गोलों और कड़ाके की ठण्ड में पानी की बौछारों का सामना करते हुए, अपने-अपने तरीके से गुस्से का इज़हार किया. लडकियों का गुस्सा बाँध तोड़ कर फूट पड़ा. ज़ाहिर है कि हर एक लड़की को अपनी ज़िन्दगी में कभी न कभी भोगे हुए अपमान का दंश बलात्कार की शिकार लड़की के साथ एकमएक हो गया. गुस्से में किसी ने कह की बलात्कारी को फांसी की सजा दो, तो किसी ने उसे नपुंसक बनाने की माँग की. वर्षों हि नहीं, सदियों से संचित गुस्से का लावा जब फूटता है, तो कोई भी समूह ऐसी ही बात करता है. भावना विवेक पर भारी पड़ना लाजिमी हो जाता है.
      समय आ गया है, जब हमें लड़कियों और औरतों के खिलाफ मर्दवादी घृणा और हिंसा से जुड़े मुद्दों को बहुत ही गंभीरता से लेना चाहिए. भारतीय समाज बहुत सारे समाजों से बिलकुल भिन्न है. वास्तव में यह विरोधाभासों का संगम है. एक तरफ धुर आधुनिकता दिखाई देती है, तो दूसरी तरफ बेहद पिछड़े मध्यकालीन मूल्य. मनुस्मृति और दुसरे धर्मग्रंथों में हज़ारों साल पहले स्त्रियों के बारे में जो पुरुषवादी मूल्य-मान्यताएं और विधि-निषेध दिल और दिमाग में बैठाए हैं, वो मौका पाते ही बेहद हिंसक और वीभत्स रूप फूट पड़ते हैं. पीढी दर पीढी इसे बाल जीवन घुट्टी की तरह पिलाया जाता है. परिवारों में अगर दो लैंगिक रूप से भिन्न बच्चे होते हैं तो एक को औरत की तरह ढाला जाता है और दूसरे को मर्द के रूप में. उनकी मानसिकताएं, सपने, अपेक्षाएं, हावभाव, और अभिरुचियाँ भी अलग-अलग होती हैं. उनके लिए शरीर और इज्ज़त-आबरू के मायने भी अलग-अलग होते हैं. माँ-बहन की गालियां सर्वमान्य हैं, जिनमें यौन क्रिया को बीभत्स और हिंसक रूप दिया जाता है. बचपन से लड़के लड़कियाँ इन गालियों को सुनते हुए बड़े होते हैं और उनके मन पर इनकी गहरी छाप होती है. अगर कोई लड़की अपनी पहचान या अस्तित्व के लिए सचेत होती है, आग्रहशील होती है, तो उसकी औकात बताने का एक सबसे सरल तरीका होता है, उसे शारीरिक रूप से अपमानित करना. उसे अहसास कराया जाता है कि मर्दानगी के मातहत रहने पर ही वह सुरक्षित रह सकती है और विरोध करने पर उससे बदला लिया जाता है. बलात्कार इसका चरम रूप है.
    हिंसा मर्दानगी का हथियार है. हिंसा से ही मर्दानगी हासिल हो सकती है या फिर दिखाई जा सकती है. यह रवैय्या घर-बाहर, हर जगह दिखाई देता है. यह हिंसा शारीरिक भी हो सकती है और मानसिक भी. गंदे इशारे और गन्दा स्पर्श, आँख मरना, शरीर से छेड़छाड़, मोबाइल से गन्दी बातें और गंदे मैसेज....सैकड़ों साधन हैं जिनसे रेप का माहौल तैयार होता है. फिल्मों और फिल्मी गानों में अश्लीलता की कोई हद नहीं. हिंसा और सेक्स को  निरंतर देखते रहने से बचपन का भोलापन ख़त्म होता जा रहा है.
इंटरनेट पर अनगिनत पोर्न साईट भी हैं, जो बीमार मानसिकता पैदा करती हैं.
    हमारा समाज ऐसा पुरुषवादी समाज है जिसमें यदि लडकियाँ खुद को बचा कर न रखें, वे टाइम से घर ना लौटें, घर के अन्दर माँएं चौकीदारी न करें, लडकियाँ भाई या किसी मर्द के साथ न जाएँ, तो उनके साथ कभी भी बलात्कार हो सकता है..... कहाँ-कहाँ, कैसे और कौन उसे बचाता रहेगा? पुलिस सुरक्षा बढ़ा देने, बलात्कारी को मृत्यु दंड देने या नपुंसक बना देने से क्या बलात्कार ख़त्म हो जायेंगे? क्या हत्या के खिलाफ कठोरतम दंड का प्रावधान होने से हत्या रुक गयी? कानूनी सख्ती सिर्फ प्रतिरोधक का काम करती रहेंगी. समाज को सभ्य बनाये रखने के लिए ऐसे प्रतिरोधकों की ज़रुरत होती है, कमज़ोर तबकों की हिफाज़त के लिए कानून ज़रूरी होते हैं. लेकिन, नए कानूनों के बन जाने से ही अपनी सुरक्षा को लेकर लड़कियों, उनकी माँओं, उनके घरवालों का लगातार चिंता और तनाव में रहना ख़त्म नहीं हो जायेगा.
    हमारे देश में सालाना नब्बे हजार बलात्कार होते हैं हज़ारों घटनाएं अनरिपोर्टेड रह जाती हैं. घर के भीतर करीबी रिश्तेदारों द्वारा किये जाने वाले बलात्कार के मामलों का गला मौकाए वारदात पर ही घोंट दिया जाता है. कश्मीर से लेकर सुदूर दक्षिण के मंदिर शहरों और जगमगाते गुजरात से लेकर मणिपुर, नागालैंड और असम समेत पूर्वोत्तर के राज्यों तक या फिर छत्तीसगढ़, उड़ीसा और झारखंड के आदिवासी गाँवों या फिर उत्तरी भारत के गाँव-देहातों तक, न जाने कितनी ही ऎसी घटनाएं अनकही-अनसुनी रह जाती हैं.
  पिछले बीस-पच्चीस सालों में जिस तरह से देश का विकास किया जा रहा है, जिस तरह से पैसे और मुनाफे की देवी की आराधना हो रही है, जिस तरह से सरकारी खजाने की लूट तथा रोज़गार, जमीन और जीवन की असुरक्षा बढी है, उसमें औरत के प्रति हिंसा का बढ़ना स्वाभाविक है. गाँवों और शहरों में बदहवास घूमते बेरोजगार, बिल्डरों और भू-मफियाओं, सटोरियों, नेताओं की बेतहाशा बढ़ती कमाई तथा मौजमस्ती की बदलती परिभाषा ने औरतों के प्रति हिंसा को पहले से कई गुना बढ़ा दिया है. ताकतवर और पढ़ा लिखा तबका आवाज़ उठा लेता है. दिल्ली की घटना के प्रति सड़कों पर उतर आये प्रतिरोध ने इसे साबित भी कर दिया. लेकिन इसने यह भी साबित कर दिया की प्रतिरोध संगठित न हो तो उसे भटकाना, तोडना या बदनाम करना भी उतना ही आसान होता है. ऐसे आन्दोलनों का तात्कालिक मांगों और सतही मुद्दों में उलझ कर रह जाना भी स्वाभाविक है. दिल्ली में बलात्कार के खिलाफ जनाक्रोश और लोगों के स्वतःप्रवर्तित संघर्ष को आगे, बहुत आगे, अपने घरों, देहातों और लोगों के दिलोदिमाग तक पहुंचाने की ज़रुरत है. ज़रुरत है जनमानस में गहराई से बैठी पुरुषवादी सोच पर चोट करने की. ज़रुरत है घर के अन्दर बच्चे की परवरिश  मर्द और औरत के रूप में न करके, एक सजग इंसान और स्वस्थ नागरिक के रूप में उसे बड़ा करने की. ज़रूरत है घर के फैसलों में लड़की और औरत को बराबरी की भागीदारी सुनिश्चित करने की, संपत्ति के अधिकार को ज़मीनी स्तर पर लागू करने की. वास्तव में आज ज़रुरत है तेज़ी से बदलती, वैश्वीकृत दुनिया में लड़की और औरत को भीतर से मज़बूत बनाने, उसमें आत्मविश्वास पैदा करने और पूर्ण बराबरी से परिपूर्ण इंसानी  मूल्यों पर आधारित, न्यायपूर्ण परिवार और समाज की बुनियाद रखने की.
      दिसम्बर के सर्द माहौल में युवाओं के आक्रोश से पैदा हुई इस गर्मी और उम्मीद को कायम रखते हुए नारी मुक्ति के सवाल को आगे बढ़ाना आज समय की पुकार है.   
महिलाओं में आत्मनिर्भरता, आत्मगौरव की चेतना, सामाजिक सरोकार, संगठन और पितृसत्ता की हर अभिव्यक्ति के खिलाफ निरन्तर प्रतिरोध हमारी अस्मिता और अस्तित्व की समस्या का अंतिम समाधान प्रस्तुत करेगा. आइये, हम मिलजुल कर इस दिशा में आगे बढ़ें.

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