Wednesday, September 29, 2010

कविता- जो कुछ देखा-सुना, समझा, कह दिया- निर्मला पुतुल

बिना किसी लाग-लपेट के
तुम्हेँ अच्छा लगे, ना लगे, तुम जानो
चिकनी-चुपड़ी भाषा की
उम्मीद न करो मुझसे
जीवन के उबड़-खाबड़ रास्ते पर चलते
मेरी भाषा भी रुखड़ी हो गई है
मैं नहीं जानती कविता की परिभाषा
छंद, लय, तुक का
और न ही शब्दों और भाषाओँ में है
मेरी पकड़
घर-गृहस्ती सँभालते
लड़ते अपने हिस्से की लड़ाई
जो कुछ देखा सुना भोगा
बोला-बतियाया
आस-पास के संगी-साथी से
लिख दिया सीधा-सीधा
समय की स्लेट पर
टेढ़े-मेढे अक्षरों में जैसे-तैसे
तुम्हारी मर्जी तुम पढ़ो, न पढ़ो.
मिटा दो, या नष्ट कर दो पूरी स्लेट ही
पर याद रखो.
फिर आएगा,
और लिखेगा बोलेगा वहीसब कुछ
जो कुछ देखेगा-सुनेगा
भोगते तुम्हारे बीच रहते
तुम्हारे पास शब्द हैं, तर्क है बुद्धि है
पूरी की पूरी व्यवस्था है तुम्हारे हाथों में
तुम सच को झुठला सकते हो
बार-बार बोल कर
कर सकते हो ख़ारिज एक वाक्य में
सब कुछ मेरा
आँखों देखी को
गलत साबित कर सकते हो तुम
जानती हूँ मैं
पर मत भूलो.
अभी पूरी तरह खत्म नहीं हुए
सच को सच और झूठ को
पूरी ताकत से झूठ कहने वाले लोग.

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