Friday, December 15, 2023

रागो : एक क्रान्तिकारी उपन्यास

 


नक्सलवादी आन्दोलन पर आधारित और साधना द्वारा लिखित क्रान्तिकारी लघु उपन्यास ‘रागो’ महाराष्ट्र के आदिवासियों की जिन्दगी के दैनिक संघर्षों से होते हुए उनके क्रान्तिकारी संघर्षों तक की पूरी यात्रा करवाता है।

कहानी की नायिका ‘मड़वा गोंड़’ आदिवासी जनजाति की एक नवयुवती ‘रागो’ है। रागो का शाब्दिक अर्थ तोता होता है। तोते और रागो की जिन्दगी की समानताएँ उपन्यास में स्पष्टता से दिखती हैं–

जंगल में आजाद उड़ने वाले पक्षी को मनुष्यों के साथ रहने में बहुत परेशानी होती थी। उसे अपनी सब आजादी खोनी पड़ती थी।”

ठीक इसी तरह रागो भी कहीं न कहीं अपनी आजादी खो रही थी। पर वह संघर्ष का रास्ता चुनती है। पहले अपने प्रेमी के लिए घर से बगावत करती है और घर छोड़कर प्रेमी के घर पहुँच जाती है। प्रेमी द्वारा ठुकराये जाने पर वह वापस घर का रास्ता न लेकर अपनी राह खुद बनाने का निर्णय लेकर अपनी जिन्दगी के सबसे चमत्कारी अनुभव की यात्रा पर निकल पड़ती है। उसके नाते–रिश्तेदार उसे ढूंढकर जबरन उसका विवाह करवाना चाहते हैं। इस दौरान हमें आदिवासियों के बीच फैली महिला–विरोधी प्रथाओं और रस्मों से परिचित कराया जाता है– “शादी के बाद साड़ी उतारकर सिर्फ कमर में एक तौलिया लपेट कर रहने को बाध्य करते हैं।” पर वह अपने परिवार वालों से बच कर भाग निकलती है और अन्तत: एक क्रान्तिकारी संगठन का हिस्सा बन जाती है। धीरे–धीरे उसे यह नया जीवन, इसमें मिलने वाला समानता का व्यवहार अच्छा लगने लगता है और वह उस संगठन के संघर्ष में अपने जीवन का उद्देश्य पाती है।

इस उपन्यास में नायिका के माध्यम से महिलाओं के साथ गैर–बराबरी के व्यवहार पर भी सवाल उठाये गये हैं– “बाप के दारू पीने के पैसों के बदले बेटी को किसी के भी साथ बलात् शादी कर देना”। “फिर वह बहन नापसन्द मर्द के यहाँ न रहकर उससे सम्बन्ध तोड़ लेती है और कामकाज करके जीने लगती है तो लोग उसे कर्दे (बदचलन स्त्री) कहकर नीची नजर से देखते है।”

वहीं अपनी जिन्दगी में रागो के आगे बढ़ने और पुरानी सड़ी–गली मान्यताओं को पीछे छोड़ने की उपमा रागो के साड़ी को उतारने व उसी साड़ी के टुकड़े से बन्दूक पोंछने का कपड़ा बना लेने में सांकेतिक रूप से दिखाया गया है।

इसके अलावा सरकार का आदिवासी महिलाओं पर किया जाने वाला दमन भी बखूबी वर्णित है– “हाँ, हाँ, सरकार हमारे लिए बड़े अच्छे काम कर रही है––– है न जी? दस साल पहले हमारी औरतों को– जिनको बच्चे होना बन्द हुआ और जिनका मासिक भी होना बन्द हुआ थाय ऐसी बूढ़ी औरतों को भी ले जाकर बलात् नसबन्दी ऑपरेशन जो कराया गया था वह भी हमारी भलाई के लिए ही– है न जी?

सरकार के आदमी हमारे घरों में घुसकर बोतल भर दारू मिलने का झूठा अपराध हमारे सिर मढ़ कर चार सौ रुपये न देने तक मोबिल कोर्ट वाले हम पर जुल्म ढाते रहना भी हमारी भलाई के लिए है?

यही नहीं, यह व्यवस्था कैसे अपने मुनाफे के लिए प्रकृति का दोहन करती है, इसका भी सहज वर्णन पुस्तक में मिलता है, जब बाँधो के निर्माण से जंगल डूबने और उससे होने वाली तबाही की चर्चा गाँव वाले करते हैं– “बाप रे! इतना बड़ा जंगल और इतने गाँव डूब जायेंगे फिर हम सबका क्या होगा? जोतने के लिए जब जमीन ही नहीं होगी तो फिर पानी की सहूलियत और बिजली किस काम की?

इससे किसका फायदा है, इसका संकेत भी साफ अंकित है– “बिजली शहरों की मिलों के लिए है। हमारे जंगलों को पानी में डुबो कर नगरों में रहने वाले साहूकारों के लिए सुविधाएँ मुहैय्या कराते हैं।”

नक्सलवादी आन्दोलन के दौर में संगठन के क्रान्तिकारियों का गाँववालों के साथ अपनत्व का रिश्ता भी जहाँ–तहाँ दीख पड़ता है– “गाँव के हर एक को ऐसा लगता है कि दल की अक्काएँ उनकी निजी रिश्तेदारिनें थीय ऐसा था महिलाओं के साथ अक्काओं का मेल–जोल।”

संगठन में शामिल होने के बाद जब दल के साथ जैनी (रागो का क्रान्तिकारी नाम) अपने गाँव आती है तो घर वाले उसे देखकर खुश भी होते हैं और हैरान भी। वे उन लोगों की ऐसी आवभगत करते हैं, मानो जैनी के गत जीवन को भूल गये हों।

इस तरह रागो अपने जीवन का नया अध्याय लिखती है। प्रेमी को लेकर शुरू किये गये अपने छोटे से संघर्ष को दल में शामिल होकर कर वह बड़ा आयाम देती है और अपना जीवन बड़े उद्देश्य को समर्पित कर देती है। कुछ इन शब्दों में यह वर्णित है– “अनचाहे विवाह को टाल देने के लिए घर–गली, माता–पिता सब को छोड़कर खतरों को सिर पर लेकर जंगल–जंगल घूमने वाली लड़की दल में आयी और आने के बाद किस तरह बदल गयी थी!”

अब रागो का जीवन क्रान्ति को समर्पित था। हर तरह की गैरबराबरी और अन्याय के खिलाफ जंग ही उसका मकसद था। इसी के साथ यह पुस्तक हमें परेशानियों से भागने की जगह संघर्ष करने की सीख देने के साथ उन आदिवासी क्रान्तिकारियों के जीवन से गहराई से परिचित कराती है। कैसे जंगलों मे रातें काटते, बारिश में भीगते हुए नींद पूरी करते, बासी खाना खाकर और कदम–कदम पर जान को जोखिम में डालकर व्यवस्था के खिलाफ अपने और अपने लोगों के हक की लड़ाई लड़ते, गाँव के लोगों के साथ रिश्तेदारों से बेहतर आत्मीय रिश्ता कायम करते हुए, ये क्रान्तिकारी अपनी और दूसरों की जिन्दगी बेहतर बनाने के लिए संघर्ष करते हैं, यह इस पुस्तक में बहुत बारीकी से दिखाया गया है।

कुल मिलाकर यह पुस्तक नारी–असमानता, पूँजीवाद में प्रकृति की दुर्दशा, व्यवस्था का आदिवासियों के प्रति घटिया रवैया और क्रान्तिकारी जीवन के संघर्ष जैसे बहुत जरूरी मुद्दों पर आधारित है। खासकर महिलाओं के लिए यह प्रेरणास्पद पुस्तक है जो सभी को पढ़नी चाहिए।

–– अपूर्वा


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