Wednesday, October 6, 2021

महिलाओं की प्रसव–कालीन समस्याएँ


 
मेहनतकश महिलाएँ जब गर्भवती होती हैं तब भी उन्हें काम करना पड़ता है और उन्हें प्रसव के समय तक बिना आराम किये काम करना पड़ता है। 2019 में अर्थशास्त्री जीन ड्रेज के नेतृत्च में एक शोध दल ने भारत के छ: राज्यों छत्तीसगढ़, झारखण्ड, मध्यप्रदेश, ओडिशा, उत्तरप्रदेश और हिमाचल प्रदेश में जच्चा–बच्चा सर्वे किया। सर्वे में उन्होंने पाया कि भारत में 63 प्रतिशत ग्रामीण महिलाएँ अपने गर्भावस्था के दौरान आखिरी दिन तक काम करतीं हैं और केवल 37 प्रतिशत महिलाएँ ही हैं जिनको गर्भावस्था के समय आराम मिल पाता है। सामाजिक और आर्थिक रूप से ये सभी राज्य अन्य राज्यों से पिछड़े हैं। यहाँ मातृ मृत्यु दर एवं शिशु मृत्यु दर सबसे अधिक है। 
 यह सर्वेक्षण 706 महिलाओं पर किया गया था, जिनमें से गर्भवती महिलाएँ 342  थीं और नर्सिंग माताएँ  364 थीं। विभिन्न जिलों से आयी कई गर्भवती महिलाओं को अपने वजन की कोई जानकारी नहीं थी। गर्भावस्था के दौरान महिलाओं को पौष्टिक भोजन न मिलने के कारण उनमें से 49 प्रतिशत महिलाएँ कमजोर पायी गयी, 41 प्रतिशत महिलाओं के पैरों में सूजन थी, 17 प्रतिशत महिलाओं के आँखों की रौशनी कम मिली। हाल यह है कि बहुतायत महिलाओं को गर्भावस्था के दौरान पौष्टिक आहार नहीं मिल पाता है जिसके चलते पैदा होने वाला बच्चा औसत से कम वजन का होता है और वह पूरी तरह से स्वस्थ नहीं होता है यानी पैदा होने के समय से ही वह कुपोषण का शिकार होता है। 
नीति आयोग के अनुसार भारत में औसतन 1 लाख में 130 औरतों की गर्भावस्था से सम्बन्धित बीमारियों के कारण मृत्यु हो जाती है। 
आज भी देश के ग्रामीण इलाकों में ज्यादातर महिलाओं की कम उम्र में ही शादी कर दी जाती है जिससे उनका शरीर पूरी तरह से गर्भ धारण के लिए विकसित नहीं हो पाता। अशिक्षा के चलते महिलाओं को गर्भ धारण से सम्बन्धित पूरी जानकारी नहीं होती है। गरीबी और आहार से सम्बन्धित मूलभूत जानकारी न मिलने के चलते वे पौष्टिक भोजन का चुनाव नहीं कर पाती, आयरन, कैल्शियम और आहार में दूसरे आवश्यक तत्वों की कमीं से कई तरह की बिमारियाँ हो जाती हैं। उन्हें इन बीमारीयों की जानकारी भी नहीं होती। स्वास्थ्य सेवाओं और प्रशिक्षित चिकित्सा कर्मियों की भारी कमीं के कारण बहुत सारी महिलाएँ असमय काल के गाल में समा जातीं हैं। 
लेन्सिट जनरल की रिपोर्ट के अनुसार प्रसव के समय एनीमिया (खून की कमीं) के कारण गर्भवती महिलाओं की मृत्यु की सम्भावना दो गुनी बढ़ जाती है। 
सरकारी योजनाओं का लाभ लेने की आवेदन प्रक्रिया इतनी जटिल है कि अधिकतर ग्रामीण महिलाओं को इन सुविधाओं का लाभ मिल ही नहीं पाता। सार्वजानिक स्वास्थ्य केन्द्रों पर महिलाओं के लिए नि:शुल्क प्रसव व्यवस्था तो की गयी है, लेकिन जमीनी स्तर पर यह लागू होता नहीं दिखता, ज्यादातर योजनाएँ कागजी होतीं हैं। वहाँ भर्ती महिलाओं से पता चला कि उन्हें अपनी डिलीवरी पर 6,500 रुपये के लगभग खर्च करने पड़ते हैं चाहें उनकी स्थिति कितनी भी खराब हो। 
अस्पताल की सस्ती दवाइयों को छोड़कर जितनी भी महँगी दवाइयाँ होतीं हैं, उन्हें बाहर से खरीदना पड़ता है। इंजेक्शन से लेकर डिटोल, कॉटन, पैड तक लाना पड़ता है  जिसे उपलब्ध कराना बिल्कुल ही आसान काम है। एक आँकडे़ के अनुसार इस खर्च की पूर्ति करने के लिए एक तिहाई महिलाओं को अपनी कुछ सम्पत्ति बेचनी पड़ी या सूदखोरों से कर्ज लेना पड़ा। 
महिलाएँ हमारे समाज का निर्माण करती हैं और नवजात शिशु को जन्म देती हैं। अत: वह देश का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं, उनके स्वास्थ की पूर्ण जिम्मेदारी सरकार की होनी चाहिए।

–– रजनी यादव
 


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