Wednesday, December 9, 2020

9 दिसंबर: रुकैया हुसैन दिवस


हमारी पुरखिन रुकैया हुसैन



दिल्ली का घेराव किये किसानों के आन्दोलन की गहमागहमी के बीच हमारी एक पुरखिन, 19वीं सदी में दक्षिण एशिया में महिला शिक्षा, समानता और स्वतंत्रता की पुरोधा रोकैया हुसैन को नमन. कैसा इत्तेफाक है कि आज यानि 9 दिसम्बर को उनका जन्मदिन भी है और मृत्युदिवस भी. इसीलिये हम 9 दिसंबर को रूकैया हुसैन दिवस के रूप में मनाते हैं।
सवाल ये है कि आज के समय में हम उन्हें क्यों याद करें? क्योंकि सवा सौ साल पहले उन्होंने भारतीय उपमहाद्वीप के पिछड़े समाज में ये प्रश्न उठाये - 
हम समाज का आधा हिस्सा हैं, हमारे गिरे-पड़े रहने से समाज तरक़्क़ी कैसे करेगा? हमारी अवनति के लिए दोषी कौन है?
हम सुनते हैं कि धरती से ग़ुलामी का राज ख़त्म हो गया है लेकिन क्या हमारी ग़ुलामी ख़त्म हो गई है? नहीं न....
आखिर हम दासी क्यों हैं?
पूर्वी बंगाल(बंगलादेश) में 1880 में पैदा हुईं रोकैया हुसैन ने कभी स्कूल का मुंह नहीं देखा पर उनके भाइयों ने उन्हें घर पर पढ़ाया. इस पढ़ाई का यह असर पड़ा कि वो बड़ी शिद्दत से अपने आसपास कि औरतों की स्थितियों और उन्हें न पढाये जाने के पीछे के कारण भली-भाँती समझने लगीं. तभी तो उन्होंने लिखा,
‘जब स्त्रियां पढ़ती हैं, सोचती हैं और लिखने लगती हैं तो वे उन बातों पर भी सवाल उठाने से घबराती नहीं जिन पर यह पितृसत्तात्मक समाज टिका है.’
ऐसे समय में जबकि औरतों का पढ़ना गुनाह माना जाता था,  तब उन्होंने लगातार लड़कियों की पढाई के बारे में सोचा. जब उनका विवाह भागलपुर के एक उदार अफसर सैयद सखावत हुसैन के साथ हुआ और उन्हें कुछ करने का अवसर मिला तो उन्होंने वहां लड़कियों का एक स्कूल खोला और पति की मृत्यु के बाद कलकत्ता को केंद्र बनाकर एक और स्कूल खोला जो आज भी चल रहा है.
अपने इन कामों के कारण रोकैया को बंगाल में ईश्वरचंद विद्यासागर जैसे सुधारक जैसा सम्मान मिला. लेकिन बंगाल के बाहर वे अपनी साहसपूर्ण नारीवादी कहानियों और उपन्यास के लिए जानी गईं।
अपने लेखन में वे कहती हैं, 'पुरुषों के बराबर आने के लिए हमें जो करना होगा, वह सभी काम करेंगे. अगर अपने पैरों पर खड़े होने के लिए, आज़ाद होने के लिए हमें अलग से जीविका अर्जन करना पड़े, तो यह भी करेंगे. अगर ज़रूरी हुआ तो हम लेडी किरानी से लेकर लेडी मजिस्ट्रेट, लेडी बैरिस्टर, लेडी जज- सब बनेंगे.
हम अपनी ज़िंदगी बसर करने के लिए काम क्यों न करें?
क्या हमारे पास हाथ नहीं है, पाँव नहीं है, बुद्धि नहीं है? हममें किस चीज़ की कमी है?
एक बात तो तय है कि हमारी सृष्टि बेकार पड़ी गुड़िया की तरह जीने के लिए नहीं हुई है.'
अपनी एक किताब 'स्त्रीि जातिर अबोनीति' यानि 'स्त्रीे जाति की अवनति' के ज़रिए वे अपनी जाति यानी स्त्रियों से मुख़ातिब हैं. वे स्त्रियों की ख़राब और गिरी हुई सामाजिक हालत की वजह तलाशने की कोशिश करती हैं. उन्हें अपनी हालत पर सोचने के लिए उकसाती हैं.
वह लिखती हैं, 'सुविधा-सहूलियत, न मिलने की वजह से, स्त्री जाति दुनिया में सभी तरह के काम से दूर होने लगीं. और इन लोगों को, इस तरह ना़क़ाबिल और बेकार देखकर, पुरुष जाति ने धीरे-धीरे इनकी मदद करनी शुरू कर दी....जैसे-जैसे, मर्दों की तऱफ से, जितनी ज़्यादा मदद मिलने लगी, वैसे-वैसे, स्त्री जाति, ज़्यादातर बेकार होने लगी. हमारी ख़ुद्दारी भी ख़त्म हो गई. हमें भी दान ग्रहण करने में किसी तरह की लाज-शर्म का अहसास नहीं होता. इस तरह हम अपने आलसीपन के ग़ुलाम हो गए. मगर असलियत में हम मर्दों के ग़ुलाम हो गए. और हम लम्बे समय से मर्दों की ग़ुलामी और उनके आदेशों का पालन करते-करते अब ग़ुलामी के आदी हो चुके हैं...'
रोकैया सबसे ज्यादा जानी जाती हैं अपने एक साइंस फिक्शन के लिए. ‘सुल्तानाज़ ड्रीम’ नामक उनकी कहानी एक साइंस फिक्शन है जो 1905 में मद्रास (चेन्नई) से निकलने वाली ‘इंडियन लेडीज़ मैग्जि़न’ में छपी थी.
इस कहानी में एक काल्पनिक दुनिया रची गई जिसमे स्त्री और पुरुष के कामों और उनकी हैसियत को उलट दिया गया है. सारे पुरुष दबे-दबे और परदे के अंदर रहते हैं जबकि देश की बागडोर महिलाओं के हाथ में है. यहाँ हथियारों के लिए कोई जगह नहीं है. इस लोक में लड़कियों के अलग विश्वविद्यालय हैं. यहाँ की स्त्रियों ने सूरज की ता़कत का इस्तेमाल करना सीख लिया है और वे बादलों से अपने हिसाब से पानी लेती हैं. पर्यावरण का ख़्याल रखती हैं. आने जाने के लिए हवाई साधन का इस्तेमाल करती हैं. तकनीक की सहायता से बिना श्रम के खेती करती हैं. और तो और यहाँ जघन्य अपराध के लिए भी मौत की सज़ा भी नहीं है.

रुक़ैया ने एक उपन्यास भी लिखा था-'पद्मराग'. इसमें अलग-अलग धर्मों और क्षेत्रों की उत्पीड़ित बेसहारा महिलाएं, एक साथ रह कर एक नई दुनिया बसाने की कोशिश करती हैं. वे अपने पांव पर खड़ी हैं और आजादख्याल हैं.
रोकैया ने ‘सुल्तानाज़ ड्रीम’ में जहां सामाजिक जकड़न में रह रही स्त्री जाति की ‘आह’ और गुस्से को एक फंतासी का रूप दिया तो ‘पद्मराग’ उपन्यास में एक रास्ता भी दिखाया. उनके बारे में बात करते समय हमें हमेशा यह याद रखना होगा कि 19वीं सदी के भारत में एक मुसलमान स्त्री इसे लिख रही थी. इस तरह की प्रगतिशील, बराबरी की उम्मीद और मांग करती, ‘मर्दों की तौहीन’ करती उनकी बातों के कारण उन्हें मुल्ला मौलवियों और पुरातनपंथियों की सख्त आलोचनाओं का लगातार शिकार होना पड़ा. लेकिन वो घबराई नहीं. कठमुल्लावादियों के प्रहार पर वे बड़े इत्मीनान और मजाकिया स्वर में कहती हैं कि, ‘जब वे खुर्सियांग घूमने गईं तो अपने साथ वहां के पत्थर लाई, उड़ीसा और मद्रास के सागर तट से सीपियाँ और शंख बटोर कर लाई लेकिन अब समाज बदलाव का काम करते हुए कठमुल्लाओं की गालियाँ और लानत-मलामत इकट्ठा कर रही हूँ’।
वास्तव में रोकैया हुसैन देश की शुरुआती नारीवादियों में से एक कही जा सकती हैं जिन्होंने बिना घबराये और कमजोर पड़े लड़कियों और महिलाओं को नया रास्ता दिखाने, उनके लिए नये रास्ते खोलने और पुराने मूल्यों को तोड़ देने की हिम्मत पैदा की. आज भले ही नारी विमर्श बहुत आगे बढ़ गया हो लेकिन रूकैया हुसैन ने नारी विमर्श से जुड़े जिन गंभीर मुद्दों को आज से सवा सौ साल पहले उठाया वे आज भी जिंदा हैं।

2 comments:

  1. बहुत सुन्दर और प्रेरक रचना

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  2. हमारी पुरख़िन रुकैया सख़ावत हुसैन के बारे में बहुत सी अनजानी जानकारियों से रुबरु कराया है ।
    आगे भी आप इसी तरह गुमनाम पुरखिनों के बारे में लिखते रहें।

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