Wednesday, February 19, 2020

मासिक धर्म और रूढ़ियाँ






नेपाल में जब महिलाओं का मासिक धर्म होता है तो इस दौरान उन्हें घर से दूर एक झोपड़ी में रहना पड़ता है जिसे चैपाड़ी कहा जाता है। पिछले साल नेपाल सरकार ने इस परम्परा को अवैध बताते हुए इसके खिलाफ कानून पास किया जिसके अनुसार अगर कोई व्यक्ति किसी महिला को चैपाड़ी में रहने के लिए मजबूर करता है तो उसे तीन महीने की कैद और 3000 रुपये का जुर्माना देना पड़ेगा। यह आश्चर्यजनक बात है कि किसी सरकार को मासिक धर्म के सम्बन्ध में कानून बनाना पड़ रहा है।
मासिक धर्म के समय महिलाओं को अपवित्र मानकर अलग–थलग रखने की परम्परा हर जगह देखने को मिलती है। नेपाल में यह परम्परा अति रूप में दिखाई देती है जहाँ किसी भी मौसम या किसी भी परिस्थिति में महिलाओं को मासिक धर्म के समय चैपाड़ी में ही रहना पड़ता है। चाहे वह किशोरी हो या नवजात शिशु की माँ हो या फिर वयस्क महिला हो, हर किसी को इस परम्परा के लिए मजबूर किया जाता है। कुछ महिलाएँ अपने मासिक धर्म को छिपाने की कोशिश करती हैं और कुछ इस परम्परा का विरोध भी करती हैं। पर उनके घर वापस आ जाने पर यदि घर में कुछ अनहोनी होती है तो इसकी जिम्मेदारी उस महिला पर ही थोप दी जाती है। इससे महिलाएँ डरी–सहमी रहती हैं। 
इस परम्परा को निभाते हुए कितनी ही महिलाओं की जान जा चुकी है। सुरक्षा के दृष्टि से चैपाड़ी में कोई व्यवस्था नहीं होती जिसके कारण यहाँ सोते हुए साँप काटने, आग लगने, दम घुटने, जंगली जानवरों के हमले से मौत होना आम बात है। इसके अलावा चैपाड़ी में अकेली महिलाओं के साथ बलात्कार की भी कई घटनाएँ हुर्इं। ये घटनाएँ इतनी ज्यादा होती हैं कि इन मामलों के लिए थाने में एक अलग ही रजिस्टर रखना पड़ता है। मामलों को संज्ञान में लेते हुए ऐसी पुरानी रूढ़िवादी परम्परा के खिलाफ कानून बनाना नेपाल सरकार का एक सराहनीय कदम है। पर वास्तव में यह जरूरी है कि इस कानून को जमीनी तौर पर लागू किया जाये। 
मासिक धर्म को लेकर तरह–तरह की कुप्रथाएँ अनेक देशों में प्रचलित हैं। भारत में भी मासिक धर्म के दौरान महिलाओं के साथ दोहरा व्यवहार किया जाता है। उन्हें घर में चीजों को छूने, रसोई घर और पूजा घर में जाने, मंदिर जाने, पूजा करने, पुरुषों के सामने जाने, बिस्तर पर बैठने–सोने, यहाँ तक कि पेट भर खाने की भी मनाही रहती है। इस दौरान महिलाओं के साथ छूआ–छूत का व्यवहार किया जाता है, यदि महिला किसी वस्तु या व्यक्ति के सम्पर्क में आती है तो उसे भी अपवित्र मान लिया जाता है। सत्संग में महात्माओं द्वारा इस तरह का प्रवचन दिया जाता है कि मासिक धर्म में औरतों को काली कोठरी में रहना चाहिए और उन्हें सूर्य उगने से पहले खा–पीकर, नहाकर, अपना पूरा काम निपटाकर वापस काली कोठरी में चले जाना चाहिए ताकि उन पर किसी की नजर न पड़ सके। यह प्रचारित किया जाता है कि मासिक धर्म में महिला की छाया पड़ने से आपदा आ सकती है और कोई अनहोनी हो सकती है। ऐसे सत्संग में ज्यादातर महिलाएँ होती हैं। वे इस प्रकार के अभद्र और अपमानजनक बातों को सुनती और स्वीकार करती हैं। ऐसी अन्धविश्वासी बातों को धार्मिक व्यक्तियों द्वारा फैलाया जाना समाज में पहले से स्थापित रूढ़िवादी जड़ता को और अधिक बढ़ावा देता है। 
केरल में सबरीमाला मन्दिर में न्यायपालिका के फैसले के बावजूद मासिक धर्म की उम्र की महिलाओं का प्रवेश वर्जित है। वहाँ के अध्यक्ष कृष्ण गोपाल ने बयान दिया कि महिलाओं को बिना शुद्धता की जाँच के अन्दर जाना मना है। इसके लिए एक जाँच करने वाली मशीन रखी जाएगी। दूसरी घटना गुवाहाटी में कामाख्या मन्दिर की है जहाँ देवी को सालाना माहवारी होती है जिसका भक्तों को पूरे साल इन्तजार रहता है। माहवारी के समय मन्दिर का द्वार 4–5 दिन बन्द रखा जाता है। पुजारी मूर्ति के नीचे सफेद कपड़ा रख देते हैं और 4 दिन बाद खून से भीगे कपड़े के टुकड़े भक्तों में बाँट देते हैं। लोग यह सच्चाई जानते हुए कि कपड़े में देवी की मूर्ति का खून नहीं बल्कि रंग है, इस कपड़े को प्रसाद के रूप में पाना अपनी किस्मत की बात मानते हैं। इस तरह मासिक धर्म एक तरफ देवी के लिए दैवशक्ति तो दूसरी तरफ महिलाओं के लिए अभिशाप नजर आता है। 
क्या वास्तव में मासिक धर्म महिलाओं के लिए अभिशाप है ? महिलाओं में मासिक धर्म शरीर में होने वाली एक प्राकृतिक आन्तरिक प्रक्रिया है जिसमें महिलाओं की योनि से रक्त स्राव होता है। यह प्रक्रिया ठीक उसी प्रकार से सामान्य है जैसे कोई व्यक्ति मल–मूत्र का त्याग करता है। मासिक धर्म के कारण ही महिलाओं में प्रजनन क्षमता होती है। इसके बल पर ही समाज का निर्माण होता है। मासिक धर्म को अपवित्र माना जाता है पर वह उसी मासिक धर्म के कारण बच्चे को जन्म देती है तो सौभाग्य की बात मानी जाती है। वहीं मासिक धर्म नहीं आने पर भी महिलाओं की उपेक्षा की जाती है, उनके माँ नहीं बन पाने पर उन्हें बाँझ कहा जाता है, उन्हें अपूर्ण माना जाता है। परिवार और समाज में उनकी स्थिति दयनीय होती है और पति द्वारा संतान की लालसा में दूसरा विवाह करने के बाद उनकी स्थिति दोयम दर्जे की बन कर रह जाती है। 
मासिक धर्म के समय महिलाओं को और भी बहुत सी परेशानियों का सामना करना पड़ता है। उन्हें माहवारी के कपड़े को छिपा कर रखने के लिए कहा जाता है। बाजार में दुकानदार भी पैड देते समय काली पन्नी या पेपर में इस तरह से पैक करते हैं कि वह दिखाई न दे, जिससे यह प्रतीत होता है कि यह कोई छिपाने योग्य और शर्म की बात है। पर्व–त्यौहार में अपना मासिक धर्म टालने के लिए भी महिलाएँ दवाइयों का प्रयोग करती हैं। घरेलू काम करने वाली महिलाएँ जो काम पर जाती हैं, उनके मासिक धर्म के दौरान त्यौहारों में उनकी छुट्टी कर दी जाती है जिससे उनके पैसे भी कट जाते हैं। इस नुकसान से बचने के लिए दवा खा कर मासिक धर्म को टालना ही बेहतर समझती हैं। एक दुकानदार का कहना है कि गणपति और महालक्ष्मी जैसे त्योहारों में गोलियों की माँग इतनी ज्यादा होती है कि एक दिन में इन गोलियों के 10–15 पत्ते तक बिक जाते हैं। स्त्रीरोग विशेषज्ञ का कहना है कि वे किसी भी स्थिति में इन गोलियों को लेने का सुझाव नहीं देतीं हैं क्योंकि ये गोलियाँ शरीर के हार्माेन साईकल को प्रभावित करती हैं। इसे भारी मात्रा में लेने से शरीर पर कई प्रकार के दुष्प्रभाव पड़ते हैं जैसे ब्रेन स्ट्रोक, लकवा, मिर्गी के दौरे आ सकते हैं। महिलाएँ बिना सलाह लिये ही इन दवाइयों को ले लेती हैं। जिन्हेंे कोई बीमारी होती है उनपर इसके और भी गहरे परिणाम होने की सम्भावना बढ़ जाती हैं। इन दवाओं को न केवल शहरों में बल्कि ग्रामीण इलाकों में भी महिलाएँ काफी प्रयोग करती हैं। 
क्या महिलाओं के लिए आदिकाल की मान्यताओं के आधार पर अपने स्वास्थ्य को जोखिम में डालना ठीक है ? ये महिलाओं को खुद ही समझना होगा। जिन नियमों और परम्पराओं की वजह से महिलाएँ इतनी पीड़ा और अपमान झेलती हैं, इसका आज के समय में क्या औचित्य है ? इन परम्पराओं के कारण महिलाओं को नीचा और कमतर माना जाता है। उन्हें आगे बढ़ने से रोका जाता है और हर काम करने में सामर्थ्य नहीं समझा जाता है। पर आज की महिलाएँ इन रूढ़िवादी परम्पराओं को तोड़ कर इसकी सच्चाई दुनिया के सामने उजागर कर रही हैं कि वे किसी भी पुरुष से कमतर नहीं हैं। जरूरत है सभी महिलाओं को इस बात को समझने की और इस अंधविश्वासी कुप्रथा को तोड़ कर जिन्दगी अपनी शर्तों पर जीने की क्योंकि किसी और को हमारे शरीर को लेकर कोई परम्परा गढ़ने का कोई अधिकार नहीं है। 

–– ज्योति 

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