Saturday, May 1, 2021

पोलैंड का महिला आन्दोलन




पिछले साल जब पूरी दुनिया कोरोना महामारी से जूझ रही थी, तब पोलैंड की महिलाएँ अपने हक की लड़ाई भी लड़ रही थीं। महिलाओं की इस लड़ाई में देश के हर वर्ग–हर उम्र के लोग शामिल हुए। पोलैंड के पिछले तीस सालों के इतिहास में यह सबसे बड़ा आन्दोलन था। यह आन्दोलन महिलाओं के गर्भपात से सम्बन्धित कानूनों में बदलाव को लेकर हुआ। 
पूरे यूरोप में पोलैंड ही एकमात्र ऐसा देश है जहाँ गर्भपात से सम्बन्धित कानून बहुत ही कड़े हैं। साल 2016 में जब वहाँ की सरकार ने गर्भपात को निषेध करते हुए गैरकानूनी घोषित कर दिया था तब पूरा देश एकजुट होकर उठ खड़ा हुआ। लोगों ने काले कपड़े, पट्टा आदि बांध कर इस फैसले पर कड़ा विरोध जताया और पूरे देश में जगह–जगह भारी विरोध प्रदर्शन हुए। यह आन्दोलन ‘ब्लैक प्रोटेस्ट’ के नाम से पोलैंड के इतिहास में हमेशा के लिए दर्ज हो गया। आन्दोलन के दबाव में आकर सरकार ने यह कानून वापिस ले लिया। पर जो नये कानून बनाये उनमें केवल विशेष परिस्थितियों में ही महिलाओं को गर्भपात का अधिकार मिला।
पोलैंड सरकार के अनुसार महिलाएँ सिर्फ तीन परिस्थितियों में ही गर्भपात करा सकती थीं––
(1) जब भ्रूण के कारण माँ की जान को खतरा हो।
(2) जब भ्रूण व्यभिचार या बलात्कार का परिणाम हो। 
(3) जब भ्रूण असमान्य हो और जन्म के बाद उसके जीवित बच पाने की सम्भावना न हो।
इन कड़े कानूनों को भी वहाँ की महिलाएँ थोड़े–बहुत विरोध के साथ ढोती रहीं।
अक्टूबर 2020 में पोलैंड के सर्वोच्च न्यायालय ने एक नया नियम प्रस्तावित किया जिसमें ऊपर दी गयी तीन परिस्थितियों में से अन्तिम को समाप्त किये जाने का फरमान था। इस आदेश के पक्ष में न्यायालय का तर्क था कि “सिर्फ महिलाओं की सुविधा के लिए अजन्मे बच्चे की हत्या ठीक नहीं” और “भ्रूण को भी दीक्षास्नान, अन्तिम संस्कार और माँ की गोद में दम तोड़ने का अधिकार मिलना चाहिए।”
न्यायालय के इस बेतुके तर्क पर आन्दोलनकारी महिलाओं का प्रतिउत्तर था कि एक अजन्मे शिशु के अधिकारों का बचाव करने में उनके अधिकार छीने जा रहे हैं। इस नियम के बाद महिलाओं को उनके अपने ही शरीर पर अधिकार नहीं रहेगा। सरकार चाहती है कि महिलाएँ उस परिस्थिति में भी बच्चे को जन्म दें जबकि बच्चा जन्म लेते ही या कुछ समय बाद ही दम तोड़ देगा। एक माँ के लिए इससे ज्यादा पीड़ादायक और भयावह क्या होगा!
सरकार के इस अमानवीय आदेश के विरोध में पोलैंड की महिलाएँ एक बार फिर से संगठित होकर संघर्ष के लिए तैयार हो गयीं। 22 अक्टूबर 2020 को महिला कार्यकर्ता सुशानो अपने कुछ साथियों के साथ न्यायालय पहुँची और वहाँ से वर्तमान सत्ताधारी पार्टी पीआईएस के मुखिया के घर तक मार्च निकाला। देश के 580 शहरों–कस्बों में विरोध–प्रदर्शन हुए और मार्च निकाले गये जिनमें लाखों लोग शामिल हुए। इन विरोध–प्रर्दशनों में न सिर्फ महिलाएँ, बच्चे, वृद्ध, पुरुष, छात्र सभी शामिल हुए। वहाँ के बस–टैक्सी चालकों ने भी अपनी गाड़ियों पर “वी आर विद यू” (हम तुम्हारे साथ हैं) लिखवाकर इस आन्दोलन का समर्थन किया।
भारी विरोध प्रर्दशनों के कारण इस कानून को अब तक लागू नहीं किया गया है। इस आन्दोलन के नेतृत्व का कहना है कि यह आन्दोलन अब सत्ताधारी पार्टी के इस्तीफे के साथ ही रुकेगा। पोलैंड के लोगों ने इस आन्दोलन को क्रान्ति का नाम दिया है। वह क्रान्ति जो नया सवेरा लायेगी!
इस आन्दोलन को तोड़ने की कोशिश में वहाँ की धर्मपरायण और चर्च की कठपुतली सरकार ने कई हथकण्डे अपनाये। निचले स्तर की राजनीति करते हुए वहाँ के शिक्षा मंत्री ने बयान दिया कि जिन विश्वविद्यालयों ने आन्दोलन का समर्थन किया, उनको दिये जाने वाले भत्तों में कटौती कर दी जायेगी। यहाँ तक कि महामारी को भी हथियार बनाने में इन्हें लाज नहीं आयी। सरकारी पक्ष के वकील ने कहा कि आन्दोलनकारी भीड़ इकट्ठी कर के महामारी को बढ़ावा दे रहे हैं। इन पर महामारी को जानबूझ कर बढ़ावा देने की धाराएँ लगायी जायेंगी, जिनमें आठ वर्ष तक की कैद का प्रावधान है।
इन सब घटिया राजनीतिक दाँव–पेंचों के बावजूद इस आन्दोलन ने सीना तान कर सरकार को चुनोती दी। महिलाएँ “माई बॉडी, माई च्वॉइस” (मेरा शरीर, मेरा चुनाव) के बैनर लिये कोरोना के दौर में अपनी जान की परवाह किये बिना, अपनी आजादी के लिए सड़कों पर डटी रहीं। 
इस नये कानून या गर्भपात से सम्बन्धित कानूनों में जो सख्ती है, उसका कारण जानना बहुत जरूरी है। पोलैंड की राजनीति में चर्च का बहुत अधिक प्रभाव है। चर्च के अनुसार भ्रूण की हत्या पाप है। चर्च के प्रभाव के चलते वहाँ की सरकार बार–बार गर्भपात विरोधी कानून बनाने के कोशिश कर रही है। जिससे कि यह पाप न हो। अब सवाल यह है कि इस पाप को पुण्य में बदलने की कीमत क्या है? उत्तर है– महिलाओं का उनके अपने शरीर और जिन्दगी पर अधिकार।
समस्या के मूल में जाएँ तो यह समझ आता है कि राजसत्ता पर धर्म का हस्तक्षेप ही वह कारण है जिससे पोलैंड में हलचल मच गयी। कोरोना महामारी के दौर में जब पूरी दुनिया अपने–अपने घरों हमें कैद थी, तब पोलैंडवासी सड़कों पर उतरने को मजबूर हुए।
इतिहास गवाह है कि दुनिया में कहीं भी, जब–जब राजनीति पर धर्म का हस्तक्षेप हुआ है, परिणाम हमेशा ही बुरे रहे हैं। धर्म राजनीतिक स्वार्थ को साधने में ढ़ाल बन जाता है। बदले में राजनीति धर्म के सही–गलत, सभी नियमों का समर्थन करती है।
–अपूर्वा तिवारी

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