Saturday, February 29, 2020

मैरी क्यूरी : एक जाँबाज वैज्ञानिक




आज तक विज्ञान में सिर्फ 16 महिलाओं को ही नोबेल पुरस्कार मिला है। अन्य क्षेत्रों के कुल नोबेल पुरस्कारों में से सिर्फ 5 फीसदी ही महिलाओं की झोली में आये। बाकी 95 फीसदी पुरुषों के हाथ लगे। मैरी क्यूरी को विज्ञान की दो अलग–अलग शाखाओं में यह सम्मान मिला–– उनको 1903 में भौतिक विज्ञान के लिए और 1911 में रसायन विज्ञान में। नोबेल जीतने वाली वह पहली महिला के नाम से भी जानी जाती हैं। बचपन में मान्या नाम की चुलबुली लड़की से लेकर मैरी क्यूरी तक का सफर बहुत रोचक और संघर्षों से भरा हुआ है। इन दो–दो नोबेल के पीछे जो संघर्ष और लगन छुपी है उससे हमें प्रेरणा लेनी चाहिए। 
मैरी का जन्म पोलैण्ड के वारसा शहर में 7 नवम्बर 1867 को हुआ था। उस समय पोलैण्ड रूस का गुलाम था। रूस में निरंकुश जार का शासन था। जब पोलैण्ड गुलाम था तो पोलैण्ड की औरतें तो गुलामों की भी गुलाम थीं। औरतों को सिर्फ घर के काम करने होते थे। औरतों के लिए पढ़ना–लिखना, लड़कों के कंधों से कंधा मिलाकर काम करना, लम्बी–लम्बी यात्रा करना और देर से शादी करना समाज के रीति–रिवाजों के खिलाफ था। पूरे वारसा शहर में मैरी की माँ जैसी चार–छ: महिला ही पढ़ी लिखी थीं। इन महिलाओं ने मिलजुल कर लड़कियों के लिए एक स्कूल खोला था। मैरी की माँ इसकी प्रिंसिपल थीं और पापा दूसरे स्कूल में पदार्थ विज्ञान के अध्यापक। मैरी के जन्म के बाद ही उनकी माँ को तपेदिक की बीमारी ने घेर लिया। हालत बिगड़ती गयी और उन्हें स्कूल छोड़ना पड़ा। पर मेहनती थीं इसलिए घर पर ही बच्चों के लिए जूते सिलती रहती थीं। बचपन से ही जो शब्द मैरी ने सुने वे थे–– रूस का जार–––। साइबेरिया–––। षड़यंत्र। 
1863 में पोलैण्ड की निहत्थी विद्रोही जनता ने जार के खिलाफ आन्दोलन कर दिया। जार ने निर्ममता से आन्दोलन को कुचल दिया और आन्दोलनकारियों को फाँसी पर चढ़ा दिया या साइबेरिया भेज दिया। स्कूल में रूसी भाषा के अलावा अन्य भाषाओं के पढ़ने और पोलैण्ड के इतिहास पर रोक लगा दी। सभी स्कूलों में जार ने जासूस तैनात कर दिये। मैरी के पापा और उनके स्कूल के जासूस प्रिंसिपल में अक्सर लड़ाई हो जाती। एक दिन प्रिंसिपल ने उनकी नौकरी छीन ली। घर की आर्थिक स्थिति दयनीय हो गयी। मैरी की माँ ने बीमार हालत में ही एक छोटे स्कूल में नौकरी पकड़ ली, लेकिन कुछ ही दिनों बाद वह चल बसीं। इस घटना ने मैरी को झकझोर दिया। उसने मन ही मन सोचा। कितनी बार उसने ईश्वर से प्रार्थना की थी कि उसकी माँ को ठीक कर दे लेकिन ईश्वर ने इतनी सी न सुनी। अगर वह मनुष्य का इतना भला नहीं कर सकता तो वह क्यों उसकी प्रार्थना करे और क्यों गिरजाघर जाये। आज से मैरी गिरजाघर नहीं जाएगी। वह विद्रोही है। 
मैरी के पिताजी ने चारों बच्चों को सही ढंग से पाला–पोसा और पढ़ाया। बाकी सब भी पढ़ने में तेज–तर्रार थे। पर मैरी का कोई जवाब नहीं था। वह खूब पढ़ती, खूब मेहनत करती। इसी तरह 16 साल की मैरी ने स्कूल की परीक्षा पास कर ली। अब समस्या थी आगे की पढ़ाई कैसे और कहाँ हो। गुलाम देश की गरीब बेटी के लिए सभी दरवाजे बन्द थे। पर मैरी कहाँ हार मानने वाली थी। मैरी और उसकी बहन ब्रोन्या ने एक रास्ता खोज निकाला। दोनों ने योजना बनायी कि ट्यूशन पढ़ाकर रुपये इकट्ठे किये जायें और उन रुपयों से आजाद पेरिस में जाकर पिता वाली पदार्थ विज्ञान की पढ़ाई शुरू की जाये। 
उनके घर में रुपये की कमी थी पर नैतिक मूल्यों और बुराई के खिलाफ लड़ने की कमी न थी। शाम को चारों बच्चे अपने पिताजी को घेर कर बैठ जाते। पिताजी उन्हें खूब कहानी सुनाते। डिकेंस का लिखा उपन्यास है ‘डेविड कॉपरफील्ड’। यह बच्चों के जीवन पर आधारित एक उपन्यास है। मैरी के पिताजी ने इसका पोलैण्ड भाषा में अनुवाद कर दिया। 
पोलैण्ड में जिस तरह देश प्रेम पर रोक थी वैसे ही विज्ञान पर भी रोक लगी हुई थी। लेकिन कुछ मशहूर देश प्रेमी वैज्ञानिकों की लगन से चोरी–चोरी एक विश्वविद्यालय चलने लगा– “प्रदीप्ति विश्वविद्यालय”। इसमें रोज शाम को नौजवान लड़के–लड़कियों को विज्ञान और देश–प्रेम की शिक्षा दी जाती। उन्हें सिखाया जाता कि तुम जब भी जनता के बीच जाओ, उनके बीच उठो–बैठो, उनकी पुरानी रूढ़ियों को तोड़ो, उनमें नये वैज्ञानिक विश्वास भरो। दोनों बहनों ने बड़े उत्साह के साथ इस विश्वविद्यालय में दाखिला ले लिया। उनके लिए मनुष्य कल्याण और विज्ञान दोनों एक ही चीज बन गयी। 
लेकिन पैसे की कमी हल न हुई। पेरिस जाने का सपना अधूरा रहा। फिर मैरी ने एक दिन सलाह दी कि पहले ब्रोन्या को पेरिस भेज दिया जाये। कुछ दिन बाद रुपये इकट्ठे करके वह भी चली आयेगी। पिताजी और मैरी दोनों हर महीने ब्रोन्या के लिए रुपये भेजते। ब्रोन्या खूब अच्छे नम्बर से पास हुई। ब्रोन्या ने एक क्रान्तिकारी वैज्ञानिक से शादी की। उनको देश भक्ति के जुर्म में सरकार ने काले पानी की सजा दे दी थी। वे किसी तरह भागकर दोबारा पेरिस आ गये थे। यह बात मैरी के पिताजी को पहले से मालूम थी। वह भी शादी से खुश थे। 
खैर एक दिन मैरी के पास ब्रोन्या की एक चिट्ठी आयी–– “फौरन चली आ, मैं शादी कर रही हूँ। हमारे यहाँ तू बेखटके रह सकेगी। किराये के रुपयों का किसी तरह इन्तजाम कर ले और गाड़ी पर बैठकर पेरिस भाग आ।” मैरी पेरिस चली गयी और खूब मन लगाकर पढ़ाई की। वह बहन के घर ज्यादा दिन नहीं रही। विश्वविद्यालय के पास एक गरीब बस्ती में सस्ता कमरा किराये पर ले लिया। वह पढ़ने और प्रयोग के काम में इतनी लीन हो जाती कि खाना–पीना तक भूल जाती। धीरे–धीरे उसका स्वास्थ्य गिरता गया। एक दिन तो बेहोश ही हो गयी। उसके दोस्तों ने ब्रोन्या को खबर की, तब ब्रोन्या और उसके पति काशिमिर उसे घर ले गये। स्वस्थ होने पर मैरी फिर अपने काम में व्यस्त हो गयी। उसकी लगन और मेहनत देखकर एक नौजवान अध्यापक पियरे ने उसके सामने शादी का प्रस्ताव रखा। पियरे क्यूरी भी चर्चित वैज्ञानिक थे और वैज्ञानिक सोच समझ वाले परिवार से थे। दोनों ने शादी कर ली। 
दोनों ने समय बर्बाद न हो इसके इन्तजाम कर लिये थे। लेकिन फिर भी मध्यम वर्ग की पारिवारिक समस्याओं में उलझना ही पड़ता। खाना बनाना, बाजार से सामान लाना, कपड़े धोना इसमें काफी वक्त निकल जाता। मैरी ने खाना और पकवान बनाना भी सीख लिया। 1897 में इनके बेटी हुई–– इरीन क्यूरी। बड़ी होकर वह भी प्रसिद्ध वैज्ञानिक हुर्इं। 
इरीन के जन्म के पहले से ही मैरी पीएचडी पूरी करने के बारे में सोच रही थीं। वह और पियरे अक्सर ऐसी खोज के बारे में बात किया करते जो अब तक किसी ने न की हो और साथ ही वह मानव जीवन के लिए उपयोगी भी हो। इस समय तक वैज्ञानिकों ने प्रकृति में 92 मूल तत्व खोज लिये थे। तभी पेरिस के एक अध्यापक हेनरी बर्कले ने एक्स रे की खोज कर दी। साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि कोई यूरेनियम नाम का तत्व है, उससे भी ऐसी ही अदृश्य किरणें निकलती हैं। बस फिर क्या था, मैरी को अपनी खोज का विषय मिल गया था। उन्होंने सोचा कि वह अब तक मौजूद सभी तत्वों की जाँच करेंगी कि उनसे अदृश्य किरणें निकलती हैं कि नहीं। हो सकता है ऐसे और भी तत्व हों। और जिस तरह एक्स रे चमड़ी, खून, माँस को भेदकर हड्डियों के बारे में पता लगा लेते हैं वैसे ही इनसे निकलने वाली किरणें मानव जाति के लिए उपयोगी हांे। 
उन्हें अपनी रिसर्च के लिए भारी विनती के बाद विश्विद्यालय की निचली मंजिल पर सीलन भरा गोदाम टाइप का कमरा मिल गया। वहीं काम में लगी रहतीं। अपनी बेटी को भी साथ ले आतीं। उनके लिए औजार पियरे ने तैयार कर दिये थे। इसके बाद खोज हुई नये तत्व की। 1898 जुलाई का महीना था। नये रेडिओएक्टिव पदार्थ को अलग कर लिया गया था। अब सवाल आया कि इस नन्हे शिशु का नाम क्या रखा जाय। पियरे ने मैरी से पूछा। मैरी ने सोचा। उसे अपना पोलैण्ड याद आया। गुलाम पौलेण्ड। उसने नन्हे शिशु का नाम रखा पोलेनियम। अब तो सिलसिला आगे बढ़ गया। पियरे भी अब मैरी के साथ हो लिये। 1902 में उन्होंने रेडियम खोज निकाला। इसमें यूरेनियम से हजारों गुना ताकत वाली अदृश्य किरणें निकलती हैं। ब्रिटेन और अमरीका के वैज्ञानिक खुशी में पागल हो उठे। उन्होंने देखा कि कैंसर का समाधान रेडियम ही कर सकता है। मैरी और पियरे क्यूरी ने रेडियम को अलग करने का तरीका निकाल लिया था। अमरीका जैसे देशों ने उनके तरीके का इस्तेमाल करने के लिए अनुमति माँगी। इस दम्पत्ति ने जो जवाब दिया वह आज के वैज्ञानिकों के मुँह पर तमाचा भी है। इन्होंने कहा, “यह हमारी घरेलू सम्पत्ति तो है नहीं। हमने तो जनगण के कल्याण के लिए ही इसे खोजा था। हम इसे निकालने के तरीके को अखवार में छपवा देंगे जिससे हर किसी के काम आ सके।” आज पेटेंट करा के दवाइयों और खेती के लिए जरूरी बीज, खाद और फर्टिलाइजर्स की कीमत बेतहाशा बढ़ाने वाली कम्पनियों को इससे सबक लेना चाहिए कि विज्ञान किसी की घरेलू सम्पत्ति नहीं। वह पूरी मानवजाति की उपलब्धि है। 
1903 में मैरी क्यूरी को पदार्थ विज्ञान में योगदान के लिए नोबेल पुरूस्कार दिया गया। इसके बाद इन्होने रेडियम को ठोस धातु के रूप में तैयार किया। इसके लिए रसायन विज्ञान में उन्हें 1911 में फिर से नोबेल पुरूस्कार मिला। इस तरह वह विज्ञान की दुनिया में ऐसी पहली महिला बनीं। पति पियरे की मृत्यु के बाद उनके खाली पद की जिम्मेदारी भी मैरी क्यूरी को दी गयी। क्योंकि पूरे विश्वविद्यालय में पदार्थ विज्ञान का अध्यक्ष बनने के लिए और कोई इतना योग्य नहीं था। पहली बार किसी महिला ने यह पद सम्भाला था। 
उन्होंने पियरे क्यूरी की याद में एक प्रयोगशाला बनायी। पोलेण्ड में रेडियम प्रतिष्ठान बनवाया। आजीवन शांतिपूर्ण समाज की स्थापना के लिए प्रयास करती रहीं। इसीलिए जब ‘लीग ऑफ नेशन्स’ ने राष्ट्रों के बीच एकता बनाने को समिति बनायी तो मैरी ने उसमें सक्रिय भागीदारी की। उन्होंने कहा कि पूरी दुनिया के लिए एक जैसी वैज्ञानिक शब्दावली का उपयोग किया जाये। अब तक किये गये आविष्कार और विज्ञान की पुस्तकों की सूची बनायी जाये और दुनिया में किसी भी देश के वैज्ञानिक का काम रुपये की कमी के चलते न रुक पाये इसकी व्यवस्था की जाये। 
जिन्दगी भर विज्ञान और जनता के लिए काम करने वाली मैरी का शरीर अब जवाब देने लगा था। आँखों का चार बार ऑपरेशन होने के बाद भी ठीक न हो पायीं। फिर भी जो ज्ञान उन्होंने अर्जित किया उसे वे लिखती रहीं। उनकी किताब रेडिओएक्टिव पूरी हो गयी। पर हालत ज्यादा खराब होने लगी। डॉक्टर ने बताया कि मैरी ने प्रकृति से जिस तत्व को समाज के लिए छीना था आज वही हम से मैरी को छीन रहा है। रेडियम की किरणों ने मैरी के खून के कणों को प्रभावित करना शुरू कर दिया था। 
4 जुलाई 1934 की सुबह आसमान नीला था। सूरज की पहली किरण ने मैरी के माथे को छुआ और माथे के नीचे हमेशा के लिए बन्द हो गयी आँखों को प्यार किया। इस तरह इस महान वैज्ञानिक ने संसार से हमेशा के लिए विदाई ले ली। मैरी क्यूरी भले ही आज हमारे बीच नहीं हैं पर उनके विचार, उनके संघर्ष हमारे लिए हमेशा प्रेरणा के स्रोत रहेंगे।

–– शशि चैधरी

Saturday, February 22, 2020

पर्यावरण की रक्षा करती महिलाएँ



कुछ दिन पहले पृथ्वी का फेफड़ा कहा जाने वाला अमेजन वर्षा वन आग की लपटों में हफ्तों तक जलता रहा और यह बात हम लोगों को सोशल मीडिया के जरिये पता चली। समाचारों में इसका कहीं कोई जिक्र नहीं था, जो टीवी एंकर रात को प्राइम टाइम पर आकर गला फाड़–फाड़ कर बताते हैं कि चाँद पर क्या हो रहा है, मंगल में कैसे झाँके, परमाणु हमले में कैसे बचें आदि, उन्हें इस बात से कोई सरोकार नहीं कि अमेजन धधक रहा है।
आग लगने की रिपोर्ट सबसे पहले ब्राजील के राष्ट्रीय अन्तरिक्ष अनुसंधान संस्थान ने जून और जुलाई 2019 में दी, लेकिन इस मुद्दे को तब गम्भीरता से लिया गया जब नासा के सेटेलाइट से धुएँ की तस्वीर सामने आयी।
धुआँ इतना अधिक था कि शाओ पाब्लो शहर जो अमेजन जंगल से 2790 किमी दूर है, धुएँ की चादर से ढक गया, लगभग 22,40,000 एकड़ जंगल जले जो पूरे जंगल का लगभग 60 प्रतिशत है। 2018 के मुकाबले 2019 में ये आग 84 प्रतिशत बढ़ी है।
इस आग का सबसे ज्यादा असर वहाँ रहने वाली जनजातियों पर पड़ा। ब्राजील की अमापा राज्य का वापी समुदाय इस भीषण आग से सर्वाधिक प्रभावित हुआ। वर्षा वन में आग जनवरी से लगनी शुरू हुई, तब वहाँ के बुजुर्गों ने इस तरह की तबाही की भविष्यवाणी की थी “यदि हम मनुष्य इसी तरह ग्रह का दुरुपयोग करते रहे, तो सृष्टि का निर्माता एक दिन ऐसा दिन लायेगा जब महान आग होगी जो ग्रह को पिघला कर नष्ट कर देगी, यह समुदाय हमेशा से इसी जंगल में खाने, रहने, दवाइयों आदि के लिए आश्रित है।
इसी समुदाय की एक 59 वर्षीय महिला अजरती वापी अपनी हाईस्कूल भूगोल की कक्षा की सबसे उम्रदराज छात्रा हैं। इस उम्र में स्कूल जाना उनके मिशन का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा है ताकि वह अपने लोगांे और अमेजन के वर्षा वन में अपनी जमीन को बचा सके।
अजरती ने पुर्तगाली भाषा सीखनी भी शुरू कर दी है ताकि वह गोरों से बात कर अपनी बात दुनिया तक या एक ऐसी दुनिया में पहुँचा सके जो शायद इससे अनभिज्ञ है। कई वर्षों से वह इस सिलसिले में आने गाँव से ब्राजील, कोलम्बिया और जर्मनी तक जाकर अपने लोगों के स्वास्थ्य, जमीन व शिक्षा के अधिकार की बात रख चुकी है, जिनसे वे अभी तक वंचित हैं।
हालाँकि ये समुदाय पहली बार इन वनों के लिए नहीं लड़ा है, इससे पहले भी वे इन वनों और अपने अधिकारों के लिए लड़ चुके हैं जिसके फलस्वरूप 1996 में ब्राजील सरकार ने वापी की भूमि को चिन्हित कर इस समुदाय के लिए आरक्षित घोषित कर दिया था।
परन्तु हाल ही में इस भूमि पर गैरकानूनी खनन माफियों द्वारा अत्याधुनिक हथियारांे सहित आक्रमण किया गया जिसमें वापी के प्रमुख नेताओं में से एक एमर्या वापी की मृत्यु हो गयी।
हैरानी की बात यह है कि इन आक्रमणकारियों को ब्राजील के राष्ट्रपति बोलस्नारो द्वारा सरंक्षण दिया जा रहा है। ब्राजील के राष्ट्रपति बोलस्नारो के खिलाफ चल रहे विरोध को अनदेखा करना कठिन है। इन विरोधों में सबसे आगे मूलनिवासी महिलाएँ हैं, जो पर्यावरण और अपने अधिकारों के लिए लड़ रही हैं।
महीने की शुरुआत में, राष्ट्रपति की नीतियों के विरोध में सैकड़ों महिलाएँ ब्राजील की सड़कों पर उतर आयीं और राजधानी में स्वास्थ्य मंत्रालय की एक इमारत पर कब्जा कर लिया, जिसमें मूलनिवासी जनजातियों के लिए बेहतर स्वास्थ्य सेवा की माँग थी। बाद में वे ‘मार्गरीदास के मार्च’ में शामिल हुए, जहाँ उन्होंने बोल्सनारो की नरसंहार की नीतियों के खिलाफ विरोध किया और अमेजन वर्षा वन के संरक्षण का आह्वान किया। अपने धनुष, बाण और भाले का दान करते हुए महिलाओं ने बैनर लगाये, ‘अस्तित्व में लाने के लिए’ और मार्च करती हुई संसद की ओर बढ़ गयी।
वहीं दूसरी ओर एक्वाडोर की जनजाति वोरानी ने तेल माफिया के खिलाफ कोर्ट केस जीत लिया है।
अपने जल, जंगल, जमीन को बचाने की लड़ाई में ओडिशा के पुरी में 70 महिलाओं के एक दल ने 185 एकड़ वाले मैंग्रोव के जंगल को बचाने की मुहिम चलायी है। 20 साल से लाठी डण्डों से लैस महिलाएँ शिफ्ट में रोज जंगल की रखवाली करती हैं। महिलाएँ जंगल को अपने परिवार के सदस्य के तौर पर मानती हैं। एक वक्त था जब चिपको आन्दोलन ने पर्यावरण सुरक्षा को राष्ट्रीय मुद्दा बना दिया तो इंदिरा गाँधी ने हिमालय के वनों में पेड़ों की कटाई पर 15 वर्षों तक प्रतिबन्ध लगा दिया था। स्थानीय निवासियों ने जंगलों में ठेकेदारों द्वारा पेड़ों की कटाई के विरोध में यह आन्दोलन शुरू किया था। जंगलों में पेड़ों की कटाई के खिलाफ लोग पेड़ों से चिपक गये थे और उनका कहना था कि पेड़ों के साथ हमें भी काट दिया जाये। इनमें मुख्य नाम गौरा देवी व उनके साथियों का आता है। आज जगह–जगह तमाम तरीकों से पर्यावरण को नुकसान पहुँचाया जा रहा है, पेड़ कट रहे हैं और उन पेड़ों को गले लगाने वाले बहुत कम बचे हैं।
सितम्बर 2019 में दुनिया भर के 16 युवाओं ने बाल अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र समिति के साथ जलवायु परिवर्तन के बारे में गम्भीर कानूनी शिकायत की। इनमें भारत की 11 वर्षीय याचिकाकर्ता रिद्धिमा पाण्डे भी थी। उसने कहा कि जलवायु परिवर्तन एक ऐसी समस्या नहीं है जिसे कोई भी देश अपने दम पर हल कर सकता है। इस संकट को हल करने के लिए सभी देशों को साथ आना चाहिए।
एक तरफ चैदह वर्षीय लड़की ऑटम पेल्टियर को उत्तरी ओंटारियो में 40 राष्ट्रों के लिए एक राजनीतिक वकालत करने वाले समूह एनिश्नबेक नेशन द्वारा मुख्य जल आयुक्त नामित किया गया है, जिसमें नॉर्थ शोर कॉरिडोर और मैनिटौलिन द्वीप के साथ प्रथम राष्ट्र भी शामिल हैं। पानी की रक्षा की तरफ पेल्टियर का ध्यान उस समय गया जब वह सिर्फ आठ साल की थी। ऑटम ने महान झीलों और पानी के दूसरे स्रोतों की रक्षा करने की वकालत की, और प्रधान मंत्री और विधानसभा के साथ स्वच्छ जल के महत्त्व पर बैठकें कीं। वर्ष 2018 में, पेल्टियर ने जल संरक्षण के सम्बन्ध में संयुक्त राष्ट्र में दुनिया के नेताओं के सामने अपनी बात रखी।
वहीं एक सोलह वर्षीय पर्यावरण कार्यकर्ता ग्रेटा थनबर्ग जिसने अपने देश स्वीडन में प्रदूषण के खिलाफ जंग शुरू की जो अब पूरी दुनिया में फैल चुकी है। जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र के कार्यक्रम में ग्रेटा ने विश्व नेताओं से कहा कि ‘आपने हमारे बचपन, हमारे सपनों को छीन लिया। आपकी हिम्मत कैसे हुई ?’ तो सभी निरुत्तर थे। लेकिन सवाल यह है कि कब तक ? ये जल, जंगल, जमीन हमारे लिए क्या मायने रखते हैं ये बात हमें समझ आती है, हम जैसे लाखों लोगों को समझ आती है तो हमारी सरकारों को क्यों नही ? ऐसे में तो मलाला युसुफजई की बात बिल्कुल सही साबित होती है “जब पूरा विश्व खामोश हो, तब एक आवाज भी ताकतवर बन जाती है।”

–– शालिनी  

Friday, February 7, 2020

‘नारी मुक्ति का राजनीतिक अर्थशास्त्र’ के 50 वर्ष


दूसरे विश्वयुद्ध से पहले के करीब डेढ़ सौ साल के मजदूर आन्दोलन ने समग्रता में श्रम की लूट और उससे अमीरों की तिजोरी भरने के खिलाफ लड़ाई लड़ी और अपने पक्ष में सिद्धान्त भी विकसित किया। लेकिन फ्रांसीसी क्रान्ति के समय से ही इस शोषण के चलते महिलाओं की दुर्दशा और उसके खिलाफ क्रान्तिकारी आन्दोलन की कोशिशों को नकारने के लिए पूँजीपति वर्ग ने जिसका सहारा लिया वह था “विज्ञान”। उन्हें पिछले अनुभवों से पता चल चुका था अगर वैज्ञानिक कहें कि महिलाएँ शारीरिक, मानसिक रूप से कमजोर होती हैं तो उसके खिलाफ बोलने वाले चुप हो जायेंगे। इसकी अगुआई फ्रायड जैसे नामचीन मनोवैज्ञानिक ने की। महिलाओं के बारे में प्रचलित कुसंस्कारों को उन्होंने खुद के इजाद किये मनोविज्ञान के जरिये पुनर्स्थापित करने की कोशिश की। उनक कहना था कि महिलाएँ मानसिक रूप से कमजोर इसलिए है क्योंकि वे अपने शरीर को पुरुष के शरीर की तुलना में कमतर पाती हैं। इतिहास में हम युजनिक्स, नस्लवाद जैसे गैर–बराबरी के समर्थक सिद्धान्तों को विज्ञान के रूप में प्रस्तुत होते हुए देखते हैं । युजनिक्स के जरिये जर्मन समाज ने ऐसी माँएँ बनाने की कोशिश की जो आगे चलकर हिटलर या नेपोलियन पैदा करेंगी। दुनिया के बहुत–से वैज्ञानिकों ने इसे विज्ञान के रूप से स्वीकार भी किया था।
लेकिन दूसरे विश्वयुद्ध के बाद नारीवाद के पुनरूत्थान ने ऐसे सिद्धान्तों को वैचारिक और वैज्ञानिक, दोनों मोर्चों पर चुनौती दी। सिमोन द बोउवार, केट मिलेट आदि समाज वैज्ञानिकों ने जीवविज्ञान और समाजविज्ञान का सहारा लेते हुए ऐसे विज्ञान के पितृसत्तात्मक रूप को उजागर किया। रूस और चीन जैसे देशों में समाजवादी क्रान्ति के बाद बराबरी पर आधारित समाज बनाने की कोशिश में कारखानों, खेतों के साथ घरेलू काम का भी सार्वजनीकरण करने की कोशिश की। इसके बारे में ‘पाप और विज्ञान’ और ‘इतिहास ने जब करवट बदली’ किताब से ज्यादा जानकारी मिल सकती है। इसमें न सिर्फ कामगार मर्द, बल्कि घरेलू काम में लगी हुई औरतों को भी आजाद करने की कोशिश दिखाई देती है।
घरेलू काम से महिलाओं की आजादी की बात सुनते ही लोगों को सबसे पहले यही डर सताने लगता है कि रसोई, बाग, आँगन, सफाई, खाना कौन करेगा ? इसके बारे में प्रचलित सोच यह है कि अपनी घर, कपड़े, खाना आदि के बारे में कोई दूसरा इतना ख्याल नहीं रख सकता है। पुरुषों की न सिर्फ यह माँग होती है कि उन्हें खाना–कपड़ा हाथ में थमाया जाये बल्कि उसे प्यार से पेश भी किया जाये। यह काम महिलाओं के अलावा कौन कर सकता है ? बहुत से वैज्ञानिकों के साथ व्यक्तिगत चर्चा में हमने उन्हें यह कहते हुए सुना है कि नारी–पुरुष का श्रम विभाजन हर प्रजाति के प्राणी में है, तो इनसानों में होने से क्या दिक्कत है ? यही कारण है कि स्टूडेंट शब्द का कोई स्त्रीलिंग नहीं है। क्योंकि महिलाओं को बीसवीं सदी के शुरू होने तक तथाकथित विकसित देशों में भी किसी स्कूल, कॉलेज या विश्वविद्यालय में दाखिला लेने की इजाजत नहीं थी। ऐसे में बहुत–सी महिलाएँ और उनके साथ देने वाले पुरुषों की लम्बी कोशिशों के बाद उन्नीसवीं सदी के आखिरी में कुछ गिनी–चुनी महिलाएँ दाखिल हुर्इं और डिग्रियाँ भी हासिल कीं। उनमें से एक प्रमुख नाम है क्रान्तिकारी जर्मन मजदूर नेता रोजा लक्जमबर्ग।
बहुत से आन्दोलनकारी या सैद्धान्तिक बुद्धिजीवी इस बात पर सवाल उठाते हैं कि अगर मौजूदा व्यवस्था में महिलाओं का उत्पीड़न जारी है तो इसे पूँजीवादी नहीं बल्कि सामन्ती समाज कहना चाहिए। उलटे तरफ से अगर सोचा जाये तो सवाल कुछ यूँ है जो पूँजीवाद दुनिया के बहुत से लोगों को सामन्ती गुलामी से मुक्त करवाने में तत्पर था, महिलाओं की मुक्ति के लिए वह तत्पर क्यों नहीं है ? क्या महिलाओं का घरेलू काम के जरिये शोषित होते रहना उसके मुनाफे कि हवस के लिए जरूरी है ?
इस सवाल पर अठारहवीं सदी में फ्रांस की ओलिम्प द गूज और इंग्लैण्ड की मेरी वोल्स्टेनक्राफ्ट के बाद सबसे गम्भीर दस्तावेज उन्नीसवीं सदी में फ्रेडरिक एंगेल्स की किताब ‘परिवार, निजी सम्पत्ति और राज्य की उत्पत्ति’ रही है। उसमें उन्होंने बताया कि कैसे प्राचीन श्रम विभाजन इतिहास में धीरे–धीरे ठोस रूप में तब्दील हुआ और महिलाओं की दोयम दर्जे की स्थिति को पैदा किया। समाधान के रूप में उन्होंने पूँजीवादी व्यवस्था का अन्त कर न सिर्फ अमीरी–गरीबी को खत्म करने की बात की, बल्कि लैंगिक भेद से मुक्त समाज बनाने का भी आह्वान किया।
इस कड़ी में दुनिया भर के प्रगतिशील आन्दोलनों ने बीसवी सदी में भी योगदान किया। उदाहरण बतौर गुलाम भारत की एक लेखिका रुकैया शेखावत हुसैन ने ‘सुल्ताना का सपना’ में एक ऐसी समाज की कल्पना की जिसमें परिवार, समाज और राज्य में प्रमुख भूमिका महिलाओं की है। एक सपने के तौर पर ही सही, महिलाओं ने इसे लेकर मुखर होना शुरू किया था। दूसरे विश्व युद्ध के बाद जब मजदूर आन्दोलन को कमजोर करने के लिए ‘सांस्कृतिक वर्चस्व और अधीनता’ सिद्धान्त को अमरीकी और यूरोपीय विश्वविद्यालयों की सराहना मिली तो महिला–मुक्ति के सवाल के बारे में नये तरीके से सोचना और आन्दोलन को दिशा देना जरूरी हो गया। ऐसे मोड़ पर सिमोन द बोउवार कहती हैं “मेरा जुड़ाव नारीवाद की उस धारा के प्रति है जो नारीमुक्ति को वर्ग संघर्ष और सम्पूर्ण समाज की मुक्ति के साथ जोड़कर देखे और उस दिशा में प्रयास करे।”
कनाडा की मार्गरेट लो बेन्स्टोन साइमन फ्रेजर विश्वविद्यालय में सैद्धान्तिक रसायन की अध्यापिका थीं। मार्गरेट ने कॉलेज से रसायन और दर्शन में डिग्री हासिल की और बाद में सैद्धान्तिक रसायन में पीएचडी की। लेकिन सिर्फ वैज्ञानिक के रूप में अपनी पहचान से नाखुश थीं। उनका कहना था, “हम नारीवादी हैं न सिर्फ महिला उत्पीड़न के अपने खुद के अनुभवों के चलते, बल्कि इसलिए भी हैं कि किसी भी तरह का उत्पीड़न अन्यायपूर्ण है। हमें यह भी यकीन है कि समाज को बदलकर हर तरह के उत्पीड़न से मुक्ति सम्भव है।” इसी बौद्धिक प्रतिबद्धता के चलते उन्होंने 1969 में एक निबन्ध प्रकाशित किया जिसका शीर्षक है “नारीमुक्ति का राजनीतिक अर्थशास्त्र” (उत्साही पाठक गार्गी प्रकाशन की पुस्तक ‘इतिहास जैसा घटित हुआ’ में इसे पढ़ सकते हैं)। तब से लेकर आज तक पिछले 50 साल में इस निबन्ध ने नारी मुक्ति के सवाल को दुनिया के हर तरह के शोषण–उत्पीड़न से आजादी के सवाल से जोड़ने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी है।
अक्सर किसी भी कमाऊ पेशे में जाना महिलाओं के लिए दोहरी जिम्मेदारी पैदा करता है। अगर घर का काम सम्भालकर कोई नौकरी कर सके तो घर वाले और काम देने वाले, दोनों खुश रहते हैं। जबकि पुरुषों के लिए कामगार होने का मतलब हर तरह के घरेलू कामों से आजादी है। अगर कामगार के रूप में रोजगारशुदा न हों तो इक्के–दुक्के काम करके (सब्जी, राशन आदि खरीद लाना) वे अहसान भी जताते हैं। जो महिलाएँ काम करने बाहर जा रही हैं उनका शोषण तो दिखता है, लेकिन जो काम करने बाहर नहीं जातीं उनके कामों को कोई नहीं गिनता। नारीवाद के नये प्रवक्ताओं ने इसे एक ठोस सवाल के रूप में पेश किया। अगर वे बाहर काम करने नहीं जातीं, तो वे क्या कोई काम नहीं करती हैं ? या उनकी मेहनत की लूट नहीं हो रही है ? अगर लूट हो रही है तो कौन लूट रहा है ? इस लूट से पूँजीवाद को कितना लाभ है ?
बेन्स्टोन ने ‘महिला’ तबके को परिभाषित करने के लिए राजनीतिक अर्थशास्त्र के उस सैद्धान्तिक ढाँचे का इस्तेमाल किया जो मजदूर आन्दोलन के चलते उन्नीसवीं सदी में पैदा हुआ था और बीसवीं सदी में और ज्यादा विकसित भी हुआ है। इस निबन्ध में सीधा सवाल उठाया गया “क्या उत्पादन के साधन के साथ सम्बन्ध के जरिये जैसे मजदूर और पूँजीपति को परिभाषित किया जाता है, वैसे ही महिलाओं को परिभाषित करना सम्भव है ?” उनका जवाब था “हाँ, लेकिन उनका काम और शोषण अक्सर मौद्रिक अर्थव्यवस्था के बाहर होने के चलते अदृश्य रह जाता है। इसलिए उत्पादन के साधन के साथ सीधा सम्बन्ध भी परिभाषित करना मुश्किल होता है।” मशहूर अर्थशास्त्री पॉल स्वीजी ने अपनी पहली किताब “थ्योरी ऑफ कैपिटलिस्ट डेवलपमेंट” में श्रम बाजार के बारे में बात करते हुए इस तरफ महज एक इशारा किया था कि मजदूरों का उत्पादन (जन्म और पालन–पोषण) बाकी सामानों की तरह नहीं है इसलिए श्रम बाजार की गतिकी को महज माँग–आपूर्ति के ढाँचे में नहीं नापा जा सकता। इस बात को विस्तारित करते हुए बेन्स्टोन ने पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था में मजदूरों को पैदा करने, उनका पालन–पोषण करने से लेकर उनकी हर तरह की मानसिक और शारीरिक चाहत को पूरा करने में महिलाओं की भूमिका के बारे में विस्तार से चर्चा की। इसके जरिये उन्होंने साबित किया कि कैसे परिवार के अन्दर महिलाओं का काम सिर्फ ‘निजी दायरे’ में होने के चलते सिर्फ उपयोग मूल्य पैदा करता है और उसका बाजार में विनिमय मूल्य होने से बच जाता है। यहाँ से उन्होंने आने वाले समतामूलक समाज के लिए महिलाओं के घरेलू कामों का सार्वजनीकरण की जरूरत को साबित किया। महिलाओं के घरेलू कामों के सार्वजनीकरण की माँग नयी नहीं थी। लेकिन उसे महज समतामूलक समाज की जरूरत के रूप में देखा गया था। बेन्स्टोन का कहना था यह समतामूलक समाज की जरूरत नहीं बल्कि उसे बनाने की एक जरूरी शर्त है।
इस निबन्ध ने नारी मुक्ति आन्दोलन और महिला अध्ययन में एक नयी धारा को जन्म दिया जिसका अकादमिक नाम है ‘सामाजिक पुनरुत्पादन सिद्धान्त’। दुनिया के तमाम आन्दोलनों और विश्वविद्यालयों में नये सिरे से घरेलू महिलाओं के काम को ‘काम’ यानी उत्पादक श्रम में शामिल करने के लिए बहस शुरू हुई। इसका नतीजा यह हुआ की बेन्स्टोन को अपना पसन्दीदा विषय रसायनशास्त्र छोड़ना पड़ा और उन्हीं की पहल पर बने महिला अध्ययन केन्द्र की जिम्मेदारी लेनी पड़ी। अपने सैद्धान्तिक काम को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने स्थानीय स्तर पर महिला आन्दोलनों में सक्रिय भागीदारी करना जरूरी समझा। वे कनाडा के वैंकुवर वीमेन्स कॉकस और ब्रिटिश कोलम्बिया के वीमेन्स स्किल डेवलपमेंट सेन्टर की संस्थापक सदस्य थीं। मजदूर आन्दोलन और युद्धविरोधी गीत सिखाने वाले संगठन ‘द यूफोनिअसली फेमिनिस्ट एण्ड नॉन–परफॉर्मिंग क्विंटेट’ की सक्रिय सदस्य रहीं। अपनी जुड़वा बहन मरियन लो को भी उन्होंने सैद्धान्तिक रसायन के साथ–साथ नारी मुक्ति आन्दोलन और शोध में शामिल होने के लिए प्रोत्साहित किया। दोनों ने मिलकर तकनीकी विकास के खतरे के रूप में मजदूरों के गैर–कौशलीकरण और महिला मजदूरों पर पड़ने वाले उसके सबसे बुरे प्रभाव के बारे में शोधपत्र भी लिखा, जिसकी सच्चाई आज हमारे आँखों के सामने है।
सितम्बर, 2019 की टाइम्स ऑफ इंडिया की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में तकनीकी विकास के साथ–साथ नौकरी करने वाली महिलाओं की संख्या 2004–05 में 43 फीसदी से घट कर 2017–18 में 23 फीसदी हो गयी है। इस निबन्ध में बताया गया है कि विनिर्माण तथा निर्माण क्षेत्र में मन्दी और कृषि में मशीनीकरण महिला मजदूरों की बेरोजगारी का एक मुख्य कारण है। इसके चलते आँगनवाड़ी और आशा जैसी योजनाओं में काम करना ही ग्रामीण महिलाओं के सामने एकमात्र रास्ता है। लेकिन आँगनवाड़ी और आशा कर्मचारियों की दिहाड़ी बहुत से राज्यों में उन्हीं राज्यों की न्यूनतम दिहाड़ी से भी बहुत कम है, यानी ये रोजगार भी एक तरह के कागजी रोजगार हैं जिससे जिन्दगी की बुनियादी जरूरत पूरी नहीं हो पातीं।
बेन्स्टोन ने अपने लेख में महिलाओं के कामों का सार्वजनीकरण और औद्योगीकरण न होने के चलते उसे पूँजीवाद से भी पहले की स्थिति का काम बताया, जो सही नहीं है। उस दौर के बहुत से नारीवादियों ने उनके इस सूत्रीकरण की आलोचना भी की थी। उनका कहना था कि महिलाओं का घरेलू काम इतिहास में कभी भी उद्योग या सार्वजनिक चरित्र का नहीं रहा, लेकिन इससे यह साबित नहीं होता है की इनसान कबीलाई समाज से आगे निकला ही नहीं है। आज जरूरत इस बात पर सोचने की है कि पूँजीवादी समाज किस तरह परिवार और उससे सम्बन्धित कामों में महिलाओं को उलझाये रखता है। इसके समानान्तर दो तर्क एक ही साथ काम करते हैं। पहला, आर्थिक तर्क जिसके चलते किसी भी मजदूर को कम से कम मजदूरी देकर या बेगारी में काम करवाकर अथाह मुनाफे का इन्तेजाम किया जाता है (पूँजीवाद)। दूसरा, सांस्कृतिक तर्क, जो आर्थिक तर्क का ही दूसरा रूप है–– महिलाओं का कम घर में और आजीविका कमाने का काम पुरुषों का है या “लड़की नौकरी क्यों करेगी ? लड़के सब मर गये क्या ?” क्योंकि दूसरा तर्क सांस्कृतिक स्तर पर कारगर है इसलिए इसका छलावा जल्दी पकड़ में नहीं आता। एक मशहूर बॉलीवुड अभिनेत्री ने लगभग एक दशक पहले भाजपा की सदस्यता लेते हुए महिलाओं की आजादी के बारे में कहा था “महिलाओं का काम बच्चा पालना, परिवार का ख्याल रखना है। इस काम को करने में उसे जितनी आजादी चाहिए वह मिलनी चाहिए।” यह वही सांस्कृतिक तर्क है जिसको हर परिवार में संस्कार के रूप में लड़के और लड़की दोनों जब बोलना भी नहीं सीखते, तब से सिखायी जाती है। इस तरह आर्थिक और सांस्कृतिक तर्क दोनों ही एक–दूसरे के परिपूरक होते हैं। इसलिए महिलाएँ जब तक महज पितृसत्ता को गाली देकर अपना गुस्सा जाहिर करती रहेंगी तब तक पितृसत्ता को कोई खतरा नहीं है। और आज पूँजीवादी पितृसत्ता चाहती भी यही है कि महिलाएँ जी भरके पुरुष और पितृसत्ता दोनों को गाली दें, बस सम्पत्ति की व्यवस्था में कोई दखलंदाजी न करें। उनके शरीर और मन को नियंत्रित करने की बागडोर अब भी पुरुषों के कब्जे में है इस बात को छुपाने के लिए ही महिलाओं को देवी का दर्जा दिया जाता है। जो औरत इस सीमा में बँधने को तैयार नहीं है उसे तुरन्त वेश्या या चुड़ैल का दर्जा देने में भी ये समाज देर नहीं लगाता।
एक मजेदार तथ्य है की बेन्स्टोन का यह चर्चित निबन्ध प्रकाशित होने के तुरन्त बाद ही बहुत सारे देशों के क्रान्तिकारी संगठनों और पार्टियों में भी इस मुद्दे पर नये सिरे से बहस शुरू हो गयी। यूरोप के बहुत–से देशों में क्रान्तिकारी संगठनों में बेन्स्टोनवादी एक नयी धारा ही विकसित हो गयी। लेकिन बेन्स्टोन की समझ और दिशा नारीवादी आन्दोलन को अन्य आन्दोलनों से अलग करने की नहीं बल्कि सामाजिक–राजनीतिक–आर्थिक् बदलवों के लिए जारी तमाम आन्दोलनों का हिस्सा बनने की थी। उनकी बातों का सार कुछ ऐसा है––
नौकरी न करने वाली महिलाएँ भी रोज काम करती हैं, बशर्ते ऐसा काम जो बाजार में नहीं बिकता। यानी वह उपभोग मूल्य तो है लेकिन विनिमय मूल्य में उसे तब्दील नहीं किया जाता। लेकिन यह उपभोग मूल्य अगर पैदा न हो यानी घर में झाड़ू–पोछा, कपडे़–बर्तन, खाना–पीना, बच्चों और बुजुर्गों का देखभाल अगर न हो तो कमाऊ पुरुष भी बाजार में अपनी श्रमशक्ति बेचकर दो पैसा कमाने की स्थिति में नहीं रहेगा। समग्रता में देखा जाये तो पूरी दुनिया के मजदूरों को काम करने लायक बनाये रखने में महिलाओं का श्रम लगा है जिसकी कोई कीमत मौजूदा पूँजीवादी व्यवस्था अदा नहीं करती है। यानी सारा काम मुफ्त में हो रहा है और उसका फायदा दुनिया भर के पूँजीपति लूट रहे हैं अपने काम में लगाये हुए मजदूरों से कम दिहाड़ी के बदले ज्यादा से ज्यादा काम लेकर। आज की पूँजीवादी व्यवस्था न सिर्फ कामगार मजदूरों को लूट कर मुनाफा कमा रही है, बल्कि घरेलू काम करने वाली महिलाओं को एक भी पैसा भुगतान किये बगैर अथाह मुनाफा कमा रही है। अगर घरेलू काम के लिए तनख्वाह या दिहाड़ी देनी पड़े तो आर्थिक वितरण का इतना भारी मात्रा में बदलाव होगा कि मुनाफा कमाना लगभग असम्भव हो जायेगा। इसी के चलते पूँजिपति वर्ग नारी मुक्ति के सवाल पर चुप्पी साधे रहता हैै। दूसरी ओर, ठीक इसी कारण सेनारी मुक्ति आन्दोलन को हर तरह के शोषण–उत्पीड़न से आजादी के सवाल से खुद को जोड़ना पड़ेगा।

–– अमित इकबाल