Friday, April 29, 2011

मुक्ति के स्वर , अंक - १३ का सम्पादकीय

 सम्पादकीय


           महिला दिवस (8  मार्च) महिलाओं का त्योहार है. इस दिन पूरी दुनिया में जागरूक महिलाएँ अपनी उपलब्धियों, संघर्षों और चुनोतियों का लेखा - जोखा लेती हैं. अपनी स्थिति में बदलाव के संकल्पों  को दुहराती हैं. अपनी दृढ़ता , साहस और एकजुटता का इजहार करती हैं. इसकी शुरुआत अब से ठीक 100  साल पहले हुई  थी. 1910  में मेहनतकश महिलाओं का अन्तराष्ट्रीय सम्मेलन कोपनहेगन में हुआ था. जर्मनी की समाजवादी जनवादी पार्टी की महिला नेता क्लारा जेटकिन ने उस सम्मेलन में अन्तराष्ट्रीय महिला दिवस मनाने का विचार रखा था. उनका प्रस्ताव था की दुनिया के हर देश में एक निश्चित तारीख को अपने मुक्ति संघर्ष को आगे बढ़ाने और अपनी संघर्षशील एकता प्रकट करने के लिए हर साल महिला दिवस का आयोजन किया जाय. 17 देशों से आयी लगभग 100  महिला प्रतिनिधियों ने इस प्रस्ताव को सर्वसहमति से स्वीकार कर लिया.

          अगले साल 19  मार्च 1911  को प्रथम अन्तराष्ट्रीय महिला दिवस का आरम्भ हुआ जिसे अभूतपूर्व सफलता मिली. शहरों और कस्बों में ही नहीं, बल्कि गाँव की चौपालों तक में महिलाओं की भीड़  उमड़ पड़ी. उस दिन पुरुषों ने बच्चे सम्भाले और घर का काम करने की जिम्मेदारी उठायी, जबकि घर में कैद रहने वाली महिलाओं ने भी कार्यक्रम में हिस्सेदारी की. 
          1913  में अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस की तारीख को बदल कर 8  मार्चकर दिया गया जो आज पूरी दुनिया में स्वीकृत है. संयुक्त राष्ट्र संघ ने 1975  के साल को जब महिला वर्ष घोषित किया तो उसी के साथ उसने अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस को भी मान्यता दे दी.  रूस , चीन , वियतनाम , मंगोलिया  सहित कई देशों में इस दिन राष्ट्रीय अवकाश होता है. 

         पिछले 100  वर्षों की इस संघर्ष यात्रा के दौरान दुनिया भर की बहनों ने अपनी चेतना , संगठन और संघर्ष के दम पर अपने लिए ढेर सारे राजनीतिक और कानूनी अधिकार हासिल किये.  इसके लिए हमारी पूर्ववर्ती पीढ़ियों ने असंख्य बलिदान किये. पुरुष प्रधान समाज की  जकड़बंदियों से जूझते हुए जीवन के हर क्षेत्र में उन्होंने अपनी जगह बनायी. और हमारे लिए और आगे जाने का रास्ता तैयार किया. पिछड़े से पिछड़े समाजों में भी नारी मुक्ति की आकांक्षा और सपना अब कोई अजूबा या अनजानी-सी बात नहीं. इस बीच आर्थिक सामाजिक ,राजनीतिक ,शैक्षिक, हर पहलू से हमारी स्थिति में काफी बदलाव आये हैं . समाज के उपरी पायदान पर स्थित महिलाओं ने थोड़ी अधिक और आम महिलाओंने अपेक्षतया बहुत कम तरक्की की है. लेकिन समग्रता में पूरे महिला समुदाय की स्थिति आज वैसी ही नहीं है जैसी हमारी दादी - पड़दादी के ज़माने में रही थी. हालांकि इसमें भी कोई संदेह नहीं की इन तमाम सुधारों के बावजूद  हमारी मुक्ति और बराबरी का लक्ष्य आज भी हमसे कोसों दूर है.
          सामन्ती समाज के विधि - निषेध की जकड़ कुछ ढ़ीली जरुर हुई है, लेकिन आज भी हमारी जिंदगी  पर उसका काफी असर मौजूद है. इसके साथ ही पूँजीवाद के नृशंस हमले नित नए रूपों में  सामने आ रहे हैं. पुरुष वर्चस्व के जर्जर रूप ख़त्म नहीं हुए बल्कि पश्चिम की विषैली दवाओं के साथ मिलकर इनका स्वरुप पहले से भी अधिक बर्बर  और जघन्य हो  गया है.  फर्क इतना ही है कि पहले जो क्रूरता नंगे और भौड़े रूप में सामने आती थी , आज वह सूक्ष्म,  जटिल और परिष्कृत रूप ले चुकी हैं.  स्त्री - भ्रूण हत्या इसका स्पष्ट प्रमाण है, जहाँ पुत्र कि लालसा में या दहेज़ बचाने के लिए बेटियों को पैदा होने से पहले, गर्भ में ही मार दिया जा  रहा है. इसके लिए अल्ट्रासाउंड और अन्य नयी वैज्ञानिक तकनीकों और विधियों का इस्तेमाल किया जा रहा है. अब हत्यारे ' शिक्षित ', 'सुसंस्कृत ' चिकित्सक होते हैं, पुराने ज़माने की अनपढ़ - गँवार  दाइयां  नहीं. 
           वैसे तो नारी समुदाय के खिलाफ हिंसा और क्रूरता के इतने रूप हैं, जिनकी गिनती  करवाना  सम्भव नहीं. मान -मर्यादा के नाम पर हत्या, घरेलू हिंसा, कार्यस्थल पर हिंसा, दहेज़ हत्या, कन्या- भ्रूण हत्या, बलात्कार, देह व्यापार, पुलिस द्वारा यंत्रणा, युद्ध और अशांत क्षेत्रों में तबाही, आतंकी और राज्य आतंकी हिंसा, भूख - कुपोषण - रोग से अकाल मौत, विकास के नाम पर विस्थापन और उत्पीडन, असंगठित क्षेत्र में खटते - खटते मर जाना ,  सांप्रदायिक,  जातिवादी  और नस्ली  उन्माद का शिकार  बनना, प्रसवकालीन मौत,  इलाज बिना मौत ... सूची अन्तहीन है, नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो  द्वारा हर साल प्रकाशित होने वाले   आंकड़ों में लगातार  बढ़ोतरी हो रही है,  वही दूसरी ओर पुरुषों की तुलना में स्त्रियों की संख्या खतरनाक हद तक कम  होती  जा रही है. 

          पितृसता की सदियों पुरानी जकड़बन्दी के खिलाफ बढ़ती चेतना और प्रतिरोध की प्रतिक्रिया में  दमन- उत्पीड़न का तेज होना आश्चर्य नहीं है. महिलाओं पर बढ़ती हिंसा के पीछे यह एक प्रमुख कारण है कि अब वे अन्याय को चुपचाप बर्दाश्त करने को तैयार नहीं है. यह एक कष्टप्रद किन्तु  सकारात्मक  तथ्य है.       
     
                         

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