सभी बहनों को ८ मार्च, अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर क्रन्तिकारी अभिवादन और शुभकामनाएँ!
‘सत्ता’ का सामान्य अर्थ है– एक पक्ष का दूसरे पर शासन, नियंत्रण, वर्चस्व. पितृसत्ता का मतलब पुरुषों द्वारा समग्रता में महिलाओं के ऊपर शासन, नियंत्रण, वर्चस्व और अधीनीकरण. साथ ही इसमें पुरुषों द्वारा स्त्रियों के शोषण, उत्पीड़न और हिंसा के लिए अनुकूल अवसर प्रदान करना भी निहित है. पितृसत्ता की समस्या में पुरुष अहंकार, पुरुष वर्चश्व, पुरुष उपेक्षा, पुरुष पूर्वाग्रह, पुरुष पक्षपात की एक पूरी श्रृंखला शामिल है. इन सब को स्वाभाविक जीवन शैली के रूप में सामाजिक स्वीकृति, यहाँ तक कि मंजूरी हासिल है. यही कारण है कि अधिकांश मामलों में इसे एक गंभीर सामाजिक बीमारी नहीं माना जाता, जबकि वास्तविकता यही है. इस तरह, यह आलोचना से परे रहता है, इसे सही ठहराया जाता है और इसे स्वत: सिद्ध माना जाता है.
अधिकांश महिलाओं के लिए रोज–रोज की जिंदगी में पितृसत्ता का असली मतलब है– तरह–तरह के भेदभाव से दम घुटना, आजादी में बिनावजह कटौती और सुविधाओं में भारी कमी. निश्चय ही इसका मतलब है. ज्यादा से ज्यादा घरेलू काम, ज्यादा से ज्यादा जिम्मेदारी, बहुत अधिक पीड़ा और बहुत कम सम्मान, बहुत कम प्रभाव तथा किसी भी परिसम्पत्ति, संसाधन, सम्पदा, आय और यहाँ तक कि खुद अपनी जिंदगी पर भी बहुत ही कम अधिकार और नियंत्रण. इसका मतलब दोयम दर्जे का नागरिक होना है, जिसे अतिरिक्त आर्थिक शोषण बर्दास्त करना पड़ता है. इसका मतलब है सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से अधीनता, दमन और उत्पीड़न. इसका मतलब है– कहीं भी, कभी भी, हर तरह की प्रताड़ना और हिंसा, जिसकी शुरुआत जन्म लेने से पहले ही हो जाती है और मृत्यु तक जारी रहती है, घर के भीतर भी और सार्वजानिक जीवन में भी.
महिलाएँ चाहे किसी भी जाति या वर्ग की हों, पितृसत्ता समान रूप से उनकी जिंदगी को बहुत ही कठिन और असह्य बना देती है. हालाँकि महिलाएँ जिस खास वर्ग, जाति, धर्म, राष्ट्र या कबीले से सम्बन्धित होती हैं, उसके अनुसार पितृसत्ता के रूप और अंतवस्तु में अंतर भी होते हैं– गरीब ग्रामीण, दलित और मुस्लिम महिलाओं को कई मायने में सबसे बुरी तरह इसकी मार झेलनी पड़ती है.
दूसरी ओर पुरुषों के मामले में पितृसत्ता का मतलब है– किसी भी उपलब्ध संसाधन, परिसम्पत्ति और आय, जिनमें महिलाएँ भी शामिल हैं, ज्यादा से ज्यादा नियंत्रण, इसका मतलब है तुलनात्मक रूप से बेहतर अवसर. इसका मतलब है, सामाजिक और सांस्कृतिक क्षेत्र में बेहतर ठाट–बाट, मान–सम्मान और प्रभाव. यह सब लड़कियों/महिलाओं के ऊपर कम उम्र से ही उनके सामायिक वर्चश्व, प्रताड़ना और हिंसा को आसान बना देता है. इसके चलते पुरुषों को अपने घर में महिलाओं से ज्यादा आराम मिलता है, जबकि काम और जिम्मेदारी कम होती है.
हम बनावटी पदानुक्रम और सत्ता की जिस व्यवस्था में जी रहे हैं, वह पुरुषों द्वारा महिलाओं के ऊपर शासन, नियंत्रण और वर्चश्व को परिवार संस्था के जरिये बढ़ावा देती है. पितृसत्ता अधिकांश पुरुषों की जिंदगी को, जिनमें मजदूर और अन्य उत्पीड़ित वर्गों/जातियों के पुरुष भी शामिल हैं, कई–कई तरीकों से बेहद आसान बनाती है. ऐसे पुरुषों के नियंत्रण में कम से कम कुछ औरतें तो होती ही हैं, जिनका वे फायदा उठा सकते है, उनके प्रति गैरजिम्मेदाराना व्यवहार कर सकते हैं तथा उनके ऊपर अपना गुस्सा और कुंठा निकाल सकते हैं. मौका पाते ही वे दूसरी औरतों को भी निशाना बनाते हैं और उनके साथ होने वाली हिंसा में शामिल हो जाते हैं.
यौन नैतिकता के दोहरे मानदंड इस बात को सुनिश्चित करते हैं कि पुरुष व्यभिचार, द्विविवाह, विवाहेत्तर यौनक्रिया, वेश्यावृति इत्यादि करता रह सकता है, जबकि महिलाएँ ऐसा कोई भी कदम उठा लें तो उसके भयंकर परिणाम सामने आते हैं. जिन वर्गों, जातियों, धर्मों, राष्ट्रीयताओं या कबीलों से किसी पुरुष का सम्बंध होता है, उनकी भिन्नताएँ निश्चय ही उनके वर्चश्व को सीमित या विस्तारित करने में प्रमुख भूमिका निभाती हैं लेकिन पितृसत्ता सारत: और अनिवार्यत: सभी पुरुषों को कुल मिला कर महिलाओं की तुलना में कहीं ज्यादा आसान और आरामदायक जिंदगी बिताने में मददगार है.
नारी मुक्ति की बुनियादी शर्त है पितृसत्ता का अंत.
‘सत्ता’ का सामान्य अर्थ है– एक पक्ष का दूसरे पर शासन, नियंत्रण, वर्चस्व. पितृसत्ता का मतलब पुरुषों द्वारा समग्रता में महिलाओं के ऊपर शासन, नियंत्रण, वर्चस्व और अधीनीकरण. साथ ही इसमें पुरुषों द्वारा स्त्रियों के शोषण, उत्पीड़न और हिंसा के लिए अनुकूल अवसर प्रदान करना भी निहित है. पितृसत्ता की समस्या में पुरुष अहंकार, पुरुष वर्चश्व, पुरुष उपेक्षा, पुरुष पूर्वाग्रह, पुरुष पक्षपात की एक पूरी श्रृंखला शामिल है. इन सब को स्वाभाविक जीवन शैली के रूप में सामाजिक स्वीकृति, यहाँ तक कि मंजूरी हासिल है. यही कारण है कि अधिकांश मामलों में इसे एक गंभीर सामाजिक बीमारी नहीं माना जाता, जबकि वास्तविकता यही है. इस तरह, यह आलोचना से परे रहता है, इसे सही ठहराया जाता है और इसे स्वत: सिद्ध माना जाता है.
अधिकांश महिलाओं के लिए रोज–रोज की जिंदगी में पितृसत्ता का असली मतलब है– तरह–तरह के भेदभाव से दम घुटना, आजादी में बिनावजह कटौती और सुविधाओं में भारी कमी. निश्चय ही इसका मतलब है. ज्यादा से ज्यादा घरेलू काम, ज्यादा से ज्यादा जिम्मेदारी, बहुत अधिक पीड़ा और बहुत कम सम्मान, बहुत कम प्रभाव तथा किसी भी परिसम्पत्ति, संसाधन, सम्पदा, आय और यहाँ तक कि खुद अपनी जिंदगी पर भी बहुत ही कम अधिकार और नियंत्रण. इसका मतलब दोयम दर्जे का नागरिक होना है, जिसे अतिरिक्त आर्थिक शोषण बर्दास्त करना पड़ता है. इसका मतलब है सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से अधीनता, दमन और उत्पीड़न. इसका मतलब है– कहीं भी, कभी भी, हर तरह की प्रताड़ना और हिंसा, जिसकी शुरुआत जन्म लेने से पहले ही हो जाती है और मृत्यु तक जारी रहती है, घर के भीतर भी और सार्वजानिक जीवन में भी.
महिलाएँ चाहे किसी भी जाति या वर्ग की हों, पितृसत्ता समान रूप से उनकी जिंदगी को बहुत ही कठिन और असह्य बना देती है. हालाँकि महिलाएँ जिस खास वर्ग, जाति, धर्म, राष्ट्र या कबीले से सम्बन्धित होती हैं, उसके अनुसार पितृसत्ता के रूप और अंतवस्तु में अंतर भी होते हैं– गरीब ग्रामीण, दलित और मुस्लिम महिलाओं को कई मायने में सबसे बुरी तरह इसकी मार झेलनी पड़ती है.
दूसरी ओर पुरुषों के मामले में पितृसत्ता का मतलब है– किसी भी उपलब्ध संसाधन, परिसम्पत्ति और आय, जिनमें महिलाएँ भी शामिल हैं, ज्यादा से ज्यादा नियंत्रण, इसका मतलब है तुलनात्मक रूप से बेहतर अवसर. इसका मतलब है, सामाजिक और सांस्कृतिक क्षेत्र में बेहतर ठाट–बाट, मान–सम्मान और प्रभाव. यह सब लड़कियों/महिलाओं के ऊपर कम उम्र से ही उनके सामायिक वर्चश्व, प्रताड़ना और हिंसा को आसान बना देता है. इसके चलते पुरुषों को अपने घर में महिलाओं से ज्यादा आराम मिलता है, जबकि काम और जिम्मेदारी कम होती है.
हम बनावटी पदानुक्रम और सत्ता की जिस व्यवस्था में जी रहे हैं, वह पुरुषों द्वारा महिलाओं के ऊपर शासन, नियंत्रण और वर्चश्व को परिवार संस्था के जरिये बढ़ावा देती है. पितृसत्ता अधिकांश पुरुषों की जिंदगी को, जिनमें मजदूर और अन्य उत्पीड़ित वर्गों/जातियों के पुरुष भी शामिल हैं, कई–कई तरीकों से बेहद आसान बनाती है. ऐसे पुरुषों के नियंत्रण में कम से कम कुछ औरतें तो होती ही हैं, जिनका वे फायदा उठा सकते है, उनके प्रति गैरजिम्मेदाराना व्यवहार कर सकते हैं तथा उनके ऊपर अपना गुस्सा और कुंठा निकाल सकते हैं. मौका पाते ही वे दूसरी औरतों को भी निशाना बनाते हैं और उनके साथ होने वाली हिंसा में शामिल हो जाते हैं.
यौन नैतिकता के दोहरे मानदंड इस बात को सुनिश्चित करते हैं कि पुरुष व्यभिचार, द्विविवाह, विवाहेत्तर यौनक्रिया, वेश्यावृति इत्यादि करता रह सकता है, जबकि महिलाएँ ऐसा कोई भी कदम उठा लें तो उसके भयंकर परिणाम सामने आते हैं. जिन वर्गों, जातियों, धर्मों, राष्ट्रीयताओं या कबीलों से किसी पुरुष का सम्बंध होता है, उनकी भिन्नताएँ निश्चय ही उनके वर्चश्व को सीमित या विस्तारित करने में प्रमुख भूमिका निभाती हैं लेकिन पितृसत्ता सारत: और अनिवार्यत: सभी पुरुषों को कुल मिला कर महिलाओं की तुलना में कहीं ज्यादा आसान और आरामदायक जिंदगी बिताने में मददगार है.
नारी मुक्ति की बुनियादी शर्त है पितृसत्ता का अंत.
(मुक्ति के स्वर पत्रिका के अंक 15 में प्रकाशित)
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