Thursday, September 26, 2024

भारतीय महिला आन्दोलन : अवलोकन

 


जब से पितृसत्ता ने समाज व्यवस्था को जकड़ा है, तब से ही गुलाम बनी महिलाएँ कभी खुले तो कभी अप्रत्यक्ष तौर से अपना विरोध दर्ज कराती आ रही हैं। यह विरोध कभी व्यक्तिगत तो कभी सामूहिक रहा है। सत्ता के चाटुकार इतिहासकारों ने लगातार इस विरोध को नकारा, नजरअन्दाज किया और छुपाया है, जिसके चलते इतिहास के पन्नों में महिला विरोध के प्रमाण ढूँढना मुश्किल है। न सिर्फ इतिहास में, बल्कि वर्तमान में भी महिलाओं के विरोधी स्वर को दबाने की चैतरफा कोशिश जारी है। पर यह आवाज न तब दब सकी थी, न अब दब सकेगी।

वैसे तो समाज में ढेरों असमानताएँ हैं और बराबरी के लिए संघर्ष जारी है, पर जब बात महिलाओं के संघर्ष की आती है तो हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि महिलाएँ कही न कहीं पुरुषों से ज्यादा संगठन भावना रखती हैं। अनौपचारिक रूप से महिलाएँ आपसी रिश्तों में परस्पर सहयोग का प्रदर्शन रोज ही करती रही हैं। चाहे वह पुराने जमाने में जंगल से लकड़ी या पानी लाना हो, या आज के समय में बच्चा पालने में एक–दूसरे की मदद करना, एक–दूसरे से ढेरों व्यंजन और नुस्खे सीखना–सिखाना। महिला समूह स्वत: ही समाज में मौजूद है। इसी समूह की ताकत से महिलाओं ने हर कालखण्ड में अपने प्रति होने वाले भेदभाव और अन्य सामाजिक बुराइयों से डटकर लोहा लिया है, ढेरों आन्दोलनों में भागीदारी भी की है।

भारतीय महिला आन्दोलन के मुद्दे अलग–अलग दौर में अलग–अलग रहे हैं, जिन्हें इस लेख में दौर के अनुसार ही अंकित किया जा रहा है।

प्राचीन काल में महिला–संघर्ष

लगभग 600 ईसा पूर्व का ‘बौद्ध गाथा’ नामक पद्य–संकलन जो पालि भाषा में उपलब्ध है, उसमें ‘भट्टा’ नाम की बौद्ध भिख्खुनी ने आम जिन्दगी की घुटन और आजादी की अपनी इच्छा को इन शब्दों में व्यक्त किया है––

कितनी आजाद हूँ मैं! कितनी अनोखी है आजादी!

तीन तुच्छ वस्तुओं से मुक्त–

मुक्त ओखली, मूसल और अपने टेढ़े मालिक से,

पुनर्जन्म और मृत्यु से मुक्त हूँ मैं,

जिस तमाम ने दबाए रखा था मुझे,

वो सब अब दूर फिक चुका है।”

इसी तरह संगमकाल (100 ईसा पूर्व से 250 ईसा पूर्व) में तमिल भाषा में ओवइयर कुरुनटोक ने नारी पीड़ा से उपजे क्रोध को कुछ इस तरह व्यक्त किया है–

इन लोगों पर हमला करूँ, इन्हें मार दूँ मैं?

मुझे मालूम नहीं,

या कोई कारण खोजकर जोर से चिल्लाकर बुलाऊँ

इस सोते शहर को

जो मेरी पीड़ा नहीं जानता

जब कि बहती हवा गोल घूमती

मुझे इधर–उधर खींचती है।’

मध्यकाल में महिला–संघर्ष

मध्यकाल में कई विख्यात महिलाएँ हुईं जिन्होंने समाज के बने–बनाये ताने–बाने को चुनौती देते हुए एक नयी लकीर खींचने का प्रयास किया जिनमें मीराबाई, सहजोबाई, महादेवी अक्का, रतनबाई, गुलबदन बेगम, चैंद्रबौती आदि कुछ प्रमुख नाम हैं।

बारहवीं सदी में महादेवी अक्का ने दक्षिण–भारत में भ्रमण करते हए, नग्नावस्था धारण कर, समाज की अवधारणाओं का कड़ा विरोध किया और जाति–प्रथा की तीखी आलोचना की।

पन्द्रहवीं सदी में मीराबाई ने विवाह जैसी रूढ़िवादी सामाजिक संस्था का विरोध किया और महलों के भोग–विलास को छोड़कर पितृसत्ता को गहरी चुनौती दी। इसी सदी में मराठी शूद्र जनाबाई जो एक सम्पन्न घराने में दासी का काम करती थीं, वह बोलती हैं––

हाथ में मंजीरे, कंधे पे वीणा

कौन मुझे रोकने की हिम्मत कर सकता है?

साड़ी का पल्लू गिर जाता हैय

हजार बात बनाते हैं लोग,

किन्तु मैं जाऊँगी भरे बाजार में, नि:संकोच, निडर’

महिला संघर्ष का राष्ट्रवादी आन्दोलन के रूप में विकास

अट्ठारहवीं–उन्नीसवीं सदी में भारत पर जब अंग्रेजी–शासन की छाया फैलने और गहराने लगी तब महिला संघर्ष ने नया मोड़ ले लिया। देश की आजादी की लड़ाई को महिलाओं ने अपनी आजादी के साथ जोड़कर स्वतंत्रता संग्राम में शानदार तरीके से भाग लिया।

कित्तूर की रानी चेनम्मा ने 23 अक्टूबर 1824 को अपने साहस और सूझबूझ से कित्तूर किले पर अंग्रेजों के आक्रमण को नाकाम कर दिया था। आज भी दक्षिण भारत में 23 अक्टूबर को कई लोग ‘महिला दिवस’ के रूप में मनाते हैं।

सिर्फ रानियाँ ही नहीं, आम स्त्रियों ने भी इस महासंग्राम में कुछ कम योगदान नहीं दिया।

कानपुर की नर्तकी अजीजनबाई गुप्त समाचारों को सेनानियों तक पहुँचाने, योद्धाओं को हथियार पहुँचाने जैसे काम करती थीं। उन्होंने अन्य महिलाओं को प्रशिक्षण देकर ‘मस्तानी टोली’ का निर्माण किया। अन्त में अंग्रेजों ने उन्हें गोली मार दी।

1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के दौरान मुजफ्फरनगर की ग्रामीण महिलाओं ने पुरुषों के साथ मिलकर अंग्रेजों का विरोध किया तो उन्हें फाँसी पर लटकाया गया, जिनमें आशा देवी, भगवानी, हबीबा, इन्द्रकौर आदि के नाम हमें उस समय के रिकॉर्ड में मिलते हैं।

विद्रोह की ज्वाला में अनेक महिलाओं ने अपनी आहुति दी। इनमें ज्यादातर अनामिकाएँ थीं। स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में अधिकतर रानी–महारानी और नेतृत्व देनेवाली महिलाओं को ही विशेष स्थान मिला। किन्तु उनकी बहादुरी के कारनामों के पीछे हजारों–लाखों साधारण महिलाओं की शक्ति और जुझारुपन की कहानियाँ छिपी हैं।

स्वतन्त्रता आन्दोलन के दौर में भीकाजी कामा, प्रीतिलता वाडेकर, कल्पना दत्त, लक्ष्मी सहगल आदि ने सशस्त्र हमलों में भाग लिया और भूमिगत कार्रवाइयों में भी सक्रिय रहीं।

दुर्गा भाभी, जो भगत सिंह, सुखदेव और चंद्रशेखर की सहायिका रहीं, उन्होंने क्रान्तिकारियों का समर्थन करते हुए बहुत जोखिम उठाया। 1932 में उन्होंने बम्बई के पुलिस कमिश्नर पर गोली तक चलायी। उन्हीं की एक साथी सुशीला दीदी जिन्होंने काकोरी कांड के कैदियों के मुकदमे के लिए अपना संजोया हुआ दस किलो सोना दे दिया। यही नहीं, सिख लड़के का भेष धारण करके उन्होंने बम बनाना भी सीखा।

सामाजिक सुधार आन्दोलन

विद्रोहों में अपनी सहभागिता से महिलाओं ने अपनी प्रतिष्ठा जरूर बना ली थी पर समाज और परिवार में पुरुषों के मुकाबले उन्हें दोयम दर्जा ही मिलता रहा। धीरे–धीरे महिलाओं ने इसके लिए भी आवाज उठायी।

सावित्रीबाई फुले ने महिलाओं की शिक्षा के लिए संघर्ष किया और अपने पति ज्योतिबा फुले और सास सगुनाबाई के साथ मिलकर 1848 में भारत के पहले महिला विद्यालय की स्थापना की और भारत की पहली अध्यापिका बनीं।

पण्डिता रमाबाई ने भी नारी शिक्षा, बाल–विवाह, जैसे मुद्दों पर अपनी आवाज बुलंद की और अपनी किताब ‘स्त्री धर्म नीति’ और ‘हाई कास्ट हिन्दू वुमन’ के माध्यम से ब्राह्मणवाद और पितृसत्ता को जोरदार चुनौती दी।

वहीं 1905 में पंजाब की पार्वती देवी ने बिना पर्दे, बिना दहेज और जाति के बाहर विवाह किया। वह अपने गाँव में कन्या पाठशाला की अध्यापिका थीं। वह जगह–जगह सभाओं में खुलेआम पर्दा–प्रथा और छुआछूत के खिलाफ बोलती थीं। अंग्रेजों के खिलाफ काम करने के लिए छ: बार जेल भी गयीं। उन्होंने ‘राष्ट्रीय महिला समिति’, ‘कुमारी सभा’ और बच्चों की ‘वानर–सेना’ खड़ी की। उनकी अगुआई में महिलाएँ विदेशी वस्त्रों और शराब की दुकानों पर धरने देतीं और जुलूस निकालतीं। उन्होंने ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ में सक्रिय भूमिका निभायी।

1917 में महिलाओं की एक मण्डली ने भारतीय महिलाओं की स्थिति में सुधार लाने के लिए ‘चेम्सफोर्ड कमेटी’ के सामने कुछ माँगें रखीं। इस मण्डली में सरोजनी नायडू और बारह अन्य महिलाएँ शामिल थीं। मण्डली ने महिलाओं के लिए शिक्षा की सुविधाएँ, स्वास्थ्य, जच्चा की सुविधाएँ और मताधिकार की माँगें सामने रखीं।

1920–21 में बम्बई में महिलाओं ने शराब की दुकानों पर धरने दिये। इसी दौर में महिलाओं ने ‘राष्ट्रीय स्त्री सभा’ की स्थापना की, जिसने महिलाओं के हक में आवाज तो उठायी ही, हरिजनों के लिए विद्यालय भी खोले। इस सभा ने खादी के लिए पूरी बम्बई में अभियान छेड़ा और हड़तालें आयोजित कीं।

1930–31 के नमक आन्दोलन में महिलाओं की भागीदारी और नेतृत्व अभूतपूर्व थे, इसमें लगभग 17 हजार महिलाओं को जेल–यात्रा करनी पड़ी थी।

1941 में दिल्ली में लगभग 20,000 छात्राओं ने जुलूस निकाला। अनेक छात्राओं ने घरेलू बन्धन तोड़े और पर्दा–प्रथा का विरोध किया।

बंगाल में वामपंथी महिलाओं ने ‘महिला आत्मरक्षा समिति’ का गठन किया जो देश की रक्षा, महिलाओं की रक्षा जैसे मुद्दों पर सभाएँ, नुक्कड़ नाटक, गाने और जुलूसों के साथ लोगों को जागरूक करने का काम करती थी। विश्व युद्ध के समय, बंगाल का अकाल पड़ा तो 1943 में कलकत्ता में पाँच हजार महिलाएँ राज्य सरकर तक अपनी खाद्य–आपूर्ति की माँग लेकर गयी थीं। भूख से बिलखते बच्चे अपने साथ चिपकाए बंकुरा की 400 महिला किसान इसी माँग के साथ जिला अध्यक्ष के दफ्तर तक जुलूस निकालते हुए गयीं। पूरे बंगाल में अकाल–पीड़ितों की आवाज गूँजने लगी। खाने के साथ कपड़े का भी संकट था। इस दौरान ‘महिला आत्मरक्षा समिति’ द्वारा अकाल राहत कार्य आयोजित किया गया, जिसमें घर, कपड़ा, खाना और बीमारों की सेवा के लिए इन्तजाम किये गये। 1944 तक इस संगठन में 43,500 सदस्याएँ हो गयी थीं।

1945 में किसान सभा के प्रोत्साहन से बंगाल के किसानों ने ‘तेभागा आन्दोलन’ छेड़ दिया। उनकी माँग थी कि किसान को खेत में उपजी फसल का आधा हिस्सा न मिलकर, दो–तिहाई हिस्सा मिलना चाहिए। इसमें महिलाओं ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। ठाकुरगाँव की कामरेड दीपेश्वरी ने पुलिस पर लाठी से हमला करके उन्हें भगा दिया।

1946 में कोयम्बटूर कपड़ा मजदूरों की हड़ताल में महिला श्रमिकों ने जमकर हिस्सा लिया और पुलिस की गोली तक सही। शोलापुर के कपड़ा मिलों के संघर्ष में मीनाक्षी सोने ने नेतृत्व किया। उन्होंने बीड़ी मजदूरों के बीच भी काम किया।

समकालीन महिला आन्दोलन

1947 के बाद के दो दशक महिला आन्दोलन के लिए ठहराव का समय रहा। किन्तु इनमें भी महिलाओं ने कई महत्वपूर्ण काम किये। देश के विभाजन के समय जब साम्प्रदायिक हिंसा, कत्ल, बलात्कार और लूटमार का दौर चल रहा था, तब महिलाओं ने शरणार्थियों के लिए व्यवस्थाएँ जुटाने का काम किया।

1948 में तेलंगाना में वामपंथी दलों ने दलित–मजदूर वर्ग की संगठित शक्ति को निजाम, जमींदार और साहूकारों के खिलाफ खड़ा किया। इस संघर्ष में कॉमरेड स्वराज्यम, अखल्ला कमला देवी, सरोजिनी आदि शामिल थे। इस दौरान हजारों महिलाओं ने सशस्त्र सैन्य बल का सामना भी किया। इस आन्दोलन में ‘महिला संघम’ की सदस्यता चालीस हजार से ऊपर थी।

1950 के दशक में गाँधीवादी पक्ष से भूदान आन्दोलन छेड़ा गया जिसमें ‘कस्तूरबा महिला उत्थान मण्डल’, कुमाऊँ की संचालिका सरला, महिलाओं को इकट्ठा कर पहाड़ी इलाकों की पदयात्रा पर निकल पड़ीं और गाँव–गाँव घूमकर लोगों को भूदान का संदेश दिया।

आजादी के बाद महिला आन्दोलन धीमा जरूर पड़ा, पर 1970 का दशक आते–आते यह आन्दोलन एक बार फिर नये तरह से रंग जमाने लगा।

चिपको आन्दोलन में उत्तरांचल की ग्रामीण महिलाओं ने स्वत: स्फूर्त तरीके से जंगलों के संरक्षण के लिए अपनी जान तक की बाजी लगा दी। पेड़ों को काटे जाने के विरोध में महिलाएँ पेड़ों से चिपक गयीं और बोली–– “जंगल हमारी माँ है। पहले हमें काटो, फिर पेड़ों को।”

बड़े बाँधों के निर्माण के खिलाफ भारी संघर्ष हुए। टिहरी गढ़वाल इलाके में टिहरी बाँध परियोजना की खिलाफत के दौरान ग्रामीण जनता ने विरोध प्रदर्शन किया। दूसरी तरफ नर्मदा पर सरदार सरोवर बाँध परियोजना के विरुद्ध भी आवाज उठने लगी। बाँध पर काम कुछ दिन स्थगित रहता, फिर चालू हो जाता। इनमें आदिवासी महिलाओं ने अहम भूमिका अदा की।

इसी तरह कर्नाटक का अपिक्को आन्दोलन था जिसमें महिलाओं ने अपने सामुदायिक और पारिवारिक जीवन की रक्षा के लिए आन्दोलन किया।

इसी दशक में महिलाओं ने महँगाई–विरोधी अभियान छेड़ा। इस अभियान का सबसे मजबूत रूप महाराष्ट्र में देखने को मिला जहाँ समाजवादी दल की मृणाल गोरे, अहल्या रागनेकर और अन्य नेत्रियों ने हजारों महिलाओं को इस मुद्दे पर संगठित कर दिखाया। इसमें भारी संख्या में घरेलू महिलाओं ने भी भाग लिया। हाथ में बेलन पकड़कर महिलाओं ने दूसरे हाथ में थाली थाम ली और थाली पीटते हुए मोर्चे पर निकल पड़ीं। कुछ इस तरह वे सड़क पर जुलूस निकालते हुए जातीं और धरना देतीं या सम्बन्धित अधिकारी का घेराव करतीं। गुजरात में इस आन्दोलन का नाम पड़ा–– नव निर्माण आन्दोलन।

1970 और 80 के दशक में अनेक स्वायत्त महिला संगठन स्थापित हुए, जिनमें बम्बई की ‘फोरम अगेन्स्ट रेप’, दिल्ली की ‘सहेली’, हैदराबाद की ‘अस्मिता’, बैंगलूर की ‘विमोचना’, तमिलनाडु की ‘पेनुरम्मा इयक्कम’, उत्तर प्रदेश का ‘महिला मंच’ आदि शामिल हैं। 1978 में हैदराबाद में रमीजा बी नामक महिला के साथ पुलिसवालों ने सामूहिक बलात्कार किया और जब उसके पति ने इसके खिलाफ आवाज उठानी चाही तो उसकी हत्या कर दी गयी। कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं ने इस काण्ड को सबके सामने उजागर किया और इस मुद्दे पर 22,000 लोगों का भारी जुलूस निकाला गया। 1980 में मथुरा नाम की लड़की से पुलिसवालों ने पुलिस स्टेशन में ही बलात्कार किया और महाराष्ट्र की उच्च न्यायालय ने आरोपियों को यह कहते हुए बरी कर दिया कि मथुरा के कई प्रेमी हैं, इसलिए वह एक चालू लड़की है। नारीवादी संगठनों ने इस फैसले का कड़ा विरोध किया। इस काण्ड से हजारों–लाखों महिलाएँ आन्दोलन से जुड़ीं। देशभर में धरने और जलसे निकाले गये। इस विरोध के फलस्वरूप बलात्कार के अन्य मामले भी अदालत पहुँचने लगे। इस संघर्ष का ही नतीजा था कि बलात्कार सम्बन्धी कानूनों में संशोधन किये गये। इसमें मुख्य था कि यदि कोई औरत या लड़की बलात्कार का मामला दर्ज कराती है, तो मुजरिम को अपनी सफाई पेश करनी पड़ेगी–– अपने को बेकसूर साबित करने का बोझ उसपर होगा न कि औरत पर।

1990 के दशक में राजस्थान की भंवरी देवी नाम की सरकारी कार्यकर्ता के साथ सामूहिक बलात्कार हुआ। इसके खिलाफ देशभर की महिलाएँ फिर से एकजुट हुर्इं।

1980 और 90 के दौरान ऐसे ढेरों संघर्ष हुए जिनमें महिलाओं ने पुरुषों के साथ मिलकर कदम उठाए जैसे–– केरल में मछुआरों का संघर्ष, तमिलनाडु और अन्य राज्यों में ‘निर्माण मजदूर संघ, उत्तर प्रदेश में ‘घाड़ क्षेत्र मजदूर मोर्चा’, इन सबमें महिलाओं ने श्रमिकों की हैसियत से भागीदारी की और महिला होने के नाते होने वाले विशिष्ट शोषण भी उजागर किये। महिला– स्वास्थ्य, घरेलू हिंसा आदि समस्याओं को सुलझाने के प्रयास भी इसमें शामिल हैं।

इक्कीसवीं सदी में महिला आन्दोलन

वर्ष 2004 में मणिपुर में कथित तौर पर अर्धसैनिक बलों द्वारा 32 साल की मनोरमा के साथ सामूहिक बलात्कार कर उसकी हत्या कर दी गयी। इस घटना के विरोध में राज्य के लोगों का गुस्सा फूट पड़ा और केन्द्र के खिलाफ चर्चित ‘मदर्स प्रोटेस्ट’ हुआ जिसमें मध्यम उम्र की घरेलू महिलाएँ शामिल थीं। उन्होंने इम्फाल में अपने वस्त्र उतारकर नग्न प्रदर्शन किया। उनके हाथ में ‘इण्डियन आर्मी रेप अस’ (भारतीय सेना हमारा बलात्कार करो!) और ‘इण्डियन आर्मी किल अस’ (भारतीय सेना हमें मार दो) के बैनर थे। इस प्रदर्शन ने सरकार–प्रशासन के साथ पूरे देश को झकझोर कर रख दिया। इस विरोध प्रदर्शन में 73 वर्ष की एक बुजुर्ग महिला थोकचम रमानी भी शामिल थीं। हालाँकि मनोरमा के लिए यह मदर्स प्रोटेस्ट बहुत देर से आया पर इसने असम राइफल्स को चार महीने बाद फोर्ट (मुख्यालय) खाली करने के लिए मजबूर कर दिया।

2012 में दिल्ली में एक मेडिकल छात्रा के साथ बलात्कार और नृशंस हिंसा की घटना के बाद दिल्ली ही नहीं पूरा देश एकजुट हो उठा। घटना के विरोध में लोगों का हुजूम उमड़ पड़ा। हजारों की संख्या में स्कूल–कॉलेज की लड़कियों से लेकर हर उम्र की महिलाएँ इस विरोध प्रदर्शन में शामिल हुर्इं। इस घटना के बाद कानूनों में कई बदलाव किये गये–– जिनके अनुसार किसी महिला को गलत तरीके से छूना, उससे छेड़छाड़ करना और अन्य किसी भी तरीके से यौन शोषण करना भी रेप में शामिल कर दिया गया है। इस घटना के बाद ही पॉस्को कानून बना।

2019 में दिल्ली के ही शाहीन बाग में महिलाओं ने हजारों की संख्या में शांतिपूर्वक धरना दिया। यह धरना नागरिकता संशोधन अधिनियम के पारित होने और जामिया मिलिया इस्लामिया में छात्रों के खिलाफ पुलिस के हस्तक्षेप के जवाब में शुरू हुआ जिसमें मुख्य रूप से मुस्लिम महिलाएँ शामिल थीं। यह धरना मार्च 2020 तक चला जिसे सरकार ने गिरफ्तारियाँ और बल प्रयोग कर खत्म कर दिया।

2020–2021 में हमारे देश के किसानों ने जब सरकार के कृषि विरोधी तीन काले कानूनों के खिलाफ मोर्चा सम्भाला तो महिलाओं ने न सिर्फ इस आन्दोलन में बराबर की भागीदारी की, बल्कि पुरुषों की ताकत बनकर, मोर्चे पर डटे घर के पुरुषों को हिम्मत दी और उनके पीछे से घर और खेती भी सम्भाली। यह आन्दोलन महिला–पुरुष के आपसी तालमेल का अभूतपूर्व उदाहरण बन कर उभरा।

दिल्ली में ही पिछले वर्ष महिला पहलवानों के संघर्ष ने भी महिला आन्दोलन को एक नया आयाम दिया है।

महिला आन्दोलन की कोशिश है कि जाति, वर्ग और लिंग के भेदभाव की जड़ को टटोलकर, उसे उखाड़ फेंकना। जाहिर है, इस समानता के बिना महिलाओं की मुक्ति नामुमकिन है। हालाँकि अभी हम अपनी मंजिल से बहुत दूर हैं, पर हमारी मंजिल स्पष्ट है। हर प्रकार के भेदभाव के खिलाफ, हर प्रकार की गुलामी के खिलाफ, हर प्रकार के अन्याय के खिलाफ हमारा संघर्ष जारी है और हमारी मंजिल है सिर्फ समता पर टिका समाज!

हाँ, एक और जंग सही! पर आत्मसमर्पण नहीं।

–– अपूर्वा

Monday, September 23, 2024

महिलाओं का संघर्ष : “एक निजी और सामाजिक यात्रा”

विश्व में हर बार 8 मार्च को अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस मनाया जाता है। इस दिन पूरी दुनिया में लैंगिक समानता, महिलाओं के अधिकार, महिलाओं की विभिन्न क्षेत्रों में उपलब्धियों का जश्न मनाया जाता है। इतिहास के नजरिये से देखें तो 1909 में पहली बार अमेरिका में सोशलिस्ट पार्टी द्वारा महिला दिवस मनाया गया, जिसका प्रमुख उद्देश्य महिलाओं को वोट देने का अधिकार दिलाना था। वह इसमें सफल भी रही। तब वहाँ महिलाओं को वोट देने का अधिकार मिला और उन्हें एक नागरिक समझा जाने लगा। ये सभी बातें हमारे स्कूल के पाठ्यक्रम में भी शामिल हैं।

इस पाठ्यक्रम का हमारे जीवन से क्या रिश्ता है, इसको समझने के लिए छात्राओं ने महिला दिवस को समाज से जोड़ने का निर्णय किया। हमने इसके लिए छात्रों और शिक्षकों की एक बैठक की, जिसमें हमने तय किया कि हम महिला दिवस का कार्यक्रम किसी गाँव में करेंगे। उसके लिए लोगों को इकठ्ठा कैसे करेंगे? हमें इसके लिए किस गाँव को चुनना चाहिए? अगर हम किसी गाँव को चुन रहे हैं तो उसको चुनने के क्या–क्या नुकसान और क्या–क्या फायदे हैं? इत्यादि बातों को ध्यान में रखकर हमने ‘बडावद गाँव’ को चुना। अब इस गाँव को चुनने के बाद हमारे सामने यह समस्या आयी कि इतनी दूर औरतों को कैसे इकट्ठा किया जाये? फिर शिक्षकों और छात्रों ने इस समस्या को सुलझाने के लिए एक बैठक की, उस बैठक से यह विचार निकलकर आया कि हम अपनी बात को लेकर गाँव के प्रत्येक घर में जायें।

हमने अलग–अलग समूह बाँट लिये। हमारे अलग–अलग समूह गाँवों में जाते और 8 मार्च अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस के बारे में बताते। महिलाओं को बडावद गाँव (बागपत) के लिए आमन्त्रित करते।

इसी तरह से जिस समूह में मैं थी, वह समूह गुराना गाँव में गया था। गुराना गाँव में हमने लोगों के घरों में जाना शुरू किया। वहाँ कभी कोई हमारी बात सुनता, तो कोई हमारी पूरी बात सुने बिना ही मना कर देता। किसी को यह भी लगता कि हम स्कूल की तरफ से प्रवेश दिलाने के लिए आये हैं, हम लोगों को बताते की हम स्कूल से नहीं आये हैं, हम आपको महिला दिवस के लिए आमन्त्रित करने आये हैं। वैसे तो गाँव में घूमते समय हर घर की महिला की जिन्दगी की एक कहानी थी। मैं गुराना गाँव के एक घर की कहानी साझा कर रही हूँ, जिसने हमें पूरी तरह से झकझोर दिया कि आज भी औरतें इस तरह से दमघोंटू जीवन जी रही हैं।

जैसे ही हमने उस घर का दरवाजा खटखटाया अन्दर से दो आदमियों की आवाज आयी, आ जाओ। एक कड़क आवाज के साथ उन्होंने हमारा स्वागत किया। हम घर के अन्दर गये, तो हमें चारपाई पर बैठे हुए दो बुजुर्ग मिले जिनकी उम्र करीब 65–70 साल तक होगी। वे हमें ऐसे घूर रहे थे, जैसे कि हमने उनका कुछ छीन लिया हो। हमने उन्हें नमस्कार कर कहा कि हमें आप के घर की औरतों से मिलना है, आपकी इजाजत चाहिए। वह ताऊजी कहने लगे कि इजाजत की क्या? आप अन्दर चले जाओ। एक तो यही बरामदें में सो रही होगी। जैसे ही हम घर के अन्दर बढ़े, एक माँ जी छत से हँसते हुए बोलीं, ‘बेटे––– हमसे मिलकर क्या करोगे? अब हमारी उम्र स्कूल में पढ़ने की नहीं रही’। मैंने उनसे कहा कि आप एक बार नीचे उतर कर हमारी बात तो सुनो, वह नीचे आयीं और अपनी सोती देवरानी को भी उठा दिया।

हम उनसे बात करने लगे। जब हमने उन्हें भरोसा दिला दिया कि हम कोई बाहर से नहीं हैं, आपकी ही बेटी की तरह हैं, तब वह हमें अपनी आप बीती बताने लगीं कि बेटा हम आप के साथ बडावद गाँव में कैसे जा पाएँगी? आपको सामने चारपाई पर बैठे जो दो बुड्ढे नजर आ रहे हैं, इसमें एक मेरा और एक मेरी बहन का पति है। ये हमें कहीं नहीं जाने देते। सिर्फ अपने साथ खेतों पर काम करवाने के लिए ले जाते हैं। वे महिलाएँ कहने लगीं कि अगर हमारे पड़ोस में कोई मर जाये, तो उन्हें भी हम देखने नहीं जा सकतीं, अगर ये सो रहे हों, तब हम भले ही चोरी से चली जायें और अगर कभी किसी से बात कर लें और इन दोनों भाइयों में से किसी एक को भी पता चल जाये, तो दूसरा उसको बता देता है। फिर हमारी पिटाई होती है।

जहाँ पर हम बैठ कर बात कर रहे थे उसके पास उन महिलाओं की बहुओं के कमरे थे। हमारी बातें सुनकर वे भी बाहर आ गयीं और कहने लगीं कि इतना ही नहीं अगर हमारा बच्चा बीमार हो जाये तो भी हम दवा लेने नहीं जा सकती। कहते हैं कि बच्चों की दवा का तो बहाना है, पर्स टांग कर घूमने जाना है। माँ जी की तो जिन्दगी गुजर गयी, इनके बेटे जिनके साथ हमारी शादी हुई है वे भी ऐसे ही हैं। अगर हम बीमार हो जाएँ तो हमें छूकर देखते हैं कि सच में बीमार हैं, या बहाना बना रही हैं।

तब तक उनकी छोटी बहू बोली कि मैं आप को एक घटना बताती हूँ कि लोग तो आज कल सारी चीजें ऑनलाइन मँगाते हैं। मैंने एक दिन सेनेटरी पैड मँगा लिया, जब तक हमारे कमरे में घुसकर देख नहीं लिया तब तक माने नहीं। देखने के बाद भी मान जाते ऐसा भी नहीं हुआ। उसके बाद हमें बहुत ज्यादा खरी–खोटी सुनायी और पूरे घर को सिर पर उठा लिया। आप लोगों को तो इसलिए आने दिया, क्योंकि उन्हें लगा कि आप लोग बच्चों को स्कूल में ले जाने के लिए आये हैं। अगर यह पता होता कि आप हमें बुलाने आयी हैं तो आप को गेट में भी न घुसने देते। इस घर में लड़की पैदा होना तो जुल्म है। हम लोग जब उठकर चलने लगे तो उन चारों महिलाओं ने हमारा हाथ पकड़ लिया कि थोड़ी देर और बैठ लो, पहली बार हमारी बात सुनने के लिए कोई आया है। तब तक उसकी बड़ी बहन बोली कि बेटा हमारा नसीब खराब था कि हमारी दोनों की शादी इस घर में हुई।

एक तरफ तो हमें ऐसी महिलाएँ दिखती हैं जो माउंट एवरेस्ट पर जा रही हैं दूसरी तरफ औरतें घरों में कैद हैं। हमें दोनों के बीच एक बहुत चैड़ी खाई नजर आती है।

अब मैं आप लोगों से दूसरे गाँव की महिलाओं की बात साझा करती हूँ। हमें एक ऐसी महिला मिली जिसका बीएड पूरा होते ही शादी कर दी गयी थी। उसके बाद वह नौकरी करना चाहती थी। लेकिन परिवार वालों ने उसे नौकरी नहीं करने दी। उसका कहना था कि मैं डिग्री लेने के बाद घर वालों की सेवा–टहल कर रही हूँ। बीएड करके नौकरी करना तो बस मुझे एक सपना सा लगता है।

इसी तरह से हमने कुल 9 गाँवों की महिलाओं से सम्पर्क किया, जिन गाँवों में हमारे शिक्षक–छात्र गये थे। हमने आपको अलग–अलग घटनाएँ बतायीं, यह उन सभी महिलाओं की थी जो अभी किसी न किसी तरह से घरों में कैद हैं, लेकिन आजाद होना चाहती हैं।

मैं आपको एक और महिला का अनुभव साझा करूँगी जो सरकारी डॉक्टर है। वह बता रही थी कि वह नौकरी तो करती हैं लेकिन उस पैसे को अपनी मर्जी से खर्च नहीं कर सकती। उन्होंने बताया कि जब वह गर्भवती थी, उस समय कुछ अलग–अलग चीजें खाने का मन करता था। जब उनकों नौवाँ महीना लगा, उनका मन सेब खाने को मचल रहा था। उन्होंने अपने पति से कहा कि मेरा सेब खाने का मन है, उनके पति ने चोरी से एक सेब लाकर दिया। घर वालों के चलते वह भी उनको नसीब नहीं हुआ। वह महिला यह बात बताते समय भावुक हो गयी।

जब हम गाँवों में गये तो हम बहुत सारे मामलों से रूबरू हुए जिनके बारे में हमने कल्पना भी नहीं की थी। एक सप्ताह गाँवों में घूमने के बाद हम बडावद गाँव पहुँचे, 8 मार्च अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस का कार्यक्रम करने। जब हमने महिला दिवस मनाने का सोचा था तो बहुत सारे लोगों ने हमें हतोत्साहित किया कि कार्यक्रम में महिलाएँं आयेंगी ही नहीं, इसलिए कार्यक्रम को लेकर हम बहुत आशान्वित नहीं थे।

साढ़े बारह बजे तक सिर्फ इक्का–दुक्का महिलाएँ ही आयीं। हमारे चेहरे पर उदासी आने लगी कि हमारी इतनी मेहनत के बाद भी हम महिलाओं को एकजुट नहीं कर पायें। लेकिन जैसे ही एक बजा कि हमें महिलाओं की भीड़ नजर आने लगी। किसी गाँव से बस से तो किसी गाँव से रिक्शा भर–भर कर महिलाएँ आने लगीं और देखते ही देखते हमारे अनुमान से दोगुनी महिलाएँ कार्यक्रम में शामिल हुर्इं।

हमने पूरे उत्साह के साथ कार्यक्रम शुरू किया जिसमें हमारे पास तीन महिलाएँ ऐसी थीं जो अपनी जिन्दगी में संघर्ष करती हुई आगे बढ़ीं और किसी तरह से यहाँ तक पहुँचीं। इसी तरह से अलग–अलग महिलाओं ने अपना संघर्ष साझा किया। मुश्किलें कितनी भी आयीं और अगर महिलाएँ किसी भी काम को सफल बनाने का निर्णय कर लें, तो वह उसे सफल बना सकती हैं। सभी एक दूसरे से यह चर्चा कर रही थीं कि हमारे जीवन में ऐसी कौन–कौन सी बाधाएँ हैं, जो हमें हमारी उड़ान भरने से रोकती हैं। हर एक के चेहरे पर एक नई चमक दिख रही थी। उन सभी महिलाओं को इस तरह देखकर हमारे मन में और भी उत्साह आ गया और फिर हम सब ने अपनी महिला साथियों के साथ मिलकर एक गाना गाया––

इसलिए राह संघर्ष की हम चुने,

जिन्दगी आँसुओं में नहायी न हो।

इस गाने के साथ पूरे हॉल में आवाज बुलन्द हो गयी और उस दिन सब ने संघर्ष की ओर कदम बढ़ाते हुए कार्यक्रम को सफल बनाया। हम कई औरतों से मिलीं–– जो नौकरी कर रही हैं उनसे भी और उनसे भी जो पढ़ने के बाद आज भी घरों में कैद हैं। हमें यह समझ आया कि हम पूरी तरह से तभी आजाद हो सकती हैं जब हर औरत आजादी से अपना फैसला ले सकेगी, हर पुरुष उनके साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलेगा। सही मायने में महिला दिवस तभी सार्थक सिद्ध होगा जब महिला अपने महिला होने पर गर्व महसूस करेगी।

इस पूरे कार्यक्रम के दौरान छात्रों और शिक्षकों की महिलाओं को लेकर गहरी समझदारी बनी। छात्र–शिक्षक महिला उत्पीड़न और शोषण से परिचित हुए। असली जिन्दगी की ये हकीकतें टेलीग्राम, इन्स्टाग्राम और फेसबुक की चमकती दुनिया से बाहर हैं।
–– नीतान्शी
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Friday, September 20, 2024

लम्बी दूरी

 

    शाम को जब शहाना अपने काम से घर वापस आयी तो उसने देखा कि अब्बा बहुत गहरी सोच में बैठे हुए हैं। इतनी गहरी सोच में कि उन्हें उसके आने की आहट तक न हुई। उसने अपनी सोयी हुई बेटी को धीरे–से प्यार किया और पानी पीने चली गयी। फिर उसने अब्बा से पूछा, “अब्बा, खाने में आज क्या बनाऊँ?

    अब्बा अभी तक किसी चिन्ता में खोये बैठे हुए थे। शहाना ने धीरे से अब्बा के कंधे पर हाथ रखा तो अब्बा ऐसे चैंक पड़े जैसे अभी नींद से जागे हों।

    तू कब आयी?अब्बा ने पूछा।

    अभी कुछ देर पहले” शहाना ने जवाब दिया।

    तू मुझसे कुछ कह रही थी बिटिया?

    हाँ, मैं तो खाने के लिए पूछ रही थी कि आज खाने में क्या बनाऊँ, पर आप न जाने कौन–सी चिन्ता में डूबे हुए हैं कि मेरी बात ही नहीं सुनते!”

    चिन्ता तो सता रही है बिटिया, दो महीने से घर का किराया नहीं दिया, आज चैधरी फिर किराया माँगने आया था...”

    बात को बीच में ही काटते हुए वह बोल पड़ी “उफ्फ, कहने को तो यह मकान मस्जिद के नाम है, मगर एक महीने का किराया चढ़ जाए तो इसकी देख–रेख करने वाले खाते–पीते लोगों को सब्र नहीं होता।”

    हाँ..., कह रहा था, मस्जिद में कुछ मरम्मत करानी है। अब बताओ तो जरा, इतनी आलीशान मस्जिद बनी हुई है भला उसमें किस बात की कमी है? अभी तो कोई कमी नजर नहीं आती। फिर भी इन लोगों को उसमें मरम्मत कराने की पड़ी रहती है। हमारे टॉयलेट पर किवाड़ नहीं लगवा रहे हैं। हमें पर्दे से काम चलाना पड़ रहा है। लेकिन इन लोगों को वह कमी, कमी नहीं लगती और महीना पूरा होते ही किराया चाहिए। चैधरी साहब कह कर गये हैं... अगर इस महीने किराया नहीं दिया तो यह घर खाली कर देना। मेरा तो दिमाग खराब हो रहा है।... तेरा जो मन है तू बना ले।”

    शहाना भी विचारों में डूबी हुई चूल्हे की तरफ बढ़ी और चूल्हे पर दाल चढ़ाकर अपनी सोयी हुई बच्ची के पास जाकर लेट गयी। वह सोच रही थी कि इस मकान में 10 कमरे हैं। किसी भी कमरे की फर्श पक्की नहीं है, कच्ची ही जमीन है। इसमें रहने वाले किसी भी किराएदार को किचन नसीब नहीं है। सभी को अपने आँगन में ही खाना बनाना पड़ता है। टॉयलेट–बाथरूम पर किवाड़ नहीं है, पर्दा डाला हुआ है। किसी दिन बहुत तेज हवा चलती है तो नहाना या टॉयलेट में जाना बहुत मुश्किल हो जाता है। जो लोग इसका किराया लेने आते हैं उनको यह कमियाँ दिखायी ही नहीं देतीं! यह सब सोचते–सोचते वह अपने अतीत में खो गयी। उसको वे सारी चोटें याद आ गयीं जो उसने अपने बचपन से लेकर शादीशुदा जिन्दगी तक खायी थीं।

    शहाना बचपन से ही अपने अम्मा, अब्बा और बहन–भाइयों के साथ इसी घर में रही थी। अब्बा रिक्शा चलाते थे। दो भाई और चार बहनों में वह सबसे छोटी थी। चार बहनें होने की वजह से अब्बा को हमेशा यह चिन्ता सताती रहती थी कि खाने को तो है नहीं, बेटियों की शादी के लिए दहेज का इन्तजाम कैसे होगा। दहेज नहीं दिया तो कौन करेगा उनकी बेटियों से शादी। दूसरे लोग तो इतना दहेज दे रहे हैं फिर भी ससुराल वाले उनकी बेटियों को ताना देते रहते हैं। उन्हें तो मकान का किराया जुटाने के लिए ही हाड़–तोड़ मेहनत करनी पड़ती है। दहेज कैसे इकट्ठा करूँगा। इन्हीं चिन्ताओं ने अब्बा को वक्त से पहले बूढ़ा कर दिया था।

    बड़ी बहन की उम्र भी शादी के लायक हो रही थी, लेकिन उनकी आर्थिक स्थिति देखकर कोई उनके यहाँ रिश्ता करने को तैयार नहीं था। एक दिन बड़ी बहन का रिश्ता आया भी तो दो बच्चों के बाप से। अब्बा ने पहले तो मना किया, लेकिन अपनी स्थिति को देखते हुए शादी कर दी। कुँवारी बच्ची दो बच्चों के बाप से ब्याह दी, यह सोच–सोच कर एक दिन अब्बा को दिल का दौरा पड़ गया। इलाज भी मोहल्ले वालों ने चन्दा करके कराया। इधर अम्मा भी इसी चिन्ता में घुट रही थी कि बाकी तीन बेटियों की शादी कैसे होगी? क्या उन्हें भी ऐसे ही बेमेल या कुछ कमी वाले लड़कों के साथ ब्याहना पड़ेगा!

    उनके घर की यह हालत देखकर दोनों फुफ्फों ने बहुत सादे तरीके से बिना दहेज के दो बेटियों से अपने बेटों की शादी कर दी। पूरा परिवार अब थोड़ी सुकून की साँस ले रहा था। लेकिन वे भूल गये थे कि अब्बा की बहनें भी तो इसी समाज का हिस्सा हैं। कुछ दिनों तक दोनों बहने अपने ससुराल में खुश रहीं, लेकिन कुछ दिनों बाद फुफ्फों ने भी सास बनकर ताना देना शुरू कर दिया। वह कहती कि अगर वह अपने बेटों की शादी किसी दूसरे घर में करतीं तो उनको खूब दहेज मिलता। यह सुनकर भी बहुएँ कोई जवाब न देती थीं, क्योंकि तानों और दिन भर गुलामों की तरह काम करके उनको दो वक्त का खाना मिल जाया करता था। अपने घर आतीं तो शायद अब्बा उनको इतना भी न खिला पाते। आस–पड़ोस के लोगों के ताने भी अब्बा को मार डालते। जैसे–तैसे दोनों बहनें अपनी ससुराल में अपनी जिन्दगी गुजार रही थीं।

    कुछ साल बीतने के बाद शहाना का भी रिश्ता आया। वह अभी केवल पन्द्रह साल की थी। लड़के वालों की आर्थिक स्थिति इनसे कुछ ठीक थी। लड़के में भी कुछ कमी नहीं थी। उनका कहना था कि वह किसी अपने जैसे घर में ही रिश्ता करना चाहते हैं। उनको लड़की वालों से कुछ नहीं चाहिए, सिवा लड़की के। अब्बा ने पन्द्रह दिन के अन्दर ही उसकी शादी कर दी।

    लेकिन ससुराल वालों ने बहू के रूप में उसे एक गुलाम बना कर रखा। वह ठीक है या नहीं, किसी को परवाह नहीं होती थी। उन्हें केवल घर का काम कराना था। यहाँ तक कि उसके शौहर को भी उसकी कोई परवाह नहीं थी। उसे भी केवल उसके साथ सोने से मतलब था। शादी के कुछ दिन बाद वह गर्भवती हुई। उसकी सास यह सोचकर खुश थी कि उसके आँगन में अब उसका पोता खेलेगा। पोती भी आँगन में खेल सकती है यह किसी ने नहीं सोचा, क्योंकि पोती तो किसी को चाहिए ही नहीं थी।

    शहाना तो माँ बनने वाली थी, उसे बेटा या बेटी से कोई मतलब नहीं था। वह अपने होने वाले बच्चे के बारे में सोचकर खुश थी। नौ महीने पूरे हुए और डिलीवरी का समय आ पहुँचा। सब की आँखें बेसब्री से डॉक्टर को ढूँढ रही थीं कि कब डॉक्टर आकर बोले कि पोता आया है। आखिर कुछ घंटे इन्तेजार करने के बाद नर्स ने आकर बताया कि बेटी हुई है। बेटी को गोद में लेकर बहुत खुश हुई थी शहाना, लेकिन उसे कहाँ पता था कि उसकी बेटी को ये लोग बोझ समझेंगे।

    बेटी हुई है,” सुनकर कोई भी उसके पास बेटी को देखने तक नहीं आया। उसने कुछ खाया है या नहीं या वो कैसी है, यह किसी ने नहीं पूछा। यहाँ तक कि बेटी का बाप भी उसके पास नहीं आया, न ही शहाना का हाल–चाल पूछा। सासू माँ ने अपने बेटे से बोल दिया कि फेंक आ दोनों को उसके मायके, बेटे ने वैसा ही किया। अस्पताल से जल्द से जल्द छुट्टी करा कर शहाना और उसकी बेटी को उसके मायके छोड़ आया।

    अब्बा बूढ़े होने के कारण अब पहले से कम कमाते थे। भाइयों की शादियाँ हो चुकी थीं। भाई अलग मकान में रहते थे। अब अम्मा और अब्बा जैसे–तैसे अपना गुजारा कर रहे थे। अब्बा उन्हें देखकर बहुत खुश हुए। दामाद के सर पर हाथ फेरा, उसकी बच्ची को प्यार किया और शहाना को गले लगाया, लेकिन जैसे ही उनका दामाद अनवर उसे छोड़कर जाने लगा, अब्बा के पैरों के नीचे से जमीन खिसक गयी। खुद खाने को तो है नहीं, जच्चे–बच्चे को कैसे खिलाएँगे। शाम को शहाना ने अब्बा को सारी बात बतायी तो अब्बा फूट–फूट कर रोने लगे। उस रात अम्मा, अब्बा और शहाना, तीनों में से कोई नहीं सोया।

    अब्बा कर्ज लेकर उसकी दवाई और खाने–पीने का इन्तजाम कर रहे थे।

    दो महीने बीत गये। एक दिन अनवर घर आया और शहाना से घर चलने को बोला। वह और उसकी अम्मी बहुत खुश हुए। अब्बा उस वक्त रिक्शा चलाने गये हुए थे। शाम को अब्बा वापस आये तो अनवर को देखकर खुश हुए। अनवर उसे अपने साथ घर ले आया। उसे लगा कि शायद दादी का मन बदल गया है इसलिए पोती को घर बुला लिया। शायद सासू माँ की नाराजगी खत्म हो चुकी हो, लेकिन वह गलत थी। उसे केवल एक नौकरानी की हैसियत से घर बुलाया गया था।

    वह अपनी छोटी सी बच्ची को चारपाई पर लिटाकर पूरा दिन घर के काम करती, बच्ची भूख से घंटों रोती–बिलखती रहती। अगर वह बच्ची के पास जाने की कोशिश करती तो पास में ही चारपाई पर बैठी सास चिल्लाकर कहती, “रोने दे, तू अपना काम कर, रोने से यह मर नहीं जाएगी।”

    बच्ची की तबीयत शुरू से ही ठीक नहीं रहती थी और ठीक से देखभाल न होने के चलते वह सूखती ही जा रही थी। अभी बच्ची चार महीने की ही हुई थी कि शहाना फिर से गर्भवती हो गयी। अपनी बच्ची की बिगड़ी हुई सेहत देखकर उसने अनवर से अबॉर्शन की बात की। इतना सुनते ही अनवर उस पर भड़क कर बोला, “तेरा दिमाग खराब है क्या? अगर यह बेटा हुआ तो... यह बेटा ही होगा। कोई जरूरत नहीं है दवाई खाने की।”

    उस दिन उसे एहसास हुआ कि औरतों को अपनी मर्जी से चलना तो दूर, उसको जाहिर करने का भी हक नहीं होता। वह कर भी क्या सकती थी? बच्चा पलने दिया पेट में। वह पेट से है यह बात सुनकर सासू माँ भी अब थोड़ा सीधे मुँह बात करने लगी। घर का माहौल उसके लिए कुछ ठीक हुआ। यह अच्छे दिन भी उसकी किस्मत में कहाँ थे! नौ महीने बीते और दूसरी बार भी बेटी हुई। एक तरफ शहाना बेटी को लेकर खुश थी, तो दूसरी तरफ अब्बा के घर फेंके जाने का डर उसकी रूह कँपा रहा था।

    बच्ची में खून की कमी है” डॉक्टर ने बताया, पर इससे किसी को कोई फर्क नहीं पड़ा, क्योंकि सबको लड़का चाहिए था। पेट में पलने वाला बच्चा लड़की है यह अनवर को पहले पता होता तो दोनों को उसी दिन मार डालता जिस दिन शहाना ने उसको अपने गर्भवती होने की खबर दी थी।

    इस बार भी अनवर उसे दोनों बेटियों के साथ मायके छोड़ आया। उस दिन अब्बा के घर में जैसे मातम छा गया। पहले वाला कर्ज न चुका पाने की वजह से इस बार उधार मिलना भी मुश्किल था। अब्बा जैसे–तैसे शहाना और उसकी बच्चियों को पाल रहे थे।

    खाने की कमी के चलते माँ के दूध से बच्ची का पेट नहीं भरता था। फिर क्या, वही हुआ जिसका डर था। एक दिन बच्ची को दस्त और उल्टियाँ शुरू हुई और उसकी जान लेकर ही थमी। उस दिन शहाना ने अनवर को कई बार फोन किया। बहन से भी फोन करवाया, पर न उसने फोन उठाया और न ही वापस फोन किया। जैसे–तैसे मोहल्ले वालों ने खबर भिजवायी। उसने सोचा था कि बाप है, दिल पसीज जाएगा।

    अनवर लोक–लाज के डर से जनाजे पर तो आया, पर शहाना का हाल–चाल तक नहीं पूछा। उसकी सूनी आँखें अनवर को आखिर तक निहारती रहीं। उसकी एक नजर के लिए तरसती रहीं, पर उस पत्थर दिल को कोई फर्क नहीं पड़ा। वह जैसे आया वैसे ही वापस चला गया।

    वह रोती–बिलखती अपने मायके में पड़ी रही।

    उस दिन शहाना जी भर के रोयी। अपनी सारी तकलीफ, सारा दर्द और सारा डर उसने उन आँसुओं में बहा दिया। जी भर के रो लेने के बाद उसने अपने आँसू पोंछे और अपनी जिन्दगी का फैसला खुद ही करने के बारे में सोचा। उसने तय किया कि वह मोहल्ले की दूसरी मजदूर औरतों के साथ काम पर जाएगी। उसने सोचा कि औरतों को भी अपनी जिन्दगी अपने तरीके से जीने का हक है।

    काम पर जाने के उसके एक फैसले ने उसकी और उसकी बच्ची की जिन्दगी बदल दी। उसने पॉलिथीन बनाने की फैक्ट्री में जाकर मजदूरी करनी शुरू कर दी। उसके बाद उसने मुड़ कर कभी अपने ससुराल वालों की तरफ नहीं देखा। वह अब अपने और अनवर के बीच के लम्बे फासले को खत्म नहीं करना चाहती थी। अब वह अपनी बच्ची को प्यार से पाल–पोस रही थी और फैक्ट्री में मजदूरी करके अपने अब्बा का सहारा भी बन गयी थी।

    अम्मी...ओ अम्मी” बच्ची ने आवाज दी।

    हम्म... हाँ बेटा, मैं यही हूँ” शहाना को लगा जैसे वह गहरी नींद से जागी हो।

    अम्मी, मुझे भूख लगी है।”

    शहाना ने अपनी बच्ची को प्यार किया और उसके लिए खाना लाने चली गयी।

–– शहरीन


Monday, September 16, 2024

लैंगिक गैर-बराबरी: आखिर कब तक?

       हाल ही में 'वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम' की जेंडर इक्वालिटी रिपोर्ट आई है। इस रिपोर्ट में विभिन्न देशों में महिलाओं की राजनैतिक, आर्थिक और सामाजिक स्थिति का आकलन किया गया। इस आकलन के आधार पर रिपोर्ट बताती है कि महिलाओं को समाज में पुरूषों के बराबर दर्जा मिलने में अभी लगभग 130 साल से भी ज्यादा समय लगेगा।

हालांकि इस रिपोर्ट में देश-दुनिया में महिलाओं की स्थिति का केवल आंशिक हिस्सा ही उजागर हुआ है। लेकिन यह इन तमाम दावों की पोल खोलती है जिनमें महिलाओं को बराबर दर्जा दिए जाने का दंभ भरा जाता है। अमरीका और इंग्लैंड जैसे आधुनिक समझे जाने वाले देश भी महिलाओं को पुरुषों के समान बराबरी दे पाने में नाकाम साबित हुए हैं। भारत तो इस कड़ी में बहुत पीछे है। हालांकि वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम की रिपोर्ट के मुताबिक कुछ देश हैजिन्होने महिलाओं को पुरुषों के समान बराबरी देने में अच्छा प्रयास किया है। जिसमे आइसलैंड, स्वीडन, नॉर्वे, फिनलैंड जैसे देश शामिल हैं। लेकिन ये भी पूर्ण रूप से इस गैर बराबरी को मिटा नहीं सके हैं। इसी रिपोर्ट के मुताबिक महिलाएं राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक रूप से थोड़ी बेहतर तो हुई हैं लेकिन पुरषों के मुकाबले अब भी बहुत पीछे हैं। समाज में बेहतर शिक्षा, चिकित्सा, आर्थिक आज़ादी और राजनीतिक भागीदारी, सभी में महिलाओं का बहुत बड़ा तबका आज भी वंचित है।

हम आधुनिकता के दौर में जी रहे हैं बावजूद इसके लोग सालों पुरानी रूढ़िवादी मानसिकता से ग्रस्त हैं जो महिलाओं को आगे बढ़ने से रोकती है। सदियों से चली आ रही रूढ़िवादी प्रथा के चलते महिलाओं के अधिकारों को कुचला जा रहा है।

देश के हर हिस्से में होने वाली महिला हिंसा में विशेषकर कन्या-भ्रूण हत्या के बढ़ते मामले और पुरुषों के मुकाबले महिलाओं का घटता अनुपात इसका प्रमाण है। समाज में व्याप्त पितृसत्तात्मक सोच भी महिलाओं को पीछे रखने की एक बहुत बड़ी वजह है। इसका बहुत प्रमुख उदाहरण है जिसे हम रोजाना अपने दैनिक जीवन में देख सकते हैं। शादी से पहले कोई महिला पढ़-लिख भी ले तो शादी के बाद तमाम घरों में उन्हें नौकरी नहीं करने दी जाती। तमाम तरह की बंदिशे उन पर लगा दी जाती हैं। अगर संघर्ष करके बाहर काम करने जाती भी है तो उन्हें पुरषों के बराबार  वेतन नहीं दिया जाता। इसके साथ ही काम के दौरान अकसर उन्हें मानसिक और शारीरिक शोषण का भी शिकार होना पड़ता है। दुनिया का कोई भी ऐसा देश नहीं है जिसमें पूर्ण रूप से महिलाओं को पुरुषों के बराबर का दर्ज़ा दिया जाता हो।

ऐसा जरुरी भी नहीं है कि रिपोर्ट में जो 131 सालों की समय सीमा बताई गई है उसके पूरे होने पर महिलाएं पुरुषों के बराबर हो जायेंगी। अगर हम 100-150 साल पुराना इतिहास उठाकर देखें तब भी महिलाओं और पुरुषों के बीच में असमानता और गैर-बराबरी रही है। लेकिन महिलाओं ने अपने अधिकारों के लिए निरन्तर संघर्ष किए हैं। इन्हीं संघर्षों के चलते आज उन्हें आंशिक आजादी मिली है। इसी परम्परा को आगे बढ़ाकर पूर्ण आजादी हासिल की जा सकती है।

महिलाओं ने अतीत में संघर्षों के बलबूते समाज में खुद को एक इंसान के रूप में स्थापित किया है। लेकिन आज भी उन्हें हर कदम पर दोयम दर्जे की जिंदगी जीने को मजबूर होना पड़ता है। उन्हें घर की चारदीवारी की सीमाओं के अंदर रखना, उनकी पढ़ाई-लिखाई पर काम महत्व देनामहत्वपूर्ण कार्यों में उनकी सलाह को नजरंदाज करना, यह सब आज भी एक सच्चाई है।

 

आज जिस समाज में हम जी रहे हैं अगर उसमें हम अपने आसपास में ही नज़रे घुमाकर देखें तो सैकड़ों घटनाएं होती दिख जायेंगी जिनमें से अधिकतर महिलाओं के साथ छेड़छाड़, बलात्कार, दहेज़ उत्पीड़न, एसिड अटैक जैसी घटनाएं बहुत आम हो गई हैं। और इतनी दर्दनाक और शर्मनाक भरी घटनाएं हमें देखने को मिल रही हैं जिनसे शायद ही कोई अंजान हो। ऐसे में महिलाओं के साथ हो रही हिंसा के साथ ही गैर बराबरी एक अहम सवाल है। हम कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि आने वाले 100-150 सालों में महिलाओं की स्थिति में सुधार आयेगा? अगर इसके लिए हम अपनी तरफ से कोई प्रयास ही न करें? देश को आगे बढ़ाने में महिलाओं की बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका होती है। लेकिन मौजूदा दौर में महिलाओं की स्थिति बहुत खराब स्तर पर पहुंच चुकी है। महिलाओं की सुरुक्षा की बात करें तो वह न के बराबर है। अगर हम चाहते हैं कि महिलाओं की स्थिति में सुधार आए, उन्हें भी पुरुषों के समान ही समझा जाय, हर क्षेत्र में हर महिला के पास अपने सपनों को अपनी इच्छा को पूरे करने के विकल्प मिले, हर महिला खुलकर अपनी जिंदगी को अपने बल पर जी सके, उसके साथ हो रहे आर्थिक, मानसिक और शारीरिक शोषण से उसको मुक्ति मिले सके तो उसके लिए हमें इस पूंजीवादी व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन लाने की कोशिश करनी पड़ेगी। इस व्यवस्था के होते हुए महिलाएं कभी भी अपने आप को सुरक्षित और आजाद नहीं कर सकतीं।

नारी मुक्ति के लिए आर्थिक आज़ादी के साथ ही उसके स्वतंत्र विचार, व्यक्तित्व और उसके निर्णय भी उतने ही जरूरी हैं। नारीवाद के शत्रु पुरुष नहीं हैं बल्कि पितृसत्ता है जो आज की व्यवस्था बनाए रखना का काम करती है। यह व्यवस्था इंसान को इंसान से दूर करती है। सामाजिक अलगाव पैदा करती है, सामाजिक विचारों को कुचलती है और लोगों को गलत राह पकड़ने को मजबूर करती है। महिलाओं के प्रति घटिया व्यवहार को बढ़ावा देती है। इस व्यवस्था के होते हुए हमें उम्मीद नहीं रखनी चाहिए कि महिलाओ का उद्धार होगा और गैर बराबरी खत्म हो जाएगी। पुरुष हमारे शत्रु नहीं हैं बल्कि वह भी इस व्यवस्था का शिकार हैं। इसलिए हमें अपने बेहतर भविष्य के लिए पुरुषों के साथ मिलकर इस व्यवस्था को खत्म करने की लड़ाई लड़नी पड़ेगी। तभी एक ऐसी व्यवस्था का उद्भव हो सकेगा जिसमे सदियों से चली आ रही महिलाओं और पुरूषों के बीच की गैर बराबरी का जड़ से खात्मा होगा।

--निधि गौतम

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Sunday, September 15, 2024

हिस्टीरिया और मानसिक स्वास्थ्य

 


तकरीबन दो साल पहले उत्तराखण्ड में बागेश्वर गाँव के एक स्कूल में कुछ छात्राएँ और छात्र अचानक से चीखने–चिल्लाने लगे, फिर बेहोश हो गये। कभी किसी विशेष आयोजन पर महिलाएँ अचानक झूमने लगती हैं, रोने–चिल्लाने लगती हैं। कभी बोला जाता है कि फलाँ औरत में माता आ गयी है। अक्सर लोग अन्धविश्वास में पड़कर इसको भूत–प्रेत का साया, डायन या चुड़ैल का साया मानने लगते हैं और पण्डित–मौलवियों से झाड़–फूँक कराने लग जाते हैं, जबकि ये सारे मामले हिस्टीरिया और मास हिस्टीरिया के अन्तर्गत आते हैं। हिस्टीरिया की तरह ‘मास हिस्टीरिया’ भी एक मानसिक बीमारी है, जिसकी शिकार भी सबसे अधिक महिलाएँ ही होती हैं, लेकिन पुरुष भी इससे अछूते नहीं हैं।

जब एक समूह में अचानक से घबराहट और भय की स्थिति बन जाती है, एक व्यक्ति दूसरे को देखकर उसी तरह का व्यवहार करने लगता हैं, तो इस तरह के मामले मास हिस्टीरिया कहलाते हैं। असल में इन घटनाओं का भूत–प्रेत से कोई सम्बन्ध नहीं होता है। बल्कि ये एक प्रकार का मानसिक रोग है जिसके पीछे अवचेतन मन का तनाव मुख्य कारण होता है। ग्रामीण क्षेत्रों और कम पढ़े–लिखे लोगों में इस तरह की घटनाएँ अधिक देखने को मिलती हैं। खासतौर पर उन जगहों पर जहाँ धार्मिक आस्था जरूरत से ज्यादा होती है। हमारे सामाजिक ताने–बाने की वजह से महिलाओं की मानसिक स्थिति पर इसका गहरा प्रभाव पड़ता है इसलिए महिलाओं में पुरुषों की अपेक्षा इस तरह की समस्या अधिक होती है।

हिस्टीरिया और मास हिस्टीरिया के उपचार के लिए आज भी लोग जादू–टोना पर अधिक विश्वास करते हैं। इससे रोगी की मानसिक स्थिति और खराब हो जाती है। गाँव में मानसिक रोगों को कोई वास्तविक मानता ही नहीं है। मानसिक समस्याओं को सिर्फ भूत–प्रेत, जादू–टोना से ही जोड़कर देखा जाता है। कई बार झाड़–फूंक करने वाले इलाज के नाम पर बीमार लोगों के साथ बुरा बर्ताव करते हैं। उन्हें मारना, बाल नोंचना और रस्सी से पेड़ में बाँधने–– जैसे व्यवहार अक्सर देखने को मिलते हैं, जिसमें बीमार इनसान के परिवार वाले भी अन्धविश्वास के चलते इस हिंसा में साथ देते हैं।

क्या आपने कभी सोचा है कि हमारे समाज में व्याप्त पितृसत्तात्मक सोच विज्ञान के क्षेत्र में महिलाओं को प्रभावित कर सकती है? जो मेडिकल साइंस वैज्ञानिक तरीके से व्यक्ति के शरीर और मन की जाँच करता है, वह भी महिलाओं को लेकर पूर्वाग्रह से ग्रसित हो सकता है क्या?

चिकित्सा जगत में सदियों से महिलाओं के शरीर और दिमाग से जुड़ी समस्याओं को महत्व देने और उन्हें शामिल करने में कोई दिलचस्पी नहीं रही है। स्त्री स्वास्थ्य को लेकर हमारे समाज में बहुत कम बातें होती हैं, यदि होती भी हैं तो गर्भावस्था तक ही सारी बहस को समेट दिया जाता है। महिलाओं से सम्बन्धित शारीरिक और मानसिक बीमारियों को हमारे समाज में कभी गम्भीरता से नहीं लिया गया है, यही कारण है कि आज भी महिलाओं के शारीरिक, मानसिक स्वास्थ्य और उनकी पीड़ा और दर्द को लेकर बहुत से पूर्वाग्रह और भ्रांतियाँ बनी हुई हैं।

महिलाओं से सम्बन्धित एक ऐसी ही बीमारी है–– हिस्टीरिया (जिसको अब कन्वर्शन डिसऑर्डर के नाम से जाना जाता है)। हिस्टीरिया एक मानसिक बीमारी है जो अत्यधिक चिन्ता से पैदा होती है। इसमें मानसिक परेशानियाँ, शारीरिक लक्षणों का रूप ले लेती हैं। जैसे– बेहोश हो जाना, साँस न आना, शरीर में दर्द और ऐंठन, आँखों की रोशनी चले जाना, कान से कुछ सुनाई न देना आदि। इसमें रोगी का अपने कार्यों और भावनाओं पर नियंत्रण नहीं रह जाता। अचरज की बात यह है कि मरीज सचमुच ऐसी समस्या से जूझ रहा होता है लेकिन डॉक्टर द्वारा जाँच किये जाने के बाद चिकित्सीय तौर पर उस बीमारी की कोई पुष्टि नहीं होती।

इसमें आमतौर पर व्यक्ति बेहोश हो जाता है, लेकिन यह कोई मिर्गी अथवा शारीरिक बीमारी से सम्बन्धित दौरा नहीं होता, बल्कि एक मानसिक दौरा होता है, जिसमें रोगी का अवचेतन मन सक्रिय होता है। आमतौर पर इसको महिलाओं की बीमारी माना जाता है, लेकिन ऐसा बिलकुल नहीं है, क्योंकि हमारा सामाजिक परिवेश ऐसा है जहाँ पितृसत्तात्मक सोच का बोलबाला है, इसलिए महिलाएँ इससे अधिक पीड़ित होती हैं, परन्तु पुरुष भी हिस्टीरिया के शिकार हो सकते हैं। हमारे समाज में महिलाएँ सबसे अधिक उपेक्षित होती हैं, घर के जरूरी कामों में उनकी राय नहीं पूछी जाती, महत्वपूर्ण फैसलों में उनकी कोई भूमिका नहीं होती। लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने के लिए मरीज में इस तरह का पैटर्न देखा जाता है। यह देखने में थोड़ा नाटकीय जरूर लगता है, लेकिन रोगी व्यक्ति यह सब कुछ जानबूझ कर नहीं कर रहा होता है। यह बीमारी लम्बे समय से दिमाग पर पड़ने वाले बुरे प्रभावों के परिणाम स्वरूप होती है।

हिस्टीरिया के इतिहास के बारे में अध्ययन से पता चलता है कि यह ग्रीक शब्द हिस्टीरिया से निकला है, जिसका अर्थ होता है गर्भाशय (यूटेरस)। पाँचवी सदी ईसा पूर्व, हिप्पोक्रेट्स और प्लेटो जैसे दार्शनिकों के अनुसार गर्भाशय एक स्वतंत्र, घूमता हुआ अंग है और महिला के शरीर में इसके घूमने से हिस्टीरिया होता है। दार्शनिक प्लेटो और अन्य चिकित्सकों द्वारा इस “रोमिंग यूटेरी” सिद्धान्त को ‘हिस्टेरिकल सफोकेशन’ कहा गया, यानी महिलाओं के पास होने वाला गर्भाशय ही महिलाओं की समस्या का कारण है। क्योंकि गर्भ केवल महिलाओं के पास होता है, इसलिए हिस्टीरिया केवल महिलाओं को होने वाली बीमारी कही गयी। इसका कारण उन्होंने महिलाओं की अधूरी यौन इच्छा को बताया।

उस दौरान यह भी मान्यता थी कि यदि महिला का गर्भाशय सेक्स अथवा प्रजनन क्रियाओं से दूर रहता है तो उसके बीमार होने का खतरा बना रहता है या फिर वह अपनी स्थिति बदल लेता है और घूम जाता है। विशेष रूप से कुँवारी, विधवा, एकल, बाँझ महिलाओं में गर्भाशय के घूमने का खतरा अधिक बना रहता है क्योंकि यह सन्तुष्ट नहीं होता और गहरा धुँआ पैदा करता है और शरीर में चारों और घूमता है, जिससे चिन्ता, घुटन की भावना जैसी समस्याएँ पैदा होती हैं। आमतौर पर यह मान्यता भी थी कि सुगन्धित खुशबू को योनि अथवा नाक के पास ले जाकर रखने से वह अपनी जगह पर वापस आ जाता है।

इस तरह अतीत में महिलाओं के शरीर का वैज्ञानिक परीक्षण किये बगैर केवल पूर्वानुमानों के आधार पर उनके गर्भाशय को मुख्य कारण मानकर उनका इलाज किया जाता रहा, जिसने उनके स्वास्थ्य पर गलत असर डाला। उन्नीसवीं शताब्दी तक इसी तरह की मान्यताएँ समाज में प्रचलित रहीं। तब भी हिस्टीरिया के बारे में कुछ वैज्ञानिकों की यही समझ बनी हुई थी कि “जिनकी महावारी बिगड़ जाती है या विधवाएँ या जिनके बच्चे न हों उन्हें हिस्टीरिया होने की सम्भावना ज्यादा होती है।”

सिगमंड फ्रायड जैसे प्रसिद्ध मनोचिकित्सक तक भी महिला विरोधी तर्कों से खुद को बचा नहीं पाये। मेडिकल साइंस का महिलाओं के प्रति यह नजरिया समाज में गहरे से जड़ जमा चुकी पितृसत्तात्मक सोच का ही परिणाम है। यही कारण है कि चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्र में इतने शोध और अनुसन्धान होने के बावजूद महिलाओं की समस्या दूर नहीं हुई।

उन्नीसवी सदी के अन्त तक इस सोच में कुछ बदलाव नजर आने लगा। उसके बाद 1980 में, ‘अमेरिकन साइकियाट्रिक एसोसिएशन’ द्वारा प्रकाशित ‘डायग्नोस्टिक एण्ड स्टैटिस्टिकल मैन्युअल ऑफ मेंटल डिसऑर्डर (डीएसएम)” की मानसिक रोगों की सूची से ‘हिस्टीरिया’ को हटा दिया गया। इसके बाद इसके लिए ‘कन्वर्जन डिसऑर्डर’ शब्द लाया गया जिसके अन्तर्गत कई तरह के डिसऑर्डर आते हैं और इसको पूर्णत: मानसिक बीमारी का दर्जा दिया गया, जिसका महिला या पुरुष होने से कोई सम्बन्ध नहीं है। परन्तु इसके बाद भी बहुत कम लोग इस बदलाव के बारे में जानते हैं और अधिकतर लोगों में यह हिस्टीरिया के नाम से ही प्रचलित है।

यह बीमारी महिलाओं के यौन स्वास्थ्य या प्रजनन स्वास्थ्य से जुड़ी कोई समस्या नहीं है। लेकिन इस बात को समझने में चिकित्सा क्षेत्र को कई सौ साल लग गये। हिस्टीरिया का इतिहास बताता है कि जब डॉक्टरों को महिला शरीर से जुड़ी कोई बीमारी समझ नहीं आती थी तो वे इसे हिस्टीरिया का नाम दे देते थे, इससे उन्हें महिला शरीर को समझने से छुट्टी मिल जाती थी और साथ–ही–साथ समाज में महिला डॉक्टरों की जरूरत से भी ध्यान हट जाता था। अठारवीं और उन्नीसवीं शताब्दी में एक समय यह बीमारी इतनी अधिक हो गयी थी कि जाँच करने पर डॉक्टर हर दूसरी महिला को हिस्टीरिया से ग्रसित बताते थे। महिलाओं को उस समय बुखार के बाद दूसरे नम्बर पर होने वाली बीमारी हिस्टीरिया थी। किसी भी असुविधा, दर्द या मानसिक तकलीफ की शिकायत करने वाली महिला को ‘हिस्टेरिकल’ घोषित कर दिया जाता और उन्हें इलाज से वंचित कर दिया जाता। अगर इलाज होता भी, वह इस मानसिकता के साथ किया जाता कि महिलाओं की बनावट में ही कुछ दोष है जिसके कारण ये तकलीफें उत्पन्न होती हैं और इसलिए इसका कोई समाधान नहीं हो सकता, साथ ही यह कहा जाता कि इसके लिए एक तरह से महिलाएँ खुद ही दोषी हैं।

महिलाओं के बारे में एक और सोच जो उस समय व्याप्त थी कि महिलाएँ अपनी तकलीफों को बढ़ा–चढ़ा कर बताती हैं, क्योंकि महिलाएँ बहुत कमजोर और नाजुक होती हैं इसलिए उनमें दर्द सहने की क्षमता भी कम होती है। कई बार तो इलाज की माँग करने वाली महिलाओं को मानसिक रूप से असन्तुलित घोषित करके पागलखाने भेज दिया जाता था या फिर यह मानते हुए कि हिस्टीरिया की सारी समस्याएँ महिलाओं के गर्भाशय से जुड़ी होती हैं, हिस्टेरेक्टॉमी सर्जरी के जरिये उनका गर्भाशय ही हटा दिया जाता था। डॉक्टरों के लिए उस समय महिलाओं का इलाज करते समय गर्भाशय ही वह अंग था जो महिलाओं के कमजोर शरीर विज्ञान और मनोविज्ञान को समझने में मदद कर सकता था। महिला शरीर और मन के बारे में इससे अधिक जानकारी तब डॉक्टरों को नहीं थी, और न ही उनमें जानने की उत्सुकता थी।

आज इक्कीसवी शताब्दी में भी जब चिकित्सा विज्ञान इतना अधिक उन्नत है तब भी महिलाओं के दर्द और पीड़ा को गम्भीरता से नहीं लिया जाता। आज भी यह सोच ज्यों की त्यों हमारे समाज में प्रचलित है कि महिला अपने दर्द को बढ़ा–चढ़ा कर दिखाती है। छोटी बातों को भी बड़ा करके बताती है, अपनी बीमारी के प्रति ज्यादा वहमी होती है। महिलाओं के दर्द को कम आँकने का एक प्रमुख कारण लैंगिक रूढ़िवादिता है। यह रूढ़िवादी सोच कहती है कि दर्द की स्थिति में पुरुष ‘शान्त और स्थिर’ रहते हैं जबकि महिलाएँ ज्यादा ‘हो–हल्ला’ मचाती हैं।

सोशल मीडिया पर कई महिलाएँ अपनी आपबीती बयान करती हैं जिसमें वे बताती हैं कि वे असहनीय पेट दर्द की शिकायत ले कर अस्पताल गयीं और डॉक्टर ने उन्हें बिना पर्याप्त जाँच के केवल दर्द की कुछ प्राथमिक दवाइयाँ दे कर घर भेज दिया। बहुत से मामलों में बिना कोई जाँच कराये ही पेट दर्द को स्त्री सम्बन्धी समस्या बताकर उसी का उपचार शुरू कर दिया जाता है। कभी–कभी तो बहुत अधिक दर्द में डॉक्टरों के पास गयी महिलाओं को एंटी–एंग्जायटी दवाइयाँ भी दे दी जाती हैं। कई ऐसे मामले सामने आते हैं जहाँ माहवारी के दौरान भयानक दर्द की शिकायत ले कर वे एक अस्पताल से दूसरे अस्पताल भटकती रहती हैं, लेकिन लगभग सभी जगह उनके दर्द को सामान्य बता कर, कुछ दर्द की दवाइयाँ और दर्द सहना सीखने की सलाह दे कर मामले को नजरअन्दाज कर दिया जाता है। यह लगभग हर महिला के साथ होता है। और इस तरह हमारे समाज में उनकी दर्द को सहन करने की सोशल कंडीशनिंग की जाती है। यहाँ तक कि अब तो अलग–अलग रील्स या शॉर्ट वीडियो के माध्यम से उनकी पीड़ा का मजाक तक बनाया जाता है। पीरियड में दर्द को आम मानने के कारण एण्डोमेट्रियोसिस से पीड़ित महिला में रोग की पहचान में ही कई बार सालों लग जाते हैं। कई सालों तक हर महीने भयानक दर्द झेलने के बाद उन्हें पता चलता है कि उन्हें एण्डोमेट्रियोसिस की बीमारी थी जो इतने सालों तक इलाज नहीं मिलने के कारण काफी ज्यादा बढ़ गयी है।

एण्डोमेट्रियोसिस महिलाओं के गर्भाशय से जुड़ी एक दर्दनाक समस्या है जो 15 से 49 साल के आयुवर्ग (प्रजनन आयु) की महिलाओं में देखी जाती है। एण्डोमेट्रियोसिस की वजह से पीरिएड्स के समय ऐंठन, पेट के निचले हिस्से में दर्द या फिर सूजन की समस्या होती है। एक स्टडी के अनुसार, भारत में लगभग 4.3 करोड़ महिलाएँ एण्डोमेट्रियोसिस की इस बीमारी से पीड़ित हैं।

आँकडे़ बताते हैं कि मेडिकल इमरजेंसी की स्थिति में महिला रोगी को पुरुष की अपेक्षा कम तवज्जो मिलती है। पुरुषों की तुलना में महिलाओं को इलाज के लिए अधिक इन्तजार करना पड़ता है। उन्हें कैंसर या हार्ट अटैक है या नहीं, ये पता लगाने के लिए भी लम्बा इन्तजार करना पड़ता है। तब तक ये बीमारियाँ महिलाओं को अपना शिकार बना चुकी होती हैं और महिलाएँ दर्द में तड़पती रहती हैं और यह स्वीकार ही नहीं कर पातीं कि उनको ऐसे नहीं जीना चाहिए। बल्कि वे इसी को अपनी नियति मान लेती हैं।

महिलाओं पर क्लिनिकल परीक्षण आज भी बहुत कम होते हैं, दर्द निवारक दवाओं का 80 प्रतिशत परीक्षण पुरुषों पर किया जाता है। शोधकर्ता महिलाओं के प्रति अपने पूर्वाग्रहों को यह कहकर छुपाते हैं कि वे महिलाओं को किसी प्रकार का नुकसान नहीं पहुँचाना चाहते और साथ ही गलत परीक्षण से महिला के गर्भाशय को नुकसान हो सकता है, जिसके कारण गर्भधारण में समस्या पैदा हो सकती है। ऐतिहासिक रूप से महिलाओं को मेडिकल प्रयोगों और शोधों से दूर रखने से ऐसी दवाओं का आविष्कार हुआ है जो महिलाओं के लिए कम सुरक्षित या कम प्रभावी होती हैं।

द गार्डियन में छपी एक रिपोर्ट के अनुसार अमेरिकन हार्ट एसोसिएशन और नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ के किये गये शोध में पाया गया कि सार्वजनिक स्थानों पर 45 प्रतिशत पुरुषों की तुलना में केवल 39 फीसद महिलाओं को कार्डियक अरेस्ट होने पर सीपीआर (कार्डियोपल्मोनरी रिससिटेशन–– बेहोशी होने और धड़कन बन्द हो जाने पर रोगी को साँस लेने में मदद करने वाली प्रक्रिया) दिया गया। विश्व स्वास्थ्य सांख्यिकी की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में महिलाएँ पुरुषों की तुलना में अधिक सालों तक जीती तो हैं लेकिन स्वस्थ जीवन नहीं जीती हैं।

आज हमारे समाज में बलात्कार और यौन हिंसा की बढ़ती घटनाओं के कारण महिलाओं में डिप्रेशन, एंग्जायटी और स्ट्रेस डिसॉर्डर और यहाँ तक कि आत्महत्या की प्रवृत्ति जैसी मानसिक समस्याएँ बढ़ रही हैं। मनोचिकित्सकों के मुताबिक उनके पास इलाज के लिए आने वाली उन महिलाओं की संख्या में 30–40 प्रतिशत तक की बढ़ोतरी हुई है, जिन्हें अतीत में बलात्कार और यौन हिंसा का सामना करना पड़ा। इन विशेषज्ञों के अनुसार जिन महिलाओं के साथ यौन हिंसा हुई है, उनमें रक्तचाप, हृदय रोग, अनिद्रा, डिप्रेशन और एंग्जायटी होने का खतरा दो से तीन गुना बढ़ जाता है। महिलाओं के इस मानसिक स्वास्थ्य के मुददे पर विचार करते समय हमें इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराध का उन पर गहरा मानसिक प्रभाव पड़ता है। महिलाओं का मानसिक स्वास्थ्य पुरुषों से अलग होता है और वे पुरुषों की तुलना में सिजोफ्रेनिया और बाइपोलर डिसॉर्डर से अधिक पीड़ित हो सकती हैं।

घरेलू हिंसाहिंसा का एक ऐसा क्षेत्र है जो पीड़ित महिलाओं को बिना किसी मानसिक नुकसान का आभास दिलाये, उसके मानसिक स्वास्थ्य को पूरी तरह से तहस–नहस कर के रख देता है। जिन महिलाओं ने घरेलू हिंसा का अनुभव किया है, वे पोस्ट–ट्रॉमैटिक स्ट्रेस डिसआर्डर (पीटीएसडी), अवसाद, चिन्ता और आत्महत्या से मौत के विचारों सहित कई मानसिक परेशानियों से पीड़ित होती हैं। लेकिन गृहस्थी और परिवार को सम्भालने की जिम्मेदारी के बीच महिलाएँ इन परेशानियों को नजरअन्दाज करते हुए इसे जीवन का एक सामान्य अंग मान लेती हैं। इन सबके प्रति महिलाओं को जागरूक होना पड़ेगा और समाज में बराबरी का हक पाने के लिए संघर्ष करना पड़ेगा।

–– रुचि मित्तल