Sunday, September 8, 2024

मोदी सरकार के दस सालों में एकल महिला (सिंगल वुमन) की बिगड़ती स्थिति

 


2011 की जनगणना के आँकड़ों पर नजर डालें तो पता चलता है कि भारत में अकेली रहने वाली महिलाओं (सिंगल वुमन) की संख्या कम नहीं है। उनकी संख्या में 39 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। जहाँ 2001 में यह संख्या पाँच करोड़ बारह लाख थी, वह 2011 में बढ़कर सात करोड़ चैदह लाख हो गयी थी। इसमें विधवा, तलाकशुदा, अविवाहित महिलाएँ और पतियों द्वारा छोड़ी गयी महिलाएँ शामिल थीं। इनमें 25–29 उम्र की एकल महिलाओं में सबसे अधिक 68 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई थी और 20–24 वर्ष उम्र की महिलाओं में 60 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई थी। भारत में रहने वाली एकल महिलाओं में ग्रामीण इलाके में रहने वाली महिलाओं की संख्या सबसे ज्यादा 62 प्रतिशत है। 2011 के बाद से अभी तक दस साला जनगणना नहीं हुई है, लेकिन फेसबुक कम्युनिटी ‘स्टेटस सिंगल’ की संस्थापक श्रीमई पियू कुंडू के अनुसार भारत में एकल महिलाओं की संख्या अब तक 10 करोड़ से भी ज्यादा हो गयी होगी। यह देश की कुल महिला आबादी का 14 प्रतिशत से भी बड़ा हिस्सा है, यानी हर 100 महिलाओं में 14 से ज्यादा महिलाएँ ऐसी हैं, जो अकेले रह रही हैं।

नेशनल फोरम फॉर सिंगल वुमन्स राइट्स (एनएफएसडब्ल्यूआर) द्वारा आयोजित एक बैठक में चर्चा की गयी कि ऐसी कितनी महिलाएँ हैं जो वास्तव में घर की मुखिया हैं और अपने बच्चों का भरण–पोषण करती हैं, फिर भी राशन कार्ड में उन्हें परिवार के मुखिया के रूप में नामित नहीं किया गया है और उन्हें कोई भी सरकारी सुविधा नहीं मिलती है।

एनएफएसडब्ल्यूआर की सचिव सुहागिनी टुडू ने बताया कि झारखण्ड में आदिवासी महिलाएँ अपने नाम पर जमीन नहीं रख सकती हैं और वे कानून को बदलने के लिए लड़ रही हैं। कमोबेश यही हालात उन एकल महिलाओं की भी है जो शहरों में रह कर अपना और अपने परिवार का भरण–पोषण कर रही हैं।

अकेली महिला को पुरुष ललचाई नजरों से देखते हैं, जिससे बच पाना महिला के लिए मुश्किल होता है। उनकी दिक्कतों की शुरुआत किराये पर मकान लेने से बढ़ते हुए, निवास स्थान, कार्यक्षेत्र में आस–पास छेड़छाड़ और लगातार बढ़ते आर्थिक संकट और कई बार आत्महत्या पर खत्म हो रही है।

9 अक्टूबर 2023 को सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय ने श्रम बल सर्वेक्षण रिपोर्ट 2022–23 जारी की। यह रिपोर्ट साफ बताती है कि देश में महिला श्रम बल भागीदारी दर में वृद्धि हुई है। जहाँ 2022 में यह भागीदारी दर 32–8 प्रतिशत थी, वहीं 2023 में यह बढ़कर 37 प्रतिशत हो गयी है। रिपोर्ट में यह सुझाव भी दिया गया है इस दर को 2030 तक 43.4 प्रतिशत करने की जरूरत है।

अब सवाल यह उठता है कि जहाँ एक ओर सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय समाज में महिलाओं की श्रम में भागीदारी को बढ़ाने का सुझाव दे रहा है, वहीं दूसरी ओर पिछले दस सालों में मोदी सरकार ने इन एकल महिलाओं को समाज की मुख्यधारा में लाने के लिए क्या किया है और इनके लिए अलग–अलग योजनाओं में कितना पैसा आवंटित किया तथा उन पर कितना खर्च किया है?

दिसम्बर 2018 (इसके बाद के आँकड़ें उपलब्ध नहीं हैं) तक मिले आँकड़ों के अनुसार, महिला एवं बाल–विकास मंत्रालय ने महिलाओं के लिए महिला छात्रावास योजना में, महिला छात्रावासों में सुरक्षा गार्ड रखने और सीसीटीवी कैमरे लगाने में, कैदियों के बच्चों के लिए स्वच्छ और हवादार डे केयर सेंटर, प्राथमिक चिकित्सा और वॉशिंग मशीन और गीजर तथा सौर ऊर्जा प्रदान करने और किफायती आवास देने के नाम पर जितनी धनराशि आवंटित करने की घोषणा की उससे बहुत कम राशि जारी की। मसलन 2015–16 में आवंटित धनराशि 28 करोड़ थी, मगर जारी की गयी मात्र 12.19 करोड़, यानी आधे से भी कम। 2016–17 में आवंटित धनराशि थी 28 करोड़ और जारी की गयी मात्र 23.13 करोड़ रुपये। आवंटित धनराशि को 2017–18 में 50 करोड़ कर दिया गया लेकिन जारी किया मात्र 26.96 करोड़। यही हाल 2018–19 में रहा, 52 करोड़ रुपये आवंटित हुए और दिसम्बर 2018 तक मात्र 26.12 करोड़ रुपये खर्च किये गये।

आँकड़ों को देखने पर यह करोड़ों की धनराशि लगती है लेकिन 2018 में एकल महिलाओं की संख्या 7.2 करोड़ थी यानी हर महिला पर सालाना करीब साढ़े तीन रुपये मात्र खर्च हुए। आँकड़ों का यह खेल चैंका देने वाला है।

पहली बात तो ये ही है कि हमारे देश में पितृसत्तात्मक व्यवस्था है, जो महिलाओं के अधिकार पर हमला करती है और दूसरा इसमें एकल महिला, महिलाओं में भी सबसे हाशिये पर हैं। जहाँ ऐसे तबके के प्रति सरकार को अधिक संवेदनशील होना चाहिए था, इसके उलट सरकार के पास उनके लिए कोई भी ठोस नीति नहीं है। हाल तो यह है कि कथित तौर पर महिला हितैशी सरकार महिलाओं के नाम पर बजट पास कर ढिंढोरा तो खूब पीट रही है लेकिन जमीन पर कुछ भी नहीं पहुँच रहा है। उदाहरण के लिए महिला एवं बाल विकास मंत्रालय द्वारा कामकाजी महिला छात्रावास योजना को आवंटित राशि 2018 में 52 करोड़ रुपये थी लेकिन असल में इसका आधा हिस्सा भी सरकार द्वारा नहीं दिया गया।

दूसरी ओर 2018 के बाद मौजूदा सरकार ने ये आँकड़े भी निकालने बन्द कर दिये हैं। 2023–24 में महिला एवं बाल विकास मंत्रालय का कुल बजट 25,449 करोड़ रुपये था। इसके अनुसार भी अनुमान लगाएँ तो सिर्फ एकल महिलाओं के हिस्से, जिनकी संख्या 10 करोड़ है, 7 रुपये प्रतिदिन आते हैं। सरकार कितनी महिला हितैशी है, इसकी सच्चाई आँकड़े बयान कर रहे हैं।

मौजूदा सरकार तथा पूँजीवादी और पितृसत्तात्मक व्यवस्था महिलाओं को असली अधिकार दिलाने में असमर्थ है। एक न्यायपूर्ण समता पर टिके समाज में ही महिलाओं की असली मुक्ति हो सकती है।

–– जैनब

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