विश्व में हर बार 8 मार्च को अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस मनाया जाता है। इस दिन पूरी दुनिया में लैंगिक समानता, महिलाओं के अधिकार, महिलाओं की विभिन्न क्षेत्रों में उपलब्धियों का जश्न मनाया जाता है। इतिहास के नजरिये से देखें तो 1909 में पहली बार अमेरिका में सोशलिस्ट पार्टी द्वारा महिला दिवस मनाया गया, जिसका प्रमुख उद्देश्य महिलाओं को वोट देने का अधिकार दिलाना था। वह इसमें सफल भी रही। तब वहाँ महिलाओं को वोट देने का अधिकार मिला और उन्हें एक नागरिक समझा जाने लगा। ये सभी बातें हमारे स्कूल के पाठ्यक्रम में भी शामिल हैं।
इस पाठ्यक्रम का हमारे जीवन से क्या रिश्ता है, इसको
समझने के लिए छात्राओं ने महिला दिवस को समाज से जोड़ने का निर्णय किया। हमने इसके
लिए छात्रों और शिक्षकों की एक बैठक की, जिसमें हमने तय किया कि हम महिला दिवस
का कार्यक्रम किसी गाँव में करेंगे। उसके लिए लोगों को इकठ्ठा कैसे करेंगे? हमें इसके लिए किस गाँव को चुनना चाहिए? अगर हम किसी गाँव को चुन रहे हैं तो
उसको चुनने के क्या–क्या नुकसान और क्या–क्या फायदे हैं? इत्यादि बातों को ध्यान में रखकर हमने
‘बडावद गाँव’ को चुना। अब इस गाँव को चुनने के बाद हमारे सामने यह समस्या आयी कि
इतनी दूर औरतों को कैसे इकट्ठा किया जाये? फिर शिक्षकों और छात्रों ने इस समस्या को सुलझाने के लिए एक बैठक की,
उस
बैठक से यह विचार निकलकर आया कि हम अपनी बात को लेकर गाँव के प्रत्येक घर में
जायें।
हमने अलग–अलग समूह बाँट लिये। हमारे अलग–अलग समूह गाँवों में जाते और
8 मार्च अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस के बारे में बताते। महिलाओं को
बडावद गाँव (बागपत) के लिए आमन्त्रित करते।
इसी तरह से जिस समूह में मैं थी, वह समूह गुराना
गाँव में गया था। गुराना गाँव में हमने लोगों के घरों में जाना शुरू किया। वहाँ
कभी कोई हमारी बात सुनता, तो कोई हमारी पूरी बात सुने बिना ही
मना कर देता। किसी को यह भी लगता कि हम स्कूल की तरफ से प्रवेश दिलाने के लिए आये
हैं, हम लोगों को बताते की हम स्कूल से नहीं आये हैं, हम
आपको महिला दिवस के लिए आमन्त्रित करने आये हैं। वैसे तो गाँव में घूमते समय हर घर
की महिला की जिन्दगी की एक कहानी थी। मैं गुराना गाँव के एक घर की कहानी साझा कर
रही हूँ, जिसने हमें पूरी तरह से झकझोर दिया कि आज भी औरतें इस तरह से दमघोंटू
जीवन जी रही हैं।
जैसे ही हमने उस घर का दरवाजा खटखटाया अन्दर से दो आदमियों की आवाज
आयी, आ जाओ। एक कड़क आवाज के साथ उन्होंने हमारा स्वागत किया। हम घर के
अन्दर गये, तो हमें चारपाई पर बैठे हुए दो बुजुर्ग मिले जिनकी उम्र करीब 65–70
साल तक होगी। वे हमें ऐसे घूर रहे थे, जैसे कि हमने उनका कुछ छीन लिया हो।
हमने उन्हें नमस्कार कर कहा कि हमें आप के घर की औरतों से मिलना है, आपकी
इजाजत चाहिए। वह ताऊजी कहने लगे कि इजाजत की क्या? आप अन्दर चले जाओ। एक तो यही बरामदें में सो रही होगी। जैसे ही हम घर
के अन्दर बढ़े, एक माँ जी छत से हँसते हुए बोलीं, ‘बेटे––– हमसे
मिलकर क्या करोगे? अब
हमारी उम्र स्कूल में पढ़ने की नहीं रही’। मैंने उनसे कहा कि आप एक बार नीचे उतर कर
हमारी बात तो सुनो, वह नीचे आयीं और अपनी सोती देवरानी को भी उठा दिया।
हम उनसे बात करने लगे। जब हमने उन्हें भरोसा दिला दिया कि हम कोई
बाहर से नहीं हैं, आपकी ही बेटी की तरह हैं, तब वह हमें अपनी आप बीती बताने लगीं कि
बेटा हम आप के साथ बडावद गाँव में कैसे जा पाएँगी? आपको सामने चारपाई पर बैठे जो दो बुड्ढे नजर आ रहे हैं, इसमें
एक मेरा और एक मेरी बहन का पति है। ये हमें कहीं नहीं जाने देते। सिर्फ अपने साथ
खेतों पर काम करवाने के लिए ले जाते हैं। वे महिलाएँ कहने लगीं कि अगर हमारे पड़ोस
में कोई मर जाये, तो उन्हें भी हम देखने नहीं जा सकतीं, अगर ये सो रहे
हों, तब हम भले ही चोरी से चली जायें और अगर कभी किसी से बात कर लें और इन
दोनों भाइयों में से किसी एक को भी पता चल जाये, तो दूसरा उसको
बता देता है। फिर हमारी पिटाई होती है।
जहाँ पर हम बैठ कर बात कर रहे थे उसके पास उन महिलाओं की बहुओं के
कमरे थे। हमारी बातें सुनकर वे भी बाहर आ गयीं और कहने लगीं कि इतना ही नहीं अगर
हमारा बच्चा बीमार हो जाये तो भी हम दवा लेने नहीं जा सकती। कहते हैं कि बच्चों की
दवा का तो बहाना है, पर्स टांग कर घूमने जाना है। माँ जी की तो जिन्दगी गुजर गयी, इनके
बेटे जिनके साथ हमारी शादी हुई है वे भी ऐसे ही हैं। अगर हम बीमार हो जाएँ तो हमें
छूकर देखते हैं कि सच में बीमार हैं, या बहाना बना रही हैं।
तब तक उनकी छोटी बहू बोली कि मैं आप को एक घटना बताती हूँ कि लोग तो
आज कल सारी चीजें ऑनलाइन मँगाते हैं। मैंने एक दिन सेनेटरी पैड मँगा लिया, जब
तक हमारे कमरे में घुसकर देख नहीं लिया तब तक माने नहीं। देखने के बाद भी मान जाते
ऐसा भी नहीं हुआ। उसके बाद हमें बहुत ज्यादा खरी–खोटी सुनायी और पूरे घर को सिर पर
उठा लिया। आप लोगों को तो इसलिए आने दिया, क्योंकि उन्हें लगा कि आप लोग बच्चों
को स्कूल में ले जाने के लिए आये हैं। अगर यह पता होता कि आप हमें बुलाने आयी हैं
तो आप को गेट में भी न घुसने देते। इस घर में लड़की पैदा होना तो जुल्म है। हम लोग
जब उठकर चलने लगे तो उन चारों महिलाओं ने हमारा हाथ पकड़ लिया कि थोड़ी देर और बैठ
लो, पहली बार हमारी बात सुनने के लिए कोई आया है। तब तक उसकी बड़ी बहन
बोली कि बेटा हमारा नसीब खराब था कि हमारी दोनों की शादी इस घर में हुई।
एक तरफ तो हमें ऐसी महिलाएँ दिखती हैं जो माउंट एवरेस्ट पर जा रही
हैं दूसरी तरफ औरतें घरों में कैद हैं। हमें दोनों के बीच एक बहुत चैड़ी खाई नजर
आती है।
अब मैं आप लोगों से दूसरे गाँव की महिलाओं की बात साझा करती हूँ।
हमें एक ऐसी महिला मिली जिसका बीएड पूरा होते ही शादी कर दी गयी थी। उसके बाद वह
नौकरी करना चाहती थी। लेकिन परिवार वालों ने उसे नौकरी नहीं करने दी। उसका कहना था
कि मैं डिग्री लेने के बाद घर वालों की सेवा–टहल कर रही हूँ। बीएड करके नौकरी करना
तो बस मुझे एक सपना सा लगता है।
इसी तरह से हमने कुल 9 गाँवों की महिलाओं से सम्पर्क किया,
जिन
गाँवों में हमारे शिक्षक–छात्र गये थे। हमने आपको अलग–अलग घटनाएँ बतायीं, यह
उन सभी महिलाओं की थी जो अभी किसी न किसी तरह से घरों में कैद हैं, लेकिन
आजाद होना चाहती हैं।
मैं आपको एक और महिला का अनुभव साझा करूँगी जो सरकारी डॉक्टर है। वह
बता रही थी कि वह नौकरी तो करती हैं लेकिन उस पैसे को अपनी मर्जी से खर्च नहीं कर
सकती। उन्होंने बताया कि जब वह गर्भवती थी, उस समय कुछ
अलग–अलग चीजें खाने का मन करता था। जब उनकों नौवाँ महीना लगा, उनका
मन सेब खाने को मचल रहा था। उन्होंने अपने पति से कहा कि मेरा सेब खाने का मन है,
उनके
पति ने चोरी से एक सेब लाकर दिया। घर वालों के चलते वह भी उनको नसीब नहीं हुआ। वह
महिला यह बात बताते समय भावुक हो गयी।
जब हम गाँवों में गये तो हम बहुत सारे मामलों से रूबरू हुए जिनके
बारे में हमने कल्पना भी नहीं की थी। एक सप्ताह गाँवों में घूमने के बाद हम बडावद
गाँव पहुँचे, 8 मार्च अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस का कार्यक्रम करने। जब हमने महिला
दिवस मनाने का सोचा था तो बहुत सारे लोगों ने हमें हतोत्साहित किया कि कार्यक्रम
में महिलाएँं आयेंगी ही नहीं, इसलिए कार्यक्रम को लेकर हम बहुत
आशान्वित नहीं थे।
साढ़े बारह बजे तक सिर्फ इक्का–दुक्का महिलाएँ ही आयीं। हमारे चेहरे
पर उदासी आने लगी कि हमारी इतनी मेहनत के बाद भी हम महिलाओं को एकजुट नहीं कर
पायें। लेकिन जैसे ही एक बजा कि हमें महिलाओं की भीड़ नजर आने लगी। किसी गाँव से बस
से तो किसी गाँव से रिक्शा भर–भर कर महिलाएँ आने लगीं और देखते ही देखते हमारे
अनुमान से दोगुनी महिलाएँ कार्यक्रम में शामिल हुर्इं।
हमने पूरे उत्साह के साथ कार्यक्रम शुरू किया जिसमें हमारे पास तीन
महिलाएँ ऐसी थीं जो अपनी जिन्दगी में संघर्ष करती हुई आगे बढ़ीं और किसी तरह से
यहाँ तक पहुँचीं। इसी तरह से अलग–अलग महिलाओं ने अपना संघर्ष साझा किया। मुश्किलें
कितनी भी आयीं और अगर महिलाएँ किसी भी काम को सफल बनाने का निर्णय कर लें, तो
वह उसे सफल बना सकती हैं। सभी एक दूसरे से यह चर्चा कर रही थीं कि हमारे जीवन में
ऐसी कौन–कौन सी बाधाएँ हैं, जो हमें हमारी उड़ान भरने से रोकती हैं।
हर एक के चेहरे पर एक नई चमक दिख रही थी। उन सभी महिलाओं को इस तरह देखकर हमारे मन
में और भी उत्साह आ गया और फिर हम सब ने अपनी महिला साथियों के साथ मिलकर एक गाना
गाया––
इसलिए राह संघर्ष की हम चुने,
जिन्दगी आँसुओं में नहायी न हो।
इस गाने के साथ पूरे हॉल में आवाज बुलन्द हो गयी और उस दिन सब ने
संघर्ष की ओर कदम बढ़ाते हुए कार्यक्रम को सफल बनाया। हम कई औरतों से मिलीं–– जो
नौकरी कर रही हैं उनसे भी और उनसे भी जो पढ़ने के बाद आज भी घरों में कैद हैं। हमें
यह समझ आया कि हम पूरी तरह से तभी आजाद हो सकती हैं जब हर औरत आजादी से अपना फैसला
ले सकेगी, हर पुरुष उनके साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलेगा। सही मायने में महिला
दिवस तभी सार्थक सिद्ध होगा जब महिला अपने महिला होने पर गर्व महसूस करेगी।
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