Sunday, September 8, 2024

भारत में महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी




संयुक्त राज्य अमेरिका और कई पश्चिमी देशों में मतदान का अधिकार पाने के लिए काफी संघर्ष करना पड़ा था जबकि भारतीय महिलाओं को आजादी के बाद यह अधिकार आसानी से प्राप्त हो गया था। इसके बावजूद यहाँ राजनीति में महिलाओं की भागीदारी बहुत कम है। भारत में यह केवल 26 प्रतिशत है, जबकि चीन में 46 प्रतिशत है। साक्षरता के मामले में भी हम पीछे हैं और लैंगिक अनुपात का आलम यह है कि हर साल पाँच लाख कन्या शिशु जन्म नहीं ले पातीं। लिंगानुपात के मामले में यहाँ की स्थिति बेहद निराशाजनक है। यूनिसेफ की एक रिपोर्ट के मुताबिक लैंगिक समानता के मामले में हमारा देश 162 देशों में 115वें स्थान पर है। समानता का कुछ लाभ शहरी क्षेत्रों में रहने वाली शिक्षित महिलाओं तक ही सीमित है।

जहाँ तक राजनीतिक भागीदारी का सवाल है, इसका तात्पर्य सिर्फ मतदान करने से ही नहीं है बल्कि राजनीतिक सक्रियता, निर्णय लेने की आजादी और राजनीतिक चेतना से भी जुड़ा है। भारत में महिलाएँ मतदान में भाग लेती हैं, सार्वजनिक संस्थाओं और स्थानीय निकायों के चुनाव में हिस्सा लेती हैं। फिर भी भारत में महिलाओं का राजनीतिक प्रतिनिधित्व बहुत अच्छा नहीं कहा जा सकता। महिला सांसदों, विधायकों और मंत्रियों की संख्या बहुत ही कम है। हमारी स्थिति रवांडा, सोमालिया, लातिन अमेरिका और अफ्रीका के कई विकासशील देशों से भी काफी पीछे है, जहाँ विधायिकाओं में महिलाओं का प्रतिनिधित्व पचास प्रतिशत से भी अधिक है। इस मायने में भारत दुनिया के सबसे निचले देशों में से एक है।

एक सर्वेक्षण के दौरान यह पाया गया कि महिलाओं की चुनावों में भागीदारी पर उनकी सामाजिक और आर्थिक दशा का खास प्रभाव होता है। उच्च सामाजिक और आर्थिक वर्ग की महिलाओं की राजनीति में भागीदारी ज्यादा पायी गयी। जबकि निम्न सामाजिक और कमजोर आर्थिक तबके की महिलाओं में यह भागीदारी काफी कम थी।

मतदाता के रूप में जरूर उनका प्रतिशत पुरुषों से भी ज्यादा हुआ है, इसके अलावा वे अपनी राजनैतिक पसन्द–नापसन्द को लेकर भी स्वयं निर्णय लेने में पहले की अपेक्षा थोड़ा ज्यादा सक्षम हुई हैं। पचास वर्ष से अधिक उम्र की दो–तिहाई महिलाओं का मानना है कि राजनीति में पुरुषों के वर्चस्व के कारण महिलाओं को अवसर नहीं मिलता। राजनीतिक अवसरों से तात्पर्य टिकट मिलना, चुनाव लड़ना और चुनाव जीतना आदि शामिल है। राजनीतिक पारिवारिक पृष्ठभूमि वाली महिला के लिए गैर–राजनीतिक पृष्ठभूमि वाली महिलाओं की अपेक्षा राजनीतिक गतिविधियों में हिस्सा लेना आसान है।

पितृसत्तात्मक समाज और रूढ़िवादी ढाँचे के कारण घरेलू स्तर से ही महिलाओं की स्वतंत्र राजनीतिक सोच और निर्णयों पर अंकुश लगाने की प्रवृत्ति पायी जाती है।

हमारे समाज में अधिकांश महिलाएँ न केवल आर्थिक रूप से परनिर्भर हैं, बल्कि जो महिलाएँ आर्थिक रूप से स्वावलम्बी हैं, वे भी सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से पुरुष प्रधान सत्ता पर निर्भर हैं। हालाँकि हमारा संविधान जातीय और लैंगिक असमानताओं को खारिज करता है, लेकिन महिलाओं के प्रति सामाजिक और पारिवारिक स्तर पर मौजूद असमानता और भेदभाव उनकी सामाजिक सक्रियता और राजनीतिक भागीदारी को बाधित करते हैं। भारत सरकार ने 1994 में संवैधानिक संशोधनों 73, 74 में महिलाओं के लिए स्थानीय निकायों में 33 प्रतिशत का आरक्षण देने के लिए महिला आरक्षण विधेयक पारित किया। इस कानून के माध्यम से जो सीमित सशक्तिकरण हुआ है, उसकी हकीकत भी हम अच्छी तरह जानते हैं। यहाँ भी हमारा पितृसत्तात्मक समाज अपनी करनी से बाज नहीं आता। चुनाव के पोस्टर पर अकसर उम्मीदवार के रूप में महिला के पति, यानी ‘प्रधान पति’ की ही तस्वीर छपी होती है। दु:ख की बात है कि सामाजिक कंडीशनिंग की शिकार महिलाओं को इसमें कोई हर्ज नजर नहीं आता कि मर्दों द्वारा येन–केन प्रकारेण सत्ता हासिल करने के लिए उनका इस्तेमाल किया जा रहा है, परिवार के पुरुष सदस्यों के लिए प्रॉक्सी के रूप में महिला की भूमिका बेहद चिन्तनीय है। ऐसे में सशक्तिकरण निरर्थक हो जाता है और इसके लिए किया गया आरक्षण भी एक ढकोसला मात्र रह जाता है। परिवार और समाज में स्त्री–पुरुष के बीच असमानता और पक्षपातपूर्ण रवैये को दूर किये बिना कानून के भरोसे राजनीतिक समानता की बात करना बेमानी है।

इसी तरह हाल ही में एक विधेयक नारीशक्ति वंदन अधिनियम 2023 लोकसभा और राज्यसभा द्वारा पारित किया गया है और यह भारत की महिला राष्ट्रपति द्रौपदी मूर्मू की सहमति के लिए लंबित है। क्या इसका परिणाम भी पंचायत चुनावों में आरक्षण की तरह ही नहीं होगा?

बाबा अम्बेडकर ने कहा था कि दलित–शोषित तबके के लिए आर्थिक–सामाजिक समानता के बगैर कानूनी समानता या अधिकार का कोई लाभ नहीं होता। राजनीतिक समझ या चेतना के अभाव में वे अपने राजनीतिक अधिकारों के प्रति सचेत नहीं हो पाते। महिलाओं की स्थिति तो और भी विकट है क्योंकि बच्चों की देखभाल, पारिवारिक जिम्मेदारियों और घरेलू काम के असमान विभाजन की वजह से इन कामों में पुरुषों की तुलना में उनका ज्यादा समय और श्रम लगता है। यहाँ तक कि कामकाजी महिलाओं को भी लगता है कि घर का काम और बच्चों की देखभाल, काफी हद तक उनकी ही जिम्मेदारी है।

जो महिलाएँ इन बाधाओं को लाँघ कर राजनीतिक क्षेत्र में आ भी जाती हैं तो उनकी राह आसान नहीं होती। राजनीतिक पार्टियों का माहौल भी महिलाओं के ज्यादा अनुकूल नहीं होता, उन्हें पार्टी में जगह बनाने के लिए बहुत संघर्ष और तमाम तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ता है। वहाँ भी उनको वैसे ही दोहरेपन का सामना करना होता है, जैसा समाज में। राजनीति में बढ़ती जा रही हिंसा और अपराध, भ्रष्टाचार, असुरक्षा भी महिलाओं को इसके प्रति हतोत्साहित करने के लिए जिम्मेदार है। पार्टियों में प्रभावी पुरुषप्रधान मानसिकता और सोच तथा लोकतांत्रिक माहौल के अभाव के कारण उन्हें अकसर ऊपर से थोपे गये निर्णयों को ढोना पड़ता है और बड़े नेताओं की हाँ में हाँ मिलाना पड़ता है। इसलिए जो गिनी–चुनी महिलाएँ इन पार्टियों में होती भी हैं वे एक तरह से पुरुषप्रधान मानसिकता में ही काम करती हैं।

देखा गया है कि सिने अभिनेत्रियों को उनकी लोकप्रियता और राजनीतिक महत्वाकांक्षा के कारण भी विधायिका या संसद का चुनाव लड़ने के लिए टिकट दिया जाता है, लेकिन महिलाओं से सम्बन्धित मामलों में उनका रवैया घोर पितृसत्तात्मक रहता है, इसलिए बेशक वे महिलाएँ क्यों न हों, उनकी राजनीतिक भागीदारी से महिलाओं की बुनियादी दशा में कोई बदलाव नजर आता नहीं दिखता।

ऐसा हम सभी ने कितनी ही बार देखा और महसूस किया है जब चुनाव जीत कर सांसद या विधायक बनी ये तथाकथित महिला राजनेता उत्पीड़ित महिलाओं के प्रति हुए जघन्य अपराधों के मुद्दे पर न केवल मुँह सिले बैठी रहती हैं, बल्कि अपनी पार्टी के व्यभिचारी नेताओं के समर्थन में भी खड़ी होती हैं। महिला पहलवानों के यौन शोषण के मुजरिम बृजभूषण शरण सिंह और हाल ही में कर्नाटक के सांसद रेवन्ना द्वारा सैकड़ों महिलाओं के साथ बलात्कार करने के मामले में भाजपा नेत्रियों का मौन या खुला समर्थन इसके ज्वलन्त उदाहरण हैं। दूसरी पार्टियों की स्थिति भी कमोबेश ऐसी ही है। महिलाओं द्वारा महिलाओं के खिलाफ ऐसा क्रूर और उदासीन रवैया शर्मनाक और क्षोभजनक है। पार्टी के हित से पहले इनसानियत को तरजीह देने वाली तथा उपकरण मात्र नहीं बल्कि स्वस्थ और स्वतंत्र दृष्टिकोण रखनेवाली दिलेर महिलाएँ इन पार्टियों में दुर्लभ ही हैं।

महिलाओं की राजनीतिक चेतना को विकसित करने और उनकी सक्रिय राजनीति में भागीदारी के लिए उन रूढ़ियों को तोड़ना होगा जो उन्हें घर–परिवार और ज्यादा से ज्यादा सिर्फ अपने कार्यक्षेत्र तक ही सीमित रखती हैं। राज्य, परिवार और समुदाय के लिए आवश्यक है कि वे महिलाओं की शिक्षा के साथ–साथ, लैंगिक भूमिकाओं पर फिर से विचार करें।

आज भारत में युवा महिलाएँ कई क्षेत्रों में सफलता के झण्डे गाड़ रही हैं। अगर अवसर मिले तो वे स्वास्थ्य, पोषण, शिक्षा और आजीविका जैसी बुनियादी जरूरतों को बेहतर समझ सकती हैं, साथ ही बेहतर संचालन कर सकती हैं। पैतृक सम्पति में अधिकार हो या गर्भपात, अथवा समान वेतन, महिलाओं ने इनको प्रभावित करने वाले मुद्दों पर संघर्ष करके इन्हें हासिल किया है। महिलाओं की एक माँ, बहन, बेटी और पत्नी से इतर एक स्वतंत्र व्यक्ति की छवि बनाने के लिए उन्हें अपनी राजनीतिक चेतना को जगाना ही होगा। समाज के निचले वर्गों से संघर्ष की आग में तपी हुई महिलाओं को प्रतिनिधित्व मिले तो सम्भवत: वे परिवर्तन अवश्य ला सकेंगीं लेकिन राजनीतिक चेतना को जगाए बिना इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती।

अब तक हमने देखा कि ऊपर से, सरकारी प्रयासों के जरिये महिला सशक्तिकरण के नाम पर किये गये कानूनी और सुधारात्मक प्रयासों का क्या नतीजा सामने आया। आजादी के पचहत्तर वर्षों बाद भी महिलाओं की स्थिति में अपेक्षित और सन्तोषजनक बदलाव नहीं आया। इसके कारणों पर भी हमने सरसरी तौर पर विचार किया। इन बातों की रोशनी में हम वैकल्पिक पहल और प्रभावकारी उपायों पर विचार कर सकते हैं।

दरअसल महिलाओं के सशक्तिकरण और पुरुष प्रधान समाज के बन्धनों से उनकी मुक्ति खुद उनके ही प्रयासों से सम्भव हो पायेगी। महिला मुक्ति महिलाओं की अपनी जिम्मेदारी है। इसके लिए सबसे पहले यह जरूरी है कि महिलाएँ हर हाल में खुद को आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनाएँ। आर्थिक निर्भरता सम्पूर्ण आजादी की गारण्टी तो नहीं, लेकिन यह उसकी पहली शर्त जरूर है। एक आत्मनिर्भर महिला ही अपने दम पर कोई फैसला कर सकती है और अपनी मर्जी से जीने का प्रयास कर सकती है, चाहे वह जीवन साथी चुनने का सवाल हो या घरेलू हिंसा के खिलाफ आवाज उठाने का।

दूसरी शर्त है कि महिलाएँ सामाजिक गतिविधियों और न्याय के लिए संघर्ष में सक्रिय रूप से भाग लें। इसके लिए उनका महिला संगठन या अपने कार्यस्थल के संगठन, ट्रेड यूनियन इत्यादि में शामिल होना जरूरी है। इसके साथ ही उन्हें अपनी राजनीतिक–सामाजिक चेतना बढ़ाना भी जरूरी है। संगठन के जरिये ही महिलाएँ अपने अधिकारों की लड़ाई लड़ने के साथ–साथ दूसरे तबकों और वर्गों की न्यायपूर्ण लड़ाई में भी अपनी भागीदारी तय कर सकती हैं। पिछले दिनों दिल्ली बॉर्डर पर किसानों के आन्दोलन में महिलाओं की बढ़–चढ़ कर भागीदारी तथा मजदूर आन्दोलनों में, सीएए–एनआरसी आन्दोलन में, महिला उत्पीड़न के खिलाफ आन्दोलनों में और तमाम जनआन्दोलनों में उनकी हिस्सेदारी काफी उम्मीद जगाती है। इन्हीं संघर्षों की आग में तप कर सही मायने में संघर्षशील महिला नेतृत्व उभरेगा जो हर तरह के जुल्म और अन्याय के खिलाफ महिलाओं का नेतृत्व करने में सक्षम होगा।

 –– ऊषा नौडियाल

No comments:

Post a Comment