Tuesday, January 23, 2024

दिल्ली से तुंगनाथ : मेरी पहली घुमक्कड़ी की दास्तान

 

वर्ष 2022, अप्रैल का महीना था। मैं अपने दोस्तों से अक्सर ट्रैक और पहाड़ों की बातें सुनती रहती थी, लेकिन कभी जा नहीं पायी थी। पहाड़ों का नाम आते ही मेरे दिमाग में बचपन की आर्ट की क्लास में जो झोपड़ी के पीछे पहाड़ बनाते थे, उनकी ही तसवीर उभर आती थी। साँस–सम्बन्धी परेशानी होने के चलते भी थोड़ा डर–सा लगा रहता था कि पहाड़ कैसे चढ़ पाऊँगी! खैर, दिमाग में एक जद्दोजहद तो चलती ही रही पर इस महीने जाने का बिल्कुल मन बना लिया था। हम पाँच लोगों की टोली– सनी, मोहित, यामिनी, ललित और मैं, हमने तुंगनाथ जाने का तय किया और अपना–अपना बैग लेकर बस–अड्डे के लिए निकल पड़े। मेरा मन मानो अभी से उड़कर पहाड़ों पर पहुँच गया था। जैसे ही हमारे जाने के बारे में मुक्ता यानि वेरा को पता लगा, बिलकुल आखिरी मिनट पर उसने भी हमारे साथ चलने का फैसला कर लिया और अपने पिता जी को साथ लेकर अपने जरूरी सामान का बैग पीठ पर लटकाकर हमें बस–अड्डे पर ही मिली। मुझे वेरा को देखकर बहुत खुशी महसूस हो रही थी। अब हम छ: लोगों की टोली चली घूमने।
वेरा मुझसे उम्र में छोटी है लेकिन यात्रा के अनुभव में मुझसे बड़ी है। रात के नौ बजे बस रवाना हुई। बस में सीट तो पाँच ही बुक थीं। अब छठवीं सीट के नाम पर दरवाजे के पास वाला एक तख्ता मिला। मैं और वेरा पास–पास बैठे। यामिनी की सीट पीछे थी। हमारे बाकी तीन साथियों ने रात–भर बारी–बारी करके उस तख्ते पर बैठकर एक सीट की कमी को झेला, हमारी बारी ही नहीं आयी।
वेरा ने मुझे खिड़की के पास वाली सीट ऑफर कर दी क्योंकि शायद वह भी अन्दाजा लगा चुकी थी कि पहली बार घूमने जाने पर मन की स्थिति क्या होती है। पूरी रात कभी मेरे कन्धे पर सर रख लेती तो कभी बातें बनाने लगती। ज्यादातर यात्री हिलते–डुलते कभी सो जाते तो कभी बातों में लग जाते। ड्राइवर साहब को भी नींद न लगे और उनका सफर भी बढ़िया रहे, इसके लिए साथी लोग उनके पास बैठकर भी बतियाने लगते। हरिद्वार से आगे जब बस एक पेट्रोल पम्प पर रुकी तो हम सब भी बस से उतरे और वहाँ से मैंने पहली बार पहाड़ देखा। मौसम हल्का सर्द हो चला था और मैं तो जैसे किसी सपने के पीछे चल रही थी। बस और आगे पहुँची तो पहाड़ और ज्यादा नजर आने लगे। भोर की नींद मुझे पुचकार रही थी लेकिन इस खूबसूरत सफर का एक भी दृश्य मैं छूटने नहीं देना चाहती थी, सो, उनींदी आँखों को कभी खिड़की पर टिकाये तो कभी वेरा के कन्धे पर, मैं हर एक पेड़, हर एक मोड़ को निहारती जा रही थी।
अब बस गोल–गोल घूमते हुए पहाड़ चढ़ रही थी। ऐसा लग रहा था मानो पहाड़, पेड़, भोर की सनसनाहट सब मेरा स्वागत कर रहे हों। पहाड़ अपनी विशाल भुजाएँ फैलाए मुझसे पूछ रहे हों कि अब तक मैं क्यों नहीं आयी? जैसे–जैसे हमारी बस उपर की तरफ चढ़ रही थी, एक के बाद एक पहाड़ करीब आते जा रहे थे। पहाड़ो के पीछे से निकलता हुआ सूरज ऐसा लग रहा था जैसे नींद से जगाये जाने पर कोई धीरे–धीरे आँखे खोलता है। एक तरफ पहाड़ तो दूसरी तरफ गहरी खाई देखकर डर भी लग रहा था किन्तु मन–ही–मन खुशी भी हो रही थी। पहाड़ों की ठण्डक और एक अलग ही खुशबू आ रही थी।
हम रुद्रप्रयाग पहुँचे फिर श्रीनगर और फिर कुण्ड। वहाँ बस ने हमें उतार दिया। यहाँ से 35 किलोमीटर दूर था–– चोपता जहाँ हमें जाना था। बस अड्डे से हमने चोपता के लिए टैक्सी ली। चोपता पहुँचकर हमने कमरा लिया, खाना खाया और थोड़ा आराम करके सबने तय किया कि तुंगनाथ चलते हैं, आज ही। एक दिन बच जायेगा उसमें दिनों में दूसरी जगह घूम लेंगें। यह दोपहर के बाद का समय था और कुछ लोग हमें जाने से मना भी कर रहे थे।
चोपता से हम लोग तुंगनाथ के लिए चलने को तैयार हो गये। सबने अपने जरूरत के अनुसार छोटे बैग, पानी की बोतलें आदि ले लीं। और रास्ते के लिए फ्रूटी और चाकलेट भी ले लिया। पहाड़ों के गावों में घरों की संख्या ज्यादा नहीं होती है। मुझे यह जानकर अचम्भा हुआ कि दस घरों का भी एक गाँव हो सकता है। और पहाड़ तो ढलान के आकार में होते हैं तो यह घर टेढ़े हो कर गिरने का खतरा भी रहता होगा। पहाड़ों पर जो पेड़ उगे थे, वह तो सीधे खड़े थे, वे टेढे क्यों नहीं थे? वहाँ का बाजार कुछ अलग सा था। वहाँ के बैंक, सरकारी दफतर समतल जगहों के मुकाबले बहुत छोटे थे। घरों की छतों पर गाड़ियाँ खड़ी होती हैं। यहाँ का स्कूल कैसा होगा, बच्चे कैसे पहाड़ से अकेले चढ़ कर जाते होंगे, लोग नौकरी करने कहाँ जाते होंगे, अस्पताल कहाँ–कहाँ होंगे, बीमार को लेकर पहाड़ कैसे चढ़ते होंगे, ऐसे ढेरों सवाल मन में आ–जा रहे थे। मैं बस सब जान लेना चाहती थी। खैर यह सब पता करने के लिए तो ज्यादा घूमना पड़ेगा, लोगों से मिलना पड़ेगा, उनके साथ रहकर ही इन सब सवालों के जवाब मिल सकते हैं।
तुंगनाथ मन्दिर 3640 मीटर की ऊँचाई पर बना हुआ है। थोड़ा सा चलते ही साँस फूलने लगी। बाकी सब का भी यही हाल था। उन्हें देखकर कुछ तसल्ली हुई कि मैं अकेली नहीं हूँ। आगे बढ़ते ही सुन्दर लाल फूलों के गुच्छों से लदे पेड़ दिखने लगे जो रास्तों में कुछ यों बिखरे थे मानो हमारे स्वागत में किसी ने फूलों से रास्ता सजाया हो! दोस्तों ने बताया कि यह बुरांश है–– उत्तराखंण्ड का राजकीय वृक्ष और नेपाल का राष्ट्रीय फूल। मैं तो बस आँखों में नजारे समेट लेना चाहती थी। हम जैसे–जैसे उपर चढ़ रहे थे, एक तरफ की खाई गहरी होती जा रही थी और साथ ही मेरा डर भी। हम पहाड़ों को पार कर रहे थे। बीच–बीच में खूबसूरत बुग्याल भी आये। बुग्याल माने घास के हरे–भरे मैदान जिनमें घास के साथ ही जंगली फूलों की भी चादर बिछी होती है। वहाँ हमने खूब फोटो लिये और हरी घास में लेटकर आसमान को निहारा। तभी अचानक मौसम खराब होने लगा। बारिश से बचने के लिए हम एक छायादार जगह पर आ गये। थोड़ी ही देर में वहाँ रुई जैसी बर्फ गिरने लगी। पहली बार मैंने बर्फबारी होते देखी। हम खुशी से चिल्ला पड़े और नाचने लगे। मेरे तरह ही ललित का भी यह पहला ट्रेक था। चारों तरफ हरे–भरे पहाड़ और जैसे–जैसे ऊँचाई बढ़ रही थी बुरांश के फूल अपना रंग बदल रहे थे। मौज–मस्ती करने में हमने अपना काफी समय गवाँ दिया था और अभी बहुत रास्ता बाकी था, इसलिए हम शॉर्टकट लेकर उपर चढ़ने लगे, बिलकुल बन्दरों की तरह!
अब तुंगनाथ हमसे करीब सौ मीटर ही दूर था। अचानक मौसम फिर बदल गया। बहुत तेज तेज हवाएँ चलने लगीं और बर्फ गिरने लगी। जल्दी–जल्दी चलकर हम तुंगनाथ पहुँचे। वहाँ शेड के नीचे और भी लोग थे। अब ठण्ड भी बढ़ गयी थी। दाँत किटकिटा देने वाली ठण्ड हो गयी थी। थोड़ी देर बाद बारिश रुक गयी और मौसम फिर से साफ और सुहाना हो गया। सनी ने जोर से आवाज लगाकर पूँछा कि कोई और भी है जो चलेगा चन्द्रशिला? बैठे हुए लोगों में गुजरात से आये हुए लोगों का एक ग्रुप था, वे तैयार हो गये। दोनों टोलियाँ अब चलने को तैयार थीं, अपने–अपने सामान के साथ। चन्द्रशिला का रास्ता सँकरा था। एक के पीछे एक ही चल सकता था। मस्ती करते हुए हम चलते रहे। अपनी मंजिल से करीब 50 मीटर ही दूर थे कि मौसम फिर बिगड़ने लगा। यामिनी हम सबसे आगे थी। और थोड़ा तेज चलकर वह चंद्रशिला की चोटी पर पहुँच गयी। बचे हम पाँच और वह गुजराती ग्रुप। तेज बर्फ की आंधी चलने लगी। ऐसा लग रहा था जैसे कोई जोर–जोर से थप्पड़ मार रहा हो। एक दूसरे की आवाज भी मुश्किल से सुनाई पड़ रही थी। तुरन्त हम लोगों ने वापिस नीचे जाने का फैसला लिया। यामिनी तक आवाज न पहुँच पाने के कारण सनी उसको बुलाने ऊपर चला गया। तब तक हम उन लोगों के इन्तजार में धीरे–धीरे चलने लगे। चारों तरफ बर्फ ही बर्फ थी। दूर दूर तक कोई घर नहीं, कोई छत नहीं, कोई पेड़ नहीं।
अचानक से जोर का शोर हुआ और लगा कि हम सबको किसी ने जोर से धक्का मारा है और हम घुटनों के बल पहाड़ की ओर जा गिरे। कुछ समझ नहीं आया। ललित ने कहा कि मुझे मार क्यों रहे हो, मैं चल तो रहा हूँ। इतने में मोहित ने कहा कि जल्दी नीचे उतरो बिजली गिर रही है। हम लोग उठे और तेजी से नीचे की ओर चल दिये। थोड़ा सा चले कि बिजली फिर से कड़की और मुझे गहरे नीले रंग की एक लकीर अपने ऊपर आती दिखी और हम फिर से गिरे पहाड़ की तरफ। सब शान्त था। सिर्फ प्रकृति का शोर था। मुझे लगा कि मैं मर गयी। वेरा जोर–जोर से चिल्लाने लगी। ललित और मोहित उठे और वेरा को चुप कराने लगे, इतने में सनी और यामिनी भी दौड़कर आ गये। सनी और यामिनी के उपर भी बिजली गिरी। मोहित, ललित, वेरा सबके अपने–अपने अनुभव हैं। मुझे वेरा के रोने की आवाज आयी। मैंने देखा कि वेरा रो रही है और बाकी सब उसे चुप करा रहे हैं। मैं खुश थी कि मैं जिन्दा थी और हम सब ठीक थे, किसी को कुछ नहीं हुआ था। हमें नया जीवन मिला। बारिश–आँधी–तूफान की वजह से रास्ते फिसलन भरे हो चुके थे, काफी मुश्किल से हम नीचे आये। चेहरे पर हवाइयाँ उड़ी हुई थीं और हम एक–दूसरे का हाथ थामे तुंगनाथ तक पहुँचे।
 वापसी के रास्ते में गुजराती ग्रुप के एक लड़के की हिम्मत टूट चुकी थी। उसने नीचे जाने से इनकार कर दिया। ललित ने उसकी हिम्मत बढ़ाई और उसका हाथ पकड़कर फिसलन भरा बर्फीला रास्ता पार करवाया। तुंगनाथ में कई लोग मिले। उन्होंने हमारा हाल–चाल पूँछा और हमें रेनकोट भी दिये। ठण्ड बहुत बढ़ चुकी थी। हमारे हाथ ठण्ड से जम गये थे और उंगलियों ने हिलने की क्षमता खो दी थी। हमने अपने हाथों को रगड़कर गर्म किया। हम ज्यादा देर वहाँ नहीं रुके और बिगड़ते मौसम को देखकर बाकी सब भी नीचे की ओर चल दिये। डर भरे माहौल को हल्का करने के लिए हमने सोचा कि क्यों न एक गाना गा लिया जाये। उस परिस्थिति में हमने एक गीत शुरू किया–
तू जिंदा है, तो जिन्दगी की जीत पर यकीन कर
अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला जमीन पर–––
ये गम के और चार दिन सितम के और चार दिन
ये दिन भी जायेंगे गुजर, गुजर गये हजार दिन–––
इस गाने से कुछ जोश तो आया लेकिन घुटनों का दर्द बढ़ता जा रहा था, और रुकना सम्भव नहीं था। जब भी बिजली कड़क रही थी तो ऐसा लग रहा था मानो वह हमारा पीछा कर रही हो।
 चोपता में अपने कमरे में पहुँचकर ही हमने राहत की सांस ली और चाय पी। वहाँ के लोगों ने भी हमारी खैरियत पूँछी। हम सब अपना–अपना अनुभव बाँट रहे थे कि किसको क्या–क्या महसूस हुआ। बहुत सारी बातें थीं हमारे पास। इस यात्रा के दौरान हमें एक सबक जरूर मिला कि पहाड़ों में एक निश्चित समय के बाद ऊपर नहीं जाना चाहिए और मैनें सीखा कि कैसे मुश्किलों में एक–दूसरे के साथ से हम आगे बढ़ सकते हैं। हमारा साथ और आपसी तालमेल ही था, जिसने हमें सुरक्षित रखा।

इस तरह हमने जिन्दगी के एक महत्वपूर्ण सबक के साथ, एक नयी उर्जा, भारी मन और जल्द वापिस आने के वायदे के साथ चोपता को अलविदा कहा।

–– शालू