Friday, December 29, 2023

विज्ञान और प्रौद्यौगिकी के क्षेत्र में महिलाएँ



जब हमारे सामने क्रिकेट से जुड़े किसी भी खिलाड़ी का जिक्र होता है तो हम बिना विचार किए तुरन्त सचिन तेंदुलकर, एमएस धोनी, विराट कोहली या किसी अन्य पुरुष खिलाड़ी का नाम लेते हैंय सम्भव है कि इस सवाल के जवाब में मुट्ठी भर लोग मिताली राज, झूलन गोस्वामी या किसी अन्य महिला खिलाड़ी की भी बात करें। इसी तरह प्रसिद्ध वैज्ञानिकों की चर्चा करते हुए, हम अक्सर स्टीफेन हॉकिन्स, आइजैक न्यूटन या एपीजे अब्दुल कलाम को याद करते हैं, जबकि विज्ञान के क्षेत्र में जानकी अम्मल, असीमा चटर्जी और अन्ना मणि जैसी कई प्रमुख महिला वैज्ञानिकों ने बड़े–बड़े योगदान दिये हैं। आज के आधुनिक युग में महिलाएँ धरती से लेकर आकाश तक, हर क्षेत्र में पुरुषों के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर काम कर रहीं हैं। हालाँकि, उनके इस योगदान को पुरुषों के समान महत्व नहीं दिया जाता है, खासकर उच्च शिक्षा शोध संस्थानों और कार्यस्थलों में। ढेरों चुनौतियों के बावजूद महिला वैज्ञानिकों ने हर क्षेत्र में अपनी क्षमता का प्रदर्शन किया है, जिसमें इसरो का चन्द्रयान व मंगल मिशन, नासा और नोबेल पुरस्कार शामिल हैं।

विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में महिलाओं के योगदान के एक मजबूत उदाहरण ने सामाजिक और आर्थिक रूप से गम्भीर मसले का हल निकाला है। यह उदाहरण महिला वैज्ञानिक मैरी क्यूरी के बारे में है, जिन्होंने कैंसर के इलाज में नयी तकनीकों का उपयोग करके कैंसर के लक्षणों को पहचानने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी, जिससे कैंसर के सही पहचान और उपचार की गति में सुधार हुआ। इस क्षेत्र में महिलाओं के योगदान का एक और प्रमुख उदाहरण हैं–– एमरी ई विन्नर, जिन्होंने नैनो टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया। वे नैनो टेक्नोलॉजी के माध्यम से यन्त्रों का आकार बहुत छोटा करने और नये यन्त्रों का आविष्कार करने में अग्रणी रहीं। एक और प्रमुख महिला वैज्ञानिक हैं, डॉक्टर तेसला मुखर्जी, जिन्होंने कम्प्यूटर साइन्स के क्षेत्र में शानदार छाप छोड़ी। उन्होंने बड़ी संख्या में सिस्टम कोड को व्यवस्थित करने के लिए विशेष तकनीक विकसित की, जिसने कम्प्यूटर साइन्स को आगे बढ़ाने में बड़ी भूमिका निभायी। इन क्षेत्रों में महिलाओं के काम ने, महिलाओं में समानता और आत्मविश्वास की भावना को प्रेरित किया, जिससे उनकी सामाजिक व आर्थिक स्थिति में कुछ सुधार भी हुआ। महिलाओं ने इन क्षेत्रों में महत्वपूर्ण योगदान देकर यह साबित कर दिया कि वे किसी भी क्षेत्र में पुरुषों के साथ बराबरी से चल सकती हैं। 

यूनेस्क इन्स्टीट्यूट फॉर स्टेटिस्टिक्स रिपोर्ट के अनुसार दुनिया भर के शोध संस्थानों में कार्यरत कुल लोगों में 30 प्रतिशत से भी कम महिलाएँ हैं। भारतीय शोध संस्थानों में यह अनुपात और ज्यादा कम हैं। भारत के अनुसन्धान और विकास संस्थानों में 2.8 लाख वैज्ञानिक, इंजीनियर और प्रौद्योगिकीविद् हैं, जिनमें केवल 16 प्रतिशत महिलाएँ हैं। वहीं नेशनल साइन्स फाउन्डेशन की रिपोर्ट के अनुसार अमेरिका में एसटीईएम (साइन्स, टेक्नोलॉजी, इंजीनियरिंग और मैथमैटिक्स) क्षेत्र में लगभग 43 प्रतिशत महिलाएँ कार्यरत हैं। हालाँकि यूरोस्टाट की रिपोर्ट के अनुसार यूरोप के कुछ देशों में विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में महिलाओं की संख्या 50 प्रतिशत से भी अधिक है। 

साल 2020 में किये गये सर्वे से पता चलता है कि भारतीय राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी (इन्सा) के 1,044 सदस्यों में से केवल 89 महिलाएँ थीं, जो कुल संख्या का मात्र नौ प्रतिशत है। वहीं साल 2015 में उनकी संख्या और भी कम थी, जिसमें 884 सदस्यों में मात्र छ: प्रतिशत महिला वैज्ञानिक शामिल थीं। इन्सा के प्रशासनिक निकाय में साल 2020 में 31 सदस्यों में से केवल सात महिलाएँ थीं, जबकि साल 2015 में कोई महिला सदस्य नहीं थी। 

बेशक, आजकल विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में महिलाओं की संख्या बढ़ रही है, लेकिन इसकी रफ्तार बहुत धीमी है। भारतीय समाज में महिलाओं की भागीदारी को कम करने वाले मुख्य कारक पितृसत्तात्मक सोच, सामाजिक बाधाएँ और आर्थिक परनिर्भरता हैं। किसी महिला वैज्ञानिक को नौकरी देने या उसे नेतृत्वकारी पद प्रदान करने का निर्णय लेते समय केवल उसकी योग्यता पर ध्यान देने के बजाय उसकी पारिवारिक स्थिति, उसके जीवनसाथी का स्तर जैसे तमाम कारकों पर विचार किया जाता है। वेतन का अन्तर एक बड़ी समस्या है। संस्थानों में महिला कर्मचारी का वेतन पुरुष कर्मचारी के मुकाबले कम होता है। यह असमानता महिला वैज्ञानिकों के लिए आर्थिक और मानसिक तनाव का कारण बनती है। कई बार महिलाओं को उनके साथी पुरुषों की तुलना में कई बाधाओं का सामना भी करना पड़ता है। इसमें पदोन्नति के सीमित अवसर, नौकरी की सुरक्षा सम्बन्धी चिन्ताएँ और परियोजनाओं में समान अवसर न मिलना जैसी बाधाएँ शामिल हैं। 

वैज्ञानिक संस्थानों और उद्योगों में महिलाओं की संख्या में भारी कमी के कारण प्रबन्धन टीम में और परियोजनाओं में भी उनकी हिस्सेदारी बहुत कम होती है। कुछ मामलों में उन्हें बलात्कार, यौन उत्पीड़न तथा मानसिक उत्पीड़न तक का सामना करना पड़ता है। यह उनके आत्मसम्मान और सुरक्षा पर खतरा होता है, जिससे उनके पेशेवर विकास में दिक्कत आती है। कार्यस्थल में संस्थागत सहायता और सुरक्षा सम्बन्धी व्यवस्थाओं की कमी के कारण गर्भावस्था के दौरान महिलाओं को अपने काम बीच में ही छोड़ देने पड़ते हैं। 

भारतीय समाज में पितृसत्तात्मक सोच के चलते यह माना जाता है कि किसी भी क्षेत्र में बेहतर प्रदर्शन केवल पुरुषों द्वारा ही किया जा सकता है, क्योंकि उनके पास परिश्रम और विशेषज्ञता का स्तर अधिक होता है। दूसरी ओर महिलाओं को हमेशा घरेलू जिम्मेदारियों के मुनासिब समझा जाता है और उन्हें या तो घर के कामों में लगा दिया जाता है, या फिर ऐसे व्यवसाय में जिसे वह घर के कामों के साथ–साथ आसानी से सम्भाल सकें।

अगर स्कूली शिक्षा की बात करें, तो महिला और बाल विकास मन्त्रालय की एक रिपोर्ट बताती है कि माध्यमिक शिक्षा स्तर पर लड़कियों का औसतन ड्रापआउट (स्कूल छोड़ने की दर) दर 17–3 प्रतिशत और प्राथमिक स्तर पर 4–74 प्रतिशत है। इसका मुख्य कारण यह है कि गाँवों में घरों से स्कूलों की दूरी अधिक होती है, जिस वजह से लड़कियाँ स्कूल नहीं जा पाती हैं, अगर किसी तरीके से चली भी जाती हैं तो स्कूलों में महिला शिक्षकों के न होने पर या फिर महिला शौचालयों के अभाव में भी स्कूल छोड़ना पड़ता है। देश में सर्वशिक्षा अभियान के तहत बनाये गये प्राथमिक स्कूलों की हालत खराब हो चुकी है क्योंकि सरकारें प्राइवेट शिक्षा को बढ़ावा दे रही हैं। प्राइवेट स्कूलों की भारी–भरकम फीस चुका पाना मेहनत–मजदूरी करने वाले माता–पिता की पहुँच से बाहर है। प्राइवेट संस्थान शिक्षा के नाम पर अपनी जेबें भर रहे हैं। 

कुल मिलाकर यह कहना गलत नहीं होगा कि महिलाओं ने अपनी मेहनत और आविष्कारों से विज्ञान में अपनी पहचान बनायी है, लेकिन आज की महँगी शिक्षा, देश की बहुतायत जनता की पहुँच से बाहर होती जा रही है, खासकर लड़कियों की, जिससे वह विज्ञान और शिक्षा जैसे कई क्षेत्रों में पीछे होती जा रही हैं।

इस सामाजिक–राजनीतिक व्यवस्था में महिलाओं को दबाकर रखा जाता है, अत: हमें ऐसी व्यवस्था बनाने की जरूरत है जहाँ महिलाओं और पुरुषों में कोई भेदभाव न हो। यह तभी हो सकता है जब मौजूदा व्यवस्था को बढ़ावा न देकर बराबरी और न्याय पर आधारित व्यवस्था कायम हो। 

–– तसमिया फलक 

Tuesday, December 26, 2023

फिल्म और टीवी जगत की महिलाएँ

 


आज के इस दौर में किताबों, अखबारों और पत्रिकाओं की जगह मोबाइल और टीवी ने ले ली है। जहाँ पहले एक छोटी–से–छोटी बात को देश–विदेश तक पहुँचने में कई दिन लगते थे, वहीं आज हम अपनी बैठक के सोफे पर बैठकर सारी तस्वीरें और जानकारी मिनटों में पा लेते हैं। हम मिनटों में सारी दुनिया से जुड़ जाते हैं। मोबाइल और टीवी में दिखाये जाने वाले अधिकांश कार्यक्रम, धारावाहिक और दूसरी चीजें समाज के अलग–अलग वर्गों पर अलग–अलग तरह की छाप छोड़ते हैं। चिंता की बात यह है कि इनमें से ज्यादातर, सच्चाई से कोंसो दूर, एक नकली दुनिया को परोसते रहते हैं।

पुरुष टीवी पर ज्यादातर समाचार और खेलकूद से जुड़े कार्यक्रम देखते हैं वहीं औरतें ज्यादातर नाटक या फिल्में देखना पसन्द करती हैं, जो 90 प्रतिशत महिलाओं के जीवन से बिल्कुल उलट होते हैं। धारावाहिकों में दिखायी जाने वाली औरतें ज्यादातर गहनों से लदी होती हैं और उनके पास एक दूसरे के खिलाफ साजिश रचने के अलावा कोई दूसरा काम नहीं होता। आम महिलाएँ खुशफहमी में होती हैं कि यह एक खूबसूरत दुनिया है जिसमें वह फिल्म और नाटकों की महिलाओं को जीते देखती हैं।

यह धारावाहिक उनके अन्दर की एकता को खत्म करने में बहुत बड़ी भूमिका निभाते हैं, जिसे वे बोलने और सोचने–समझने की आजादी समझती हैं। लेकिन असल में औरतों के ऊपर थोपे जाने वाली पितृसत्ता के दो मुख्य चेहरे हैं। एक वह जो बहुत साफ है, जिसे हम आसानी से देख और समझ सकते हैं। जिसका हम खुलेआम विरोध करते हैं, जिसकी हरकतें हमारे सामने साफ होती हैं, जैसे मारपीट, खानपान में भेदभाव, यौन उत्पीड़न आदि। पितृसता के इस रूप को हम सामन्ती पितृसत्ता का नाम दे सकते हैं। वहीं दूसरी ओर पितृसत्ता का दूसरा रूप पूँजीवादी पितृसत्ता है जो देखने में बहुत रंगबिरंगा, खूबसूरत और आकर्षक लगता है। जिसकी बेड़ियों को हम लड़कियाँ आजादी का एक रूप समझने लगती हैं। पूँजीवादी पितृसत्ता सामन्ती पितृसत्ता से कहीं ज्यादा खतरनाक है और समाज में गहराई तक अपनी जड़ जमाये हुए है। यह महिलाओं की वह मित्र जो उनके पीछे उन्हीं की पीठ में बहुत प्यार और खूबसूरती के साथ पूँजीवाद का खंजर घोंप रही है।

टीवी पर आने वाले महिला विरोधी धारावाहिक, फिल्में और विज्ञापन इसी पूँजीवादी पितृसत्ता को मजबूती देते हैं। देश–विदेश में चलने वाला हर विज्ञापन महिलाओं को पूँजीवादी पितृसत्ता के बेड़ियों में बांधकर आजाद और स्वतन्त्र दिखाता है। 2016 के रिन साबुन के एक विज्ञापन में एक औरत जो कि डॉक्टर है, वह जब अपनी ससुराल में घर का सारा काम निबटाये बिना अपनी नौकरी पर चली जाती है और इस कारण उसकी सास उसे ताने मारती है और उससे नाराज होती है तब इस दिक्कत से बचने के लिए उसकी एक सहेली उसे रिन साबुन का इस्तेमाल करने को कहती है, जिससे वह नौकरी के साथ–साथ घर का काम भी निपटा सके और अपने घरवालों को खुश भी रख सके। इसी तरह के विज्ञापन हमारे चारों ओर भरे पड़े हैं। अगर बात करें सौन्दर्य प्रसाशनों के विज्ञापनों की तो वह धारावाहिक और फिल्मों से भी कहीं ज्यादा खतरनाक हैं। उन विज्ञापनों के स्लोगन औरतों की व्यवहारिकता और एकता को तोड़ने में जुटे हुए हैं और यह अपने इस काम में बहुत हद तक कामयाब भी हो चुके हैं।

विज्ञापन जो अपना सामान बेचने के लिए औरतों का गलत इस्तेमाल कर रहे हैं और असल नारीवाद के बजाय नारीवाद का एक उल्टा और गलत चेहरा पेश करते हैं जिसे औरतें आसानी से और खुशी–खुशी अपने व्यवहार में उतारती हैं। लेकिन यह सिलसिला यहीं नहीं रुकता। इन धारावाहिकों, फिल्मों और विज्ञापनों में औरतों के अस्तित्व के सवाल को छोड़कर अस्मिता के सवाल को मुख्यता दी जा रही है। टीवी जगत के फैलाये गये झूठे नारीवाद ने नारी मुक्ति आन्दोलन के सवालों में उन 80 प्रतिशत महिलाओं के अस्तित्व के सवाल को पीछे छोड़ दिया है जो 20 रूपये प्रतिदिन पर अपना गुजारा करती हैं। इसके बजाय दिल्ली की सड़कों पर शॉर्ट्स पहनकर, सिगरेट और बीयर पीने के सवाल और संघर्ष को महिलाओं की मुक्ति का मुख्य सवाल बना दिया है। इन विज्ञापनों और धारावाहिकों ने औरतों में इतना “मैं” भर दिया है कि वे इस “मैं” को साबित करने के चक्कर में “हम” शब्द का अर्थ भूलती जा रही हैं। उनके अन्दर की एकता और व्यवहारिकता कमजोर हो चुकी है।

इसी कारण आज कोई ऐसा बड़ा महिला संगठन नजर नहीं आता है जो महिलाओं के असल मुद्दों को सामने ला सके और उनके लिए लड़ सके। आज अगर हम एक मजबूत संगठन बनाना चाहते हैं तो हमें अपनी आजादी और समानता के असल मुद्दों को प्रमुखता देनी पड़ेगी और अपने अन्दर से ‘मैं’ शब्द को निकालकर ‘हम’ शब्द को अपनाना होगा। तभी हम अपने असल दुश्मन को पहचान पाएँगे और हमारे मोर्चे को इसका असल मुकाम हासिल होगा।

–– उत्सा प्रवीण

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Friday, December 15, 2023

रागो : एक क्रान्तिकारी उपन्यास

 


नक्सलवादी आन्दोलन पर आधारित और साधना द्वारा लिखित क्रान्तिकारी लघु उपन्यास ‘रागो’ महाराष्ट्र के आदिवासियों की जिन्दगी के दैनिक संघर्षों से होते हुए उनके क्रान्तिकारी संघर्षों तक की पूरी यात्रा करवाता है।

कहानी की नायिका ‘मड़वा गोंड़’ आदिवासी जनजाति की एक नवयुवती ‘रागो’ है। रागो का शाब्दिक अर्थ तोता होता है। तोते और रागो की जिन्दगी की समानताएँ उपन्यास में स्पष्टता से दिखती हैं–

जंगल में आजाद उड़ने वाले पक्षी को मनुष्यों के साथ रहने में बहुत परेशानी होती थी। उसे अपनी सब आजादी खोनी पड़ती थी।”

ठीक इसी तरह रागो भी कहीं न कहीं अपनी आजादी खो रही थी। पर वह संघर्ष का रास्ता चुनती है। पहले अपने प्रेमी के लिए घर से बगावत करती है और घर छोड़कर प्रेमी के घर पहुँच जाती है। प्रेमी द्वारा ठुकराये जाने पर वह वापस घर का रास्ता न लेकर अपनी राह खुद बनाने का निर्णय लेकर अपनी जिन्दगी के सबसे चमत्कारी अनुभव की यात्रा पर निकल पड़ती है। उसके नाते–रिश्तेदार उसे ढूंढकर जबरन उसका विवाह करवाना चाहते हैं। इस दौरान हमें आदिवासियों के बीच फैली महिला–विरोधी प्रथाओं और रस्मों से परिचित कराया जाता है– “शादी के बाद साड़ी उतारकर सिर्फ कमर में एक तौलिया लपेट कर रहने को बाध्य करते हैं।” पर वह अपने परिवार वालों से बच कर भाग निकलती है और अन्तत: एक क्रान्तिकारी संगठन का हिस्सा बन जाती है। धीरे–धीरे उसे यह नया जीवन, इसमें मिलने वाला समानता का व्यवहार अच्छा लगने लगता है और वह उस संगठन के संघर्ष में अपने जीवन का उद्देश्य पाती है।

इस उपन्यास में नायिका के माध्यम से महिलाओं के साथ गैर–बराबरी के व्यवहार पर भी सवाल उठाये गये हैं– “बाप के दारू पीने के पैसों के बदले बेटी को किसी के भी साथ बलात् शादी कर देना”। “फिर वह बहन नापसन्द मर्द के यहाँ न रहकर उससे सम्बन्ध तोड़ लेती है और कामकाज करके जीने लगती है तो लोग उसे कर्दे (बदचलन स्त्री) कहकर नीची नजर से देखते है।”

वहीं अपनी जिन्दगी में रागो के आगे बढ़ने और पुरानी सड़ी–गली मान्यताओं को पीछे छोड़ने की उपमा रागो के साड़ी को उतारने व उसी साड़ी के टुकड़े से बन्दूक पोंछने का कपड़ा बना लेने में सांकेतिक रूप से दिखाया गया है।

इसके अलावा सरकार का आदिवासी महिलाओं पर किया जाने वाला दमन भी बखूबी वर्णित है– “हाँ, हाँ, सरकार हमारे लिए बड़े अच्छे काम कर रही है––– है न जी? दस साल पहले हमारी औरतों को– जिनको बच्चे होना बन्द हुआ और जिनका मासिक भी होना बन्द हुआ थाय ऐसी बूढ़ी औरतों को भी ले जाकर बलात् नसबन्दी ऑपरेशन जो कराया गया था वह भी हमारी भलाई के लिए ही– है न जी?

सरकार के आदमी हमारे घरों में घुसकर बोतल भर दारू मिलने का झूठा अपराध हमारे सिर मढ़ कर चार सौ रुपये न देने तक मोबिल कोर्ट वाले हम पर जुल्म ढाते रहना भी हमारी भलाई के लिए है?

यही नहीं, यह व्यवस्था कैसे अपने मुनाफे के लिए प्रकृति का दोहन करती है, इसका भी सहज वर्णन पुस्तक में मिलता है, जब बाँधो के निर्माण से जंगल डूबने और उससे होने वाली तबाही की चर्चा गाँव वाले करते हैं– “बाप रे! इतना बड़ा जंगल और इतने गाँव डूब जायेंगे फिर हम सबका क्या होगा? जोतने के लिए जब जमीन ही नहीं होगी तो फिर पानी की सहूलियत और बिजली किस काम की?

इससे किसका फायदा है, इसका संकेत भी साफ अंकित है– “बिजली शहरों की मिलों के लिए है। हमारे जंगलों को पानी में डुबो कर नगरों में रहने वाले साहूकारों के लिए सुविधाएँ मुहैय्या कराते हैं।”

नक्सलवादी आन्दोलन के दौर में संगठन के क्रान्तिकारियों का गाँववालों के साथ अपनत्व का रिश्ता भी जहाँ–तहाँ दीख पड़ता है– “गाँव के हर एक को ऐसा लगता है कि दल की अक्काएँ उनकी निजी रिश्तेदारिनें थीय ऐसा था महिलाओं के साथ अक्काओं का मेल–जोल।”

संगठन में शामिल होने के बाद जब दल के साथ जैनी (रागो का क्रान्तिकारी नाम) अपने गाँव आती है तो घर वाले उसे देखकर खुश भी होते हैं और हैरान भी। वे उन लोगों की ऐसी आवभगत करते हैं, मानो जैनी के गत जीवन को भूल गये हों।

इस तरह रागो अपने जीवन का नया अध्याय लिखती है। प्रेमी को लेकर शुरू किये गये अपने छोटे से संघर्ष को दल में शामिल होकर कर वह बड़ा आयाम देती है और अपना जीवन बड़े उद्देश्य को समर्पित कर देती है। कुछ इन शब्दों में यह वर्णित है– “अनचाहे विवाह को टाल देने के लिए घर–गली, माता–पिता सब को छोड़कर खतरों को सिर पर लेकर जंगल–जंगल घूमने वाली लड़की दल में आयी और आने के बाद किस तरह बदल गयी थी!”

अब रागो का जीवन क्रान्ति को समर्पित था। हर तरह की गैरबराबरी और अन्याय के खिलाफ जंग ही उसका मकसद था। इसी के साथ यह पुस्तक हमें परेशानियों से भागने की जगह संघर्ष करने की सीख देने के साथ उन आदिवासी क्रान्तिकारियों के जीवन से गहराई से परिचित कराती है। कैसे जंगलों मे रातें काटते, बारिश में भीगते हुए नींद पूरी करते, बासी खाना खाकर और कदम–कदम पर जान को जोखिम में डालकर व्यवस्था के खिलाफ अपने और अपने लोगों के हक की लड़ाई लड़ते, गाँव के लोगों के साथ रिश्तेदारों से बेहतर आत्मीय रिश्ता कायम करते हुए, ये क्रान्तिकारी अपनी और दूसरों की जिन्दगी बेहतर बनाने के लिए संघर्ष करते हैं, यह इस पुस्तक में बहुत बारीकी से दिखाया गया है।

कुल मिलाकर यह पुस्तक नारी–असमानता, पूँजीवाद में प्रकृति की दुर्दशा, व्यवस्था का आदिवासियों के प्रति घटिया रवैया और क्रान्तिकारी जीवन के संघर्ष जैसे बहुत जरूरी मुद्दों पर आधारित है। खासकर महिलाओं के लिए यह प्रेरणास्पद पुस्तक है जो सभी को पढ़नी चाहिए।

–– अपूर्वा


Wednesday, December 13, 2023

साम्प्रदायिकता से प्रेरित समान नागरिक संहिता का प्रस्ताव और जनवादी महिलाओं का दृष्टिकोण

 


चैतन्य महिला समाख्या

(आंध्रप्रदेश में स्थित औरतों के संगठनों के एक फेडेरेशन के स्थापना सम्मेलन में गुंटूर, सितम्बर 24–25, 1995 को दिया गया उद्घाटन भाषण।)

–– रजनी एक्स देसाई

(आज जब भाजपा द्वारा दोबारा इस मुद्दे को हवा दी जा रही है तो इस आलेख की प्रासंगिकता बढ़ गयी है)

साथियो,

चूंकि आज हम लोग यहाँ आंध्र प्रदेश के महिला संगठनों का एक फेडरेशन बनाने के लिए एकत्र हुए हैं– यह समय आपको बधाई देने तथा आगे आने वाले वर्षों में औरतों के सामर्थ्य की सच्ची जनवादी ताकतों और आशावादी गतिविधियों के लिए शुभकामनाएँ देने का है। इस कार्य की सफलता और प्रगति इस बात पर निर्भर है कि तमाम बातों के साथ–साथ शासक वर्ग के प्रतिनिधियों, चाहे वे राजनीतिक पार्टियाँ हो, सामाजिक संगठन अथवा ऐजेन्सियाँ हों या धार्मिक व्यक्ति, उनके द्वारा उठाया जाने वाले महिलाओं के मुद्दों के तरीके के बारे में हम कितने सचेत रहते हैं। हमें इन लोगों के क्रिया–कलापों के बारे में सचेत रहने की जरूरत क्यों है? क्योंकि शासक वर्ग के रूप में हमारे ऊपर शासन करने के लिए– उन्हें शक्तिशाली जनवादी महिलाओं की ताकत को दबाना जरूरी है। ये दमन वे दो तरीकों से करते हैं– हमारे सम्मानजनक अस्तित्व के लिए हमारे संघर्ष को सीधे तौर पर अपने गुण्डों, पुलिस, न्यायालयों व जेलों द्वारा प्रत्यक्ष दमन करके। इसके अलावा वे हमेशा हमारे सामने झूठी उम्मीदों व आश्वासनों को रखकर हमें धर्म, जाति, क्षेत्र तथा लिंग के आधार पर बाँट कर हमारे संघर्ष को भटकाने की कोशिश करते हैं।

शासक वर्ग की कुटिल चालों का शिकार न बनने के लिए हमें इस मुद्दे को इसके वास्तविक भौतिक परिप्रेक्ष्य में देखना चाहिए और इसे एक व्यापक सामाजिक व राजनैतिक सम्बन्धों के हिस्से के रूप में देखना चाहिए न कि वैसे जैसे व्यवस्था–पोषक नारीवादी करते हैं। आज एक समान नागरिक–संहिता के मुद्दे पर हमारी राय इस बात का उदाहरण है कि हमारा दृष्टिकोण एकीकृत है कि नहीं।

शासक वर्गीय पार्टियाँ, मुख्य रूप से बीजेपी कई सालों बाद एक बार फिर समान (एकीकृत) नागरिक संहिता के सवाल को उठा रही है। वे हमें यह बताती हंै कि ऐसा वे औरतों के हितों के मद्देनजर कर रही हैं। भाजपा इसे चुनाव के लिए एक मुद्दा बनाने जा रही है।

यह मुद्दा एक बार फिर सुप्रीम कोर्ट के एक जज के विवादास्पद बयान के जरिये उठ खड़ा हुआ है। चूंकि कुछ हिन्दू पुरुष दूसरी शादी करने के लिए अपनी पहली पत्नी से तलाक लिए बगैर इस्लाम धर्म अपना लेते हैं, ताकि वे इस्लाम द्वारा दिये गये कुछ प्रावधानों का फायदा उठा सकें, इसलिए एक खास मामले में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया कि ऐसे पुरुषों को अपनी पहली शादी के मामले में निपटारा उसी कानून के अन्तर्गत करना होगा, जिसके तहत उनका पहले विवाह हुआ था। लेकिन यह कोई बखेड़ा करने वाला बिन्दु नहीं था। माननीय जज कुलदीप सिंह ने और आगे बढ़कर भारत के मुसलमानों के बारे में अशोभनीय तथा भड़काऊ बयान दिया। उनके अनुसार, “बँटवारे के बाद जिन लोगों ने भारत में ही रहने का निर्णय लिया था ये भली प्रकार जानते थे कि भारतीय नेता दो अथवा तीन राष्ट्रों के सिद्धान्त को नहीं मानते हैं। और भारतीय गणराज्य में केवल एक राष्ट्र होगा– भारतीय राष्ट्र और कोई भी समुदाय धार्मिक आधार पर एक अलग इकाई बनने की माँग नहीं करेगा– हिन्दुओं, सिखों, बौद्ध धर्म अनुयायियों और जैनियों ने राष्ट्रीय अखण्डता तथा एकता के लिए अपनी भावनाओं का परित्याग किया है, पर कुछ समुदायों ने ऐसा नहीं किया है–––”। (इसकी अनुगूंज 1985 में शाहबानों के केस में प्रतिध्वनित हुई, जिसमें चन्द्रचूड़ ने दावे के साथ कहा कि “एक आम नागरिक संहिता ही राष्ट्रीय अखण्डता के मामलों में मदद कर सकती है और ऐसा कानून के प्रति उन विभिन्न निष्ठाओं को खत्म करके किया जा सकता है, जिनकी विचारधाराएँ विरोधाभासी हैं।”)

यह पुन: याद करने की बात है कि महिलाओं के अधिकारों को सीमित करने के लिए इस्लामिक कानूनों के चन्द प्रावधानों का कुछ हिन्दू पुरुषों लोगों द्वारा गलत तरीके से इस्तेमाल किया गया। इस सवाल को पूरी तरह दरकिनार करते हुए, कुलदीप सिंह ने हिन्दुओं की बहुविवाह प्रवृत्ति के लिए मुसलमानों को ही जिम्मेदार ठहराया है, और आगे यह कहा कि मुसलमान इस देश के प्रति वफादार नहीं है और उन्होंने यह सुझाव दिया कि गैर वफादारी तथा अलगाववादी सोच को दूर करने के लिए एक आम नागरिक संहिता की आवश्यकता है। (प्रसंगवश इस जज द्वारा दिया गया बयान इस प्रकार गलत है कि हिन्दुओं, बौद्धों, जैनों तथा सिखों ने ‘राष्ट्रीय एकता व अखण्डता’ के हित में अपने व्यक्तिगत कानून त्याग दिए हैं, इसके बजाय वास्तविक तथ्य यह है कि ये समुदाय अभी भी प्रतिक्रियावादी प्रावधानों वाले एक अलग व्यक्तिगत कानून के अन्तर्गत आते हैं। इस प्रकार महिलाओं के अधिकारों को दरकिनार कर इस मुद्दे को साम्प्रदायिक रूप दे दिया गया। यही वह बिन्दु था, जिस पर जज ने एक समान नागरिक संहिता(यूसीसी) पर अपनी रिपोर्ट देने के माध्यम से इस विषय पर सरकार को सलाह दी।

इसके बाद, भाजपा, संघ परिवार तथा उसके चापलूसों ने उसी तरह से अपने साम्प्रदायिक मंसूबे को और आगे बढ़ाते हुए लाठी भाँजना शुरू कर दिया। यहाँ पर समान नागरिक संहिता की जरूरत को मुस्लिम कानून के पिछड़ेपन की रोशनी में प्रस्तुत किया  गया है। लेकिन इस प्रक्रिया में इस तथ्य की अनदेखी कर दी जाती है कि पिछड़ेपन के तमाम लक्षण हिन्दुओं के पर्सनल लॉ में भी मौजूद हैं। उदाहरण  के लिए ‘हिन्दू एडाप्शन एण्ड मेंटेनन्स एक्ट 1956’ के तहत एक औरत अपनी और अपने पति की संयुक्त आय में से ज्यादा से ज्यादा एक तिहाई हिस्से का दावा ही कर सकती है। धारा 125 के तहत जो कि अधिकांश औरतों द्वारा भरण–पोषण के संघर्ष हेतु इस्तेमाल किया जाता है– उसमें औरत को दी जाने वाली अधिकतम राशि मात्र 500 रुपये तय है। कोई भी हिन्दू औरत संयुक्त परिवार की मुखिया नहीं हो सकती है और न ही पैतृक सम्पत्ति की उत्तराधिकारी बन सकती है।

हिन्दू उत्तराधिकार कानून, हिन्दू पत्नियों और बेटियों को पारिवारिक उत्तराधिकार से पूर्णत: वंचित करता है, जबकि इसके विपरीत, मुस्लिम कानून के तहत एक मुसलमान पति अपनी सम्पत्ति के एक तिहाई हिस्से को पत्नी तथा बेटी के नाम पर करता है तथा शेष भाग को कानूनी ढंग से इस्तेमाल करता है। लता मित्तल एक ऐसी चर्चित व्यक्तित्व हैं, जो हिन्दू परिवारों में हिन्दू औरत के हक के लिए लड़ीं, आज बदहाल स्थिति में किसी आश्रम में अपना जीवन बिता रही हैं।

हिन्दू पर्सनल लॉ की इन विशेषताओं के इतर अल्पसंख्यक समुदायों के लिए और भी बड़े कारण हैं कि ये समान नागरिक संहिता का विरोध करें। अल्पसंख्यक समुदायों पर एक संहिता लादने का भाजपा का हठ वास्तव में इनके प्रति नफरत से ही प्रेरित हैं।

अल्पसंख्यक समुदाय इसे एक और नजरिये से देखते हैं, जिसके जरिये बहुसंख्यक साम्प्रदायिक ताकतें उनके विरुद्ध हिंसा और अपमान का माहौल बनाना चाहती हैं। यह सब कुछ नि:सन्देह राष्ट्रीय एकीकरण के नाम पर हो रहा है। बाबरी मस्जिद को भी यही कारण देकर ध्वस्त किया गया था। हालिया वर्षाे में हिन्दू कट्टरपंथियों ने ही मुस्लिम महिलाओं पर गम्भीर अत्याचार किये हैं। इसलिए यह स्वाभाविक ही है कि हिन्दुत्ववादियों के अचानक उमड़े इस ‘लगाव’ को मुसलमान जनता संदेह की नजर से देखती है। मुस्लिम समुदायों की मुस्लिम महिलाओं की दुर्दशा के प्रति जायज परेशानी का चतुरतापूर्ण इस्तेमाल करके कट्टरपंथी मुस्लिम ताकतें तथा कांग्रेस जैसी शासक वर्ग की पार्टियाँ इस समुदाय के पर्सनल लॉ में कोई भी सुधार किये जाने का विरोध करती हैं। इस प्रकार से हिन्दुत्ववादी यह कटाक्ष करने से बाज नहीं आते जो कहते हैं, “देखो कैसे हैं ये मुसलमान”।

वास्तव में वर्तमान में लागू सभी पर्सनल लॉ पिछड़े तथा महिला–विरोधी हैं। समस्या यह नहीं है कि प्रत्येक समुदाय का अपना अलग पर्सनल लॉ है। जोर इस बात पर होना चाहिए कि सामाजिक प्रगति के हित में तथा महिलाओं के अधिकारों के मद्देनजर पिछड़ेपन को उखाड़ फेंकने पर जोर देना जरूरी है।

पर्सनल लॉ शादी, तलाक, बच्चों के संरक्षण, गोद लेने और उत्तराधिकार की परिस्थितियों में कानून तय करता है। हमारी समझ से पर्सनल लॉ यह निर्धारित करता है कि किसी परिवार के बदलते हालात के विभिन्न मोड़ों पर परिवार के भीतर ही सम्पत्ति का बँटवारा कैसे होगा। कहने की जरूरत नहीं कि यह समाज का एक चरित्र है (जो अपने वर्गीय बनावट तथा अपने शोषणकारी तरीकों के कारण) और इसलिए राज्य का चरित्र है (जो अपने अन्तिम विश्लेषण में कानूनी तथा दमनकारी मशीनरी से वर्गों व सामाजिक संरचना को सुनिश्चित करता है) में  इस पर्सनल लॉ की निगरानी करने की गांरटी देता है।

इस प्रकार पर्सनल लॉ परिवार, निजी सम्पत्ति तथा राज्य की विशिष्ट व्यवस्था के ढाँचे के भीतर काम करता है। कहने का मतलब यह है कि ऐसी प्रतिक्रियावादी राजसत्ता किसी भी प्रकार के प्रगतिशील पर्सनल लॉ की गारण्टी नहीं कर सकती है। राज्य महज इतना कर सकता है कि वह विभिन्न समुदायों के बीच उनके पर्सनल लॉ के जरिए फूट डाल दे। अंग्रेजों ने ऐसा ही किया था–– उन्होंने उन्नीसवीं सदी के बाद कानून और व्यवस्था तथा परिवार के बाहर निबटाये जाने वाले सम्पत्तिगत मसलों पर एक सामान्य नागरिक संहिता लागू कर दी। परन्तु उन्होंने पर्सनल लॉ का अधिकांश हिस्सा धार्मिक समुदायों के लिए रखा–– यानि अलग–अलग सामन्तवादी धार्मिक संस्थाओं के जिम्मे छोड़ दिया। इस प्रकार अंग्रेजों ने इन समुदायों को और अधिक पिछड़ा और छिन्न–भिन्न कर दिया, जिनमें धर्म निरपेक्षता विरोधी शक्तियों का भी संकीर्णता भरा हस्तक्षेप होता है। इस प्रकार पिछड़े व बिखराव के शिकार पर्सनल लॉ एक जनवादी विकल्प न होकर औपनिवेशिक राज्य नीति का एक सचेत तत्व है। साम्प्रदायिकता आज की शासक वर्गीय नीति तथा इसी प्रकार राज्य की नीति बन गयी।

स्वाभाविक रूप से, हम महिलाओं को जो कि कामगार आबादी का आधा हिस्सा बनती हैं, एक सच्चे अर्थों में प्रगतिशील, समान रूप से विकसित तथा जनवादी तरीके से स्थापित नागरिक संहिता की आवश्यकता है, जो सभी प्रतिक्रियावादी परम्पराओं को समूल नष्ट करके महिलाओं को पुरुषों के समक्ष बराबरी से खड़ा कर सके।

लेकिन हमारी इस आकांक्षा का तब तक कोई महत्व नहीं है, जब तक कि पुरुषों की बहुसंख्यक आबादी को वास्तविक अर्थों में आर्थिक व भौतिक अधिकार न मिल जाये। ऐसे पुरुष की बराबरी का मायने क्या हो सकता है जब खुद ही पुरुष भूखे, बेरोजगार और जीवन की किसी भी सुरक्षा से वंचित हैं और यहाँ तक कि उन्हें जघन्य साम्प्रदायिक–नरसंहार का शिकार बनाया जाता है।

ऐसे में यदि ऐसी कोई संहिता संविधान के ऊपर कृत्रिम ढंग से थोप भी दी जाये तो उसका हमारी जिन्दगियों पर बेहद मामूली प्रभाव पड़ेगा। आज अदालतें आश्चर्यजनक रूप से महँगी हैं, अफसरशाही के पीठ पर सवार हैं तथा समय खपाने वाली हो गयी हैं। जज खुद पुरुष–प्रधान मानसिकता के शिकार हैं और बाकी सारी संस्थाएँ खुद में प्रतिक्रियावादी हैं, फिर ऐसे में यदि कुछ महिलाएँ जो आदर्श कानूनी दाँव–पेंचों से परिचित हो भी जायें (जैसी कि वे अभी नहीं हैं) तो भी उनमें से अधिकांश महिलाएँ अदालतों तक नहीं पहुँच पायेंगी (जैसा कि वे आज भी हैं)। कानून को कौन लागू करेगा? ये अफसरशाही या फिर ये कानूनी मशीनरी?

हमें परिकल्पनाओं की जरूरत नहीं है। तथ्य यह बताते हैं कि यहाँ तक कानून कि मौजूदा ‘प्रगतिशील’ विशेषताएँ लागू नहीं हो पाती हैं, जब कोई ताकतवर प्रतिक्रियावादी सामाजिक संस्था ऐसा चाहती है। भारत के मानवीय (नृ–विज्ञान) सर्वेक्षण विभाग ने एक बार फिर इस बात को सही ठहराया है, जिसे पिछली जनगणना के आँकड़ों ने चिन्हित किया था–– हिन्दू पुरुषों में बहुविवाह की प्रवृत्ति मुसलमानों से अपेक्षाकृत अधिक है। विधवा पुनर्विवाह को 1856 में कानूनी रूप दिया गया, विशिष्ट विवाह अधिनियम को अन्तर सामुदायिक, अन्तरजातीय विवाह करने की मंजूरी देने के लिए 1872 में स्वीकृति मिली और कन्या भ्रूण हत्या को 1870 में अपराध का दर्जा मिला। इसके बावजूद विधवा पुनर्विवाह और अन्तरजातीय शादियाँ भारत के अधिकांश भागों में बहुत ही कम प्रचलन में हैं तथा कन्या भ्रूण हत्या तो एक बड़े पैमाने पर मौजूद है।



सामाजिक आचार संहिता के प्रगतिशील मानदण्डों को कौन लागू कर सकता है?

यह हमें तीसरे बिन्दु पर ले आता है। हम सामाजिक रिवाजों के उत्तरोत्तर प्रगतिशील मानदण्डों को तब तक लागू नहीं कर सकते, चाहे संविधान कुछ भी कहता हो? जब तक हमारे अपने जन–संगठन और खास तौर पर मेहनतकश औरतों के संगठन, हमारे अपने सामूहिक प्राधिकार का जरिया न बन जाएँ, जैसा कि हम जानते हैं, यह केवल वर्ग संघर्ष के जरिये ही हो सकता है। और वास्तव में आम जनता के कई बड़े आन्दोलन हमें यह सिखाते हैं कि कैसे ऐसा सामूहिक प्राधिकार व्यवहार में स्थापित हो सकता है। सच्चाई यह है कि धर्म निरपेक्ष संघर्षाे की सफलता के लिए औरतों का सामाजिक रूप से स्वतन्त्र होना जरूरी है। और औरतों की यह स्वतन्त्रता तथा समानता केवल तभी उत्तोरोत्तर सुनिश्चित हो सकती है जब संगठित संघर्ष के जरिये हमारे जन संगठनों को ऐसा सामूहिक प्राधिकार हासिल हो।

नि:संदेह, सामाजिक रिवाजों के प्रगतिशील मानदण्डों को समग्रता में संस्थाबद्ध करने के लिए जनता की राज्य सत्ता स्थापित होने तक इन्तजार करना पड़ सकता है क्योंकि वही जनता के सामूहिक अधिकार का सर्वाेच्च रूप होगा। लेकिन ऐसे मानदण्डों का विकास और व्यवहार अभी से शुरू करना होगा, क्योंकि हम भी अपने संगठित संघर्ष के दौरान यह सीखते हैं कि महिलाओं को संघर्ष में समान हैसियत पाने के लिए किन तरीकों से स्वतन्त्र करना जरूरी होता है। हमें यह सीखना होगा कि महिलाओं के भीतर आत्म सम्मान की भावना पैदा करने के लिए कौन से व्यवहार लागू करने पड़ेंगे। यह भी सीखना होगा कि उनके भीतर रचनात्मकता तथा जुझारू क्षमता को कैसे बंधनमुक्त किया जायेय यह भी सीखना जरूरी है कि महिलाओं व पुरुषों के भीतर अपने जन–संगठनों के लिए सुनियोजित सुसंगठित प्राधिकार किस प्रकार प्राप्त किया जा सकता है। यह एक ऐसे प्रगतिशील मानदण्डों का समुच्चय होगा, जिसमें लगातार समीक्षा और सुधार की दरकार होगी, हालाँकि यह किसी खास समाज में जनता के जन संगठनों के पहुँचने की सीमा से तय होगा।

दूसरे शब्दों में, यह प्राधिकार नौकरशाही ढंग से थोपा गया न होकर कार्यशील जनवादी जनसंगठनों का प्राधिकार होगा, जो ऐसी आचार प्रणाली को जनवादी ढंग से स्थापित करेंगे। चूँकि हमारे जनसंगठनों का लक्ष्य अपनी अन्तर्वस्तु में धर्मनिरपेक्ष है, इसलिए बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक दोनों के ही द्वारा एक आम सहमति वाले नियमों के समूह की आचार संहिता को लागू किया जायेगा जो वस्तुगत रूप से महिलाओं को स्वतन्त्र करेंगे। इस प्रकार किसी एक समुदाय द्वारा दूसरे पर मनोगत रूप से अपने नियमों को थोपने की समस्या का हल हो जायेगा।

हमारे देश के विभिन्न समुदायों के बीच के सम्बन्धों का सवाल तथा महिलाओं के अधिकारों का सवाल दोनों ही जनवादी सवाल हैं। इन सवालों को जनवादी आन्दोलनों (जिसमें महिलाओं का आन्दोलन भी शामिल होगा) द्वारा बहसों तथा साझा संघर्षाे द्वारा हल किया जा सकता है। प्रतिक्रियावादी और उलझाव भरे विचारों वाली वर्गीय पार्टियाँ, जो शोषण को जारी रखना चाहती हैं, इस कार्यभार को सकारात्मक ढंग से छू भी नहीं सकती हैं।

   महिला पक्षधर ताकत होने के नाते हमारे नारे इस प्रकार होने चाहिए––

हिन्दू कट्टरपंथियों द्वारा प्रायोजित समान आचार संहिता का पुरजोर विरोध करो।

महिलाओं के अधिकारों (पर्सनल लॉ समेत) को विस्तारित करने के लिए महिलाओं के संघर्षों का सहयोग करो।

महिला संगठनों समेत आम जनता के संगठन बनाओ, जो एक सामूहिक प्रतिनिधित्व का केन्द्र हो और जिनके जरिये सभी समुदायों की मेहनतकश महिलाएँ अपने अधिकारों को हासिल कर उनकी हिफाजत कर सकें।

भारतीय समाज के न्याय और समता पर आधारित पुनर्निर्माण के हिस्से के तौर पर महिलाओं की चैतरफा बराबरी की हैसियत को स्थापित करने के लिए सभी समुदायों के आम मेहनतकश पुरुषों के साथ एकता–संघर्ष–एकता के तौर तरीके को अपनाओ।

साथियो, मैं आपके निमंत्रण का धन्यवाद अदा करना चाहती हूँ। मैं उम्मीद करती हूँ कि भारतीय समाज के समतामूलक पुनर्निमाण के इस महान कार्यभार को पूरा करने के लिए नये रास्ते की तलाश में महिलाओं की यह जनवादी शक्ति अपना पूरा जोर लगा कर संघर्ष करेगी।

अनुवाद : जया पाण्डे

Wednesday, December 6, 2023

मेरा देश नग्नता का आदी है...

 

मेरा देश नग्नता का आदी है
सुना है,
यहाँ जुए में भेंट चढ़ी द्रौपदी को नग्न कर
वहशी सत्ता हँसते–हँसते लोट–पोट हो गयी थी
 
इतिहास गवाह है
यहाँ जमीन के टुकड़े से लेकर
जागीर लूटने तक का जश्न
औरतों की अस्मिता को लूटकर मनाया जाता रहा है
 
यहाँ शरीर से लेकर
सम्पत्ति की ताकतों का प्रदर्शन करने के लिए
परिवार की इज्जत धूमिल करने के लिए
भाई की नाक काटने
और पिता की पगड़ी उछालने के लिए
केवल स्त्री ही नहीं
बल्कि पुरुषों का अहंकार तोड़ने के लिए भी
मात्र स्त्री की आबरू उतार फेंकना
पर्याप्त माना गया है
 
यहाँ बड़े–बड़े युद्धों की शुरुआत
और उनकी समाप्ति
औरतों को निर्वस्त्र कर
उनकी नंगी लाश को नोंचकर होती रही है
 
यहाँ जंगल बचाने निकलीं
आदिवासी और पहाड़ी औरतें
लूट की संस्कृति द्वारा इस कदर नग्न की गयी
कि कभी वापिस नहीं लौट सकीं
 
यहाँ पत्थरों को
कपड़ों और आभूषणों से सजाया गया
और जिन्दा इनसानों को
डराने–धमकाने
दबाने–झुकाने
और खामोश करने के लिए
समय–समय पर नंगा दौड़ाने की बात होती रही है
 
इस देश में सदियों से नजरें और नीयत
लूट और वहशियत की गिरफ्त में रही हैं
इसलिए यह देश अब नंगेपन का आदी हो चुका है
 
लेकिन इतनी सारी नग्नताओं के बावजूद भी
इस देश को नागवार हैं,
नंगी तलवार–सी वे औरतें
जो चैराहे पर खड़ी होकर दहाड़ रही हैं
जो डरपोक और दब्बू नहीं हैं।
मेघा, रामनगर

असंगठित क्षेत्र में मजदूर महिलाएँ

 


संगठित और असंगठित क्षेत्र में रोजगार की स्थिति अलग–अलग है। संगठित क्षेत्र में कामगार मजदूरों को रोजगार की सुरक्षा, स्वास्थ्य सुविधा, अवकाश, पेंशन, भत्ते, काम के निश्चित घण्टे और अन्य सुविधाएँ दिए जाने के प्रावधान हैं। वहीं अगर असंगठित क्षेत्र की बात करें तो यहाँ मजदूर इस प्रकार के प्रावधान से पूरी तरह वंचित हैं। असंगठित क्षेत्र में अलग–अलग श्रेणी के मजदूर आते हैं, जैसे–– सड़कों पर सफाई करने वाले, बीड़ी बनाने वाले, घरों में काम,–– जैसे बर्तन धोना, खाना बनाना, घरों या फैक्ट्रियों में सिलाई–कढ़ाइ–बुनाई करने वाले, निर्माण कार्य में ईंट पकड़ाने वालेईंट–भट्ठों पर मजदूरी करने वाले, घरों में पैकिंग का काम करने वाले, ठेका मजदूर, ठेले वाले या फेरीवाले इत्यादि।

अब अगर असंगठित क्षेत्र में मजदूर महिलाओं की स्थिति पर अध्ययन किया जाये तो भारत में कुल कामगारों का 31 फीसदी महिलाएँ हैं जिनमें से 94 प्रतिशत महिलाएँ असंगठित क्षेत्र में काम करती हैं। ये महिलाएँ अनेक प्रकार की समस्याओं, असुविधाओं व असुरक्षा का सामना करती हैं और कार्यस्थल पर प्रतिदिन शोषण और उत्पीड़न का शिकार होती हैं।

कार्यस्थल पर असुरक्षा

अक्सर असंगठित क्षेत्र की महिलाएँ अपने कार्यस्थल पर खुद को असुरक्षित महसूस करती हैं, क्योंकि जहाँ वे काम करती हैं वहाँ के पुरुष कर्मचारियों और मालिकों का बर्ताव उनके प्रति बहुत खराब रहता है।

हाल ही में गुड़गाँव में एक महिला जो कि आवासीय अपार्टमेंट में घरेलू कामगार हैं, उन्होंने बताया कि सुरक्षा गार्ड ने उनके साथ बलात्कार किया। वह प्रतिदिन अपने कार्यस्थल पर आते–जाते भद्दी टिप्पणियों का शिकार होती थी। उन्होंने कहा कि हम महिलाएँ अपनी गरीबी और कलंक के डर से अपने साथ हो रहे उत्पीड़न को सहती हैं और कभी अपने साथ हो रहे अपराधों के बारे में किसी को नहीं बतातीं। ‘वुमन राइट्स’, ‘मी–टू’ जैसे आन्दोलन का हमारी जैसी महिलाओं के लिए कोई मतलब नहीं है। न जाने महिलाओं को घर से कार्यस्थल तक जाने वाले रास्ते में कितनी प्रकार की छेड़छाड़ का शिकार होना पड़ता है। इस तरह की घटनाएँ महिलाओं की सुरक्षा को लेकर लगातार सरकार की असफलता को दर्शाती हैं।

कामकाजी महिलाओं को हो रही असुविधा और स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याएँ

महिलाएँ अक्सर अपने कार्यस्थल पर अनेक प्रकार की असुविधाओं का सामना करती हैं। कार्यस्थल पर शौचालय की कमी के कारण महिलाओं को इधर–उधर भटकना पड़ता है या फिर अधिकतर उन्हें गंदा शौचालय इस्तेमाल करना पड़ता है, जिसके कारण उन्हें यूटीआई (यूरिनरी ट्रैक इनफेक्शन) जैसी बीमारी होने लगती है। इससे भी बदतर हालत उन महिला श्रमिकों की है जो निर्माण कार्यों में ईटें, रेत, मिट्टी पकड़ाने का काम करती हैं। ये महिलाएँ अपने कार्यस्थल पर शौचालय की कमी के कारण ज्यादा समय तक अपने आप को पेशाब करने से रोके रखती हैं, जिसके कारण उन्हें ब्लैडर में स्ट्रैचिंग और किडनी में स्टोन जैसी बीमारियों का सामना करना पड़ता है। भारत में लगभग 70 लाख से अधिक श्रमिक बीड़ी बनाने का काम करते हैं। इनमें से ज्यादातर महिलाएँ हैं। 96 प्रतिशत महिलाएँ घरों में बीड़ी बनाने का काम करती हैं और 4 प्रतिशत महिलाएँ कारखानों में। बीड़ी बनाने वाले मजदूर मुश्किल से प्रति 500 बीड़ी का 20 रुपये पाते हैं। इस काम की वजह से उन्हें सांस लेने में तकलीफ, जोड़ों में दर्द जैसी स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याएँ हो जाती हैं। वहीं दूसरी तरफ जो महिलाएँ सिलाई, कढ़ाई, बुनाई का काम करती हैं, उन्हें कार्य करने के लिए पर्याप्त रोशनी न मिलने की वजह से आँखों में समस्याएँ होने लगती है और बहुत कम उम्र में ही उनकी आँखों की रोशनी धीमी पड़ जाती है।

हाल ही में महाराष्ट्र के बीड जिले में 3 सालों में लगभग 4605 महिलाओं के गर्भाशय निकाले गये। इस घटना का विस्तार से अध्ययन करने पर पता चला कि बीड जिले में गन्ना मजदूरी जैसे अन्य काम करने वाली महिला मजदूरों को उनकी शारीरिक जाँच के बहाने ले जाया गया और उनकी जानकारी के बिना उनके गर्भाशय निकाल दिये गये, क्योंकि महिलाओं को माहवारी के समय काम करने में समस्या होती है और ऐसे में मालिकों के काम और मुनाफे में कमी आती है। इसके बाद उन महिलाओं को दूसरी स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याएँ होने लगी।

मातृत्व सुविधा और अन्य अवकाश

संगठित क्षेत्र में काम करने वाली महिलाओं को गर्भावस्था के समय से लेकर बच्चे को कुछ समय तक पालने के लिए मातृत्व अवकाश देने का प्रावधान है। मातृत्व अवकाश में महिलाओं को भुगतान सहित अवकाश लेने की सुविधा होती है जिसमें वे बच्चे को जन्म दे सकें और बच्चे की देखभाल कर सकें। वहीं असंगठित क्षेत्र की महिलाएँ जो अलग–अलग तरह का काम करती हैं, उन्हें मातृत्व अवकाश के विषय में कोई जानकारी नहीं होती है और गर्भावस्था के आठवें, नौवें महीने तक वह लगातार काम करती हैं। कभी–कभी तो वह कार्यस्थल पर ही बच्चे को जन्म तक दे देती हैं, उसके कुछ दिन के बाद वह अपने बच्चे को भी साथ लेकर मजदूरी करने के लिए अपने कार्यस्थल की ओर चल पड़ती हैं।

जब देश भर में त्योहारों पर अवकाश मिल रहा होता है तब भी असंगठित क्षेत्र की महिलाओं कोई अवकाश नहीं मिलता। जो महिलाएँ घरों में साफ–सफाई का काम करती हैं, उन महिलाओं के लिए त्योहारों के समय और भी ज्यादा काम बढ़ जाता है। इन महिलाओं के लिए न ही कोई अवकाश निश्चित है और न ही काम के घण्टे। 

लैंगिकता के आधार पर वेतन में असमानता

असंगठित क्षेत्र के वे कार्य जहाँ महिला पुरुष दोनों समान प्रकार के कार्य करते हैं वहाँ भी महिला व पुरुष के वेतन में भारी असमानता देखने को मिलती है। इसका एक उदाहरण है–– मेरठ की एक पैकिंग फैक्ट्री। वहाँ महिला व पुरुष लगभग समान प्रकार का पैकिंग कार्य करते हैं पर अगर वेतन की बात की जाये तो वहाँ पर पुरुषों का वेतन 10000 रुपये प्रति माह है और उसी काम को महिलाएँ 7000 रुपये प्रतिमाह वेतन पर या इससे भी कम में काम करती हैं। एक महिला जो सुबह ऑफिस की सफाई करती है उसके बाद पैकिंग के कार्य में लग जाती है, दोपहर में चाय बनाकर रसोई की सफाई और बर्तन धोने के बाद फिर से पैकिंग के कार्य में लग जाती है, उसका वेतन 6000 रुपये है। जब उस महिला ने वेतन बढ़ाने की बात की तो उसके कामों में कमी निकाल कर उसे नौकरी से निकाल दिया गया। वेतन बढ़ाने की बात पर नौकरी से निकाल दिया जाना आम बात है और उतने ही वेतन में दूसरी महिला को काम पर बुला लिया जाता है।

नौकरी मिलने में कठिनाइयाँ

अक्सर देखा जाता है कि जो महिलाएँ कम पढ़ी–लिखी हैं या जो शादीशुदा हैं, उनके लिए नौकरी पाना बहुत मुश्किल होता है, क्योंकि मालिकों को अपने कार्यस्थल पर पढ़ी–लिखी और ऐसी लड़कियाँ चाहिए जिनकी शादी नहीं हुई या उनकी शादी जल्दी न होने वाली हो। कारण जो महिलाएँ शादीशुदा हैं उनपर जिम्मेदारियाँ होंगी, उनके बच्चे होंगे, जिसके चलते वह थोड़ा बहुत लेट आ–जा सकती हैं, बच्चों के लिए वह कभी–कभी अवकाश ले सकती हैं जिसके कारण मालिकों के काम में कमी आएगी। और अक्सर महिलाओं के पास शिक्षा की कमी के कारण, नौकरी के लिए निकली भर्तियों की जानकारी पहुँच ही नहीं पाती है।



महिलाओं की तिहरी पाली की नौकरियाँ

एक महिला जो गृहणी होने के साथ–साथ कामकाजी महिला भी है, उसकी नौकरी को तीन पालियों में बाँटा जा सकता है। पहली पाली में वह सुबह जल्दी उठकर घर की साफ–सफाई से लेकर खाना बनाने, बच्चों को तैयार कर स्कूल भेजने, बुजुर्गों की दवाई व उनकी देखभाल करने की जिम्मेदारी निभाती है। दूसरी पाली में चल पड़ती है वह अपनी नौकरी पर जहाँ वह हाड़तोड़ मेहनत के बावजूद मालिकों का बुरा बर्ताव व शोषण–उत्पीड़न की शिकार होती है। शाम होने पर घर लौटती है। वहाँ से शुरू होती है उसकी तीसरी पाली, जिसमें वह शाम का खाना बनाने से लेकर घर के अन्य काम करती है। इसके बाद पूरा दिन थके होने के बावजूद भी उसे अपने पति के साथ हमबिस्तर होना पड़ता है। उस महिला को होने वाली समस्याओं का अनुमान लगाना भी मुश्किल है।

हमें मिलकर सोचना है कि इन समस्याओं से निजात हमें कैसे मिलेगा? 

–– आशा