भारतीय समाज में जहाँ पुरुषों को हर एक
क्षेत्र में निर्णय लेने का विशेष अधिकार है वहीं महिलाओं की निर्णय लेने में
भागीदारी धर्म और शासन सहित विभिन्न स्तरों पर बाधित है। इसी बात को ध्यान में
रखते हुए ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी से पीएचडी कर रही दिवा धर ने भारत के नौकरी पेशा
वर्ग की महिलाओं की भागीदारी पर अ/ययन किया और चैंकाने वाला मामला सामने आया। दिवा
धर ने मेट्रीमोनियल वेबसाइट पर 20 फर्जी प्रोफाइल बनायीं और उनमें नौकरी
को छोड़कर सभी बातें एक समान थीं। नौकरी के बारे में बस इतना फर्क किया कि नौकरी
करना चाहती है या नहीं, और वह कितना कमाती है। इन तथ्यों को अलग–अलग रखा, उसके
बाद प्रोफाइल पर आये सैंपल को अलग करके दिवा ने पाया कि जो लड़कियाँ नौकरी नहीं
करना चाहतीं उन्हें शादी के लिए सबसे ज्यादा पसन्द किया गया। दूसरे नम्बर पर उन
लड़कियों को पसन्द किया गया जो शादी के बाद नौकरी छोड़ने को तैयार थीं और तीसरे
नम्बर पर उन लड़कियों को, जो शादी के बाद भी नौकरी करना चाहती
थीं। पहले दो प्रोफाइलों को पसन्द करने का कारण यह था कि वे लड़कियाँ नौकरी छोड़कर
घर–परिवार सम्भालने के लिए तैयार थीं। नौकरी वाली लड़कियों में, जिनकी
तनख्वाह ज्यादा थी उनको कम तनख्वाह वाली लड़कियों की तुलना में ज्यादा पसन्द किया
गया। पर लड़कों से ज्यादा तनख्वाह वाली लड़कियों को कम पसन्द किया गया। यहाँ तक कि
जिन लड़कियों की तनख्वाह लड़कों से कम थी उनको 15 प्रतिशत ज्यादा
पसन्द किया गया।
महिलाओं की स्थिति को देखें तो यह पता
चलता है कि महिलाओं को अभी भी अपने हितों को व्यक्त करने और आकार देने में कई
बाधाओं का सामना करना पड़ता है। हमारे समाज की मानसिकता है कि अगर घर की
बहू–बेटियाँ नौकरी करने लग जायेंगी तो हाथ से निकल जायेंगी, अपनी मनमर्जी
करने लगेंगी। कुछ महिलाएँ भी इन बन्दिशों को अपने पति–बाप–भाई का प्यार मानकर
स्वीकार कर लेती हैं। ऐसे घरों में मर्द अपना सीना चैड़ा करके कहते हैं कि मेरे घर
की बहू–बेटियाँ बाहर नहीं निकलतीं, नौकरी नहीं करतीं। ऐसे घरों में बस एक
पढ़ी–लिखी समझदार नौकरानी की जरूरत होती है जो बच्चा पैदा कर सके और घर सम्भाल सके,
जिसकी
न कोई अपनी पसन्द हो, न कोई अपनी मर्जी। बस सुबह से शाम तक घर का काम करे और घरवालों की
सेवा करती रहे।
1995 में बीजिंग में
आयोजित महिलाओं के चैथे विश्व सम्मेलन ने निर्णय लेने में पुरुष और महिलाओं के बीच
जारी असमानता की ओर ध्यान आकर्षित किया। इसके अनुसार महिलाओं को समान भागीदारी का
अधिकार है। एक बार नेतृत्व की भूमिका में आने के बाद महिलाएँ समाज में ऐसे बदलाव
ला सकती हैं जिससे पूरे समाज को लाभ होगा लेकिन परम्पराओं और धार्मिक मान्यताओं के
चलते राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक मामलों पर पुरुष अपना एकाधिकार समझते चले आ रहे
हैं। महिलाएँ जब तक पूरी तरह से आर्थिक स्वतन्त्रता प्राप्त नहीं कर लेतीं तब तक
वे पुरुषों द्वारा लिया गया हर एक निर्णय मानने को मजबूर हैं। जो महिलाएँ नौकरी कर
रही हैं और आर्थिक रूप से समृद्ध हैं, वे भी अभी मानसिक तौर पर स्वतन्त्र
नहीं हैं और इसी कारण अपना निर्णय नहीं ले पाती हैं। अपना कमाया हुआ धन कहाँ खर्च
करेंगी, इसके लिए भी वे पुरुषों पर निर्भर रहती हैं। इन महिलाओं को नौकरी
करने की आजादी तो है लेकिन कौन–सी नौकरी करनी है और कहाँ करनी है यह निर्णय लेने
तक का अधिकार भी बहुत–सी महिलाओं को प्राप्त नहीं हो पाया है।
राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण–4
(एनएफएचएस–4)
के
अनुसार नकद कमाई करने वाली 85 प्रतिशत विवाहित महिलाओं का कहना है
कि वह अकेले या अपने पति के साथ संयुक्त रूप से निर्णय लेती हैं कि उनकी कमाई का
उपयोग कैसे किया जाये? महिलाओं
द्वारा अपने पति के साथ संयुक्त रूप से निर्णय लेना सबसे आम बात है। इनमें से भी
केवल 18 प्रतिशत महिलाओं का कहना है कि वे अपना फैसला खुद लेती हैं और 14
प्रतिशत महिलाओं के पति ही कमाई के उपयोग के सम्बन्ध में निर्णय लेते हैं।
भारतीय समाज में महिलाओं को कमतर माना
जाता है और उन्हें यह एहसास दिलाया जाता है कि वे किसी भी मामले में अपनी राय नहीं
दे सकतीं या बेहतर निर्णय नहीं ले सकती हैं।
दूसरी तरफ महिलाओं ने राजनीतिक क्षेत्र
में धीमी प्रगति की है और धीमी गति से अब वे सक्रिय रूप से भाग ले रही हैं।
महिलाओं के मुद्दों को थोड़ा ही सही, पर उठा रही हैं और लिंग–भेद को समाप्त
करने की ओर आगे बढ़ रही हैं। इसी बात का जीता जागता उदाहरण है राजस्थान की महिला
पंचायत की मुखिया सुमन। जब वह किसी काम से गाँव के स्कूल गयीं तो देखा कि स्कूल
में मूलभूत सुविधाओं का अभाव था। स्कूल में शौचालय की सुविधा भी उपलब्ध नहीं थी,
जिसके
कारण लड़कियाँ स्कूल नहीं आती थीं। सुमन को पंचायत का मुखिया चुने जाने के बाद
महिलाओं के मुद्दों को अहमियत दी गयी और सबसे पहले स्कूल में शौचालय की सुविधा
उपलब्ध करवायी गयी। गाँव का स्कूल आठवीं तक था जिसके कारण लड़कियों की पढ़ाई आठवीं
के बाद नहीं हो पाती थी। उन्होंने स्कूल को भी 12वीं तक करवाया।
महिला पंचायत ने गाँव में सार्वजनिक पुस्तकालय भी खुलवाये, ताकि सिर्फ गाँव
की ही नहीं, आस–पास की लड़कियाँ भी शिक्षा के प्रति जागरूक हो सकें।
किसी न्याय प्रक्रिया में भी अगर पुरुष
और महिला दोनों साथ मिलकर निर्णय लेते हैं तो ज्यादा बेहतर तरीके से निर्णय लिया
जा सकता है।
जब तक महिलाएँ पुरुषों पर आर्थिक रूप
से निर्भर होंगी तब तक वह अपनी जिन्दगी के किसी भी मामले में निर्णय नहीं ले सकतीं।
हमें अपनी जिन्दगी में क्या करना है, कैसे जिन्दगी जीनी है–– यह निर्णय लेने
के लिए आर्थिक रूप से आजाद होना पड़ेगा नहीं तो हम अपनी पूरी जिन्दगी दोयम दर्जे
में जीने के लिए ही मजबूर होंगे।
–– शाहीन
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